हम
आम तौर पर Mr.
Megh (मिस्टर
मेघ)
के
बारे में बात करते हैं. वैसे तो वो हमारे
भीतर की ही चीज़ है और लेकिन हम सबसे
ज़्यादा खराब व्यवहार उसी से करते
हैं.
यह बात बिना शर्मिंदा हुए तो कोई नहीं कह सकता.
मैंने
'मेघ
मंथन'
(मेघ
मधाणी) यानि 'वाक् युद्ध'
के
बारे में सुना है और इससे डरता
भी हूँ. लगता है सागर
मंथन के बाद मेघ मधाणी वहीं रह गई थी जो मेघ जी के हाथ लग गई थी. कल यों ही उनके घर मिलने गया. अपने लोगों के बारे में बातचीत के दौरान मैंने मिस्टर
मेघ को ज़रा छेड़ दिया और फिर मेघ मधाणी चल गई.
जानकर हैरानगी होती हुई कि मिस्टर
मेघ दरअसल एक आम आदमी के मुकाबले काफी कुछ ज़्यादा हैं.
इसे आप उनका
पहला इंटरव्यू मान लीजिए:-
मैं : चाचा जी,
किसी ने मुझे कहा कि आप अपनी सारी बातें
‘नहीं’ के साथ शुरू करते हैं.
मिस्टर
मेघ :
बिल्कुल नहीं.
लेकिन
मुझे सोचने दो.........हम्म्म्म्!........जिन लोगों को नेतागीरी के कीड़े ने काट लिया है वो मेरे बारे में
ऐसा कहते हैं. वो समझदार दिखने वाले लोग ऐसी
घटिया सोच ले कर ही मेरे पास
आते हैं-
जैसे कि
तुम. उनकी
हर फिजूल बात का जवाब मैं
‘नहीं’ से ही शुरू करता हूँ.
इसके आलावा मैं
क्या करूँ!!
जब मुझे लगता है कि हमारे
विचार ही नहीं मिलते तो और क्या
होगा?
लेकिन
वे मेरी 'नहीं'
से
इतना डरते क्यों हैं?
मैं : वे
कहते हैं कि आप फ़िज़ूल बातों पर अधिक ज़ोर देते हैं.
मिस्टर
मेघ :
अगर
मैं फ़िज़ूल बातों पर ज़ोर देता हूँ तो उनकी समझदारी इसमें है कि वो मुझे अकेला छोड़
दें.
पर
वे ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि
उनमें इतनी अक्ल है ही नहीं.
मैं : आपके बारे में कहा जाता है कि आप अपने
नेताओं की नहीं सुनते.
मिस्टर
मेघ :
क्यों
सुनूँ?
मैं
उन्हें नेता मानता ही नहीं.
उनकी
शक्लें देखो.
कहाँ
के लीडर हैं?
कभी
मेरी उम्मीदों पर खरे उतरे
हैं वो?
मैं : आपके बारे में कहा जाता है कि आप उन सोशल वर्करों को ही घर से निकाल देते
हो जो आपका सुधार करना चाहते
हैं?
मिस्टर
मेघ :
हाँ,
कभी-कभी
कुछ हरामख़ोर लोग मेरा सुधार-वुधार करने आते
हैं.
उन्हें
लगता है कि मैं मूरख हूँ.
लेकिन
मुझे लगता है कि पक्के
बेवकूफ तो वही हैं.
उनके दिमाग़ में वही सड़ी-गली सियासत होती है. कोई नई बात या जानकारी उनके पास नहीं होती. वो सोचते ही नहीं कि कहने या देने के लिए उनके पास क्या है. बस! मुझे सुधारने के लिए टप से आ जाते हैं. मेरा
सुधार!
सालो मेरे रोज़गार के लिए कोई नया आइडिया हो तो बता दो और बैंक का कर्ज़ा दिलवा दो. वरना मुझे
क्या हुआ है?
मैं : मुझे पता लगा है कि आप किसी भी धर्म में घुस जाते हैं.
ऐसा
है क्या?
पर चलो यह
बताओ कि भगवान के बारे में
आपका क्या ख़्याल है?
मिस्टर
मेघ : अब किया तूने
अक्लमंदी का सवाल........(आसमान
की ओर देखते हुए)......
मेरा तजुर्बा यह कहता है कि भगवान तो किसी ने देखा नहीं,
लेकिन
धर्म बेशुमार बन गए हैं.
इतने कि मैं
किसी भी गली में घुस जाऊँ कोई न कोई धर्म की दूकान खोल कर बैठा चिल्ला रहा है..."आ जाओ...आ जाओ...यहाँ हर मन्नत पूरी होगी." फूलों का हार खरीद कर लगता है भगवान ख़रीद लिया. जब चाहिए होता है कोई
दयालु भगवान तो वो ड्यौढ़ी
पर लाइन में खड़ा कर लेते हैं.
अब ड्यौढ़ी है तो सिर पटकना पड़ेगा. अंदर जाओ, पैसे चढ़ा आओ.
