"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


31 January 2012

Megh Nagar - मेघ नगर


संभव है कि यह संयोग मात्र हो कि स्यालकोट से आए मेघ भगतों को जालंधर (एक शूद्र ऋषि के नाम पर बने शहर) में बसाया गया. फिर जहाँ उनके लिए कच्ची बैरकें बनीं उस स्थान का नाम भार्गव कैंप, गाँधी कैंप आदि रखा गया. अब काफी वर्ष बीत चुके हैं और ये कैंप पूरी तरह से मेघों के साथ जुड़ गए हैं. भार्गव कैंप में कभी एक स्कूल खुला था जिसे आर्य समाज के नाम से खोला गया था. ज़ाहिर था कि इस स्कूल का नाम मेघ समुदाय के नाम से मेघ हाई स्कूल रखने में किसी की कोई रुचि नहीं थी.

देश को आज़ाद हुए 64 वर्ष से ऊपर हो चुके हैं. पंजाब में इतनी जनसंख्या होने के बावजूद मेघ भगतों के नाम से कोई स्थान नहीं है. ले दे के भगत बुड्डा मल के नाम से एक ग्राऊँड थी जहाँ शनि मंदिर बना दिया गया है.

क्या अब यह संभव है कि सभी वार्ड्स में हस्ताक्षर मुहिम चला कर भार्गव कैंप का नाम बदल कर मेघ नगर कराने के प्रयास किए जाएँ? इससे समुदाय को ज़बरदस्त पहचान मिलती है.

27 January 2012

Genetics of a story – एक कहानी की अनुवांशिकी

यह कहानी एक वक्ता ने टीम बिल्डिंग संबंधी प्रशिक्षण के दौरान ज्ञान साझा करने की आवश्यकता बताते हुए सुनाई.

भाग-1 (पुरानी कहानी)
आपने सुना होगा. एक सौदागर टोपियाँ बेचता था. वह जंगल से गुज़रा और थक कर सो गया. तभी बंदर उसकी टोपियाँ चुरा कर पेड़ों पर चढ़ गए. सौदागर की नकल करते हुए उन्होंने टोपियाँ सिरों पर पहन लीं. जगने पर सौदागर परेशान हुआ और टोपियाँ वापस पाने के लिए कई उपाय किए लेकिन असफल रहा. फिर उसे कुछ सूझा. उसने अपनी टोपी ज़मीन पर पटक दी और नकलची बंदरों ने नकल करते हुए टोपियाँ ज़मीन पर फेंक दीं. सौदागर का काम बन गया.

भाग-2 (नई कहानी)
कई वर्षों के बाद उस सौदागर का बेटा टोपियाँ लेकर उसी जंगल से गुज़रा. जैसा कि होना था, बंदरों ने उसकी टोपियाँ चुरा लीं. उसके पिता ने बताया था कि बंदर टोपियाँ चुरा लें तो अपनी टोपी ज़मीन पर पटक देना. उसने टोपी ज़मीन पर पटकी लेकिन बंदरों ने वैसा नहीं किया बल्कि हँसने लगे. परेशान सौदागर ने बंदरों से पूछा, "मेरे पिता जी ने बताया था कि तुम लोग नकल करते हुए टोपियाँ नीचे फेंक दोगे. लेकिन तुमने वैसा क्यों नहीं किया?" एक छोटा बंदर हँस कर बोला, तुम्हारे पिता जी ने तुम्हें वैसा बताया था तो हमारे पिता जी ने हमें ऐसा बताया था कि सौदागर टोपी नीचे फेंके तो तुम टोपी नीचे फेंकने की ग़लती मत करना. अब जो तू करेगा, हमारे लिए मज़ेदार होगा.

ट्रेनिंग ने बंदरों को उन्नत किया और इस कहानी ने ट्रेनीज़ को.



08 January 2012

The rat, my friend - चूहा, मेरा मित्र


मनुष्य के तौर पर पैदा हुए हमारे वैज्ञानिकों को जब दवाइयों और रसायनों का प्रयोग करना हो तो चूहों पर करते हैं. फिर मनुष्यों में चूहों का दर्जा प्राप्त चुनिंदा मनुष्यों पर अपने प्रयोग करते हैं. फिर आगे के प्रयोगों के लिए उन दवाओं आदि को मनुष्य रूपी चूहों से भरे दक्षिण एशिया में भेज देते हैं. अमेरिकी और यूरोपियन चूहों की बारी शायद ही कभी आती हो.

