"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


29 April 2011

The simplest and effective way to progress - विकास का सरल-कारगर तरीका

समुदाय की प्रगति कैसे हो सकती है इसके बारे में बाबा फकीर चंद के साहित्य से और रोंडा बर्न की पुस्तक ‘The Secret’ से जो पढ़ा-जाना है उसके अनुसार हमारे समुदायों की प्रगति और विकास का सरल और कारगर तरीका निम्नानुसार हो सकता है: -

1. संतान को संतान के विचार से उत्पन्न करना ताकि उसकी देख-भाल आप ठीक से करें. शराब पीकर, आपे से बाहर हो कर संतान पैदा न करें.

2. दो से अधिक बच्चे पैदा न करें. इसे राष्ट्रधर्म समझें जो सब धर्मों से ऊपर है.

3. सामाजिक और धार्मिक फिज़ूलखर्ची को छोड़ कर बच्चों की शिक्षा पर व्यय करें.

4. बच्चों का चरित्रनिर्माण करें. उन्हें सकारात्मक विचार दें. अपने देश, समुदाय और परिवार की प्रगति का संस्कार दें.

5. बच्चियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दें यह बहुत महत्वपूर्ण है.

6. आपके समुदाय का कोई व्यक्ति व्यापार में आता है तो उसे समर्थन और उत्साह दें.

7. अपनी प्रगति की प्रबल इच्छा करना आवश्यक है. समुदाय की प्रगति के लिए सामूहिक प्रार्थना सबसे उत्तम तरीका है. प्रातः जहाँ भी हों समुदाय की प्रगति की कामना करें.(Law of attraction)


17 April 2011

Asuras

Asuras are lovable people living in India and that too in abundance. Here is an interesting story of Asuras, now most popularly known as Mulnivasis (SCs, STs and OBCs) of India. I am thankful to Mr. Sandeep (from Jaipur) who has contributed a link from Times of India news paper. The story is like this:

“Seven-year-old Anand hates lions. "It's a nasty animal," he says, playing with a bunch of plastic animals a camel, a horse, a cow... and a headless lion. "I wrenched its head the moment I laid my hands on it," says the child, eyes blazing in anger. "I am an Asur. I can't stand lions. This animal killed the buffalo during the war between Mahishasur and Durga. This is why we hate it and don't want to see its face."

Anand Asur's anger is the same that generations of the Asur tribe have felt. This community some 8,000-strong believes it is the bloodline of Mahishasur, the Asura king who conquered heaven and earth and drove the Devas out of Swargalok until vanquished by Goddess Durga. The rest of the world may celebrate this myth as the triumph of good over evil, but for the Asurs it is the darkest period in their collective consciousness.

While the rest of the country is preparing to celebrate, Anand Asur, his family and about 8,000 others like them in scattered communities in North Bengal and the Chota Nagpur region are preparing for mourning.

All these people bear the surname Asur and do not worship any god. They firmly believe that all gods and goddesses "illegally joined hands" to kill Mahishasur.

With anger and anguish that has not diluted in generations, these people will lock themselves in from dawn to dusk for the five days of Durga Puja. The elders stay away from every sliver of daylight. Windows are barred and pasted over to keep away the sun. Everything that needs to be done in the day is done after sunset.”

This story reminds me of Onam festival, celebrated in remembrance of King Bali (grandson of Prahlada) in Kerala where a Puli Kali (lion dance) procession has been introduced. Clearly it reminds of killer of great king Hiranyakashipu, father of Prahlada. (Mahatma Jyotirao Phule is referred here). Mulnivasis of India do counter such mythical stories as they know that such exaggerated stories were told by Aryans, another tribe. The entire world knows that tribal stories are merely exaggerations and exalted imaginations. 

Thanks Sandeep for sharing this wonderful link.


