"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


26 September 2010

Why religious places, why not education - धार्मिक जगह क्यों, शिक्षा क्यों नहीं

भारत के जातिवाद की शिकार ग़रीब जातियों को धर्म ने भी शोषित किया है. धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाज़ इनके हाथों से धन खीचते रहते हैं. इसके लिए कई तरीके अपनाए जाते हैं, जैसे 1. यह प्रचार कि धार्मिक स्थल पर जाने से ही मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, 2. यह प्रचार कि यह विशेष धार्मिक स्थल समतावादी समाज का निर्माण करेगा, 3. यह प्रचार कि यही डेरा मानवतावादी है, 5. यह अनुष्ठान न करने से पूर्वजों को कष्ट होगा, 6. यह यज्ञ करने से पवित्रता आएगी, 7. यह दान देने से यश और समृद्धि प्राप्त होगी आदि. यह किसी का व्यवसाय हो सकता है. आप उसमें मदद कर सकते हैं परंतु शोषण के प्रति होशियार रह कर.

धर्म या संप्रदाय के झंडे पर ऐसे आकर्षक और संकेतात्मक नारे लिख दिए जाते हैं कि ग़रीब जातियों के लोग किसी आशा में आकर्षित हो जाते हैं. अंतिम परिणाम वही- आर्थिक शोषण. चढ़ावा चढ़ाओ, मन्नत माँगो और घर चले जाओ. मन्नत तो घर पर भी माँगी जा सकती है. लोगों का अनुभव है कि धार्मिक जगहों पर की गई सभी मनोकामनाएँ पूरी नहीं होतीं. मनोकामना वह भी पूरी हो जाती है जो गली या पार्क में की जाए, वह भी बिना पैसा-प्रसाद चढ़ाए.

इधर धार्मिक स्थल इतने बना दिए गए हैं कि राह चलते सिर से टकराते हैं. एक सावधानी बरती जा सकती है कि जैसे ही धर्म स्थल सामने आए उसी समय अपने बच्चों की शिक्षा और उन्नति का ध्यान करें और अपनी मेहनत का पैसा उनकी शिक्षा पर व्यय करें. बच्चों को अच्छी शिक्षा देना देशभक्ति है, पूजा का बेहतर स्वरूप है. हालाँकि इस भक्ति (शिक्षा) को मँहगा किया जा रहा है जो ग़रीब जातियों के विरुद्ध षड्यंत्र से कम नहीं है. हम मिलकर प्रार्थना कर सकते हैं कि ईश्वर उनका भला करे.


25 September 2010

Baba Faqir Chand - Key to Religion

People are running from place to place in search of happiness and peace. Make a sincere search for your ideal within you. Enjoy the bliss after finding your ideal from within. This is the teaching of Santmat. Why you run to various directions? Everything is within you. I have revealed its secret to you in very simple words. You dwell in Him and He dwells in you. You can behold Him in any form you love, such as a son, brother or husband. His form within depends upon your intention and wish. But unfortunately nobody speaks the truth to you.

खुशी और शांति की तलाश में लोग यहाँ-वहाँ भाग रहे हैं. अपने इष्ट की सच्ची तलाश अपने अंतर में करो. अपने इष्ट को अंतर में ढूँढ कर आनंद लो. यही संतमत की शिक्षा है. क्यों इधर-उधर भागते फिरते हो? सब कुछ तुम्हारे अंतर में है. मैंने आसान लफ़्ज़ों में यह राज़ तुम को बता दिया है. तुम उसमें रहते हो, वह तुम में रहता है. तुम उसे जिस रूप में प्रेम करते हो उसी रूप में उसे देखते हो जैसे बेटा, भाई या ख़ाविंद (पति). उसका रूप वैसा होता है जैसी तुम्हारी नीयत और चाह होती है. लेकिन बदकिस्मती कह लो कि कोई तुम्हें सच्चाई नहीं बताता.

(From: Jeevan Mukti)

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11 September 2010

Megh Vandana - मेघ वंदना

(प्रत्येक व्यक्ति अपनी, समाज की और देश की उन्नति के लिए किसी को इष्ट बना कर प्रार्थना करता है. ऐसी कुछ प्रार्थनाएँ मेघनेट पर पहले से उपलब्ध हैं. मेघ चेतना पत्रिका के दूसरे अंक में श्री यशपाल भगत, आई.ई.एस. की लिखी एक प्रार्थना मिली. इसे मेघनेट पर संभाल लेना चाहता हूँ. यदि आपकी जानकारी में ऐसी अन्य रचनाएँ हों तो कृपया संपर्क करें. ऐसी रचनाओं का एक लिंक इसी ब्लॉग पर Must Visit के नीचे हमारी प्रार्थनाएँ शीर्षक से बना दिया गया है. ये कभी पुस्तकाकार हो कर हमारा मार्ग प्रशस्त करेंगी. साहित्य हमारा हित करता है. प्रार्थनाएँ हमारा भविष्य बनाती हैं.)
   