बचपन में देखा कि हमारी टोहाना मंडी के मोटे चूहे देसी घी के डिब्बे के ढक्कन खोल कर घी चट कर जाते थे. कपड़े धोने वाले देसी साबुन और नहाने वाले साबुन को भी बड़े शौक से खाते थे. अब देखता हूँ कि ये चूहे साबुनों को देखते तक नहीं.

मनुष्य हूँ सो प्रयोग करने की आदत है. एक रात मैंने दो चम्मच देसी घी खुली कटोरी में डाल कर बिना ढके रसोई में रख दिया. सुबह देखा. घी पर खरोंच तक नहीं थी. अलबत्ता एक पतीले का ढक्कन चूहों ने उतार फेंका था जिसमें उबले आलू रखे थे. आलू खा कर वे कुछ टुकड़े छोड़ गए थे जैसे कह गए हों, "थैंक्यू अंकल जी, यह आलू अच्छा रहा." समझें तो चूहों ने साफ़ बता दिया कि देसी घी मिलावटी था और आलू सुरक्षित था. सुना है कुछ और जानवर भी ख़तरनाक कैमिकल्ज़ को सूँघ लेते हैं और रिजेक्ट कर देते हैं.

सरकार भी मानने लगी है कि हमारे खाने में कीटनाशकों की भारी मात्रा होती है. इधर मेरा वज़न कम हो रहा है. सोचता हूँ खाने में आलू की मात्रा बढ़ा दूँ. इंसान के तौर पर जब मेरी बुद्धि खाने-पीने की चीज़ों की सही परख नहीं कर सकती और परख हो भी गई तो खाना तो वही पड़ेगा जो बाज़ार में मिल रहा है तो ऐसी हालत में चूहों की पसंद को समझने में ही समझदारी है. दक्षिण एशिया का हूँ तो जितनी भी है अक्ल तो रखता ही हूँ.

07 January 2012

Baba Faqir Chand and circle of rebirth - बाबा फकीर चंद और आवागमन


आवागमन को लेकर एक प्रश्न उठता रहता है कि इतने ऋषि-मुनि, गुरु, महात्मा, संत, बाबा, योगी आदि हो गुज़रे हैं और उनके इतने शिष्य और शिष्यों की अगणित शाखाएँ-प्रशाखाएँ हैं कि यदि वे आवागमन के चक्र से बाहर हो जाते तो जन्म-मरण के सिद्धांत के अनुसार विश्व की आबादी, विशेष कर भारत की, कम होनी चाहिए थी. हुआ उलटा. इसकी एक व्याख्या बाबा फकीर चंद के साहित्य से मिली है जो मुझे बेहतर लगती है :-

सोचता हूँ यह सृष्टि अनादि हैयदि यह मान लूँ कि सन्तों की शिक्षा से आवागमन छूट जाता है तो ख्याल करता हूँ कि सत का प्राकट्य कलियुग में हुआ तो आबादी तो इतनी बढ़ी कि जिसका कोई हिसाब नहींघट जानी चाहिए थीइसे जानने में मेरा दिमाग़ फेल होता हैमैं तो हौसले से कहना चाहता हूँ कि कुदरत के भेद का पता शायद कबीर को भी न लगा होइतना ही लगा कि वे इस संसार से उस ज्ञान के आधार परजो मैंने संतमत में समझाशायद आप अलग हो गये होंकई बार सोचता हूँ कि अलग हो गये तो क्या हो गयाजो अलग हो गया उसके लिए संसार नहीं रहादुनिया जैसी है वैसी बनी हुई हैसत्युगत्रेताद्वापर और कलियुग के चक्र आते रहते हैंक्या कहूं कि कितने मनुष्य या कितनी आत्माएँ इस संसार से निकल गईंसमझ यही आई कि आप निकल गया उसके लिये संसार भी निकल गया.”    (अगम-वाणी से)