06 April 2011

Kabir: A simple and pious personality - कबीर – एक सादा शुद्ध स्वरूप



Kabir: Truth Beyond Legends and Miracles- Bharat Bhushan
कबीर :  कथाओं और चमत्कारों से परे का सच- भारत भूषण भगत

Satguru Kabir सत्गुरु कबीर


कबीर के बारे में बहुत भ्रामक बातें साहित्य में और इंटरनेट पर भर दी गई हैं. अज्ञान फैलाने वाले कई आलेख कबीरधर्म में आस्थाविश्वास और श्रद्धा रखने वालों के मन को ठेस पहुँचाते हैं. यह प्रचार कर दिया गया कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी (लाचार या कुछ और?) की संतान थे. यह कबीर को गाली देने की एक युक्ति ही लगती है. ऐसे प्रचार से कबीरधर्म के अनुयायियों की सख्त असहमति स्वाभाविक है क्योंकि कबीर ऐसा विवेकी व्यक्तित्व है जो भारत को छुआछूतजातिवादधार्मिक आडंबरों और ब्राह्मणवादी संस्कृति के घातक तत्त्वों से उबारने वाला है.

कबीर जुलाहा परिवार से हैं. कबीर ने स्वयं लिखा है कि कहत कबीर कोरीयह कोरी-कोली समाज कपड़ा बनाने का कार्य करता रहा है. स्पष्ट है कि कबीर उस कोरी परिवार (मेघवंश) में जन्मे थे जो छुआछूत आधारित ग़रीबी और गुलामी से पीड़ित था और नरक से निकलने के लिए उसने इस्लाम अपनाया था. यही कारण है कि जुलाहों के वंशज या भारत के मूलनिवासी स्वाभाविक ही कबीर के साथ जुड़े हैं और कई कबीरपंथी कहलाना पसंद करते हैं.

आज के भारत में देखें तो भारत के मूलनिवासियों को कबीर से कोई परहेज़ नहीं. हाँमनुवादी अन्य लोग कबीर का मूल साहित्य पढ़ कर उलझन में पड़ जाते हैं. 

चमत्कारोंरोचक और भयानक कथाओं से परे कबीर का सादा-सा चमकदार जीवन इस प्रकार है:-

कबीर का जीवन

बुद्ध के बाद कबीर भारत के महानतम धार्मिक व्यक्तित्व हैं. वे संतमत के प्रवर्तक और सुरत-शब्द योग के सिद्ध हैं. वे तत्त्वज्ञानी हैं. एक ही चेतन तत्त्व को मानते हैं और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी हैं. अवतारमूर्त्तिरोज़ाईदमस्जिदमंदिर आदि को वे महत्व नहीं देते हैं. भारत में धर्मभाषा या संस्कृति की चर्चा कबीर की चर्चा के बिना अधूरी होती है.

उनका परिवार कोरी जाति से था जो हिंदुओं की जातिप्रथा के कारण हुए अत्याचारों से तंग आकर मुस्लिम बना था. कबीर को नूर अली और नीमा नामक दंपति ने जन्म दिया था. नीमा ने कबीर को लहरतारा के पास सन् 1398 में जन्म दिया था (कुछ वर्ष पूर्व इसे सन् 1440 में निर्धारित किया गया है). बहुत अच्छे धार्मिक वातावरण में उनका पालन-पोषण हुआ.

युवावस्था में उनका विवाह लोई (जिसे कबीर के अनुयायी माता लोई कहते हैं) से हुआ जिसने सारा जीवन इस्लाम के उसूलों के अनुसार पति की सेवा में व्यतीत कर दिया. उनकी दो संताने कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) हुईं. कमाली की गणना भारतीय महिला संतों में होती है.

संतमत की तकनीकी शब्दावली में 'नारी' का अर्थ 'कामना' या 'इच्छा' रहा है. लेकिन मूर्ख पंडितों ने कुछ दोहों के आधार पर या उनमें हेरा-फेरी कर के कबीर को नारी विरोधी घोषित कर दिया. कबीर हर प्रकार से नारी जाति के साथ चलने वाले सिद्ध होते हैं. उन्होंने संन्यास लेने तक की बात कहीं नहीं की. वे सफलतापूर्वक गृहस्थ में रहे सत्पुरुष थे और गृहस्थ नारी के बिना नहीं होता.

कबीर स्वयंसिद्ध ज्ञानी पुरूष थे जिनका ज्ञान समाज की परिस्थितियों में सहज ही उच्च स्वरूप ग्रहण कर गया. वे किसी भी धर्मसम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते हैं. मुस्लिम समाज में रहते हुए भी जातिगत भेदभाव ने उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी लिए उन्होंने हिंदू-मुसलमान सभी में व्याप्त जातिवाद के अज्ञानरूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया. कबीर ने जातिवाद के विरुद्ध कोई जन-आंदोलन खड़ा नहीं किया लेकिन उसकी भूमिका तैयार कर दी. वे आध्यात्मिकता से भरे हैं और जुझारू सामाजिक-धार्मिक नेता हैं.

