"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


14 August 2013

Kabir - A point - कबीर एक मुद्दा



कबीर के बारे में बहुत भ्रामक बातें साहित्य में भर दी गई हैं. अज्ञान फैलाने वाले कई आलेख कबीरधर्म में आस्था, विश्वास और श्रद्धा रखने वालों के मन को ठेस पहुँचाते हैं. यह कहा जाता है कि कबीर किसी विधवा ब्राह्मणी (किसी चरित्रहीन ब्राह्मण) की संतान थे. ऐसे आलेखों से कबीरधर्म के अनुयायियों की सख्त असहमति स्वाभाविक है क्योंकि कबीर ऐसा विवेकी व्यक्तित्व है जो भारत को छुआछूत, जातिवाद, धार्मिक आडंबरों और मनुवादी संस्कृति के घातक तत्त्वों से उबारने वाला है और उसकी छवि बिगाड़ने वालों की कमी नहीं.

कबीर जुलाहा परिवार से हैं. कबीर ने स्वयं लिखा है- कहत कबीर कोरी. मेघवंशियों की भाँति यह कोरी-कोली समाज भी पुश्तैनी रूप से कपड़ा बनाने का कार्य करता आया है. स्पष्ट है कि कबीर एक कोरी परिवार (मेघवंश) में जन्मे थे जो छुआछूत आधारित ग़रीबी और गुलामी से पीड़ित था और जातिवाद के नरक से निकलने के लिए उसने इस्लाम अपनाया था.

स्पष्ट शब्दों में कहें तो कबीर मेघवंशी थे. यही कारण है कि जुलाहों के वंशज या भारत के मूलनिवासी स्वाभाविक ही कबीर के साथ जुड़े हैं और कई कबीरपंथी कहलाना पसंद करते हैं.

आज के भारत में देखें तो कबीर भारत के मूलनिवासियों के दिल के बहुत करीब हैं. हाँ, भारत में बसी विदेशी मूल की जातियों को कबीर से परहेज़ रहा है.

चमत्कारों, रोचक और भयानक कथाओं से परे कबीर का सादा-सा चमत्कारिक जीवन इस प्रकार है:-

कबीर का जीवन

बुद्ध के बाद कबीर भारत के महानतम धार्मिक व्यक्तित्व हैं. वे संतमत के और सुरत-शब्द योग के प्रवर्तक और सिद्ध हैं. वे तत्त्वज्ञानी हैं. एक ही चेतन तत्त्व को मानते हैं और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी हैं. अवतार, मूर्ति, रोज़ा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि धार्मिक गतिविधियों को वे महत्व नहीं देते हैं. लेकिन भारत में धर्म, भाषा या संस्कृति किसी की भी चर्चा कबीर की चर्चा के बिना अधूरी होती है.

उनका परिवार कोरी जाति से था जो मनुवादी जातिप्रथा के कारण हुए अत्याचारों से तंग आकर मुस्लिम बना था. कबीर का जन्म नूर अली और नीमा नामक दंपति के यहाँ लहरतारा के पास सन् 1398 में हुआ (कुछ वर्ष पूर्व इसे सन् 1440 में निर्धारित किया गया है) और बहुत अच्छे धार्मिक वातावरण में उनका पालन-पोषण हुआ.

युवावस्था में उनका विवाह लोई (जिसे कबीर के अनुयायी माता लोई कहते हैं) से हुआ जिसने सारा जीवन इस्लाम के उसूलों के अनुसार पति की सेवा में व्यतीत कर दिया. उनकी दो संताने कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) हुईं. कमाली की गणना भारतीय महिला संतों में होती है. संतमत की तकनीकी शब्दावली में उन दिनों नारी से तात्पर्य कामना या इच्छा से रहा है और इसी अर्थ में प्रयोग होता रहा है. लेकिन मूर्ख पंडितों ने कबीर को नारी विरोधी घोषित कर दिया. कबीर हर प्रकार से नारी जाति के साथ चलने वाले सिद्ध होते हैं. उन्होंने संन्यास लेने तक की बात कहीं नहीं की. वे गृहस्थ में सफलतापूर्वक रहने वाले सत्पुरुष थे.

