"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


31 August 2011

Black Buddha – श्याम बुद्ध



I had a question in mind as to why one of the greatest religions i.e. Buddha Religion (also called Buddhism) was so hated in India. I got few answers which may not contain anything new but certainly impart new information.

There are statues of Black Buddha available having features of people of African origin. When we talk of black races of African origin then people of South India (Dravidians) are also included who have straight hair and comparatively thin lips. These Dravidian people have their origin in Indus Valley Civilization. They lived in a developed civilization and were forced to go into south due to food finding nomadic tribes coming from central Asia. In the process there was blood mixing in various social groups. Castes were made and many groups were enslaved and given the low work according to the proportion of black color in the skin. From this angle Indian caste system is the form of racism and apartheid and still prevalent in its dirtiest form. OBCs, SCs and STs of India are the target of this system and every effort is made to keep them away from quality life and Human Rights. A very large part of corruption in India is caste based as development is not allowed to reach interior of India where these people live.

A lecture of 2 hrs duration delivered by Dr. Velu Annamalai is given below.  Links regarding ‘Black Buddha’ are also given below.


एक प्रश्न बहुत समय से मन पर टँगा था कि जब बुद्धधर्म दुनिया भर के महानतम धर्मों में से एक है तो उसे भारत में घृणा की दृष्टि से क्यों देखा गया? कुछ उत्तर मिले हैं जिनमें चाहे नया कुछ न हो परंतु जानकारी बढ़ाने में ये मदद करते हैं. 


बुद्ध की कुछ मूर्तियाँ दुनिया में उपलब्ध हैं जिनमें बुद्ध का रूप-रंग और नैन-नक्श अफ्रीकी मूल के लोगों के से हैं. जब अफ्रीकी मूल की श्यामवर्ण या मेघश्याम (काले रंग) की प्रजातियों की बात आती है तो उनमें दक्षिण भारत के द्रविड़ियन मूल लोग भी इनमें शामिल होते हैं जिनके बाल सीधे और होंठ तुलनात्मक रूप से पतले हैं. द्रविडियन मूल के लोगों का संबंध सिंधुघाटी और हड़प्पा सभ्यता से है. एक विकसित सभ्यता में रहने वाले ये लोग मध्य एशिया की आदिम जातियों के आक्रमण के दबाव में दक्षिण की ओर चले गए थे. इसी क्रम में उस समय के सभी सामाजिक समूहों में रक्त-मिश्रण हुआ. जातियाँ बनी और कई समूहों को गुलाम बना कर उनकी चमड़ी में काले रंग की मात्रा के अनुसार निम्न प्रकृति का कार्य दिया गया. इस दृष्टि से भारतीय जाति प्रथा नस्लवाद और रंगभेद का ही रूप है जो आज भी अपने निकृष्टतम रूप में प्रचलित है. भारत की अन्य पिछड़ी जातियाँ, अनुसूचित जातियाँ और जनजातियाँ इसकी शिकार हैं और इन्हें गुणवत्तापूर्ण जीवन और मानवाधिकारों से दूर रखने की हर संभव कोशिश होती है. भारत में भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा भाग जातिप्रथा आधारित है क्योंकि विकास को उन दूर-दराज़ के इलाकों में पहुँचने ही नहीं दिया जाता जहाँ ये लोग बसते हैं.


ख़ैर, इस क्रम में डॉ. वेळु अण्णामलै का दो घंटे का एक व्याख्यान 12 भागों में मिला है जिसके लिंक नीचे दिए हैं. इसी तरह ब्लैक बुद्धा के लिंक्स यहाँ हैं.

 

27 August 2011

कोली, कोरी, कोल- भारतीय मूलनिवासी कबीले

(यह आलेख kolisamaj.org (http://www.kolisamaj.org/myhistory/historyofkolis.html) पर दिए एक आलेख के हवाले से लिखा गया था. अब वो डोमेन नेम बिक्री पर लगा दिया है. इसलिए उक्त लिंक पर वह आलेख नहीं दिख रहा है. इंटरनेट पर लिंक गुम होते रहते हैं.)
 
