"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


04 August 2014

Social psychology and scheduled castes - समाज मनोविज्ञान और अनुसूचित जातियाँ

Contributed by Tararam Gautam via Face Book


Know the social psychology-1

कई लोगों ने इसे ठीक से नहीं लिया और आज भी कई लोगों को डॉ. अम्बेडकर द्वारा सुझाये गए उपायों पर सहमति नहीं है। उन नासमझ लोगों के मनोविज्ञान पर डॉ आंबेडकर ने कहा- "हमने उपाए सुझाये। इसके लिए कुछ सवर्ण लोग (आजकल इसमें कुछ अवर्णी लोग भी शामिल हैं) हमें नासमझ कहेंगे, इस बात को हम अच्छी तरह से जनते हैं। लेकिन हमारा उनसे सवाल है कि हमें ऐसा मार्ग बताईये कि जिससे अछूत इस तरह का रास्ता न अपनाये। एकजुट होकर अछूतों को अपनी बात सवर्ण लोगों के सामने रखनी चाहिए, यह सलाह बहुत पुरानी है। लेकिन सालों के आन्दोलन के इतिहास से जो महत्वपूर्ण बात सामने आयी है, वह यह है कि अछूतों का कहना कितना भी सही हो, उनकी शिकायतें कितनी भी जायज हो, उनकी मांगे कितनी भी न्यायसंगत हो, उन्हें कितने ही लोगों का समर्थन प्राप्त हो और उन मांगों को उन्होंने सवर्णों के सामने कितनी भी उदारता से क्यों न रखा हो तब भी उनकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता। सत्ता के बल पर अछूतों के जनमत की अनदेखी करके सवर्ण हिन्दू अपनी बात पर अड़े रहेंगे। इसी स्थिति में जो लोग अछूतों को उपदे देते हैं कि तुम लोगों को बहिष्कार या विरोध का सिद्धांत स्वीकार नहीं करना चाहिये, उन लोगों को क्या कहा जाय? यह हमारी समझ में ही नहीं आ रहा है।"


Know the social psychology-2

"शुद्धि करके दूसरे धर्म में गए लोगों को हिन्दू धर्म में वापस लाने का एक र प्रयास करना और दूसरी ओर स्वधर्म में जो लोग हैं, उनके साथ अमानवीय व्यवहार करना- इस बात को हम जागरूक लोगों का लक्षण नहीं मानते।" - डॉ आंबेडकर, बहिष्कृत भारत, 22 अप्रैल, 1927.


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हिन्दू धर्म पर "अछूतपन" के लगे कलंक को एक झटके से मिटाने के लिए SC/ST के लोग लगे हैं, परन्तु अन्य लोग उनका उपहास उड़ाते हैं। कुछ लोग उन पर हँसते है और कुछ लोग गाली-गलौच भी करते हैं। यह बात हम जानते हैं। आप लोगों को भी जानना चाहिए। उनके उपहास की चिंता नहीं करनी चाहिए और डॉ बाबा साहेब ने जो उपाय बताये हैं, उस पर अमल करना चाहिए। जो लोग आपके साथ न होकर सनातन धर्म के नाम से, जाति के नाम से या अधिकारों आदि के नाम से आपको उपदेश देते हैं, उन्हें अनसुना कर देना चाहिए क्योंकि यह आपके हित और अधिकारों का मामला है। कुछ पिछड़े वर्ग के लोग भी आपको उपदेश देते हैं और उपहास करते है। उसके पीछे का मनोविज्ञान स्पष्ट करता है कि उनके ये क्रिया-कलाप समझदारी के नहीं है बल्कि उनके खून में समाया हुआ यह दोष परिस्थितिजन्य स्वाभाविक है।


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आप सभी जानते हैं और मार्क्सवादी तो इसे बेहतर जानते हैं। धर्मवादी और दूसरे भी जानते हैं कि हमारा संघर्ष बुनियादी संघर्ष है। एक अधिकार संम्पन वर्ग है और एक हीन वर्ग है। sc/st अधिकार हीन वर्ग है, जो संघर्षरत है। क्या इस बात को नजर अंदाज कर सकते हैं? द्विज या ब्राह्मण वर्ग अधिकार संपन्न वर्ग रहा है और समाज मनोविज्ञान यह कहता है कि जो अधिकार संपन्न वर्ग है, उसके लिए थोडा-बहुत स्वार्थ त्याग कर उदारता दिखाना कोई असंभव काम नहीं होता है। हिन्दू शास्त्र इसे साधारण धर्म कहता है। दूसरी ओर जो sc/st या अधिकारहीन वर्ग है, वह ध्येयवादी है, आप चाहे तो उसे स्वर्थवादी या र कुछ भी नाम दे सकते हो। इन दोनों के व्यवहार के मनोविज्ञान को समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं। लेकिन इनके मध्य जो ब्रह्मणेत्तर वर्ग है, जो इनके मध्य विद्यमान है, उसमें न तो वह ध्येयवादिता होती है और न सिद्धान्तवादिता और न उदारवादिता।

अपनी सामाजिक मध्यवर्तित्व के कारण उनमें न तो वह उदारवादिता और न तत्त्ववादिता होने के कारण से वे ब्राह्मणवादिता के खिलाफ़ होने के बजाय अधिकारहीन वर्गों के खिलाफ होते देखे गए हैं। अधिकार संपन्न वर्ग के समान अधिकारी होने के बजाय वे sc/st से अपने विशिष्ट अधिकार कायम रखने में ही अपनी महार समझते हैं
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प्रश्न यह है कि यह तथाकथित मध्यवर्ग आपके साथ होने के बजाय अधिकार संपन्न वर्ग के साथ क्यों खड़ा होता हुआ दिखता है। इसकी पड़ताल करने पर कई रहस्योद्घाटन होते हैं। उन सब पर चर्चा अपेक्षित नहीं। एक उदाहरण देकर मैं इसके समाज मनोविज्ञान पर डॉ. बाबा साहेब के मतानुसार विचार रखूँगा।