हे मालिक! ईश्वर, मेरे ख़ुदा।
तेरे चरणों में सजदा करें हम सदा।

हाथ जोड़ करें मेघ यह विनती।
सरबत का भला सब की हो उन्नति।
हर बुराई को कह दें हम अलविदा।
हे मालिक, ईश्वर, मेरे ख़ुदा।

दीन दुखियों को, उठने की दो हिम्मत।
तेरी रहमत से दुनिया बने जन्नत।
हो सच्चाई हमारी सदा संपदा।
हे मालिक, ईश्वर, मेरे ख़ुदा।

बूँद बन कर गिरें, हम मोती बनें।
बुझ न पाए जो वह मेघ ज्योति बनें।
हक़ के लिए सब कुछ कर दें फ़िदा।
हे मालिक, ईश्वर, मेरे ख़ुदा।

सप्त सिंधु के मेघों को वरदान दो।
जो वतन पर मिटे ऐसी संतान दो।
शान से हम जिएँ हो ऐसी अदा।
हे मालिक, ईश्वर, मेरे ख़ुदा।

                यशपाल भगत
                साभार: मेघ चेतना


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06 September 2010

Megh Chetna - 'मेघ चेतना'



किसी समुदाय के इतिहास में उसका साहित्य एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. उसकी पत्रिकाएँ, समाचार-पत्र, न्यूज़लेटर, इश्तेहार और ब्लॉग भी अपनी भूमिका रखते हैं. हालाँकि प्रकाशित साहित्य हाथ पर रखी चीज़ की तरह है और इंटरनेट पर रखा साहित्य आम आदमी के लिए कभी-कभार देखने की वस्तु है. आगे यह स्थिति बदल जाएगी.

यशपाल जी ने मेरे कहने पर मेघ चेतना’ के शुरूआती दो अंक भेजने की कृपा की. यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मुझे लगा कि इसे सब की जानकारी के लिए सहेज लिया जाए. मैंने मेघवंश पर सामग्री एकत्र करने के सिलसिले में कई जगह संपर्क साधा. अधिकतर जगहों से मेघ चेतना के बारे में पूछा गया. इससे स्पष्ट था कि पत्रिका के संपादक मंडल और इससे जुड़े अन्य ने इसे न केवल दूर तक भेजा बल्कि सजीव बनाए रखा है.

दिसंबर 2000 में छपे इसके प्रथम अंक की कुछ विशेषताओं का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा. मेघ चेतना के प्रथम मुख्य संपादक श्री ज्ञान चंद, आई.ए.एस. थे. इसका संपादकीय मेघदूत के नाम से लिखा गया था. इसमें कर्नल तिलक राज के ग़ज़ल संग्रह ज़ख़्म खिलने को हैं’ से बहुत अच्छी ग़ज़लें छापी गईं. एक ग़ज़ल के दो शेर नीचे दिए गए हैं:-

अम्न का फिर खोखला नारा लगाया जाएगा
दोस्ती की आड़ में ख़ंजर चलाया जाएगा

फिर से भर दी जाएगी सरहद की ख़ामोशी में आग
फिर से समझौतों को आपस में भुलाया जाएगा

मेघ चेतना के पहले ही अंक में एक बहुत महत्वपूर्ण लेख श्री यशपाल का था जिसमें स्वयं सहायता समूह बनाने और उसके महत्व पर प्रकाश डाला गया था. यह उस समय की ज़रूरत थी. विडंबना यह है कि आज सन् 2010 तक जम्मू-कश्मीर, पंजाब और हरियाणा में इस दिशा कुछ भी महत्व का किया गया दिखाई नहीं देता.
इस पत्रिका का दूसरा अंक चित्रों और रचनाओं के साथ बेहतरीन तरीके से सुसज्जित था. इसमें अच्छी रचनाओं और लेखों को शामिल किया गया था. इसके बावजूद रचनाओं और रचनाकारों की सीमाएँ स्पष्ट थीं. शायद इसीलिए आगे चल कर इसे मासिक पत्रिका के बजाय त्रैमासिक करना पड़ा. तथापि यह पत्रिका अब नए रूप और गेटअप में छप रही है. इस पत्रिका ने कई विकासात्मक, समाजोपयोगी, व्यक्ति विकास, राजनीतिक जागरूकता, मेघ समुदाय की महत्वपूर्ण गतिविधियों संबंधी विषयों पर लेख प्रकाशित किए हैं. इस पत्रिका ने अपनी एक मैट्रिमोनियल सेवा भी शुरू की. यह कहना उचित होगा कि इसने मेघ समाज के मानस को प्रभावित किया है.