कबीर स्वयंसिद्ध अवतारी पुरूष थे जिनका ज्ञान समाज की परिस्थितियों में सहज ही स्वरूप ग्रहण कर गया. वे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते हैं. मुस्लिम समाज में रहते हुए भी जातिगत भेदभाव ने उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी लिए उन्होंने हिंदू-मुसलमान सभी में व्याप्त जातिवाद के अज्ञान, रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया. कबीर आध्यात्मिकता से भरे हैं और जुझारू सामाजिक-धार्मिक नेता हैं.

कबीर भारत के मूनिवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. मनुवादियों और पंडितों के विरुद्ध कबीर ने खरी-खरी कही जिससे चिढ़ कर उन्होंने कबीर की वाणी में बहुत सी प्रक्षिप्त बातें ठूँस दी हैं और कबीर की भाषा के साथ भी बहुत खिलवाड़ किया है. आज निर्णय करना कठिन है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है तथापि उनकी बहुत सी मूल वाणी को विभिन्न कबीरपंथी संगठनों ने प्रकाशित किया है और बचाया है. कबीर की साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी देखी जा सकती है. साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है. जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने भक्तों-फकीरों का सत्संग किया और उनकी अच्छी बातों को हृदयंगम किया.

कबीर ने सारी आयु कपड़ा बनाने का कड़ा परिश्रम करके परिवार को पाला. कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया. सन् 1518 ने देह त्याग किया.

उनके ये दो शब्द उनकी विचारधारा और दर्शन को पर्याप्त रूप से इंगित करते हैं:-


(1)
आवे न जावे मरे नहीं जनमे, सोई निज पीव हमारा हो
न प्रथम जननी ने जनमो, न कोई सिरजनहारा हो
साध न सिद्ध मुनी न तपसी, न कोई करत आचारा हो
न खट दर्शन चार बरन में, न आश्रम व्यवहारा हो
न त्रिदेवा सोहं शक्ति, निराकार से पारा हो
शब्द अतीत अटल अविनाशी, क्षर अक्षर से न्यारा हो
ज्योति स्वरूप निरंजन नाहीं, ना ओम् हुंकारा हो
धरनी न गगन पवन न पानी, न रवि चंदा तारा हो
है प्रगट पर दीसत नाहीं, सत्गुरु सैन सहारा हो
कहे कबीर सर्ब ही साहब, परखो परखनहारा हो
(2)
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
न तीरथ में, न मूरत में, न एकांत निवास में
न मंदिर में, न मस्जिद में, न काशी कैलाश में
न मैं जप में, न मैं तप में, न मैं बरत उपास में
न मैं किरिया करम में रहता, नहीं योग संन्यास में
खोजी होए तुरत मिल जाऊँ, एक पल की तलाश में
कहे कबीर सुनो भई साधो, मैं तो हूँ विश्वास में

कबीर की गहरी जड़ें

कबीर को सदियों हिंदी साहित्य से दूर रखा गया ताकि लोग यह वास्तविकता न जान लें कि कबीर के समय में और उससे पहले भी भारत में धर्म की एक समृद्ध परंपरा थी जो तथाकथित हिंदू परंपरा से अलग थी और कि भारत के वास्तविक सनातन धर्म जैन और बौध धर्म हैं. कबीरधर्म, ईसाईधर्म तथा इस्लामधर्म के मूल में बौधधर्म का मानवीय दृष्टिकोण रचा-बसा है. यह आधुनिक शोध से प्रमाणित हो चुका है. उसी धर्म की व्यापकता का ही प्रभाव है कि इस्लाम की पृष्ठभूमि के बावजूद कबीर भारत के मूलनिवासियों के हृदय में ठीक वैसे बस चुके हैं जैसे बुद्ध.

भारत के मूलनिवासी स्वयं को वृत्र का वंशज मानते हैं जिसे चमड़ा पहनने वाली आर्य नामक जनजाति ने युद्ध में पराजित किया और बाद में सदियों की लड़ाई के बाद जुझारू मूलनिवासियों को गरीबी में धकेल कर उन्हें नाग, ‘असुरऔर 'राक्षस' जैसे नाम दे दिए. उपलब्ध जानकारी के अनुसार हडप्पा सभ्यता से संबंधित ये लोग कपड़ा बनाने की कला जानते थे. यही लोग आगे चल कर विभिन्न जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़ी जातियों (आज के SCs, STs, OBCs) आदि में बाँट दिए गए ताकि इनमें एकता स्थापित न हो. कबीर भी इसी समूह से हैं. इन्होंने ऐसी धर्म सिंचित वैचारिक क्रांति को जन्म दिया कि शिक्षा पर एकाधिकार रखने वाले तत्कालीन पंडितों ने भयभीत हो कर उन्हें साहित्य से दूर रखने में सारी शक्ति लगा दी.

