"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


28 September 2016

Meghs – The Indigenous People – मेघ – मूलनिवासी लोग

चलिए, फैसला हो गया.

इंसान की बड़ी पुरानी और पक्की आदत है कि वह अपना मूल ढूँढता है कि 'मैं आया कहाँ से हूँ'. पहले तो उसे सब कुछ 'भगवान का' बता कर चुप करा दिया जाता था लेकिन अब वह जान चुका है कि जहाँ-जहाँ उसके सवाल भगवान को समर्पित हो रहे थे वहाँ बहुत बड़ा लोचा है. इस लिहाज़ से कबीर का जवाब भी क्या बुरा था कि भई- 'कुदरत के सब बंदे'. लेकिन नहीं, बंदा नहीं मानता. उसका कहना है कि बंदा जब बंदे को बंदा नहीं समझता तब सवाल तो पूछने ही पड़ेंगे. मेघ-जन का सवाल सख़्त है कि- 'असल बात बताओ'. सवाल अड़ा हुआ है और जवाब हकलाते हैं.

मेघों के मुड्ड (मूल) को लेकर बहुत सिद्धांत हैं. उनसे इतना संकेत तो मिलता है कि वे भारत की अन्य जातियों की तरह कई प्रकार के रक्त मिश्रण (ब्लड मिक्सिंग) के दौर से गुज़रे हैं. अब वैज्ञानिक खोज विशेषकर डीएनए रिपोर्ट से साफ़ जवाब मिले हैं और संदेह दूर हुए हैं.

जब से संयुक्तराष्ट्र ने International Day of the World's Indigenous Peoples 9 August घोषित किया है तब से भारत के कई समुदायों में यह जानने की इच्छा बढ़ी है कि क्या वे भारत के मूलनिवासी हैं? डीएनए रिपोर्ट ने सभी सवालों के जवाब दे दिए हैं. संक्षेप में मेघ-जन भारत के मूलनिवासी हैं, वही 'मूलनिवासी' जिसे बामसेफ़ ने अपनी शैली में खूब प्रचारित किया है. उम्मीद है इससे व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता खुलेगा और समाज अपनी समस्याओं का शांतिपूर् समाधान निकाल लेगा.
https://www.youtube.com/watch?v=GWfTYiaP3PU&index=1&list=PLrKlvsV9IOwUdwDpkTXy4P8cryJXNYcrj&spfreload=5




05 September 2016

History via Vedas and Puranas – इतिहास वाया वेद और पुराण

आज अधिक नहीं लिखना चाहता. जो पढ़ा है कि उसे सीधा आपसे शेयर करना चाहता हूँ. जो मेघवंशी अपना इतिहास जानने के लिए वेदों-पुराणों में जाते हैं उनकी जानकारी के लिए चंद्रभूषण सिंह यादव के लिखे एक आलेख का लिंक नीचे दे रहा हूँ. बहुत उपयोगी है. इसे पढ़ कर विचार कीजिए कि इतिहास को ढूँढने या लिखने की कौन-सी पद्धति (methodology) अधिक उपयोगी रहेगी.



MEGHnet

01 September 2016

A story from a folksinger - लोक गायक से एक कहानी

जो यहाँ लिखा है वह सार है. विस्तार से नीचे दिए डियो में कहा है.

बचपन में एक हम मज़ेदार कामेडी गाना सुना करते थे - सिकंदर ने पोरस से की थी लड़ाई, जो की थी लड़ाई, तो मैं क्या करूँ! कौरव ने पांडव से की हाथापाई, जो की हाथापाई तो मैं क्या करूँ! उसमें एक उखड़े हुए स्टूडेंट की तकलीफ़ थी. उस समय की स्कूली पढ़ाई और व्यवहारिक जीवन के बीच की दूरी या गैप उसमें हँसी पैदा करता था.

भारत में जो इतिहास पढ़ाया जाता है उसमें बहुत से गैप हैं. गैप को खोद-खोद कर गुम इतिहास को निकालना हमने अंग्रेज़ों से सीखा. वरना पंडित से सुनी कथा ही हमारे लिए इतिहास था. शिक्षा और विज्ञान के साथ बुद्धि बढ़ी तो विद्वानों ने कहानियों पर सवालिया निशान लगाना सीखा. उदाहरण के तौर पर अब भाषा-विज्ञानी बताते हैं कि संस्कृत में लिखी किताबें दो हज़ार साल से अधिक पुरानी नहीं है. सम्राट अशोक के समय लिखे गए शिला लेखों में संस्कृत का एक भी शब्द नहीं है. इतिहास की नई खोज ने चाणक्य के ऐतिहासिक पात्र होने पर गंभीर सवाल उठा हैं.

