"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


28 May 2014

Tomb of a Meghvanshi in World Heritage - मेघवंशी का निर्वाण-स्थल - विश्व धरोहर

डॉ. नितिन विनज़ोदा ने फेसबुक पर पाकिस्तान स्थित नेक्रोपोलीज़ (necropolis) का उल्लेख किया और बताया कि ममैदेव का मक़बरा भी थट्टा के पास मक्ली के नेक्रोपोलीज़ में बना है. यहीं लिखता चलता हूँ कि ममैदेव महेश्वरी मेघवारों के पूज्य हैं जो मातंग (जिन्हें मातंग देव या मातंग ऋषि भी कहा जाता है) के वंशज हैं. यह पढ़ कर मन दौड़ पड़ा. क्या करूँ मेरी कल्पना के घोड़े बहुत जंगली हैं.

मातंग देव मेघवंशी हैं ('मातंग' का अर्थ ही 'मेघ' है) और पटना (बिहार) में जन्म लेने के बाद वे गुजरात की ओर आकर एक बड़े भूभाग पर शस्त्रबल से यहाँ अपना शासन स्थापित करते हैं. मातंग देव बारमती पंथ के संस्थापक हैं और ममैदेव ने इस पंथ का खूब विस्तार किया. जितना इस पंथ के बारे में पढ़ा है उससे लगा कि मूल रूप से यह बौध धर्म से मेल खाता है. 

फेसबुक पर एक ग्रुप है जिसका नाम है- Anonymous Sons of Pakistan. यह गैर-मुस्लिम लोगों का समूह है जो पाकिस्तान में रहते हैं और अपनी प्राचीन विरासत को जीवित रखने के लिए सक्रिय और संघर्षशील हैं. इस समूह ने थट्टा के नेक्रोपोलीज़ का यह सुंदर चित्र दिया था जो वास्तुकला (architecture) और कारीगरी का अनूठा नमूना है.
वैसे तो मेघवंशी भारत और पाकिस्तान में विभिन्न नामों से बसे हैं लेकिन थट्टा और मक्ली में मेघवंश का नया संदर्भ मिला - ममैदेव का निर्वाण स्थल.
ममैदेव का निर्वाण स्थल
किसी मेघवंशी का मकबरा (क़ब्र) होना आप में से कइयों को चौंका सकता है. लेकिन सिंधुघाटी सभ्यता जिसे आर्कियालोजिस्ट मोहंजो दाड़ो (कई हिंदी पुस्तकों में 'मोहन जोदड़ो' लिखा है) के बारे में जानकारी रखने वाले जानते हैं कि उस सभ्यता में शवों को भूमि में गाड़ने की परंपरा थी. मोहंजो दाड़ो का अर्थ 'शवों का टीला' है. देश भर की वंचित जातियों का इतिहास इन्हीं सभ्यताओं में अपना मूल देख पाता है.  आर्यों द्वारा वहाँ नागवंशियों और मेघवंशियों का संभवतः बड़े स्तर पर नरसंहार किए जाने के कारण इस स्थान का नाम 'मोहंजो दाड़ो' पड़ा था
यहाँ ममैदेव भूगर्भित हुए
मक्ली में श्री ममैदेव सहित कई सूफ़ी-संतों के मक़बरे हैं. मक्ली की इस धरोहर को यूनेस्को ने विश्वधरोहर (World Heritage) के रूप में मान्यता दी है. सो ममैदेव, एक मेघवंशी संत का निर्वाण स्थल विश्वधरोहर में है.   
निर्वाण स्थल का भीतरी दृष्य
बारमती पंथ, मेघवार, मेघरिख, मातंगदेव, ममैदेव और उनकी संबंधित परंपराओं आदि के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप डॉ. मोहन देवराज थोंट्या, कराची, पाकिस्तान के आलेखों को इन लिंक्स पर अवश्य देखें. इनमें बहुत सी जानकारी भरी हुई है-
Dr. Mohan Devraj Thontya