कबीर भारत के मूनिवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. ब्राह्मणवादियों और पंडितों के विरुद्ध कबीर ने खरी-खरी कही जिससे चिढ़ कर उन्होंने कबीर की वाणी का कई जगह रूप बिगाड़ दिया है और कबीर की भाषा के साथ भी बहुत खिलवाड़ किया है. आज निर्णय करना कठिन है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है तथापि उनकी बहुत सी मूल वाणी को विभिन्न कबीरपंथी संगठनों ने प्रकाशित किया है और बचाया है. कबीर की साखीरमैनीबीजकबावन-अक्षरीउलटबासी देखी जा सकती है. साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है. जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने संतों-फकीरों का सत्संग किया और उनकी अच्छी बातों को हृदयंगम किया. उनका दायरा जिन संतों में था उनसे उन्होंने इतना सीखा कि उन्हें कोई अनपढ़ भले कह ले लेकिन अशिक्षित नहीं कह सकता. उनकी वाणी पढ़ें तो कबीर अनपढ़ नहीं बल्कि विद्वानों के विद्वान सिद्ध होते हैं. लोक परंपरा, नाथों और सिद्धों के ज़रिए भी उनकी वाणी दूर-दूर तक पहुँची.

कबीर ने सारी आयु कपड़ा बनाने का कड़ा परिश्रम करके परिवार को पाला. कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया. सन् 1518 में कबीर ने देह त्याग किया.

उनके ये दो शब्द उनकी विचारधारा और दर्शन को पर्याप्त रूप से इंगित करते हैं:-

(1)
आवे न जावे मरे नहीं जनमेसोई निज पीव हमारा हो
न प्रथम जननी ने जनमोन कोई सिरजनहारा हो
साध न सिद्ध मुनी न तपसीन कोई करत आचारा हो
न खट दर्शन चार बरन मेंन आश्रम व्यवहारा हो
न त्रिदेवा, सोहं, शक्तिनिराकार से पारा हो
शब्द अतीत, अटल, अविनाशीक्षर, अक्षर से न्यारा हो
ज्योति स्वरूप, निरंजन नाहींना ओम् हुंकारा हो
धरनी न गगन, पवन न पानीन रवि चंदा तारा हो
है प्रगट पर दीसत नाहींसत्गुरु सैन सहारा हो
कहे कबीर सर्ब ही साहबपरखो परखनहारा हो
(2)
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदेमैं तो तेरे पास में
न तीरथ मेंन मूरत मेंन एकांत निवास में
न मंदिर मेंन मस्जिद मेंन काशी कैलाश में
न मैं जप मेंन मैं तप मेंन मैं बरत उपास में
न मैं किरिया करम में रहतानहीं योग संन्यास में
खोजी होए तुरत मिल जाऊँएक पल की तलाश में
कहे कबीर सुनो भई साधोमैं तो हूँ विश्वास में

कबीर की गहरी जड़ें
कबीर को सदियों साहित्य से दूर रखा गया. ताकि उनका कहा सच लोगों विशेषकर युवाओं तक न पहुँचे. लोग यह वास्तविकता न जान लें कि कबीर की पृष्ठभूमि में धर्म की एक समृद्ध परंपरा थी जो हिंदू, विशेषकर मनुवादी, परंपरा से अलग थी और कि भारत के सनातन धर्म वास्तव में जैन और बौध धर्म हैं. कबीरधर्मईसाईधर्म तथा इस्लामधर्म के मूल में बौधधर्म का मानवीय दृष्टिकोण रचा-बसा है. यह आधुनिक शोध से प्रमाणित हो चुका है. उसी धर्म की व्यापकता का ही प्रभाव है कि कबीर अपनी इस्लाम की पृष्ठभूमि के बावजूद भारत के मूलनिवासियों के हृदय में बसते चले गए जैसे बुद्ध.

