"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


15 July 2016

Meghs and Kabir - मेघ और कबीर

ग़रीब का दिमाग़ स्वभाविक रूप से ऐसा बन जाता है कि उसमें 'ईश्वर-परमेश्वर' नाम की खरपतवार अपने आप फैलने लगती है. उसे रोज़गार देने वाला चाहता भी यही है. इसकी वजह यह है कि उसे जो भी रोशनी नजर आती है वह इसी विचार में होती है कि कोई तो उसका ईश्वर, मालिक, स्वामी, रोज़गारदाता वगैरा है जो कभी--कभी उसकी सुनेगा और उसे सहारा दे कर बेहतर जीवन देगा. उसी विचार को बल देते हुए वह जीवन काटता है. कुछ मिला तो ठीक, नहीं तो न सही जबकि उसे यह समझने की ज़रूरत होती है कि उसके हालात को सरकारी नीतियाँ बदलती हैं और उस बदलाव का रास्ता राजनीति से हो कर ग़ुज़रता है.

कठिन जीवन में आँखें बंद करके अपनी ही सोच से अपने ही विचारों में मिलने वाला आध्यात्मिक आनंद उसे सुकून देता है. वंचित व्यक्ति ईश्वर, परमेश्वर, आध्यात्मिकता, आत्मा-परमात्मा के विचारों में खुशी हासिल करता है बिना जाने कि उनका वजूद है भी या नहीं. यही वजह है कि गरीब तबकों के लोग अधिक आस्थावान हो जाते हैं. संतुष्ट रहना उनकी मजबूरी है- “रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चोपड़ी मत ललचावे जी.” लेकिन यदि कोई बेहतर जीवन की कामना को लालच और 'औक़ात से ज़्यादा' की केटेगरी में डाले तो उसे धूर्त ही समझना चाहिए. अब आगे चलते हैं.

मेघ भगत सदियों से अपने पुरखों, वड-वडेरों की मान्यता/पूजा के अतिरिक्त भगती और रुहानियत के क़ायल रहे हैं जिसका सीधा रिश्ता उनकी गरीबी से रहा. आर्य समाजियों ने शुद्धिकरण करके उन्हें अपना भगत बना लिया. तो चलो जी, हम 'मेघ' से 'भगत' हो गए.

भगती के रास्ते की एक विशेषता यह है कि वह गरीबी दूर करने का तरीका नहीं बताता. उसका काम यह बताना है कि गरीबी में कैसे रहा जाए. फिर जहाँ तक माँगने की आदत का सवाल है कबीर ने साफ़ कहा है- "माँगन गए सो मर गए मत कोई माँगो भीख, माँगन से मरना भला यह सत्गुर की सीख.


अद्भुत कबीर

चौदहवीं शताब्दी के कबीर, रविदास जैसे संतों की मंशा ग़रीब तबकों को भगती भाव में डुबोने की बल्कि उन्हें सामाजिक चेतना की ओर मोड़ने की थी. यह उन संतों का बोया हुआ क्रांति का बीज था. मेघों और अन्य ग़रीब जातियों ने संतों का जो मार्ग अपनाया और ख़ुद को उनका अनुयायी बतायासे संतों की उस सामाजिक जागृति के लक्षण के तौर पर देखना चाहिए. बहुत से मेघ अब ख़ुद को कबीरपंथी लिखना पसंद करते हैं. यहाँ समझने की बात है कि पंद्रहवीं शताब्दी के कबीर को मेघों ने 20वीं शताब्दी में बड़े पैमाने पर अपनायासुना है 15 अगस्त, 1947 (जो पंजाब के मेघ भगतों के आधुनिक इतिहास की कट-ऑफ़ डेट भी कही जाती है) के बाद पठानकोट और जम्मू के इलाकों में मेघों ने कबीर का प्रकाश उत्सव मनाना शुरू किया और कबीर मंदिरों बनाने के काम में तेज़ी आई.