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27 May 2014

Megh culture-3 - मेघ संस्कृति-3 - ਮੇਘ ਸਭਿਯਾਚਾਰ -3

मेघ समाज में वधु के घर बारात पहुँचने पर वर का स्वागत 'पुरखणे' और 'चमक दिये' (दीपक) से किया जाता है। "पुरखणा" शब्द को संस्कृतनिष्ठ पुरस्सरण शब्द से समीकृत किया जा सकता है। वर को पुरस्सृत करते समय वर को बधानेवाली महिला गाजे-बाजे के साथ मंगल कलश व मंगल थाल के साथ समूह में गीत गाते आती हैं। वह उस समय एक विशेष प्रकार का कच्चे सूत से बना शुभंकर धारण करती हैं। उसे भी पुरखणा कहते हैं। यह कच्चे सूत को तीन लड़ी बना कर तैयार करते हैं। तीनों लड़ियों को साथ करते हुए उसमें कुल नौ गांठें लगती हैं। प्रत्येक गाँठ में रूई लगी होती है। यह बन जाने पर उसे हल्दी से पीला रंग दिया जाता है। यह पुरखणा उसी समय बनाया जाता है। इसे गले में माला की तरह पहना जाता है। इन तीन लड़ियों और नौ गांठों का अपना सांस्कृतिक निहितार्थ है।

इस पुरखणे की रस्म में चमक दिया (झिलमिल करता दीपघर) भी विशेष होता है। जो तीन पतली-पतली डंडियों से बनाया जाता है। प्रायः यह बाजरे के सूखे डंठल की डंडियाँ ही होती हैं। इसमें तीनों डंडियों को तिपाही की तरह जोड़ा जाता है। जिसके ऊपरी सिरे जुड़े होते हैं और नीचे के सिरे फैले होते हैं। इन पर आदि डंडिया जोड़ दी जाती हैं। इसी प्रकार से क्षेतिज व ऊर्ध्वाकार रूप से बनी यह आकृति बनाने पर जहाँ डंडियाँ जुड़ती हैं वहाँ कच्चे सूत से हलकी-सी बांध दी जाती हैं और प्रत्येक गांठ (जोड़) पर आटे का एक दीपक बना दिया जाता है जिसमें घी और बाट डालकर प्रज्ज्वलित कर दिया जाता है। इसमें कुल चौबीस दीपक बनते हैं। यह आकृति चमक दीया या कहीं-कहीं झलामल भी कही जाती है। (मेघवंश : इतिहास और संस्कृति भाग दो भी देखिये)

(यह आलेख श्री ताराराम जी का लिखा हुआ है)


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25 May 2014

Megh Culture-2 - मेघ संस्कृति-2 - ਮੇਘ ਸਭਿਯਾਚਾਰ-2

किसी भी शुभ कार्य के लिए, यथा शादी-ब्याह, उजोवणा-उत्सव आदि के अवसर पर मेघ परिवार अपने घर के आँगन को लीप-पोत करके मुख्य आँगन के बीचों-बीच चौक मांडते (बनाते) हैं. इसे वे अपनी भाषा में "चौक-पूरणा" कहते हैं. जब तक वह शुभ कार्य पूरा नहीं हो तब तक उस चौक को उलिङ्गते (ऊपर से चलते) नहीं है । इसे वे शुभ और पवित्र मानते हैं. प्रस्तुत आकृति एक विवाह के अवसर की है. बारात आने के अवसर पर वधु के घर पर सधवा (सुहागिन) औरत यह चौक बना रही है. मेघों की इस विरासत को शहरी या तथाकथित सभ्य समाज आजकल रंगोली या मन्दन मात्र कहता है. उनके लिए यह मात्र एक आकर्षक डिजाइन है परन्तु मेघों के लिए उनके विश्वास या आस्था का यह प्रतीक है.


