"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


24 November 2015

Religious Branding - धर्म के ब्रांड

किसी भी आध्यात्मिक गुरु के कम से कम तीन दायरे होते हैं. पहला उसके करीबी हमख्यालों का. दूसरा ऐसे लोगों का जो धर्म के व्यवसायी होते हैं और डेरे-आश्रम की कमाई में से अपने सुख की चाँदी  काटते हैं. तीसरा दायरा सत्संगियों का होता है जो गुरु-ज्ञान के बदले में डेरे-आश्रम को चढ़ावा और अपना समय देते हैं. यह तीसरा दायरा उपजाऊ जमीन की तरह होता है जिस पर सभी अपना-अपना हल चलाने आ जाते हैं. गंदी राजनीति भी अपने हिस्से की फसल काटने के लिए बाड़ तोड़ कर यहाँ घुस पड़ती है.

भक्तजनों! नहीं जानते तो जान लीजिए कि धर्म के धंधे में गला काट प्रतियोगिता है. सत्संगियों को वोटर की तरह कोई ब्रैंड कर सकता है तो उसकी दुकान पर कोई 'देशद्रोही' के इश्तेहार भी चिपका सकता है. जिसे आप 'स्वर्ग' मानते हैं उस पर कोई 'नरक' का साइनबोर्ड लगा कर चंपत हो जाता है. सारा खेल ब्रांडिंग का है जिसके अपने फायदे और नुकसान हैं. कुछ समझा करो यार. तुम शांति, संपत्ति, संपन्नता की तलाश में पद्मासन लगा कर कहीं बैठते हो और कोई तुम पर अपना स्टिकर चस्पाँ करके निकल लेता है.

सत्संगों से बाहर निकलते अधिकतर लोग गरीब और वंचित जातियों या जनजातियों के होते हैं. इन्हें लगता है कि इन्हें गुरुओं की या ईश्वर की सख्त ज़रूरत है. लेकिन आर्थिक खुशहाली माँगने से नहीं सरकार की नीतियों से मिलती है. भक्तजनों!! उम्मीद है ट्यूशन की यह एक क्लास काफी है. ख़ुश रहो आबाद रहो