इसका 2005 का और लगभग आज का स्वरूप आप यहाँ देख सकते हैं à मेघ चेतना

01 September 2010

Religious Unity - धार्मिक एकता

If someone thinks that his religion or his Guru is the best in the world, he is sadly mistaken. Best is man's faith, which may fortify itself at a place of one's choice.

Man made religion is a fake external fear. Real faith is to hold good qualities (virtue) within you. The work of worldly religion is to tell the people interesting, terrifying and fascinating things and exploit them to accumulate wealth. Some money is spent on social welfare to make the people happy. Remaining funds are used in order to keep people under the pressure to come to religious places. The game of politics is played. These things are linked. Take a look at this with open eyes and try to understand.

The inner religion of man (i.e. virtue and good qualities) is the real religion. A man drinks alcohol and goes to pilgrimage places and religious centers, he may be anything but cannot be a religious person.

A person with inferiority complex cannot be a religious person because he does not hold within himself the divine attribute to become Brahma or progress further. You are a nice human being like others. Make your life full of work.

In order to create religious timidity many uneducated people use the phrase of 'fear the religion', which means fear of external religion. Inner and the real religion need not be feared. A religious person is he who wears religion and the virtue. One who fears religion cannot be religious. The people who swear by religion are mostly liars.

Religion is to perform for the betterment of family and community. To work and donate for the cause of community is religion. External religion or religious places come afterwards. If this is understood there should not be any problem of religious unity. When we know our duties towards the society, there cannot be any problem of religiosity or religious unity.

यदि कोई समझता है कि उनका धर्म या उसका गुरु दुनिया में सर्वश्रेष्‍ठ है तो वह गंभीर गलती पर है. व्‍यक्ति का अपना विश्‍वास सर्वश्रेष्‍ठ है, जहाँ भी आ जाए.
    
बाहरी धर्म मनुष्‍य का बनाया हुआ एक नकली हौवा है. वास्तविक धर्म अच्‍छे गुणों को अपने भीतर धारण करना है. बाहरी धर्म का कार्य लोगों को रोचक, भयानक और आकर्षक बातें सुना कर उनका दोहन या शोषण करना और धन एकत्रित करना है. कुछ धन सामाजिक कार्यों पर खर्च करके लोगों को प्रसन्न रखा जाता है. शेष धन ऐसी जगह इस्तेमाल होता है जिससे लोगों पर रौब और धौंस जमाई जा सके. तब राजनीति का खेल खेला जाता है. ये बातें जुड़ी हुई हैं. अनपढ़ साथी भी आखें खोल कर इसे देख चुके हैं.
    
मनुष्‍य के भीतर का धर्म (अच्‍छा गुण भंडार) ही वास्‍तविक  धर्म है. कोई व्‍यक्ति शराब पीता है और धार्मिक जगहों और तीर्थ स्थलों पर भी जाता है तो जान लें वह कुछ भी हो सकता है, परन्‍तु धार्मिक नहीं हो सकता.          
    
जिस व्‍यक्ति में हीनता की भावना है वह भी धार्मिक नहीं कहला सकता क्‍योंकि उसने अपने भीतर ब्रह्म बनने या बढ़ने का गुण धारण नहीं किया. अपने आपको सब के जैसा अच्‍छा मानव समझें और जीवन का कार्य करें.
    
दूसरों को धर्मभीरू बनाने के लिए कई चालाक लोग कहते हैं कि 'धर्म से डरो'. जिसका अर्थ है बाहरी धर्म से डरो. भीतरी और असली धर्म से डरने की तो आवश्यकता ही नहीं है. धर्म को धारण करने वाला धार्मिक है. धर्म से डरने वाला धार्मिक नहीं हो सकता. धर्म की सौगंध खाने वाले अक़सर झूठे पाए गए हैं.
    
परिवार और समुदाय की बेहतरी के लिए कर्म करना धर्म है. समुदायिक कार्य के लिए दान देना भी धर्म है. बाहरी धर्म या धर्मस्‍थल बाद में आते हैं. इस बात को समझ लेने पर धार्मिक एकता की कोई समस्‍या रह जाएगी. समाज के प्रति अपने धर्म का पता हो तब धार्मिक एकता या धार्मिकता की समस्‍या कैसी?


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