उनकी सांस्कृतिक भाषा में इसे "मांडना" नहीं कहा जाता है। इसे वे "चौक पूरणा" कहते है। पूरणा का अभिप्राय पूर्ण या संपन्न करना ही बनता है। चौक का अर्थ पवित्र शुभंकर आकृति से ही है। जो प्रायः स्वस्तिक आकृति का पल्लवन या अभिवृद्धि है। चूँकि यह आकृति है, इसलिए साधारण लोग या इससे अनभिज्ञ लोग इसे मात्र "मांडना" कहते है। मांडना का हिंदी में अर्थ बनाना या आकृति बनाना ही होता है। परन्तु मेघों के लिए यह सिर्फ आकृति या "मांडना"नहीं है बल्कि उनकी आस्था और संस्कृति का प्रतिस्वरूप पवित्र शुभंकर है। इसके अलावा वे अन्य आकृतियाँ बनाते है, उन्हें साधारणतया "मांडना"कहते है।

शादी के अवसर पर इस पवित्र चौक को चौकोर आकृति से बनाना शुरू करते है। विवाह की चंवरी में आटे से स्वास्तिक के साथ बारह चौकोर खाने बनाकर करते है। मृत्युपरांत किये जाने वाले पवित्र क्रिया कर्म में चौक को वृत्त बना कर शुरू करते है। त्यौहार, उजोवन- उत्सव में विभिन्न रंगों के मनमोहक स्वरुप में बनाते है। मुख्य बात यह है कि यह उनकी आस्था की सांस्कृतिक परंपरा है। इसके पीछे उनका आध्यात्म और दर्शन गहरे रूप से जुड़ा है न कि आकर्षण।

किसी भी शुभ काम के लिए मेघवालों में किसी भी प्रकार की हवन-पूजा या यज्ञ आदि नहीं किया जाता है. परसों मुझे ग्रामीण इलाके में एक शादी के कार्य-क्रम में शरीक होने का मौका मिला. यहाँ भी वे ही क्रिया कलाप हुए, जिसको मैंने विवाह के प्रसंग में उद्धृत किये थे. समेला के समय प्रयुक्त की जाने वाली थाली और उसमें रखी सामग्री विशेष रूप से विचारणीय है. कांसे की थाली में पानी से भरा लोटा मंगल कलश का प्रतिरूप है. पीली हल्दी में सूत के धागे को पीला करके लोटे के लपेटते है. यहाँ थाली में रखा है. कलश में खेजड़ी की कोपल वाली हरी टहनी रखी है. पीपल की अनुपलब्धता में कलश में खेजड़ी की हरी टहनी रखी जाती है. थाली में साख्या (स्वस्तिक) उकेरा गया है. उसके आस पास सूरज और चाँद साक्षी स्वरूप उकेरे गए हैं. थाली में आखी बाजरी और गुड़ रखा है. यह सब सामग्री और इस समय के क्रिया कलाप उनकी संस्कृति की विशिष्ठ पहचान और निरंतरता को दर्शाते हैं.

(यह आलेख श्री ताराराम जी का लिखा हुआ है)

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24 May 2014

Megh Culture-1 - मेघ संस्कृति-1 - ਮੇਘ ਸਭਿਯਾਚਾਰ-1

मेघ समाज में संकेतों का विशेष महत्व है. गोल घेरा या वृत्त जब उकेरा जाता (उत्कीर्णन) है तो उस वृत से वे समस्त ब्रह्मांड से अभिप्राय लेते हैं. इसे आप अंतरिक्ष या space समझिये. जब वृत्त में बीचों बीच एक बिंदी लगाकर उकेरते हैं तो यह उनकी भाषा में यह उस ब्रह्माण्ड में उसकी स्थिति है. जब वृत्त में क्षितिज रेखा खींच कर उकेरते हैं तो उसका अर्थ वे बेदाग माता से लेते हैं. जब वृत्त में क्षितिज रेखा को उर्ध्वाकार रेखा से क्रॉस करते हैं तो उसका अर्थ सांसारिकता का या पारगामी लेते हैं. जब वृत्त नहीं हो और सिर्फ क्रॉस (+) हो तो उसका अभिप्रायः है सांसारिकता या भोगों की प्राप्ति. जीवन या सृष्टि का चलन.
जब वृत्त नहीं हो और क्रॉस हो, साखये के रूप में, तो उसका अर्थ है - स्वस्तित्व.