पठानकोट से मेरे एक अनजाने मित्र (जो इस बीच पुराने मित्र हो चुके हैं) प्रीतम भगत ने मोबाइल पर बताया कि बुद्ध की माता कोली (कोरी) समुदाय से थीं. मेरी दिलचस्पी बढ़ी. इस बात की खोज करते हुए नेट पर एक ऐसे आलेख तक पहुँचा जो कोली समुदाय के बारे में था. इस आलेख की शुरुआत एक जाने-पहचाने वाक्य से हु थी कि - हम कौन हैं? मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे?’ मैं यहाँ उक्त आलेख के कुछ अंश ही दे रहा हूँ. पूरा आलेख कोली समुदाय के इतिहास का बढ़िय़ा लेखा-जोखा देता है.

यह देखने वाली बात है कि कोली समुदाय भी अपना इतिहास सिंधुघाटी सभ्यता के उसी ज़माने में ढूँढता है जहाँ आज के लगभग सभी वंचित समुदाय पहुँचते हैं. इससे इतिहास समझी जाने वाली उस पौराणिक कथा का गुब्बारा फट जाता है कि तथाकथित असुरों, राक्षसों (सिंधुघाटी सभ्यता के मूलनिवासियों) और सुरों (जो यूरेशिया से वाया रान यहाँ आए थे) के बीच कोई सौहार्दपूर्ण समझौता हुआ था. यह वास्तव में एक लंबे युद्ध और संघर्ष के बाद की भीषण त्रासदी थी जो भारत में ग़ुलामी प्रथा की सच्चाई कहती है.


ऐसी पौराणिक कहानियाँ हैं जो संकेत करती हैं कि सुरों ने असुरों को गुलाम बना लिया था. ये वही गुलाम लोग हैं जो विभिन्न जातियाँ में बाँट दिए गए थे और वे जातिप्रथा (श्रमिकों/कमेरों का वर्गीरण) समाप्त करने के लिए आज तक संघर्षशील हैं. जातिप्रथा का अर्थ ही यही है कि किसी की जाति जानों और उसे उठने से रोकने के लिए पूरा ज़ोर लगा दो. इन्हें अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ कहा जाता है. इन्हें मानवाधिकारों के बारे में जानकारी कम ही है. यह तथ्य है कि भारत के मूलनिवासी गुलाम बना लिए गए थे और सदियों से वे अमानवीय स्थितियों में रहने के लिए मजबूर किए गए हैं. इनकी अधिकतर आबादी गाँवों में रहती है. अगडी जातियाँ शेष विश्व क भारत की ऐसी तस्वीर दिखाती हैं मानो भारत से गुलामी मिट गई है. समता आ गई है. छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है आदि. लेकिन यह सच्चाई से बहुत है. दुनिया तथ्यों को जानती-समझती है.

इस बीच एक ब्लॉगर डोरोथी ने अपने एक कमेंट के द्वारा बताया था कि पूर्वी भारत की कोल जनजाति भी अपना उद्गम सिंधुघाटी सभ्यता को मानती है. इस बारे में मुझे एक लिंक मिला- दि इंडियन नसाइक्लोपीडिया जिसे इस आलेख में 'Other Links’ के अंत में दिया गया है. इसमें पर्याप्त व्याख्या है. 

कोली, कोरी और कोल भारत के मूलनिवासी हैं. आर्यों (ब्राह्मणों) से पहले वे इस भूमि पर बस चुके थे. जब मूलनिासी युद्ध में हार गए तब आगे चल कर उन्हें अलग-अलग नाम और व्यवसाय दिए गए. उन्हें अलग-अलग जाति कहा गया. उनसे शिक्षा का अधिकार छीन लिया गया. आज देश में लोकतंत्र होने के बावजूद ये अभी इतने अशिक्षित और इतने दबाव में रहे हैं कि अपनी सामाजिक और राजनीतिक एकता और सत्ता में भागीदारी के बारे में बड़ी सोच तक नहीं पहुँच पाए हैं.