चमड़ा पहनने वाली आर्य नामक यूरेशियन जनजाति ने भारत के मूलनिवासियौं को युद्ध में पराजित किया और बाद में सदियों की लड़ाई के बाद जुझारू मूलनिवासियों को गरीबी में धकेल कर उन्हें नाग’, 'राक्षस' और असुर’ का नाम दिया. उपलब्ध जानकारी के अनुसार हडप्पा सभ्यता से संबंधित ये लोग कपड़ा बनाने की कला जानते थे. यही लोग आगे चल कर विभिन्न जातियोंजनजातियोंअन्य पिछड़ी जातियों और नामों (आज के SCs, STs, OBCs) आदि में बाँट दिए गए ताकि इनमें एकता स्थापित न हो. कबीर भी इसी समूह से हैं. इन्होंने ऐसी धर्म सिंचित वैचारिक क्रांति को जन्म दिया कि शिक्षा पर एकाधिकार रखने वाले तत्कालीन भयभीत पंडितों ने उन्हें साहित्य से दूर रखने में सारी शक्ति लगा दी. 


कबीर का विशेष कार्य - निर्वाण
निर्वाण शब्द का अर्थ है फूँक मार कर उड़ा देना. भारत के सनातन धर्म अर्थात् बौधधर्म’ में इस शब्द का प्रयोग एक तकनीकी शब्द के तौर पर  हुआ है. मोटे तौर पर इसका अर्थ है- 'मन के स्वरूप को समझ कर उसे छोड़ देना और मन पर पड़े संस्कारों और उनसे बनते विचारों को माया जान कर उन्हें महत्व न देना'. दूसरे शब्दों में दुनियावी दुखों का मूल कारण संस्कार(impressions and suggestions imprinted on mind) है  जिससे मुक्ति का नाम निर्वाण है. इन संस्कारों में कर्म फिलॉसफी आधारित पुनर्जन्म का एक सिद्धांत भी है जो मनुवाद की देन है. भारत के मूलनिवासियों को जातियों में बाँट कर गरीबी में धकेला गया और शिक्षा से भी दूर कर दिया गया. मनुवाद द्वारा किए गए पापों और कुकर्मों को नकली कर्म फिलॉसफी आधारित पुनर्जन्म के सिद्धांत से ढँक दिया गया ताकि उनके कुकर्मों की ओर कोई उँगली न उठे तथा लोग अपने पिछले जन्म और कर्मों को ही कोसते रहें और मनुवादी व्यवस्था चलती रहे. वास्तविकता यह है कि संतमत के अनुसार ‘निर्वाण’ का मतलब है- कर्म फिलॉसफी’ और पुनर्जन्म’ के विचार से छुटकारा. ये विचार अत्याचार और ग़ुलामी के विरुद्ध संघर्ष में बाधक रहे हैं.

कबीर का आवागमन से निकलने की  बात करना यही प्रमाणित करता है कि पुनर्जन्म के विचार से मुक्ति संभव है और उसी में भलाई है. भारत का सनातन तत्त्वज्ञान दर्शन (चेतन तत्त्व सहित अन्य तत्त्वों की जानकारी) कहता है कि जो भी है अभी है और इसी क्षण में है. बुद्ध और कबीर अब’ और यहीं’ की बात करते हैं. जन्मों की नहीं. इस दृष्टि से कबीर ऐसे ज्ञानवान पुरुष हैं जिन्होंने मनुवादी संस्कारों के सूक्ष्म जाल को काट डाला. वे चतुर ज्ञानी और विवेकी पुरुष हैंसदाचारी हैं और सद्गुणों से पूर्ण हैं.....और जय कबीर - धन्य कबीर’ कहना इस भाव का सिंहनाद है कि मनुवाद से मुक्ति ही कल्याण का मार्ग है.

अब क्या हो?
कबीर-ज्ञान दिवस’ निर्धारित करना चाहिए. यह दिन अक्तूबर-नवंबर में देसी महीने की नवमी के दिन रखें. फिर किसी ज्ञानी, पंडित या ज्योतिषी की न सुनें. जो सज्जन कबीर को इष्ट के रूप में देखते हैं उन्हें चाहिए कि कबीर को जन्म-मरण से परे और कर्मों से अलग माने. कबीर के साथ सत्गुरु (सत्ज्ञान) शब्द का प्रयोग करें या केवल कबीर लिखें. कबीर आस्था का केंद्र हैं. उनके ज्ञान का सम्मान करें.