अपने आसपास के किसी बुजुर्ग से पूछ कर इस गूढ़ रहस्य का पता लगाइए. अब आपको समझ में आ जाना चाहिए कि नवजात के जन्म पर मेघों में वृत्त और साख्या क्यों बनाया जाता है. यह मेघों का आध्यात्मिक रहस्य है जिसका वे प्राचीन काल से अनुगमन करते रहे हैं. यदि मुझे समय और अवसर मिला तो मैं निश्चित रूप से मेघों की संस्कृति के इस रहस्यात्मक प्रतीकों पर अधिक लिखना चाहूँगा.
 
यह उनके अध्यात्म के रहस्य से भी जुड़े हैं जिनको आप सिद्धों की अपभ्रंश भाषा में इधर-उधर बिखरा हुआ पाएँगे.
चार वृत्तों द्वारा बनाए गए जीवन के चार क्षेत्र. स्वास्तिक के वृत्त के समान. वृत्त चंद्रमा का भी प्रतीक है और यदि इसके चारों ओर अतिरिक्त वृत्त बना हो तो यह सूर्य का प्रतीक बन जाता है. कभी-कभी इसके चारों और किरणें बना कर इसे सूर्य का प्रतीक बनाया जाता है.
ये उत्कीर्णन श्री आर. के. मेघवाल जी ने भेजे हैं. जो परंपरागत रूप से उनके समाज में नवजात शिशु के जन्म के समय उकेरे जाते हैं. वस्तुतः यह प्राचीन काल से चली आ रही उनकी धार्मिक और आध्यात्मिक रहस्यवादिता है. इसमें वैदिक मनुवाद या पाखंड न होकर स्वास्तित्व का निदर्शन है. यह परंपरा अभी भी इस समाज में जीवित है परन्तु मुझे जीवंत नहीं लगती क्योंकि इसके मूल अर्थ और सन्दर्भ काल के गर्भ में खो चुके हैं और नए मनुवाद में धँस चुके हैं.

उनकी अपनी सांस्कृतिक भाषा में इसे "मांडना" नहीं कहा जाता है. इसे वे "चौक पूरणा" कहते हैं. पूरणा का अभिप्राय पूर्ण या संपन्न करना ही बनता है. चौक का अर्थ पवित्र शुभंकर आकृति से ही है. जो प्रायः स्वास्तिक आकृति का पल्लवन या अभिवृद्धि है. चूँकि यह आकृति है, इसलिए साधारण लोग या इससे अनभिज्ञ लोग इसे मात्र "मांडना" कहते हैं. मांडना का हिंदी में अर्थ बनाना या आकृति बनाना ही होता है. परन्तु मेघों के लिए यह सिर्फ आकृति या "मांडना" नहीं है बल्कि उनकी आस्था और संस्कृति का प्रतिस्वरूप पवित्र शुभंकर है. इसके अलावा वे अन्य आकृतियाँ बनाते हैं, उन्हें साधारणतया "मांडना" कहते हैं.

शादी के अवसर पर इस पवित्र चौक को चौकोर आकृति से बनाना शुरू करते हैं विवाह की चंवरी में आटे से स्वास्तिक के साथ बारह चौकोर खाने बनाकर करते हैं. मृत्योपरांत किये जाने वाले पवित्र क्रिया कर्म में चौक को वृत्त बना कर शुरू करते हैं. त्यौहार, उजोवन-उत्सव में विभिन्न रंगों के मनमोहक स्वरूप में बनाते हैं. मुख्य बात यह है कि यह उनकी आस्था की सांस्कृतिक परंपरा है. इसके पीछे उनका आध्यात्म और दर्शन गहरे रूप से जुड़ा है न कि आकर्षण.