ख़ैर! मेघवाल, बुनकर, मेघ, भगत, जुलाहा, अंसारी, पंजाब के कबीरपंथी आदि समुदायों की भाँति कोली और कोरी भी पारंपरिक रूप से जुलाहे हैं. सरकारी नीतियों और औद्योगीकरण के कारण इनका ह पारंपरिक व्यवसाय तबाह हो चुका है और वे आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी एक बड़ी आबादी गरीबी और कुपोषण की शिकार है. इन्हें बहुत कम वेतन पर रोज़गार दिया जाता है. बेगार (Forced labor) के तौर पर कार्य करना इनके लिए कोई नई बात नहीं है. (कोल शब्द अफ़्रीकी मूल का माना जाता है. ऐसा प्रतीत होता है कि कोली शब्द कोल से ही बना है). ख़ैर, आप इस आलेख के अंश पढ़ना जारी रखें और इन विश्वसनीय तथा प्यारे कोली/कोरी लोगों के बारे में जाने.

(विशेष नोट - इस आलेख में कुछ मिथकीय पात्रों के नाम है जैसे - वाल्मीकि, राम आदि जिनका अस्तित्व ऐतिहासिक दृष्टि से विवादित है. कुछ अन्य बातें भी हैं जिन्हें इतिहास की नई खोजों और पुरातत्व की कसौटी पर कसने की आवश्यकता है. इसके बावजूद यह आलेख पठनीय है.)


अशोक महान कोरी कबीले से थे
कोली (Story Of India’s Historic People - The Kolis)
एक समय आता है जब हममें से प्रत्येक व्यक्ति पूछता है, ‘मैं कौन हूँ? मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे? उनकी बड़े कार्य क्या थे और उनके सुख-दुख क्या थे?’ ये और अन्य कई मूलभूत सवाल हैं जिनके बारे में हमें उत्तर पाना होता है ताकि हम अपने मूल को पहचान सकें.
भारत के मूलनिवासी कबीलों के बारे में अध्ययन करते हुए हमारे विद्वानों ने अति प्राचीन रिकार्ड और दस्तावेज़ वेद, पुराण, विभिन्न भाषाओं के महाकाव्य, कई पुरातात्विक रिकार्ड और नोट्स और कई अन्य प्रकाशन देखे हैं.
इतिहास और एंथ्रपॉलॉजी के विद्यार्थियों ने प्रागैतिहासिक (Pre-historic) और भारत के स्थापित इतिहास में भारत के इस प्राचीन कबीले का चमकता अतीत पाया है और लगातार चल रही खोज में और भी बहुत कुछ मिल रहा है.

यह आलेख गुजराती में लिखे मुख्यतः तीन प्रकाशनों पर आधारित है. भारत का एक प्राचीन कबीला कोली कबीले का इतिहास इस पुस्तक का संपादन श्री बचूभाई पीतांबर कंबेद ने किया था और भावनगर के श्री तालपोड़ा कोली समुदाय ने प्रकाशित किया था (पहला संस्करण 1961 और दूसरा संस्करण 1981), 1979 में बॉम्बे समाचार में प्रकाशित श्री रामजी भाई संतोला का एक आलेख और डॉ. अर्जुन पटेल द्वारा 1989 में लिखा एक विस्तृत आलेख जो उन्होंने 1989 में हुए अंतर्राष्ट्रीय कोली सम्मेलन में प्रस्तुत करने के लिए तैयार किया था.

