"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


30 May 2015

Reservation of insult - आरक्षण अपमान का

जब किसी की पूँछ में आग लगती है तो खुशी तो होती ही है. उस आदमी का फुदकना मनोरंजन करता ही है. इसके संदर्भ पर जल्दी से आ जाना ठीक रहेगा.

SCs/STs के लिए आरक्षण का प्रावधान एक आनी-जानी चीज़ के तौर पर किया गया है. हाल ही में जाटों का आरक्षण रद्द कर दिया गया. कमज़ोर प्रावधानों ने उनकी पूँछ में आग लगाई. अब गुर्जरों को आरक्षण का वादा कर के सरकार ने मनोरंजक खेल शुरू किया है. इससे जाटों की पूँछ में आग और भड़केगी और मीणाओं की पूँछ चिंगारियों से लाल हो जाएगी.

जाट, गुर्जर, SCs और STs मिल कर आरक्षण के लिए संघर्ष करते तो भी इन्हें समय-समय पर अपनी आधी मूँछ सरकार के यहाँ गिरवी रखनी पड़ती. हाँ, यदि ये सभी आरक्षण के नियम बनवाने और प्राइवेट सैक्टर में आरक्षण लागू करवाने के लिए मिल कर आगे चलते तो बार-बार की मूँछ मुंड़ाई से छुटकारा मिलता, दीर्घावधि में सत्ता पर पकड़ बनाने का मौका मिलता.

फिलहाल मैं जलती पूँछ वालों को अलग-अलग डाल पर फुदकते हुए देख रहा हूँ. एकता का तालाब सामने है लेकिन इन्हें उसमें कूदना नहीं आता. भई मनोरंजन तो होता ही है न...
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27 May 2015

Kabir Jayanti - कबीर जयंती

44 डिग्री पारे में बच्चों की परीक्षा क्यों?
माह मई 2015 से जून 2015 के बीच में कबीर जयंती मनाने की धूम मची है. निमंत्रण बँट रहे हैं. तैयारियाँ ज़ोरों पर हैं. इधर गर्मी का पारा चढ़ रहा है. सैंकड़ों लोगों के लू से मरने की खबरें आ भी चुकी हैं.

सौ साल पहले पैदा हुए जुलाहों के जन्म का कोई पक्का रिकार्ड नहीं होता था. उन दिनों किसी त्योहार या किसी की शादी या गाय-भैंस की पैदाइश के मौके के साथ जन्मदिन याद रखने का रिवाज़ था. सोचिए कि जुलाहों के घर पैदा हुए कबीर की सही जन्म तिथि किसे पता थी.

जयंतियाँ तय करने का लाभ मंदिरों में चढ़ावे के रूप में आता है. सो पंडितों ने तिकड़म लड़ा कर एक मुहूर्त तैयार किया जिसके साथ कथाएँ जोड़ीं और कबीर का जन्मदिन फिक्स हो गया. हनुमान तक का किया चुका है. आपको यह सोचना चाहिए कि दलित तबकों में जन्में संतों के जन्मदिन मई-जून में और पूर्णमासी के दिन ही क्यों पड़ते हैं अष्टमी और नौवीं के दिन क्यों नहीं.

लोग कबीर जयंती मनाते हैं तो एक हाथ में बिस्लेरी की बोतल होती है और दूसरे में पसीना पोंछनेे के लिए तौलिया. ज़ाहिर है कि इस मौके पर भाषण और भजन पसीने की तरह आते हैं और सूखते हैं. भक्तजन (माताएँ बच्चों समेत) आते हैं और बच्चों को गर्मी से बचाने के लिए विशेष मशक्कत करनी पड़ती है. कितने लोग यहाँ से बीमार हो कर घर लौटते हैं इसका हिसाब कौन रखता है जी?

आयोजक यारो! आप जून में कबीर के नाम पर छबीलें लगाओ. अच्छा काम है. कबीर जयंती मनाने के लिए ज्योतिष की नहीं बल्कि आपकी अपनी समझदारी की ज़रूरत है. कबीर ज्ञान दिवस अक्तूबर-नवंबर के सुहावने मौसम में सुविधा के अनुसार मनाओ. कबीर भक्त खूब आएँगे और आपके इकट्ठ का असर भी होगा.
44 डिग्री में भी बच्चे झंडे उठा सकते हैं. लेकिन उनकी परीक्षा क्यों?


23 May 2015

Kabir - Marvelous - कबीर - अद्भुत

वैसे तो कबीर सदियों से बहुजनों के दिल में बसे हैं लेकिन मेघों का उनसे जुड़ाव शायद तब से बढ़ा है जबसे मेघ भगत 'सिंह सभा' लहर के प्रभाव में आकर कबीरपंथी बने. जम्मू और पंजाब में बहुत से कबीर मंदिर बनाए गए हैं. इन मंदिरों की इतनी गिनती तो हैं ही कि उनको कब्ज़ाने की होड़ लग जाए. चढ़ावा कितना चढ़ता है मैं नहीं जानता. वैसे मेरी नज़र भक्तिभाव की अपेक्षा चढ़ावे को अधिक देखती है और चढ़ावे को समुदाय की तरक्की के ज़रिए के तौर पर देखती है.      

कबीर को अब तक जैसा समझा है उस पर मैंने एक प्रेज़ेंटेशन बनाया है जो मेरा ज़ाती नज़रिया है. दूसरे जैसा सोचते-मानते हैं उसका स्वागत है. आप भी अपना फैसला आप कीजिए

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07 May 2015

History of Meghs 1 - मेघों का इतिहास 1

इतिहास की नींव में एक बड़ा आम ख़्याल बसा होता है कि - "हम कहाँ से आए थे, हमारे पुरखे क्या करते थे." लोग यह सवाल इस लिए पूछते हैं क्योंकि उन्हें महसूस होता है कि बीते समय में कुछ न कुछ ऐसा रहा होगा जो उनके आज पर असर डाल रहा है.
 
इतिहास लिखने का रिवाज़ पड़ने से पहले की दुनिया वर्चस्व ('हम बड़े और यह हमारा है' वाले भाव) की छोटी-बड़ी लड़ाइयों से भरी होगी. जीतने वाला हारने वाले के वर्चस्व की निशानियों को मिटाता था. यही कारण है कि उस समय के बारे में हमें सबूत नहीं मिलते और हम उस वक्त की दुनिया का अनुमान लगाते हैं या नए-नए तरीकों से सबू ढूँढते हैं, लोक-कथाओं और लोक-गीतों में छानबीन करते हैं.

एक-दो शताब्दी पहले तक इतिहास लिखने पर एक ख़ास जाति का अधिकार रहा जो अब ख़त्म हो रहा है. आज के इतिहासकारों ने साइंस के आधार पर इतिहास को फिर से लिखा है जिसने पुरानी सोच और मान्यताओं को तोड़ा है

इसी सिलसिले में मेघवंश के इतिहास पर कई विद्वानों ने कार्य शुरू किया हुआ है. जिसकी पहली कड़ी के रूप में मैंने श्री आर.एल. गोत्रा के लंबे आलेख Meghs of India को देखा था. फिर उन्होंने Pre-historic Meghs नामक आलेख लिखा. उसी पर एक प्रेज़ेंटेशन बनाया जिसे यूट्यूब पर डाला है. जिसे यहाँ क्लिक करके आप देख सकते हैं.


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