इन प्रतीकों की प्राचीनता और गूढ़ता की जानकारी से अनभिज्ञ कुछ मेघों में हीनता घर कर गयी. अतः उससे उभरने के लिए वे देखा-देखी आसपास में प्रचलित दूसरे मनुवादी क्रियाकलाप अपनाने के लिए आतुर और उत्साहित होते हैं. ऐसा करने में उन्हें कुछ समय के लिए बड़प्पन आ जाता है. वे सोचते हैं कि वे भी मनुवादी धर्म में बराबर हैं परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है. उन्हें अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु खूब मेहनत करनी पड़ेगी नहीं तो निम्नतर ही रहेंगे.

(यह आलेख श्री ताराराम जी का लिखा हुआ है)

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15 May 2014

Capitalism and Manuvad - पूँजीवाद और मनुवाद


भूखे व्यक्ति का खाने की चीज़ चुराना कानून के विरुद्ध है लेकिन सारे गोदाम खाने की चीज़ों से भरे होने पर भी किसी को भूखे मरने देना पूरी तरह से कानूनी है.
इसे आम तौर पर 'पूँजीवाद' कहा जाता है. इसकी 'अति' ही संपत्ति का पूर्णाधिकार (absolute right to property) है. भारत में इसका नाम 'मनुस्मृतिवाद (मानव धर्म)', एक तरह का 'सामंतवाद' है. अब यह इस बात पर निर्भर करता है कि जनता इस व्यवस्था के विरुद्ध कितनी असरदार आवाज़ उठाती है और आने वाली सरकारों से नीतियाँ बदलवाती है.

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05 May 2014

Religious symbols of Meghwals - मेघवालों के धार्मिक प्रतीक


(ताराराम जी ने अपनी 'Know your history' सीरीज़ के तहत मेघवालों के एक धार्मिक प्रतीक के बारे में एक फोटो फेसबुक पर दिया जिसपर पर प्रमोद पाल सिंह जी ने टिप्पणी दी. विषय पर चर्चा हुई. उसे यहाँ सहेज कर रख लिया है ताकि उसके बारे में कुछ विस्तृत जानकारी उपलब्ध रहे.) 

"Know your history- Symbol of religious faith of Meghawals of western desert of Rajasthan.
प्रमोदपाल सिंह मेघवाल-मेघवाल समाज का गौरवशाली इतिहास’ पुस्तक के पृष्ठ सं. 75 पर लेखक डॉ. एम.एल. परिहार लिखते हैं कि ‘मेघवाल समाज के कई सिद्धों, संतों, नाथों, पीरों ने भी पदचिन्हों की पूजा को आगे बढ़ाया। राजस्थान में रामदेवजी से पहले भी मेघवाल समाज में कई सिद्ध हुए और जीवित समाधियाँ लीं। अतः रामदेवजी से पहले ही इस समाज में पदचिन्हों या पगलियों की पूजा होती थी। स्वयं बाबा रामदेवजी पगलिया की पूजा करते थे। उनके पास रहने वाली ध्वजा के सफेद रंग पर पगलिया बने होते थे। आज का मेघवाल जिन पदचिन्हों को रामदेवजी के पवित्र प्रतीक बताता हैं वे तो प्राचीनकाल से विरासत के रूप में चले आ रहे हैं। मेघवाल समाज इस प्रतीक चिह्न को बहुत ही पवित्र मानता है और इसके प्रति गहरी श्रद्धा भी रखता है। यही वजह है कि पगलिया बने लॉकेट पहनते हैं। बुज़ुर्ग सोने के गहने के रूप में गले में ‘फूल’ पहनते हैं। इस आभूषण पर पगलिया उत्कीर्ण रहता है। इसे आभूषण से भी बढ़कर माना जाता है और इसकी पूजा की जाती है। अक्सर इस पर कुमकुम लगा हुआ भी दिखाई दे जाता है। इसे उतारना पड़ जाए तो जमीन पर नहीं रखा जाता है। यह इस पहनने वाले व्यक्ति की धार्मिक प्रवृत्ति के साथ-साथ उसकी प्रतिष्ठा का प्रतीक भी समझा जाता है।