भगवान वाल्मीकि और उनकी रामायण

प्राचीनतम राजा मन्धाता, एक सर्वोपरि और सार्वभौमिक राजा था जिसका प्रताप भारत में सर्वत्र था और जिसके शौर्य और यज्ञों की कथाएँ मोहंजो दाड़ो (मोहन जोदड़ो) के शिलालेखों पर अंकित हैं, वे इसी कबीले के थे. प्राचीनतम और पूज्य ऋषि वाल्मीकि जिन्होंने रामायण लिखी वे इसी कबीले से थे. महाराष्ट्र राज्य में आज भी रामायण को कोली वाल्मीकि रामायण कहा जाता है. रामायण की शिक्षाएँ भारतीय संस्कृति का आधार हैं. 

ईश बुद्ध
भगवान बुद्ध की पत्नी कोली कबीले से थी. महान राजा चंद्रगुप्त मौर्य और उसके कुल के राजा कोली कबीले के थे. संत कबीर, जो पेशे से जुलाहे थे, के कई भजनों में लिखा है- कहत कबीर कोरी”, उन्होंने स्वयं को कोरी कहा है. सौराष्ट्र के भक्तराज भदूरदास और भक्तराज वलराम, जूनागढ़ के गिरनारी संत वेलनाथजी, भक्तराज जोबनपगी, संत श्री कोया भगत, संत धुधालीनाथ, मदन भगत, संत कंजीस्वामी जो 17वीं और 18वीं शताब्दी के थे, ये सभी कोली कबीले के थे. उनके जीवन और ख्याति के बारे में 'मुंबई समाचार', 'नूतन गुजरात', 'परमार्थ' आदि में छपे आलेखों से जानकारी मिलती है.
महाराष्ट्र राज्य में शिवाजी के प्रधान सेनापति और कई अन्य सेनापति इसी कबीले के थे. ‘A History of the Marathas’ (मराठा इतिहास) मुख्यतः मवालियों और कोलियों से भरी शिवाजी की सेना का शौर्य गर्वपूर्वक कहता है. शिवाजी का सेनापति तानाजी राव मूलसरे जिसे शिवाजी हमेशा मेरा शेर कहा करते थे, एक कोली था. जब तानाजी कोडना गढ़ को जीतने के लिए लड़ी लड़ाई में शहीद हुआ तो शिवाजी ने उसकी स्मृति में उस किले का नाम बदल कर सिंहाढ़ रख दिया.  
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्रम में बहुत सी कोली महिला योद्धाओं ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उनमें एक उसकी बहुत करीबी साथी थी जिसका नाम झलकारी बाई था. इस प्रकार कोली समाज ने देश और दुनिया को महान बेटे और बेटियाँ दी हैं जिनकी शिक्षाओं का सार्वभौमिक महत्व और प्रासंगिकता आज आधुनिक जीवन में भी है.

हमारे प्राचीन राजा मन्धाता की कथा
ओंकारनाथेश्वर में मन्धाता मंदिर

कहा जाता है कि श्री राम का जन्म मन्धाता के बाद 25वीं पीढ़ी में हुआ था. एक अन्य राजा ईक्ष्वाकु सूर्यवंश के कोली राजाओं में हुए हैं अतः मन्धाता और श्रीराम ईक्ष्वाकु के सूर्यवंश से हैं. बाद में यह वंश नौ उप समूहों में बँट गया, और सभी अपना मूल क्षत्रिय जाति में बताते थे. इनके नाम हैं: मल्ला, जनक, विदेही, कोलिए, मोर्या, लिच्छवी, जनत्री, वाज्जी और शाक्य.
पुरातात्विक जानकारी को यदि साथ मिला कर देखें तो पता चलता है कि मन्धाता ईक्ष्वाकु के सूर्यवंश से थे और उसके उत्तराधिकारियों को सूर्यवंशी कोली राजा के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि वे बहादुर, लब्ध प्रतिष्ठ और न्यायप्रिय शासक थे. बौध साहित्य में असंख्य संदर्भ हैं जिससे इसकी प्रामाणिकता में कोई संदेह नहीं रह जाता. मन्धाता के उत्तराधिकारियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और हमारे प्राचीन वेद, महाकाव्य और अन्य अवशेष उनकी युद्धकला और राज्य प्रशासन में उनके महत्वपूर्ण योगदान का उल्लेख करते हैं. हमारी प्राचीन संस्कृत पुस्तकों में उन्हें कुल्या, कुलिए, कोली सर्प, कोलिक, कौल आदि कहा गया है.