इन दिनों पंजाब और जम्मू में अनेक कबीर मंदिर और उनकी कमेटियाँ बनीं हुई हैं जिनमें परस्पर प्रतियोगिता है. सियासी धड़ेबंदियाँ उन पर हावी हैं और क्यों न हों आख़िर उन्हें कोई बना-बनाया वोट बैंक अपने आक़ा को दिखाना होता है. 'धन् कबीर' और 'जय कबीर' का जयकारा इस वोट बैंक की धार्मिक-राजनीतिक पहचान बन जाती है. इसी सिलसिले में सोशल मीडिया पर कबीर की ऐसी वाणी परोसी जाने लगी है जो भगती की नुमाइंदगी करती है. सामाजिक क्रांति लाने वाली कबीर की वाणी वहाँ शायद ही दिखाई दे. सियासतदानों की पूरी कोशिश मेघों को अपना भक्त और वोट बैंक बता कर पेश करने की है. मेघ भगत चाहे राधास्वामी मत में हों, किसी डेरे-गुरु को मानने लगे हों या सनातनी या आर्यसमाजी हो गए हों, धर्म ग्रंथों का अखंडपाठ या जागरण करवाते हों, हैं वो भगत ही. उनकी अपनी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक ताक़त दूर तक नहीं दिखती.

कुछ कबीर मंदिरों में ज़रूरतमंद बच्चों के लिए कंप्यूटर या अन्य प्रकार शिक्षा और ट्रेनिंग का प्रबंध किया गया है. कबीर मंदिरों का यह सबसे खूबसूरत इस्तेमाल है जिसका सीधा फ़ायदा समाज को पहुँचता है. उधर सवालिया निशानों से घिरे 'ईश्वर-परमेश्वर' या 'देवी-देवताओं' ने वंचित समाजों को कोई फ़ायदा नहीं पहुँचाया, उनकी सामाजिक स्थिति को तो बिल्कुल ही नहीं बदला.

तीन सौ वर्ष पहले दुनिया के कई देशों ने विज्ञान को महत्व देना शुरू किया. वे देश बहुत तरक्की कर चुके हैं. इसे देखते हुए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में वैज्ञानिक दृष्टिकोण (scientific temperament) यानि वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात की गई है. कबीर भी बुद्ध और उनके जैसी तार्किक और वैज्ञानिक सोच रखने वालों की तरह तर्कशील और विवेकशील थे. ऐसे में उनके मंदिरों या उनसे होने वाली कमाई का शिक्षा और वैज्ञानिक सोच पैदा करने के लिए इस्तेमाल करना समाज के लिए अधिक लाभकारी होगा.

मेघ समाज ने कबीर की 'भक्ति-वाणी' के अपने कुछ प्रचारक पैदा कर लिए हैं. देखा-देखी अन्य समाजों के लोग भी मेघों में आ कर वही धंधा करने लगे हैं. जब धर्म एक व्यापार के तौर पर जाना जाता है तो उसके नियम सीखने चाहिएँ. व्यापारिक घुसपैठ, व्यापारिक तोड़-फोड़ और व्यापारिक हमलों के ख़तरे पहचानने पड़ेंगे. अपने आर्थिक स्रोतों को बर्बाद न करें.

जानने की बात है कि ईसाइयत और इस्लाम के मानने वालों के बाद अब ऐसे लोगों की गिनती बहुत ज़्यादा है जो वैज्ञानिक नज़रिए से लैस हैं. वे दुनिया की आबादी का लगभग एक तिहाई हैं और उनकी गिनती तेज़ी से बढ़ रही है. सवाल बनता है कि हम भगत या कबीरपंथी कहलाने वाले भोले-भाले भगत लोग भक्ति को ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त दे कर विज्ञान की दुनिया में पिछड़ तो नहीं रहे? हमारा भगतपना तरक्की के रास्ते में देरी की वजह तो नहीं है?

(आपके पास आर्थिक और मानव संसाधन बहुत थोड़े हैं. ऐसे में

उनका उपयोग आप कैसे करना चाहेंगे, सोचिएगा.)



