"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


29 October 2012

Let us play fire – आओ ‘ठायँ-ठायँ’ खेलें



कंचे, गिल्ली डंडे और हाकी में बचपन खो दिया. छि-छि. बचपन बेकार गया. कुछ नहीं खेला.

आपको नए खेल 'ठायँ-ठायँ' से परिचित कराना आवश्यक हो गया है. आजकल गली-मोहल्ले में कोई वारदात-खेल-तमाशा हो तो वहाँ से गोली चलने की आवाज़ (ख़बर) आती है. जिन घरों से शास्त्रीय संगीत की ध्वनियाँ अपेक्षित हैं वहाँ पिस्तौल का होना पाया जाता है. कहा गया है कि 'शस्त्र रहेंगे तो उपयोग में आएँगे ही. दूसरों के लिए न सही, आत्महत्या के काम आएँगे'. आत्महत्या अपराध है लेकिन यह ऐसा अपराध भी नहीं कि हथियारों के लिए लाइसेंस देना बंद कर दिया जाए. मरने-मारने वाले के विवेक (discretion) पर भी कुछ तो छोड़ना पड़ता है. 

फिर बारी आती है आतंकियों की जो हर कहीं ‘फायर-फायर’ खेलते नज़र आते हैं. बताया जाता है कि उनको हथियारों की सप्लाई के स्रोत देशी भी हैं और विदेशी भी. पुलिस उनके हथियार देख कर बिदकती है. उनका मामला देखना सरकार का काम है जो कभी ग़लत काम नहीं करती! कर ही नहीं सकती!! ऐसा लोगों का मानना है.

फायर आर्म्स के लाइसेंस दिए जाते हैं. फिर उनसे संबंधित फाइलों को दीमक चाट जाती है, चूहे खा जाते हैं या रिकार्ड रूम में आग लग जाती है. निरपराध हथियार क्या जाने कि वे किस-किस के हाथों से ग़ुज़र कर आए हैं. पूर्वी यूपी में आधुनिक बंदूकों का खुला सार्वजनिक प्रदर्शन आप में से कइयों ने देखा होगा. अब आम आदमी गुंडो-दबंगों से कैसे पूछे कि उनके हथियार लाइसेंसी हैं या नहीं. आम आदमी के पास जीने का लाइसेंस थोड़े न है.   

समाचारों से लगने लगा है कि अस्त्र-शस्त्र सब कहीं हैं. कहीं से भी ले लीजिए. ज़्यादा हो तो दोस्तों को दे दीजिए. फिर गली में आ जाइए, सनसनी भरा खेल खेलिए. 'ठायँ-ठायँ' कर के लाशें गिराएँ. जस्ट लाइक वीडियो गेम यू सी. सभी मिल कर खेलें ताकि किसी को शिकायत न हो.  😟

6 comments:

  1. बिल्‍कुल सही कहा है आपने ...
    सादर

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  2. गाँव में चाकू-चाकू भी खेला जाता है जो केवल अस्पताल तक के लिए होता है..

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    1. आपने याद दिला दिया. बच्चों को 'चाकू-चाकू' खेलते मैंने देखा हुआ है.

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  3. बिलकुल ठीक कहा आपने आज कल तो बस हर ओर यही खेल देखने को मिलता है फिर चाहे वो गाँव हो या शहर या फिर टीवी या सिनेमा बस हर ओर एक ही शोर'ठायँ-ठायँ'.

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    1. टीवी-सिनेमा ने तो हद कर दी है. वे तो जैसे भूल ही गए हैं कि बच्चे वही करने लगते हैं जो वे देखते हैं. भगवान हमारे देश को बचाए रखे.

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  4. सर जी ---बहुत ही खूब सुरती से सच्चाई उगलती पोस्ट |

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