Nathu Ram Meghwal- हमारे यहाँ इसे 'बाबा/अलखनाथ रा (का) पगलिया' कहा जाता है. मैं भी पहना करता था. मेरे गाँव में सभी मेघों के घर यह प्रतीक मिल जाता है. कई बुज़ुर्ग लोग स्वर्णिम प्रतीक भी पहनते हैं.

Madha Ram- इस तरह के प्रतीक समाज और संस्कृति को पोज़िटिव एनर्जी देते हैं. हम कोई भी कार्य करते हैं तब हम इसके बारे में सोचते हैं और इससे कार्य करने का सही रास्ता पूछते हैं ताकि हम दुनिया में सही कार्य करें.
 
प्रमोदपाल सिंह मेघवाल- @Nathu Ram Meghwal अलख जी की पूजा एक पाँव या एक चरण की मानी जाती है। जबकि बाबा रामदेवजी की पूजा दो पगलियों की होती है। इस संबंध में मेरा एक विस्तृत आलेख शीघ्र ही मेघवाल समाज के लिए बनाई गई मेरी वेबसाइट मेघयुग.कॉम www.meghyug.com पर आपको देखने को मिलेगा। आलेख लिखा जा चुका हैं। सिर्फ तथ्यों का परीक्षण एवं संपादन ही शेष है।

Thakur Das Meghwal Bramniya- ये प्रतीक गुलामी के प्रतीक हैं धर्म के नहीं.

Bharat Bhushan Bhagat- प्रथम दृष्यटया Thakur Das Meghwal Bramniya की बात सही दिखती है. तथापि दर्शन की दृष्टि से देखें तो संसार में हर वस्तु को नाम और रूप से पहचान मिलती है. बौधधर्म के अपने प्रतीक हैं, ब्राह्मण धर्म के अलग. ऐसे ही अन्य का भी समझ लीजिए. गुलाम मानव समूहों पर ऐसे नाम और रूप (प्रतीक) थोपे जाते रहे हैं यह भी सच है. अब यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस प्रतीक को धारण करने वाला उसे किस अर्थ में ग्रहण करता है और कि क्या वह उस अर्थ से संतुष्ट है? यदि वह उसे अपना धार्मिक प्रतीक समझता है तो यह उस व्यक्ति का अपना चुनाव (selection) है.

Tararam Gautam- अभी मैं थार के रेगिस्तान में हूँ और संयोग से इससे सामना हुआ. यह ऐतिहासिक रूप से पुष्ट है कि यह प्रतीक उस आस्था का प्रतिनिधित्व करता है जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं न कि यह गुलामी का प्रतीक है. इस प्रतीक का इतिहास समस पीर और रामदेव जी से भी पहले का है. यह किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि व्यक्तित्व का सम्मान है.
 
इस वशिष्टता को सिद्ध और नाथ पंथ के बाद उभरे हरेक पदचिह्न के साथ सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता.
 
जहाँ तक अलख पूजा का संबंध है कुछ लोग इसे निजारी इस्माइलिया के सत्पंथ के साथ जोड़ते हैं और दूसरे इसे अन्य के साथ जोड़ते हैं. समस ने इसे 'अलख रा पाँव' क्यों कहा. और विस्तार से देखें तो एक पदचिह्न उसके साथ है और दूसरा पंखुडी पर है. क्या इसका कोई धार्मिक या आध्यात्मिक अर्थ है?
 