प्रारंभिक इतिहास बुद्ध के बाद
वर्ष 566 ई.पू. के दौरान, जब हिंदू धर्म निर्दयी हो चुका था और पूर्णतः पतित हो चुका था, तब राजकुमार गौतम जिसे बाद में विश्व ने बुद्ध (the enlightened one) के रूप में जाना, का जन्म उत्तर-पश्चिमी भारत में हिमायलन घाटी में रोहिणी नदी के किनारे हुआ. ईश बुद्ध की माता महामाया एक कोली राजकुमारी थीं.
ईश बुद्ध की शिक्षा को ऊँची जाति के हिंदुओं के निहित स्वार्थ के लिए ख़तरे के तौर पर देखा गया. शीघ्र ही बुद्ध की शिक्षाओं को भारत से पूरी तरह बाहर कर दिया गया.
ऐसा प्रतीत होता है कि कोली साम्राज्यों का बुद्ध से संबंध और प्रेम होने के कारण उन्हें सबसे अधिक अत्याचार सहना पड़ा. यद्पि अधिकतर लोगों ने बौध शिक्षा को नहीं अपनाया था लेकिन अन्य ने उन्हें दूर किया और शासकों ने भी उनकी उपेक्षा की.

ईश बुद्ध के 2000 वर्ष बाद
इस संघर्ष ने कोली साम्राज्यों को बहुत हानि पहुँचाई होगी. ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत ही क्लिष्ट हिंदू समाज में पदच्युति के बाद कभी बहुत शक्तिशाली रहा यह कबीला, जो बहुत परिश्रमी, कुशल, निष्ठावान्, आत्मनिर्भर साथ ही आसानी से भड़क कर युद्ध पर उतारू होने वाला था, अपनी केंद्रीय स्थिति खो बैठा. एक समाज जिसने अपनी देवी मुंबा देवी के नाम से मुंबई की स्थापना और निर्माण किया उसे आज राजनीतिक और शिक्षा की प्रभावी स्थिति में आना कठिन हो गया है. अब तो कई शताब्दियों से अन्य कबीलों ने इसे नीची नज़र से देखा और इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव इस समस्त क्षत्रिय समुदाय को तबाह करने वाला था.

वर्तमान

महाराष्ट्र के कोली मछुआरे

आज के भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कोली पाए जाते हैं और क्षेत्रीय भाषा के प्रभाव के कारण उनके नाम तनिक परिवर्तित हो गए हैं. कुछ मुख्य समूह इस प्रकार हैं: कोली क्षत्रिय, कोली राजा, कोली राजपूत, कोली सूर्यवंशी, नागरकोली, गोंडाकोली, कोली महादेव, कोली पटोल, कोली ठाकोर, बवराया, थारकर्ड़ा, पथानवाडिया, मइन कोली, कोयेरी, मन्धाता पटेल आदि.
भारत के मूलनिवासी कबीले के तौर पर खुले कृषि भू-भागों और समुद्र तटीय क्षेत्रों में रहने को पसंद करने वाला यह क्लैन्ज़मन है. आज के कोली कई कबीलाई अंतर्विवाहों से हैं. अनुमान लगाया गया है कि जनगणना में 1040 से भी अधिक उप-समूह हैं जिन्हें एक मुश्त रूप से कोली कहा जाता है. हिंदू होने के अतिरिक्त इन अधिकांश समूहों में सामान्य कुछ नहीं है, और कि ऊँची जाति के हिंदुओं यह स्वीकार करते हैं कि कोली स्पर्श से वे भ्रष्ट नहीं होते और शुद्ध वंश के कोली मुखियाओं की क्षत्रिय राजपूतों से अलग पहचान करना कठिन है जिनके साथ उनके नियमित अंतर्विवाह होते हैं.  

