"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


24 September 2012

Mother Goddess is here - देवी माँ आई हैं


काफ़ी अर्से से एक आधुनिक शहर में रह रहा हूँ. कहीं किसी महिला में ‘देवी माँ’ के आने की ख़बर नहीं सुनी थी. इन दिनों मेरे सर्कल के एक मित्र के घर में ‘देवी माँ’ के पधारने की ख़बर आ गई.

बचपन में जब मेरी आयु 12-13 वर्ष की थी तब टोहाना में हमारे साथ वाले घर की एक नवविवाहिता में अचानक उसकी पहली स्वर्गीय सास आ गई. वर्तमान सास और ससुर हैरान. चारों ओर आड़ोस-पड़ोस में रहस्यमय और डर वाला माहौल बन गया. काफी तूफान मचा. सास-ससुर, पति-देवर परेशान. ओझा बुलाए गए. मुर्गी की बलि दी गई जो मरने से पहले गोल-गोल घूमी और गिर गई. दो सप्ताह तक दहशत फैली रही. डर के कारण मेरी माँ और मुझे सोते में छाती पर दबाव महसूस हुआ. अगले दिन माँ ने ओझा से कह कर तहलीज़ पर कील ठुकवा लिए.

बच्चा होने के नाते मेरा उस घर में आना-जाना अचानक भी हो जाता था. मुझे उस परिवार की कुछ ऐसी बातें पता थीं जो बड़े नहीं जानते थे. मैंने एक दिन माँ से कहा कि उस महिला में आई उसकी पहली सास कहेगी कि ‘मेरी बहु को कुछ दिन के लिए उसके गाँव भेज दो’. माँ ने पूछा, "तुझे कैसे पता?" मैंने जानते हुए भी उत्तर नहीं दिया लेकिन ऐसे मुँह बनाया जैसे मैं ‘अज्ञात’ बातें जानता हूँ. यह 'बच्चे' की समझदारी ही थी…..और मेरी ‘भविष्यवाणी’ सच साबित हुई. बहु को उसके गाँव भेज दिया गया. सब ठीक हो गया. आठ-दस महीने के बाद वो लौटी. यह जीवन के एक अनजाने पक्ष का ऐसा सच था जिसे उस महिला के ससुराल वालों ने यह सोच कर स्वीकार कर लिया कि- 'जाने दो'. पूरे मामले में धर्म बस इस बात में दिखा कि आगे चल कर बहु की मानसिक तकलीफ़ को समझते हुए उसे माफ़ कर दिया गया.

‘मृतात्माएँ’ यूँ ही प्रकट नहीं होतीं. कोई व्यक्ति दुखी होता है या उसकी इच्छाएँ पूरी नहीं हो रही होतीं तो मृतात्माएँ, भूत आदि प्रकट होने लगते हैं. पति के नपुंसक होने पर पत्नी या युवा विधवाओं को भूत-प्रेतों या ‘ऊपरी चीज़ों’ का सताना और उनके डर से उसका साधुओं के पास या धार्मिक स्थानों पर जाना इसी मानसिक प्रक्रिया का हिस्सा है. 

इसके अन्य नकली कारण भी होते हैं. जिसका मैंने ऊपर शुरू में उल्लेख किया है मेरे उसी मित्र की पत्नी एक अन्य महिला के संपर्क में है जिसमें ‘देवी माँ’ आती है और उस महिला ने अपने घर में ही एक मंदिर भी बना रखा है. उसके पति ने इसे किसी कारण से छोड़ दिया था और अब उस महिला पर तीन पुत्रियों का उत्तरदायित्व है. मित्र की पत्नी उसके मंदिर में नियमित रूप से जाती है और खूब चढ़ावा चढ़ाती है.

एक दिन मित्र के यहाँ कीर्तन रखा गया तो मुझे भी निमंत्रण मिला. मैं लगभग जानता था कि क्या होने जा रहा है. कुछ देर ‘देवी माँ’ की आरतियाँ गाने के बाद एक भजन-सा गाया गया जिसका भाव था- ‘आज मेरी माँ यहाँ प्रकट होगी’. दोनों महिलाओं ने अपने बाल ऐसे बाँध रखे थे कि आसानी से खुल जाएँ. फिर उनका सिर घुमाने, झूमने और लंबी जीभ निकालने का नाटक शुरू हुआ. मोहल्ले की कुछ महिलाएँ तभी उठ कर चली गईं. एक यह कह कर चली गई कि 'इन पढ़े-लिखों से तो हम अनपढ़ ही अच्छे हैं'. कीर्तन का सार इतना-सा ही है कि अपने घर में मंदिर चलाने वाली ‘देवी’ ने अंत में मेरे मित्र की पत्नी को बताया- ‘तुम्हारे ख़ानदान का ही कोई ऐसा है जिसने तुम्हारी फ़ैमिली को कुछ किया हुआ है’. उनके परिवार की बनावट ऐसी थी कि यदि 'इसको छोड़ दो, उसको भी जाने दो' के तरीके से परिवार की केवल उस इकाई की ओर शक की उँगली जाती थी जिसका कुल संपत्ति में बराबर का कानूनी अधिकार था. कुल मिला कर देवी प्रकट होने की वजह में नया कुछ नहीं था. सिर्फ़ इतना प्रयोजन था कि संपत्ति में जो शरीक़ हैं उनके विरुद्ध नफ़रत का वातवरण बनाया जाए और संपत्ति के मामले में सास-ससुर के निर्णयों को प्रभावित किया जाए.

