1984
में
पंजाब यूनीवर्सिटी,
चंडीगढ़
में एक लड़के से मुलाकात हुई
थी.
बहुत
ही मिलनसार निकला.
जब
मैंने उडुपि में सिंडीकेट
बैंक में ज्वाइन किया तो कुछ
दिनों के बाद वही लड़का वहाँ
दिखा.
बहुत
खुशी हुई.
उसके
बाद मैं उडुपि में जम गया और
वह लड़का कर्नाटक के शहर बेलगाम
में तैनात हुआ.
कुछ
माह बाद मेरा नाबार्ड में चयन
हुआ और मैं हैदराबाद चला गया.
उसके
बाद हम दोनों कुछ समय तक चंडीगढ़
में तैनात रहे.
तभी
पता चला कि जीत की एकमात्र
संतान,
उसकी
बिटिया सोनाली,
को
थर्ड स्टेज का कैंसर था.
दिल्ली
के डॉक्टरों ने प्रयोगात्मक
दवाओं के लिए उसे चुना और पिता
ने सहमति दे दी क्योंकि यही
उम्मीद बची थी.
लेकिन
डॉक्टर उसे नहीं बचा पाए.
महज़
चार दिन के बाद ही जीत की पत्नी
पति का घर छोड़ कर मायके चली
गई.
जीत
का एकाकी जीवन प्रारंभ हुआ
जो इस आयु में काफी कष्टकर
होता है.
यही
समय था जब जीत रावल को प्रेरणा
मिली और उन्होंने वालंटरी
रिटायरमेंट ले लिया और लुधियाना
के पास अपने गाँव समराला में
आ गए.
उन्होंने
एक ट्रस्ट बनाया-
'सोनाली-जीत
रावल चैरीटेबल ट्रस्ट'- और 10
मार्च
2013
को
उसका विधिवत् उद्घाटन कर दिया.
शुरुआत
में ही ट्रस्ट ने 21
लड़कियों
की पढ़ाई का ख़र्च उठाना शुरू
किया और आज 40
लड़कियों
की पढ़ाई आदि का खर्च उठा रहा
है.
23-05-2013 को
वे डॉ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता के जन्मदिवस के अवसर पर मिले थे और कह रहे थे कि अब
मेरी 40
बेटियाँ
हैं.
रिटायरमेंट
पर मिली समस्त धनराशि और पेंशन
को वे इसी कार्य में खर्च कर
रहे हैं.
एक
होम्योपैथिक अस्पताल और
पुस्तकालय भी बनवाया गया है.
26-05-2013 को
वे एक कार्यक्रम करने जा रहे
हैं.
उसकी
जानकारी मिलने पर यहाँ दूँगा.