गुजरात के कोली
लेखक द्वय अंथोवन और डॉ. विल्सन मानते हैं कि गुजरात में मूलरूप से बसने वाले कोली और आदिवासी भील थे. रायबहादुर हाथीभाई देसाई पुष्टि करते हैं कि यह 600 वर्ष पूर्व शासक वनराज के समय में था. गुजराती जनसंख्या में बिल्कुल अलग जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले या तो वैदिक हैं या द्रविडियन हैं. इनमें नागर ब्रह्मण, भाटिया, भडेला, कोली, राबरी, मीणा, भंगी, डुबला, नैकडा, और मच्छी खारवा कबीले हैं. मूलतः पर्शिया से आए पारसी बहुत बाद में आए. शेष आबादी मूलनिवासी भीलों की है.

गुजरात के भील
डाँडी मार्च
जब बापू (एम.के. गाँधी) 9 जनवरी 1920 को दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो उनके साथ वहाँ जो लोग थे वे भी लौट आए. बापू को हमारे लोगों के चरित्र के बारे में व्यक्तिगत जानकारी थी. इसलिए जब 1930 के डाँडी मार्च के स्थान का निर्णय करने का समय आया तो डाँडी को चुना जाना अचानक नहीं हुआ क्योंकि उस समय कई विकल्प थे और अन्य स्वार्थी पक्षों का दबाव भी था. बापू किसी परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा करने में हमारे लोगों के साहस और गहरी समझ से संतुष्ट थे. और यह प्रमाणित भी हो गया.

निष्कर्ष
अपनी वर्तमान स्थिति के लिए हम उच्च जातिओं पूरी तरह दोष नहीं दे सकते. इतिहास में यह होता आया है कि कभी शक्तिशाली रहे लोग पतन को प्रात हुए और पूरी तरह अदृश्य हो गए या अकिंचन बना दिए गए. इस संसार में जहाँ योग्ययतम की जीत का नियम है वहाँ लोगों को महान प्रयास करने होते हैं और कुर्बानियाँ देनी होती हैं ताकि वे बुद्धिमान नेतृत्व में एक हों और फिर से इतिहास लिखना शुरू करें.
हमारे पास हज़ारों स्नातक और व्यवसायी हैं, उच्च योग्यता वाले डॉक्टर, डेंटिस्ट, वकील और कुशल टेक्नोक्रैट हैं जो भारत और अन्य देशों में रह रहे हैं. वे सभी अपनी कुशलता का प्रयोग पैसा बनाने और भौतिक पदार्थों और अन्य छोटे सुखों के लिए कर रहे प्रतीत होते हैं. भौतिक सुविधाएँ आवश्यक हैं परंतु हमारी प्राथमिकता अपने धर्म, संस्कृति और परंपरा को बचाने की भी अवश्य होनी चाहिए.
हमारी वर्तमान पीढ़ी के संपन्न लोग स्वयं को अपने समाज के मशालची के तौर पर देखें और ऐसे सभी प्रयास करें कि आपसी संवाद स्थापित हो, एकता हो और अपने अतीत के गौरव को पुनः प्राप्त करने की ज़बरदस्त शक्ति बना जाए. अब यह हमारे लिए चुनौती है.

(नोट - जहाँ तक इतिहास का संबंध है मेरा विचार है कि हम उसे पौराणिक कथाओं के साथ जोड़ने लगते हैं जबकि हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि वैज्ञानिक खोज पर आधारित इतिहास पर ही भरोसा करें.)