कबीर का विशेष कार्य - निर्वाण

निर्वाण शब्द का अर्थ है फूँक मार कर उड़ा देना. भारत के सनातन धर्म अर्थात् बौधधर्ममें इस शब्द का प्रयोग एक तकनीकी शब्द के तौर पर  हुआ है. मोटे तौर पर इसका अर्थ है मन के स्वरूप को समझ कर उसे छोड़ देना और मन पर पड़े संस्कारों और उनसे बनते विचारों को माया जान कर उन्हें महत्व न देना. दूसरे शब्दों में दुनियावी दुखों का मूल कारण संस्कार(impressions and suggestions imprinted on mind) है जिससे मुक्ति का नाम निर्वाण है. इन संस्कारों में कर्म फिलॉसफी आधारित पुनर्जन्म का सिद्धांत भी है जो मनुवाद की देन है. भारत के मूलनिवासियों को जातियों में बाँट कर गरीबी में धकेला गया और शिक्षा से भी दूर कर दिया गया. ब्राह्मणों ने अपने ऐसे पापों और कुकर्मों को एक नकली कर्म आधारित पुनर्जन्म के सिद्धांत से ढँक दिया ताकि उनकी ओर कोई आरोप की उँगली न उठाए. वास्तविकता यह है कि संतमत के अनुसार निर्वाण का अर्थ कर्म फिलॉसफी आधारित गरीबी और पुनर्जन्म के विचार से पूरी तरह छुटकारा है.

कबीर की आवागमन से निकलने की  बात करना और यह कहना कि साधो कर्ता करम से न्याराइसी ओर संकेत करता है. भारत का सनातन तत्त्वज्ञान दर्शन (चेतन तत्त्व सहित अन्य तत्त्वों की जानकारी) कहता है कि जो भी है इस जन्म में है और इसी क्षण में है. बुद्ध और कबीर अबऔर यहींकी बात करते हैं. जन्मों की नहीं. इस दृष्टि से कबीर ऐसे ज्ञानवान पुरुष हैं जिन्होंने मनुवादी संस्कारों के सूक्ष्म जाल को काट डाला है. वे चतुर ज्ञानी और विवेकी पुरुष हैं, सदाचारी हैं और सद्गुणों से पूर्ण हैं.....और जय कबीरइस भाव का सिंहनाद है कि कबीर ने मनुवाद से मूलनिवासियों की मुक्ति का मार्ग खोला है.

अब क्या हो?
 
कबीर कहीं भी पैदा हुए हों इससे कोई अंतर नहीं पड़ता. उनका प्रकाश दिवस (जन्मदिन) निर्धारित करना बेहतर होगा ताकि बहस करने वालों का मुँह बंद हो जाए. (यह दिन अक्तूबर-नवंबर में देशी माह की नवमी के दिन रखें. फिर किसी पंडित ज्योतिषी की न सुनें.) जो सज्जन कबीर को इष्ट के रूप में देखते हैं उन्हें चाहिए कि कबीर को जन्म-मरण से परे माने. कबीर के साथ सत्गुरु (सत्ज्ञान) शब्द का प्रयोग करें या केवल कबीर लिखें. कबीर दास लिखना उतना ही हास्यास्पद है जितना अनवर दास लिखना. यदि किसी धर्मग्रंथ, पुस्तक, फिल्म, सीरियल आदि में कबीर को समुचित तरीके से पेश नहीं किया जाता तो उसका विरोध करें. कबीर हमारी आस्था का केंद्र हैं. उस पर किसी भी आक्रमण का पूरी शक्ति से विरोध करें.

कबीर के गुरु कौन थे यह जानना कतई ज़रूरी नहीं है. आवश्यकता यह देखने की है कि कबीर ने ऐसा क्या किया जिससे पंडितवाद घबराता है. कबीर के ज्ञान पर ध्यान रखें उनके जीवन संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करें. उन्होंने सामाजिक, धार्मिक तथा मानसिक ग़ुलामी की ज़जीरों को कैसे काटा और अपनी तथा अपने मूलनिवासी भारतीय समुदाय की एकता और स्वतंत्रता का मार्ग कैसे प्रशस्त किया, यह देखें.