 


12 July 2016

Unity of Meghs and Khaps - मेघों की खापें और एकता

पंजाब में चुनाव आने वाले होते हैं तो मेघ भगतों में एक बेचैनी बढ़ने लगती है कि चुनाव के समय उनके समुदाय में एकता क्यों नहीं होती. उनका वोट एक साथ एक तरफ़ क्यों नहीं जाता. समेकीकरण या ध्रुवीकरण (consolidation or polarisation) क्यों नहीं होता. इस पर पहले भी मैंने पहले दो-एक ब्लॉग लिखे थे. इस ब्लॉग की प्रेरणा फेसबुक से मिली है. 

फेसबुक पर एक सज्जन भगत पवन कौशल मेरे मित्र हैं. उन्होंने उल्लेख किया था कि कोई भी सियासी पार्टी 'मेघों पर ध्यान नहीं देती' (अधिक स्पष्टता से कहें तो 'घास नहीं डालती'). उनकी पोस्ट के उत्तर में मैंने उन्हें सुझाव दिया कि मेघों की जो अपनी खापें (गोत्र) हैं उनका मंच निर्णय लेने में सहायक और कारगर हो सकता है. लेकिन समस्या यह है कि मेघों के टूट चुके पंचायती सिस्टम को फिर से खड़ा करने का कार्य कौन करे.

इतिहासकार बताते हैं कि मुग़लों के आने से पहले भी हमारे यहाँ के मेघवंशियों का अपना लोकतांत्रिक सिस्टम और न्याय प्रणाली थी जिसमें पंचायतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी. मेघों ने अपने जातीय समूहों में अनुशासन और न्याय स्थापित रखने के लिए उक्त प्रणाली का सदा सम्मान किया जो उनके सामूहिक और राजनीतिक विवेक की निशानी थी. चूँकि मेघों और जाटों का मूल एक समान दिखता है इस लिए जाटों की खापों का उदाहरण देना ठीक होगा. जाटों की खापें आज भी मज़बूत हैं और कारगर हैं. जाटों ने अपनी खापों का रचनात्मक और राजनीतिक इस्तेमाल अच्छे तरीके से किया है जिसका असर राजस्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब और पाकिस्तान तक में दिखता है.

ये खापें सामाजिक क्षेत्र में इस बात का ध्यान रखती हैं कि एक ही गोत्र के लड़के-लड़कियों में शादियाँ न हों या समाज के अंदरूनी झगड़ों का आपसी बातचीत से हल निकाला जा. इस परंपरा के अनुभव अच्छे रहे हैं. खापों के नियम अनजाने में टूटे ना हों ऐसा भी नहीं है. लेकिन याद रखना चाहिए कि जाटों ने अपनी खापों का सर्वाधिक और बढ़िया प्रयोग अपनी शैक्षणिक संस्थाओं के विकास और अपने समुदाय के विकास के लिए किया है. उनकी खापों की महापंचायतें आयोजित होती है. एक दबाव समूह (Pressure Group) के तौर पर वे पूरे राज्य की राजनीति को प्रभावित करते हैं. उनकी बात सुनने के लिए राजनीतिक दल और उनकी अड़ियल सरकारें मजबूर होत हैं.

पंजाब में मेघों की संख्या जाटों जितनी नहीं है. फिर भी मेघों कइस दिशा में कार्य करना व्यर्थ नहीं जाएगा. वर्ष में दो बार गोत्रों का जम्मू में देरियों पर मिलन (मेल) होता है जो पूर्वजों की याद में और धार्मिक भावना से होता है - लेकिन वो बिना किसी बड़े सामाजिक उद्देश्य के होता है. मेघों में राजनीतिक जागरूकता लाने के लिए इन मौकों का इस्तेमाल सियासतदानों और समाज सेवियों को करना चाहिए. इसमें बहुत मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी.

गोत्र के फैसलों का असर जादुई होता है, यह मानवजाति का आज़माया हुआ तरीका है. जब कोई एक गोत्र पहलकदमी करके सफल होता है तो अन्य गोत्र भी पीछे चलने लगते हैं......और जब सभी गोत्रों क ट्ठी ताकत एक तरफ़ लगने लगत है तो नामुमकिन लगने वाले काम होने लगते हैं. धरती का जीवन बदलने लगता है.

अन्य लिंक-
मेघवंश समुदायों में एकता क्यों नहीं होती