कबीर के गुरु कौन थे यह जानना कतई ज़रूरी नहीं है. वैसे आपकी जानकारी में होना चाहिए कि रामानंद नाम का ब्राह्मण उनका समकालीन नहीं था अतः उनका गुरु नहीं हो सकता. कबीर के ज्ञान पर ध्यान रखें. उनके जीवन संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करें. उन्होंने सामाजिकधार्मिक तथा मानसिक ग़ुलामी की ज़जीरों को कैसे काटा और अपनी तथा मूलनिवासी भारतीय समुदायो की एकता और स्वतंत्रता का मार्ग कैसे प्रशस्त कियायह देखें. 


कबीर की छवि पर छींटे
यह तथ्य है कि कबीर के पुरखे इस्लाम अपना चुके थे. इसलिए कबीर के संदर्भ में या उनकी वाणी में जहाँ कहीं हिंदू देवी-देवताओं या हिंदू आचार्यों का उल्लेख आता है उसे संदेह की दृष्टि से देखना ज़रूरी है. पिछले दिनों कबीर के जीवन पर बनी एक एनिमेटिड फिल्म देखी जिसमें विष्णु-लक्ष्मी की कथा को शरारतपूर्ण तरीके से जोड़ा गया था. कहाँ इस्लाम में पले-बढ़े कबीर और कहाँ विष्णु-लक्ष्मी का मिथ. यह कबीरधर्म की मानवीय छवि पर गंदा पंडितवादी रंग चढ़ाने जैसा है. ऐसा करना मनुवाद और मनुस्मृति के नंगे विज्ञापन का कार्य करता है. ज़ाहिर है कि धर्म के नाम पर भारत के मूलनिवासियों के आर्थिक स्रोतों को सोखा जा रहा है. कबीर के जीवन को कई प्रकार के रहस्यों से ढँक कर यह कवायद की जाती है ताकि उसके अनुयायियों की संख्या को बढ़ने से रोका जाए और दलितों के धन को कबीर द्वारा प्रतिपादित कबीरधर्मदलितों की गुरुगद्दियों-डेरों आदि की ओर जाने से रोका जाए. इसी प्रयोजन से यूरेशियन  ब्रह्मणों ने कबीर के नाम पर देश-विदेश में कई दुकानें खोली हैं.

कबीरधर्म को कमज़ोर करने के लिए स्वार्थी तत्त्व आज भी इस बात पर बहस करते हैं कि कबीर लहरतारा तालाब के किनारे मिले या गंगा के तट पर. उनके जन्मदिन पर चर्चा की जाती है. कबीर के गुरु पर विवाद होता है. रामानंद नामी ब्राह्मण को उनके गुरु के रूप में खड़ा कर दिया गया. कबीर को ही नहीं अन्य कई मूलनिवासी समुदायों के संतों को रामानंद का शिष्य सिद्ध करने के लिए साहित्य के साथ बेइमानी की गई. कबीर सहित उनमें से कई तो रामानंद के समय में थे ही नहीं. तथ्य यह है कि रामानंद के जन्मदिन पर भी विवाद है. इसके लिए सिखी विकि में यहाँ (पैरा 4) देखें (Retrieved on 02-07-2011). उस कथा के इतने वर्शन हैं कि उस पर अविश्वास सहज हो जाता है. कबीर बहुत धार्मिक माता-पिता नूर अली और नीमा के घर पैदा हुए इसमें कोई संदेह नहीं. अन्य कहानियाँ कुत्सित मानसिकता ने बनाई हैं. हमें संदेह नहीं होना चाहिए कि कबीर नूर अली और नीमा की ही संतान थे और उनके जन्म की शेष कहानियाँ मनुवादी बकवास है.

डॉ अंबेडकर स्वयं कबीरधर्मी परिवार से थे और कबीर उनके प्रेरणास्रोत थे. उनके कारण ही धर्म-चक्र और सत्ता-चक्र सही दिशा में घूमने लगा है.