धर्म-चक्र और सत्ता का पहिया

एक तथ्य और है कि कबीर द्वारा चलाए संतमत की शिक्षाएँ और साधन पद्धतियाँ बौधधर्म से पूरी तरह मेल खाती हैं. कबीर ने अपनी नीयत से जो कार्य किया वह डॉ. भीमराव अंबेडकर के साहित्य में शुद्ध रूप से उपलब्ध है. डॉ अंबेडकर स्वयं कबीरपंथी (धर्मी) परिवार से थे.

इष्ट के तौर पर कैसै बनाएँ. उसे विष्णु की कथा वाला या विष्णु का अवतार न मान कर ब्रह्मा, विष्णु, महेश और देवी-देवताओं से ऊपर माने. सब कुछ देने वाला माने.

कबीर को किसी रामानुज नामक गुरु का शिष्य न माने. ये दोनों समकालीन नहीं थे.

कबीर की छवि पर छींटे 

यह तथ्य है कि कबीर के पुरखे इस्लाम अपना चुके थे. इसलिए कबीर के संदर्भ में या उनकी वाणी में जहाँ कहीं हिंदू देवी-देवताओं या हिंदू आचार्यों का उल्लेख आता है उसे संदेह की दृष्टि से देखना आवश्यक हो जाता है. पिछले दिनों कबीर के जीवन पर बनी एक एनिमेटिड फिल्म देखी जिसमें विष्णु-लक्ष्मी की कथा को शरारतपूर्ण तरीके से जोड़ा गया था. कहाँ इस्लाम में पढ़े-बढ़े कबीर और कहाँ विष्णु-लक्ष्मी. यह कबीरधर्म की मानवीय छवि पर पंडितवादी गंदा रंग डालने जैसा है. ऐसा करना मनुवाद और मनुस्मृति के नंगे विज्ञापन का कार्य करता है. ज़ाहिर है इससे भारत के मूलनिवासियों के आर्थिक स्रोतों को धर्म के नाम पर सोखा जाता है. कबीर के जीवन को कई प्रकार के रहस्यों से ढँक कर यही कवायद की जाती है ताकि उसके अनुयायियों की संख्या को बढ़ने से रोका जाए और दलितों के धन को कबीर द्वारा प्रतिपादित कबीरधर्म, दलितों की गुरुगद्दियों-डेरों आदि ओर जाने से रोका जाए. इस प्रयोजन से कबीर के नाम से देश-विदेश में कई दुकानें खोली गई हैं.

कबीरधर्म को कमज़ोर करने के लिए स्वार्थी तत्त्व आज भी इस बात पर बहस कराते हैं कि कबीर लहरतारा तालाब के किनारे मिले या गंगा के तट पर. उनके जन्मदिन पर चर्चा कराई जाती है. कबीर के गुरु पर विवाद खड़े कर दिए जाते हैं. रामानंद नामी ब्राह्मण को उनके गुरु के रूप में खड़ा कर दिया गया. कबीर को ही नहीं अन्य कई मूलनिवासी जातियों के संतों को रामानंद का शिष्य सिद्ध करने के लिए साहित्य के साथ बेइमानी की गई. उनमें से कई तो रामानंद के समय में थे ही नहीं. तथ्य यह है कि रामानंद के अपने जन्मदिन पर भी विवाद है. इसके लिए सिखी विकि में यहाँ (पैरा 4) देखें (Retrieved on 02-07-2011). उस कथा के इतने वर्शन हैं कि उस पर अविश्वास करना सरल हो जाता है. वे किसी विधवा ब्राह्मणी की संतान थे या बहुत धार्मिक माता-पिता नूर अली और नीमा के ही घर पैदा हुए इस विषय को रेखांकित करने की कोशिश चलती रहती है. ऐसी कहानियों पर विश्वास करने का कोई कारण नहीं क्योंकि इन्हें कुत्सित मानसिकता ने बनाया है. इसमें अब संदेह नहीं रह गया है कि कबीर नूर अली-नीमा की ही संतान थे और उनके जन्म की शेष कहानियाँ मनुवादी बक-बक है.


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