"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


14 July 2015

Caste Census - जातिगत जनगणना का पिटारा

बीजेपी ने जातिगत जनगणना का पिटारा दिखाया और बिना खोले फिर झोले में रख लिया. इस मामले पर बीजेपी और कांग्रेस का रवैया एक-सा रहा है. ज़ाहिर है इसमें सवर्ण बनाम अन्य की गिनती का फैक्टर काम कर रहा है. कल एनडीटीवी के प्राइम टाइम कार्यक्रम में रवीश ने इसी विषय पर एक बहस आयोजित की थी जिसे यहाँ सहेज रहा हूँ. हालाँकि कोई भी टीवी बहस निष्कर्ष नहीं दे पाती परंतु उक्त कार्यक्रम में संबित पात्रा का असहज हो जाना काफी कुछ कह गया.


इस विषय पर कुछ वर्ष पहले दिलीप सी मंडल का एक आलेख 2010 में जनसत्ता में छपा था जिसे मैंने अपने अपनी एक गूगल साइट पर सहेजा था. उसका लिंक भी नीचे दिया है.



03 July 2015

Conversions - धर्मपरिवर्तन

धर्म परिवर्तन से किसी की गिनती घटती है तो किसी की बढ़ती है.
फेसबुक पर एक मित्र श्री मनोज दुहन ने यह कह कर एक रुचिकर चर्चा छेड़ दी कि आरक्षण चले जाने के बाद जाट होने के नाते वे हिंदू धर्म छोड़ कर कोई और धर्म अपनाना चाहें तो कौन-कौन उनका साथ देना चाहेगा? धर्म के बारे में ऐसा सवाल सुन कर आदमी का दिमाग़ ऐसा हो जाता है जैसे छिड़ा हुआ मधुमक्खियों का छत्ता हो.

जाटों ने इससे पहले धर्म परिवर्तन न किए हों ऐसा भी नहीं है. वे इस्लाम और ईसाईयत में भी गए हैं. उनके ऐसा करने के अलग-अलग कारण गिनवाए जाते हैं. माने यह विचार नया नहीं है.

धर्म परिवर्तन के नाम पर भारत में बवाल देखने को मिलते रहे हैं. जब-जब वंचित समुदायों के लोग धर्म परिवर्तन की ओर बढ़ते हैं तब-तब मनुवाद बिलबिला उठता है. लेकिन जिन मामलों में ब्राह्मणों ने विदेश में या देश में धर्म परिवर्तन किया है उन पर कोई बवाल नहीं होता. ऐसा रणनीति के तहत किया जाता है. बहरहाल, गिनी-चुनी अभद्र टिप्पणियों की उपेक्षा करते हुए सहभागियों ने इस पर गंभीरता से विचार किया और सहमति, असहमति तथा खुलापन व्यक्त किया. चर्चा से उभरे विचारों का सार नीचे दे रहा हूँ :-

'जाट' अपने आप में एक धर्म है, यदि नहीं है तो एक 'जाट धर्म' या 'जाट पंथ' बना लिया जाए. जाट हिंदू धर्म ('हिंदू' शब्द को 'ब्राह्मण' शब्द से रिप्लेस कर दें तो तस्वीर अधिक साफ होगी) को छोड़ें और बीजेपी का बहिष्कार करें जिसे जाटों ने पिछले चुनाव में समर्थन दिया था. सीधी सी बात कि जिसके कारण धर्म ही छोड़ना पड़े उसे समर्थन देना छोड़ें.