15 August 2011

Aboriginal Tribes await freedom आज़ादी की बाट जोहते आदिवासी (मूलनिवासी)


आज सुबह से कई मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की बधाई दे चुका हूँ. परंतु मन से एक विचार नहीं जाता था कि क्या भारत में सभी को आज़ादी मिल चुकी है?

भारत के आदिवासी इस भू-भाग के मूलनिवासी हैं. मध्य एशिया से आए अन्य कबीलों ने इन्हें खदेड़ा और इनके हरे-भरे, उपजाऊ इलाकों में बस गए जबकि उजाड़े गए ये मूलनिवासी कठिन परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में चले गए. इन क्षेत्रों में दुर्गम पहाड़ी इलाके, घने जंगल, नदियों के बीच की ज़मीन, बाढ़ वाले इलाके, पठारी इलाके, रेगिस्तानी क्षेत्र आदि शामिल हैं. ज़ाहिर है इन क्षेत्रों तक सामाजिक विकास की बयार नहीं गई. अलबत्ता औद्योगीकरण के रूप में इन क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों की हानि हुई है. प्रशासन जब चाहे नियम दिखा कर इन्हें घरों से बेदखल कर देता है जबकि परियोजनाएँ लेकर इनके क्षेत्रों में घुस आए ठेकेदारों के साथ शासन, पुलिस, मीडिया आदि सब कुछ होता है.
इन्हें संगठित करने वाला इनका अपना कोई नेतृत्व नहीं है. नेतृत्व के नाम पर इन्हें नक्सलवाद ज़रूर मिला जिसका नेतृत्व ऊँची जातियों के पास है.
आम आदिवासी सरकारी अधिकारियों और पुलिसिया अत्याचारों का जितना शिकार हुआ है उतना और कोई नहीं. मार खाते-खाते ये सिमटते गए हैं. भौगोलिक कारणों से ये बँटे हुए हैं. इनका कोई संगठित वोट बैंक नहीं है.

इनसे मिलता जुलता हाल अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़े वर्गों का भी है. लेकिन आदिवासियों की स्थिति सब से खराब है. ये कठिन भौगोलिक परिस्थितियों, सामाजिक और अत्याचार, अशिक्षा, भुखमरी और कुपोषण का शिकार हैं और सरकारी विकास/राहत परियोजनाओं का बहुत सा पैसा भ्रष्ट सरकारी या गैर-सरकारी संगठनों के लोग खा जाते हैं.

आगे का रास्ता मूलनिवासियों को शिक्षा, संगठन, राजनीतिक एकता और अपने वोट बैंक के ज़रिए स्वयं बनाना होगा

A latest link from Hindustan Times dated 25th February, 2016.



जंगल चीता बन लौटेगा :  उज्जवला ज्योति तिग्गा

जंगल आखिर कब तक खामोश रहेगा
कब तक अपनी पीड़ा की आग में
झुलसते हुए भी
अपने बेबस आंसुओं से
हरियाली का स्वप्न सींचेगा
और अपने अंतस में बसे हुए
नन्हे से स्वर्ग में मगन रहेगा
....

पर जंगल के आंसू इस बार
व्यर्थ न बहेंगे
जंगल का दर्द अब
आग का दरिया बन फ़ूटेगा
और चैन की नींद सोने वालों पर
कहर बन टूटेगा
उसके आंसुओं की बाढ़
खदकती लावा बन जाएगी
और जहां लहराती थी हरियाली
वहां बयांवान बंजर नजर आएंगे
....

जंगल जो कि
एक खूबसूरत ख्वाब था हरियाली का
एक दिन किसी डरावने दु:स्वपन सा
रूप धरे लौटेगा
बरसों मिमियाता घिघियाता रहा है जंगल
एक दिन चीता बन लौटेगा
....

और बरसों के विलाप के बाद
गूंजेगी जंगल में फ़िर से
कोई नई मधुर मीठी तान
जो खींच लाएगी फ़िर से
जंगल के बाशिंदो को उस स्वर्ग से पनाहगाह में
........
........