उस काल में मेघवालों की स्थिति और स्टैंड क्या था?
ऐसे प्रतीक कब और कहाँ मिले और उनका अर्थ क्या था?

Tararam Gautam- सामाजिक-ऐतिहासिक जाँच से पता चलता है कि इन्हें आभूषण नहीं माना जाता और केवल आस्था के पवित्र प्रतीक माना जाता है.

माना जाता है कि उगम सी (जी) धारू मेघ के गुरु का है, धारू मेघ जिसे ऐतिहासिक व्यक्ति माना जाता है जिससे मेघों के एक जाति बनने का रास्ता खुला. लेकिन विवेकपूर्ण प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि उगम सी महामुद्रा पंथ का अनुयायी था जिसमें "पाट (पट) स्थापना" और "घट या कलश स्थापना" धार्मिक कार्यकलाप का अनिवार्य अंग है न कि पदचिह्न. हो सकता है यह पाट में हो लेकिन तब पाट संपूर्ण है और पदचिह्न एक भाग है जबकि इस आस्था को मानने वाले मुख्यतः पदचिह्न को महत्व देते हैं. क्या इसका कोई समाधान है?

जैसलमेर शहर से दूर लेकिन जैसलमेर के इस क्षेत्र में मैंने लोगों को यही प्रतीक धारण किए देखा है जिससे उनके एक ही धर्म और पंथ के होने का पता चलता है."
Foot prints of Buddha (left) and Jesus (right)
इस चर्चा के दौरान मुझे याद पड़ा कि श्रीनगर के एक मंदिर में ईसा मसीह के पदचिह्न होने की बात विश्वप्रसिद्ध है. उसकी फोटो को मैंने फेसबुक की चर्चा वाली जगह पर लगाया और बताया कि पदचिह्नों में समानता है. स्वतंत्र रूप से बनाई गई छवियाँ मिलती-जुलती हो सकती हैं लेकिन एक समान नहीं होतीं. फिर भी मैं वह छवि वहाँ लगाने से खुद को रोक नहीं सका. इसका कारण यह था कि एक पुस्तक 'जीसस लिव्ड इन इंडिया' में लिखा है कि जीसस का आखिरी जीवन भारत में बीता. यह भी पढ़ रखा था कि जीसस ने बौधों की एक बहुत बड़ी सभा को कश्मीर में संबोधित किया था. एक ऐसा लिंक भी मिला जिसमें स्पष्ट था कि गांधार में बुद्ध की पदशिला मिली है. मन में कौंधा कि कहीं ईसा ने यहाँ ऐसे बौध मठ में शरण तो नहीं ली थी जहाँ बौधजन और बुद्ध की पदशिला पहले से मौजूद थे? क्या संभव है कि आगे चल कर बुद्ध के उक्त पदचिह्न को जीसस के पदचिह्न की प्रसिद्धि प्राप्त हुई हो या उन पदचिह्नों का मिलता-जुलता अनुसृजन हुआ हो? क्या ये पदचिह्न बुद्धिज़्म और क्रिश्चिएनिटी के परस्पर संबंध का प्रतीक तो नहीं है? यह विषय आर्कियालॉजिस्टों और इतिहासज्ञों का है. मैं तो केवल प्रश्न ही पूछ सकता हूँ

वैसे मेरी मान्यता यह है कि बौधधर्म, ईसाइयत और इस्लाम एक ही धर्म के तीन क्षेत्रीय रूप हैं. बात इतनी है कि दुनिया भर के बौद्धों, ईसाइयों और मुसलमानों के प्रति भारत में पाई जाने वाली घृणा के मूल में मनुवाद जनित वंशवाद अर्थात जातिवाद है जो वैश्वीकरण के बाद कुछ ढीला पड़ता दिखाई दिया है.


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