मारवाड़ में एक पिछड़ी जाति है जिसे सुथार या खाती भी कहते हैं। रियासत काल में खातियों की औरतों को नाक बिन्दाने का अधिकार नहीं था। वे नाक नहीं बिन्दाती थी। पाँव में चांदी की सांटे और हाथ में बाजूबंद नहीं पहन सकती थीं। वे कलियों का घाघरा भी नहीं पहन सकती थीं, जबकि मारवाड़ में मेघवाल औरत के पहनावे में ये आम प्रचलित था। सांटे या कड़ियाँ तथा बाजूबंद या चूड़े के बिना उनके विवाह की रस्म "समेला-पडला" भी नहीं होता था। कलीदार घाघरा मारवाड़ में मेघवालों के अलावा राजपूत और कुछ गिनी-चुनी जातियों का पहरावा था।

ओढ़ने-पहनने में इतना भेद क्यों रहा? इस पर उनका विचार या मंथन नहीं जायेगा, बल्कि किसी मेघवाल की उन्नति देखेगा तो उसमें यह भावना जागृत होगी कि विगत में ये लोग निम्न जाति में थे अब पढ़ लिखकर हमारे जाति-स्तर से ऊपर नहीं उठ जाएँ और हिन्दू समाज कहीं उनको हमारी जाति से ऊँचा नहीं मान ले। इस तरह के विविध विचार ऐसी मध्य जातियों के मानस शास्त्र को घेरे रहते हैं। उनका ध्यान अन्यायपरक व्यवस्था की ओर नहीं जाकर निराशा की ओर हो जाता है और वे आपके साथी बनने के बजाय आपके आन्दोलन में रोड़ा बनते हैं।

डॉ आंबेडकर इसे इन वर्गों की नासमझी या अज्ञानता कहते हैं। और यह बात मैं सत्य या तथ्यपरक इसलिए मनाता हूँ कि सुथार और सुथारों जैसी कई जातियां दूसरे प्रदेशों में sc में हैं, जहाँ उन्हें sc का फायदा मिलता है। तो उन्हें उस हेतु sc के साथ होकर काम करना चाहिए, परन्तु विरोध में करते हैं। इसका मनोविज्ञान यह है कि ये ब्राह्मणेत्तर समाजों के लोग अंधी परंपरा के वजह से छुआ-छूत बुरा है या अच्छा, अछूतपन भोगी लोगों के मुद्दे ठीक है या गलत, यह नहीं सोचते हुए, उनके साथ हमदर्दी न रखते हुए वे अपने झूठे बड़प्पन के फरेब में आपके विपरीत खड़े हो जाते हैं। अनाचारी लोग अछूतपन को बुरा मानते हैं। लेकिन सूने बड़प्पन के कारण स्वार्थ में फंसकर अपने ही विचारों के अनुकूल आचरण नहीं करते। उन्हें मालूम होते हुए भी अंधी परंपरा और स्वार्थ की वजह से आपकी बातों का उन पर असर नहीं होता। वे इसी मिथ्या के कारण आपकी पोस्टों पर भी टपटांग लिखते हैं।

आपको इससे विचलित नहीं होना चाहिए। जो वे कहते या लिखते हैं, उसे ही अपनी ताकत बनाये और साथ ही उनको राह पर लाने के लिए उपाय भी सोचने चाहिएँ। सबसे महत्वपूर्ण उपाय यह हो सकता है कि ऐसे अज्ञानी लोगों को सोच-विचार के लिए मजबूर करें। यह एकदम नहीं हो सकता है। हमेशा जिस रास्ते पर चले हैं, उसे बाधाजन्य बनाये बगैर आप यह नहीं कर सकते। जिस प्रकार से वे आपके मार्ग में बाधा बनते है वैसे ही आपको भी बाधक बनना पड़ेगा। दूसरा कोई चारा नहीं।

इस मनोविज्ञान का कारण आप ऐसे समझें - अछूतपन की परंपरा या जाति-पांति का भेदभाव वह रास्ता है, जिस पर दियों से हिन्दू समाज की विभिन्न जातियां चलती रही हैं। आप इस बात को भलीभांति अपने अनुभव से जान सकते हैं कि किसी भी प्रचलित रास्ते के परंपरागत होने के कारण उस रास्ते पर चलने वाला यात्री आँख मूंद कर उस रास्ते पर चल देगा। वह सीधा और सरल लगता है, उसे दूसरों से भी पूछने की जरुरत नहीं होती है परन्तु जब उसी रस्ते में कोई बाधा आ जाए यथा उसी रस्ते से कई रास्ते निकलते हुए दिखते हों तो वह रुक जायेगा, हड़बड़ा जायेगा और वह यह सोचने के लिए मजबूर होगा कि इनमें से कौन-सा रास्ता उसे सही गन्तव्य स्थान पर पहुँचाएगा। इससे साफ है कि तब तक कोई भी आदमी अपने परंपरागत रास्ते के भले-बुरे के सोचने के लिए तैयार नहीं होगा , जब तक उसमें बाधा न हो?

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