मेरे सारे रिश्तेदार कहीं न कहीं चौखट पर खड़े हैं. क्या
कोई नेता या समाज सुधार करने वाला मुझे
बता सकता है कि मेरा असली धर्म
क्या है,
जो
मेरी अपनी पहचान हो?
यह
मत समझना कि मुझे कुछ नहीं आता-जाता. हम लोग हर उस दूकानदार की ओर भागते हैं जो इंसानियत और बराबरी का फट्टा लगा कर बैठा है.
लेकिन वो दूकानें हमारा पैसा भी ले जाती
हैं और हमारी खुद्दारी भी. मेरे कई रिश्तेदार तो उनके यहाँ जाते-जाते परेशान हो गए हैं और अपनी शान गँवा बैठे हैं. उन्हें पता ही नहीं चलता कि श्रद्धा से लाइन में लगे लोग अपने आप किसी के वोट बन जाते हैं.
मैं : लेकिन
मेघ सा'ब, वो नेता
लोग सियासतदां हैं.
वे
धार्मिक मामलों में दख़लअंदाज़ी
क्यों करें?
मिस्टर
मेघ : शटअप हो जा! सियासतदानों ने
पहले ही सियासत और धर्म का घाल-मेल किया हुआ है.
तुम
देख नहीं रहे?
बेहतर
है देखो. वो मेरे लिए तो काम करते नहीं. वो अपनी सियासी ताकत के लिए काम करते हैं और नाम
धर्म का लेते हैं.
पूछो
जा कर उनसे कि चढ़ावा कहाँ-कहाँ जाता है अगर वो बता दें तो.
मैं : बात तो आपकी सही है. लेकिन चाचा जी, आप पर सबसे बड़ा इल्ज़ाम यह है कि आपको हर काम में,
हर
मामले में,
ख़ुदकुशी
करने की आदत है.
मिस्टर
मेघ :
(तीखी,
ठंडी
आवाज़ में)
मैं
हर काम में,
हर
मामले में ख़ुदकुशी करता हूँ!!
हैं??
तुमने
यही कहा न?
मैं : न...न...न! मैंने
कुछ नहीं कहा.
मेरा वो मतलब नहीं था. मेरा मतलब था-
'वो'
कहते
हैं.
मिस्टर
मेघ :
(ठंडी
आवाज़ में)
हाँ! तो 'वो' कहते हैं!! मुझे
पता है तुम उनसे अलग किस्म के
हो नहीं.
मैं यह भी जानता हूँ तुम किनके बारे में कह रहे हो. हमने
सदियों तकलीफें सही हैं.
भूख
से लड़े,
ज़िंदगी की हर तकलीफ़ से लड़े, इंसाफ
के लिए लड़े,
हर
उस मुसीबत से लड़े जिसे बाढ़ की तरह हमारी तरफ़ मोड़ दिया गया. गाँव से बाहर रहे,
हर
हमले से लड़े. हमारे घर गिराए,
जलाए
गए, हमने उन्हें फिर से बनाया.
बनाया
कि नहीं बनाया? उसी में से एक में
तुम बैठे हो बेवकूफ़?
मैं : जी
बिलकुल. यह बात तो है.
मिस्टर
मेघ :
तो क्या इसे ख़ुदकुशी कहते हैं?.....(बात को फिर से शुरू करते हुए) ओहो!
मुझे हर जगह ख़ुदकुशी करने की आदत है?
तुमने
यही कहा न?
(भरे
हुए दिल के साथ मुस्करा कर)
प्यारे! अगली
बार जब मेरे घर आओगे तो तुम्हारे
दाएँ गाल पर चपेड़ पड़ेगी.
बेहतर
है अब रफ़ूचक्कर हो जाओ. एक तो तुम मूड बहुत खराब करते हो. चलो, कोई बात नहीं. अब चाय पी कर जाओ.
मैं : नहीं चाचा, उसकी कोई ज़रूरत नहीं. मैं अभी पी कर आया हूँ.
मिस्टर मेघ : मैं बना रहा हूँ. बैठ जा.
मैं : नहीं चाचा, उसकी कोई ज़रूरत नहीं. मैं अभी पी कर आया हूँ.
मिस्टर मेघ : मैं बना रहा हूँ. बैठ जा.
मैंने
मिस्टर मेघ को बहुत ध्यान से
देखा है.
वह
दोस्त बनाने लायक आदमी है. वो कुछ बातें ख़ास तौर पर याद
रखता है कि कौन से गाल पर थप्पड़ मारना है और कि थप्पड़ के बाद चाय भी पिलानी है.
कोई कुछ
भी कहे,
मिस्टर
मेघ है दमदार!
जिस
तरह वो हमारे जैसे लोगों के साथ ज़िंदा है
वैसे ही वो हमारे बिना भी ज़िंदा
है!! इतना मज़बूत है कि हमारे बाहर भी रहता है और हमारे भीतर भी जीवंत है.
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