"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


21 October 2014

Mahishasur and his monument – महिषासुर और उसका स्मारक

कई जानकारियाँ फेसबुक के माध्यम से बहुत जल्दी मिलती हैं. इसी सिलसिले में महिषासुर, जिसे हमारे देश के कई यादव और असुर जनजाति के लोग अपना पूज्य और आराध्य पूर्वज मानते हैं, के बारे में इन नवरात्रों के दौरान काफी जानकारी मिली. कहीं उसका शहादत दिवस मनाया गया और कहीं उसके बारे में छापने वाली पत्रिका फारवर्ड प्रेस (Forward Press) के कार्यालय से उसकी प्रतियाँ जब्त कर ली गईं. ख़ैर, फेसबुक के ज़रिए Piyush Babele से यह जानकारी मिली :-

''भैंसासुर का स्मारक और हिंदुत्व की दुहाई
ये तस्वीर है भैंसासुर यानी महिषासुर के स्मारक की. मऊरानीपुर से हरपालपुर के रास्ते पर धसान नदी को पार करके कुछ ही दूर बाद बाएं हाथ पर एक सडक़ मुड़कर यहां तक पहुंचती है. पुरातत्व विभाग ने इसे संरक्षित घोषित किया है लेकिन ऐसा कोई बोर्ड नहीं लगा है जिस पर इसका निर्माण काल लिखा हो. लिखापड़ी के इस अभाव में भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि हमारी कथित हिंदू संस्कृति किसी न किसी रूप में महिषासुर को स्वीकार करती थी. अब जब नई सरकार ने महिषासुर को नायक मानने पर पत्रिका फारवर्ड प्रेस पर डंडा चलाया है, तो सोचना पड़ेगा कि सरकार संस्कृति की रक्षा कर रही है या उसका नाश कर रही है. ये हरकतें देखकर मेरा विश्वास फिर दृढ़ होता है कि हिंदू धर्म को खतरा सिर्फ हिंदुत्व से है और किसी से नहीं.''

बहरहाल चित्र से मालूम पड़ता है कि इस स्मारक के रखरखाव का काम पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास है. लेकिन चित्र पूछ रहा है कि यह विभाग कार्य कर रहा है क्या?
एक अन्य लिंक- महिषासुर का स्मारक

MEGHnet


09 October 2014

Panda of Dalits- Ganga Ram - दलितों का पंडा गंगा राम

विकास जाटव (वाया फेसबुक)
 
कई बार समूह चर्चा में यह सुनने को मिल जाता है कि अब दलित राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के जज, प्रशासनिक अधिकारी, से लेकर काफी उच्च पद प्राप्त कर चुके हैं. इसलिए अब जातिवाद खत्म हो रहा है. समय बदल चुका है. लेकिन अगर कोई दलित हरिद्वार किसी रिश्तेदार की अस्थि विसर्जित करने जाता है तो उसे इस बात का एहसास जरूर हो जाता है कि वो भारतीय धर्म आधारित व्यवस्था में 'अनुसूचित जाति' वर्ग से आता है.
 
ऐसे ही; हरिद्वार में 'अनसूचित जाति' के व्यक्ति की अस्थि विसर्जित केवल 'गंगाराम नाम का व्यक्ति' ही कर सकता है अगर आपकी कार रुकती है और पता चलता है कि आप अस्थि विसर्जित करने आये हैं तो पंडित सबसे पहले जाति पूछते हैं और फिर दलित पता होने पर उसे 'गंगाराम' के पास भेजते हैं. इसका कारण मुझे देवभूमि पत्रिका से यह मिला है कि-
 
"बहुत पुरानी बात है। संत रविदास हरिद्वार आए। पंडितों ने उनका दान लेने से मना कर दिया। पंडित गंगा राम ने कहा मैं आपका दान लूंगा और कर्मकांड संपन्न कराऊंगा। पंडित गोपाल आगे कहते हैं- उस वक्त हंगामा हो गया। ब्राह्मण पंडों ने कहा ऐसा होगा तो आपका सामाजिक बहिष्कार होगा। मगर पंडित गंगाराम ने परवाह नहीं की और संत रविदास से दान ले लिया। संत रविदास ने उन्हें पांच कौड़ी और कुछ सिक्के दान में दिये।
 
उसके बाद पंडों की पंचायत बुलाकर कई फैसले किए गए। फैसला यह हुआ कि अब से कोई सवर्ण और ब्राह्मण पंडित गंगाराम से कोई धार्मिक कर्मकांड संपन्न नहीं कराएगा। पंडित गंगाराम ने भी कहा कि उन्हें कोई परेशानी नहीं लेकिन वो अपने फैसले पर अडिग हैं और उन्हें कोई पछतावा नहीं है। उसके बाद तय हुआ कि कोई पंडित गंगाराम के परिवार से बेटी-बहिन का रिश्ता नहीं करेगा।
 
पंडित गोपाल कहते हैं आज भी पंडों की आम सभा गंगा सभा में उन्हें सदस्य नहीं बनाया जाता। तब के फैसले के अनुसार कोई सवर्ण हमसे संस्कार कराने नहीं आता। हमारे पास सिर्फ हरिजन और पिछड़ी जाति के ही लोग आते हैं। पंडित गोपाल कहते हैं पुराने ज़माने में कोई हरिजन हरिद्वार नहीं आता था। एक तो उनके पास यात्रा के लिए पैसे और संसाधन नहीं होते थे दूसरा उन्हें गंगा स्नान से वंचित कर दिया जाता था।
 
साथ ही पंडा लोग दलित तीर्थयात्रियों का बहिखाता भी नहीं लिखते थे। हरिद्वार आने वाले सभी तीर्थयात्रियों का बहिखाता लिखा जाता था जिससे आप जान सकते हैं कि आपके गांव या शहर से आपके परिवार का कोई सदस्य यहां आया था या नहीं। बहरहाल हरिजन का बहिखाता नहीं होता था। लेकिन पंडित गंगा राम ने वो भी शुरू कर दिया। पंडित गंगाराम कहते हैं कि पिछले तीस साल से दलित ज़्यादा आने लगे हैं। दान भी ख़ूब करते हैं। हमारे परिवार का कारोबार भी बढ़ा है। अब हमारे परिवार के चार सौ युवक पंडा का काम कर रहे हैं। हमारी शादियां बाहर के ब्राह्मणों में होती है।"
 
अब आप चाहे कितने भी उच्च पद पर हैं तो आपको इसका एहसास हो ही जायेगा कि अगर धर्म में रहना है तो वर्ण व्यवस्था व उससे उत्पन्न प्रक्रिया तो माननी ही पड़ेगी. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वर्तमान में गंगाराम के वंशज के 400 लोग इस कार्य को कर रहे हैं और पिछले 40 सालों में उनकी कमाई में बहुत ज्यादा इजाफा हुआ है क्योंकि संविधान के तहत आरक्षण से मिली नौकरियों ने दलितों के पास कुछ पैसा-संसाधन पहुँचाए हैं और वे इसका इस्तेमाल कर्मकांड में भी कर रहे हैं.
 
वैसे जो लोग कहते हैं कि अब जातिवाद नहीं है वे इस बारे में क्या कहेंगे कि क्यों केवल 'गंगाराम के वंशज' ही अनुसूचित जातियों का अस्थि विसर्जन करवाता है बाकी क्यों मना कर देते हैं?