'जाट धर्म' की बात की गई. लेकिन स्पष्ट नहीं था कि जाट धर्म का स्वरूप क्या है. कइयों का मत था कि सिख धर्म (एक संगठित धर्म) को अपनाया जाए. कुछ ने (संभवतः अनुसूचित जाति के लोगों ने) साथ देने की बात कही. यह बात उठी कि बौध धर्म जाटों का मूल धर्म है. कुछ सहभागियों ने वैदिकता को पूरी तरह से फेंक देने की बात की. उपदेशात्मक स्टाइल मारने वाले लोग सभी धर्मों के एक होने की बात मसीहाई अंदाज़ में कह रहे थे जो मूल मुद्दे से हट कर ही था. कुछ ने कहा कि धर्म परिवर्तन से समस्याओं का समाधान सम्भव नहीं. लेकिन उन्होंने कोई समाधान सुझाया भी नहीं.
सभी धर्मों की भाँति 'हिंदू धर्म' शब्द भी एक मकड़जाल है.
समय-समय पर जाटों ने इस्लाम, ईसाईयत और अन्य कई धर्मों को अपनाया है. कुछ ने अपने अलग रास्ते भी अपनाए फिर भी समस्याओं का अंत नहीं हुआ. यह मत भी व्यक्त किया गया कि देश की व्यवस्था पर 3% लोगों का जो कब्ज़ा है उसमें बदलाव की ज़रूरत है जिससे समस्या हल होगी यानि जाटों के समुदाय (और शायद कई अन्य भी) अपनी समस्याओं का समाधान करने की स्थिति में आ जाएँगे. तब धर्म मुद्दा ही नहीं रहेगा. कुछ का मत था कि 'हिन्दू' कोई धर्म नहीं बल्कि राजनीति करने का तरीका है. (इसे सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी के परिप्रेक्ष्य में देखें जिसमें कहा गया था कि 'हिंदू' एक जीवन शैली है) 19वीं शताब्दी में हरियाणा और राजस्थान के कई जाट 'सिख' बनने के लिए तैयार हो गए थे लेकिन आर्य समाज के प्रभाव में आ गए और फिर से मनुवाद में एडजस्ट हो गए.
बौध धर्म अपनाने के सुझाव पर कहा गया कि सूझ-बूझ के साथ जनमानस को तैयार किया जाए. म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल-तिब्बत से भिक्षुओं को आमंत्रित करके बौध धर्म अपनाने का कार्य भव्यता के साथ किया जाए. बताया गया कि जाटों के सबसे नज़दीकी बुद्ध रहे हैं क्योंकि वे ख़ुद सिदियन (Scythian) थे.

एक सज्जन ने डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर को यों उद्धृत किया - ''जिस समाज का इतिहास नहीं होता, वह समाज कभी भी शासक नहीं बन पाता....''. इसका अर्थ इतना ही समझ आया कि जाटों का इतिहास बुद्ध से जा जुड़ता है.

एक और रुचिकर सुझाव था कि नास्तिक ही क्यों न बन जाया जाए. वहाँ धर्म-मज़हब नाम की कोई बीमारी है ही नहीं. धर्म एक ज़हर है और कि धर्म ने केवल ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताया है. सबसे खराब हालत शूद्रों की की गई. यह बात भी रेखांकित की गई कि ''जाट तथा नास्तिक'' बने रह कर खुश रहा जा सकता है. कुछ धर्म परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे लेकिन वे नास्तिक बनने को तैयार दिखे. शायद वे नहीं जानते थे कि यह छूट तो उन्हें वैसे भी प्राप्त है. उनकी बात को भी मुद्दे से बाहर माना जा सकता है. कुछ ने कहा कि वे खाप के फैसले पर भरोसा करेंगे.

यद्यपि बात आरक्षण के संदर्भ से निकली थी तथापि चर्चा इतिहास के पन्नों को खंगालती हुई दिखी जो मुद्दे की गंभीरता को दर्शाता है. इसमें जिस बात पर चर्चा नहीं हुई वह थी जाट समुदाय के विभिन्न समूहों का एक दूसरे से छिटके होना. दूसरे, यह बात कहीं नहीं उठी कि धर्म परिवर्तन जैसा कदम उठाने के पीछे केवल आरक्षण को लेकर राजनीतिक दबाव बनाने की मंशा है या गंभीर परिवर्तन का लक्ष्य है. 

आगे क्या-क्या हो सकता है इसके पर्याप्त संकेत यह चर्चा दे गई.


(उक्त पोस्ट से हट कर एक बात सोच रहा हूँ कि जाट पहाड़ तोड़ लेता है लेकिन धर्म नाम का पत्थर नहीं तोड़ पाता. यही उसकी कमज़ोरी है जिसे वह अपनी मजबूरी मान बैठा है. लेकिन यह सारी इंसानियत की समस्या है. आने वाली पीढ़ी इसका इलाज ज़रूर निकाल लेगी.)