अधिकतर मामलों में 'देवी माँ' के ये व्यवसायी ऐसे 'कीर्तनों' के आयोजन का मकसद पहले से जानते हैं. ये कभी भूल कर भी उस व्यक्ति का नाम नहीं लेते जिसके ख़िलाफ़ नफ़रत और डर का वातावरण बनाना होता है. सवालों के जवाब में अस्पष्ट अर्थ देने वाले गोल-मोल शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं और शेष कार्य कानाफूसी, निंदा, चुग़ली, अनुमान आदि के ज़रिए होने दिया जाता है. क्योंकि किसी व्यक्ति का नाम लेने पर ऐसे तथाकथित धार्मिक कीर्तन में बवाल हो सकता है और कीर्तन करने आई "देवी माँ" को फटकार लगा पूछा जा सकता है कि ‘तुमने एक व्यक्ति का नाम लिया है तो तुम्हारा मतलब और मकसद क्या है और तुम्हारे खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई क्यों न की जाए.’ 

इस तरह का धंधा करने वालों को गुंडों और पुलिस का साथ लेना पड़ता है. पुलिस वाले इनके ज़रिए विभिन्न परिवारों की आंतरिक जानकारियाँ ले सकते हैं. यह धंधा करने वाले अपने 'ग्राहकों' से उनके संपर्कों (कन्टैक्ट्स) की भी जानकारी ले लेते हैं और उनका शोषण कर सकते हैं. किसी का दिया हुआ विज़िटिंग कार्ड तक इनके बहुत काम का होता है. इस धंधे का मूल मंत्र है - भय और आशंका का वातावरण बना कर धन कमाना. इस बात को ‘देवी माँ’ जानती है.

11 September 2012

Hindi Day, 14h September - हिंदी दिवस - 14 सितंबर

भाषा की दृष्टि से केंद्र सरकार का स्टाफ दो वर्गों में बँटा है. अंग्रेज़ी कबीला जो खुद को अंग्रेज़ ही मानता है और हिंदी कबीला जो खुद को मूलतः हिंदी का मिशनरी मान कर चलता है. आम धारणा है कि हिंदी में यदि कुछ किया जाना है तो हिंदी कबीला करेगा. अँग्रेज़ी कबीला मुसीबत में ही हिंदी को हाथ लगाए तो लगाए.

कंप्यूटर जब आए तो उनके साथ आधुनिकता और ग्लैमर भी आ गए. तुरत अंग्रेज़ी कबीला कंप्यूटर पकड़ अकड़ कर बैठ गया और अंग्रेज़ी टाइपिंग का काम अपने हाथ में ले लिया. बाद में कंप्यूटर पर हिंदी आ गई. अंग्रेज़ी कबीला बिदका और खुश हुआ कि की-बोर्ड पर हिंदी नहीं लिखी है. लिखी होती तो कंप्यूटर में शॉर्ट सर्किट हो जाता.

अन्य स्टाफ़ हिंदी में काम नहीं करता तो न करे. दंड का कोई प्रावधान तो है नहीं. राजभाषा का करबद्ध काडर दफ़्तर के किसी गंदे से कोने में बैनर ले कर खड़ा रहता है- 'हिंदी में काम करना आसान है.' लेकिन अन्य कोनों से इसकी प्रतिध्वनि यों आती है- हिंदी तुम्हारी सर्विस का नाम है.

 हर साल 14 सितंबर को 'हिंदी दिवस' मनाया जाता है. बॉस एक बार हिंदी अधिकारी को बुला कर पूछ लेता है, मिस्टर हिंदी आफीसर, व्हाट्स द मेन्यु टु डे?” इस हिंदी कबीले के लिए यह एक प्रकार की '26 जनवरी' है जिस दिन इसकी अपनी फूलों सजी झाँकी निकाली जाती है. मंच पर बैठे अंग्रेज़ी बॉस के गले में हार डाले जाते हैं. बैनर-वैनर, भाषण-वाषणगाना-वाना, फोटो-वोटो, खाना-पीना होता है. समारोह समाप्त.

सीढ़ियों पर, दफ़्तर भर में चढ़ता-भागता यह कबीला शाम पाँच बजे लंबी साँस ले कर अपने बॉस लोगों और साथियों को कोस लेता है- 'आज सरकारी खर्चे पर तुमने ख़ूब काजू-बादाम खा लिए, कमबख्तो!! हिंदी में काम तुम धेले का नहीं करते.