03 April 2011

IMPACT OF AMBEDKARISM


(Contributed by Rattan Lal Gottra, 72-L/A, Model House, Jalandhar)

The Constitution of India drafted by Dr. B.R. Ambedkar is generally said to have been shaped on the Western Model. But, in fact, it can also be described as ‘first and foremost a social document’, because the ideology or its provisions are either directly arrived at furthering the aim of social revolution, or they attempt to foster this revolution by establishing conditions necessary for its achievement. The Constitution guarantees and protects a wide range of civil liberties, including freedom of religion. It outlaws all forms of discrimination on the bases economic, and social grounds like that of untouchability. With this constitution in India today, there lies the possibility to get established a casteless society in the long run, and consequently the real democracy due to the impact of Ambedkarism as shown below.

1. Through the voting rights, the people’s aptitude for equality is likely to rise continuously.
2. Due to India being a one political unit, the struggle for social justice in one part of the country is apt to get support in other parts.
3. The caste Hindus in large numbers are gradually saying good–bye to the caste system, untouchability and views based upon the old ‘Karma’ philosophy.
4. It is now increasingly becoming impossible for the ‘Dwij Hindus’ to continuously keep ‘Dalits’ into mental slavery.
5. In every field of life, without giving a central place to the last person, ‘salvation’ is not possible.
6. The democratization of knowledge and know-how has progressed in such a manner in the world that it has now become difficult to keep enslaved the human consciousness.
7. The humankind cannot tackle its crisis’s without mass participation of the whole society.
8. Due to pressure of the dreams and aspirations of general masses, the Backward-Dalit leadership may either reform itself or otherwise, the new leadership is likely to emerge.
9.  Increasing number of people are getting impressed with the creation of understanding and love among themselves, rather than creating differences on one’s birth or profession.
10. As it is visible at many places, and particularly in big cities of India that there are growing numbers of inter-caste marriages, which substantiates a change in the conservative caste-based society of the past.
11. Intelligentsia has realized that it is time to get out of the inhuman traditions, and castetist mind-set in the name of ‘God’, culture or identity.
12. Since 1952 till date caste-wise complexion both in the Lok Sabha, and State Legislatures has gradually changed with progressive increase in the number of people’s representatives belonging to OBC, SC, and ST, except in case of minorities like Muslims, which more or less did not show much variation.

TASK AHEAD:
Caste is the curse of India. Caste in all its forms made us nation of slaves. It is not Islam, etc. that has destroyed India. Our enemy is within us. Priest-craft and caste have slain us.   Therefore, a strong wind is still needed to blow away the ghost of caste, and revolutionize the mental attitudes. To achieve this object, the ignorant masses must be made to understand that caste is not predetermined by ‘God’ on the basis of deeds of any supposed previous birth, and that majority of people in India wrongly get handicapped due to wrong conditioning of their minds with feelings of high and low. This conditioned mind-set of the people has remained the cause behind inequality, inefficiency, and inability to rationally conduct our social problems in India. Caste-system has also blocked the natural evolution of good / progressive human qualities. Here are a few suggestions to deal with the ghost of caste.

1. As jobs in government. Semi-govt. or govt.-aided organizations carry respect in the eyes of public; preference in selection for such jobs should be given to such individuals/children who do not suffix caste, as sir name.
2. All state governments should provide liberal cash awards to those who go in for inter-caste marriages. Individuals who go in for inter-caste marriages should be given preference for at least one promotion in their jobs.
3. Nomenclatures in respect of public sector organizations/institutions that smell of caste should be legally changed.
4. All those living below poverty line should be considered for reservation in jobs, both in the public and private sector.
5. All caste based organizations/institutions linked with narrow castetist objects should be legally not allowed to function.
6. All so called ‘holy’ books that contain any portion supporting pre-determination of caste by ‘God’, should be re-written; because ‘holiness’ lies in the service of humanity, and not in the ‘Karma’ based pre-determined fate/caste.
7. Those who support casteism should be declared communal/anti-national.
8. The children of deprived sections of society should be provided free, good-quality, and vocational education to empower them for making a good headway in life, instead of continuing to believe in the provision of reservation.
9. Preferential treatment for ‘Dalit Muslims/Dalit Christians’ may also be considered, as they are also part and parcel of the Indian society and remained depressed due to the similar flaws in Indian social system, as in case of other Dalits.
10. All politicians/bureaucrats who in any manner conduct themselves with favoritism based upon caste/religious prejudices must be shunted out.
11. All political parties having hand in caste-based agitations or which select/field candidates based upon caste considerations should be de-recognized for electoral purposes.