जब श्री आर.एल. गोत्रा जी ने बताया कि एक लोक गायक राँझाराम मेघों की कथा को सिकंदर से जोड़ता था तो यह मेरे लिए एक नई बात थी. गोत्रा जी ने इसका उल्लेख एक सोशल साइट पर किया तो एक अन्य सज्जन ने उनका समर्थन किया. गोत्रा जी से एक अन्य संकेत भी मिला कि श्री राँझाराम की रिश्तेदारी श्री सुदेश कुमार, आईएएस से है जो मध्यप्रदेश काडर से सेवानिवृत्त हैं. 29-08-2016 को सुदेश भगत जी से बात हुई तो उन्होंने पुष्टि की कि श्री राँझाराम उनके पिता श्री तिलकराज पंजगोत्रा के फूफा थे और वे लोक गायक थे. यहाँ बताता चलता हूँ मेघ समुदाय के अपने लोक गीत लगभग नहीं के बराबर हैं.

23-08-2016 को मैंने एक अन्य मित्र कर्नल तिलकराज भगत जी से फोन पर बात की तो उन्होंने बताया कि उनका बचपन स्यालकोट के पास अपने गाँव मयाणापुरा में बीता है जहाँ राँझाराम के कार्यक्रम वे देख चुके हैं. राँझाराम की कथाएँ इतिहास भले न हों लेकिन उनमें ऐतिहासिक संकेत तो हो ही सकते हैं. वैसे भी लोक गायक घटनाओं को अपने शब्दों में ढालते आए हैं. कर्नल तिलकराज ने संकेत किया है कि मेघों के कुछ गोत्रों के नाम ग्रीक शब्दों से निकले प्रतीत होते हैं. यह खोजबीन का मामला है. ज़ाहिर है राँझे जैसे अन्य कई लोक गायकों के हाथों में उन दिनों कलम-दवात या पोथियाँ तो थी नहीं लिहाज़ा पंडितों से सुनी-सुनाई बातें वे अपने गीतों में कहते रहे.

गोत्रा जी ने यह प्रश्न एक से अधिक बार पूछा है कि बाह्मन समुदाय में सिकंदर नाम रखने की एक परंपरा दिखती है, तो कहीं सिकंदर ही आर्यों का देवता आर्यवंशी इंद्र तो नहीं था? पता नहीं, मैं नहीं जानता. लेकिन पंडित जयशंकर प्रसाद का नाटक 'चंद्रगुप्त' पढ़ा है जिसमें एलेक्ज़ांडर यानि सिकंदर का नाम अलक्षेंद्र (अलक्ष+इंद्र) रखा गया है.

सिकंदर लंबा रास्ता तय करके मेदियन और पर्शियन साम्राज्य के इलाके से होता हुआ झेलम और चिनाब क्षेत्र तक आया. उस क्षेत्र में मेघों के होने का साफ़ ज़िक्र सर एलेग्ज़ैंडर कन्निंघम ने किया है जिनकी रिपोर्टें 1871 में छपी थीं यानि सिकंदर के आने के लगभग 2200 साल बाद. कन्निंघम ने जब रिपोर्ट लिखी तब मेघ उन इलाकों में काफी गिनती में बसे थे.

वक्त के साथ चलता इतिहास बदलता रहा है. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि सिकंदर ने पोरस को हराया और कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पोरस ने सिकंदर को हराया. एक और बात भी देखने में आती है कि इतिहासकार जिस व्यक्ति का इतिहास दफ़्न करना चाहता था वो उसका नाम ही बदल देते था और अपनी पसंद के व्यक्ति को हीरो बना देता था.

सिकंदर अपने सेनापति सेल्यूकस को यहाँ छोड़ गया जिसने अपनी बेटी चंद्रगुप्त को ब्याह दी थी. ग्रीकों की बहुत सी निशानियाँ यहाँ रह गईं होंगी. वैसे भी जिस रास्ते से सिकंदर आया उस रास्ते में बहुत गोरे और बहुत साँवले लोग भी रहते थे. यह जुगलबंदी रक्तमिश्रण (ब्लड मिक्सिंग) की कहानी कहती है.

फिलहाल राँझाराम की कथा इतना संकेत करती है कि सिकंदर की फौज के साथ हमारा कुछ न कुछ लेना-देना तो रहा है. इतिहास लिखने की अनुमान पद्धति (inference methodology) में यह माना हुआ सिद्धांत है. दूसरी ओर यह एक प्रमाण है कि मेघों के प्राचीन इतिहास का एक अंश लोक-स्मृति (Public memory) में सुरक्षित है. मेघवंश के इतिहासकार वैज्ञानिक खोज के साथ अपना अतीत खंगालते रहेंगे. उस अतीत का दीदार मेदियन साम्राज्य से लेकर ग्रीस तक के इलाके के इतिहास और वहाँ की जनसंख्या की जानकारी (Demography) के अध्ययन से हो सकता है. डीएनए की खोज क्या कहती है यह भी देखने की बात है.

प्राचीन (pre-historic) इतिहास किसी एक जगह समाप्त नहीं हो जाता क्योंकि नई खोजें होती रहती है. किसी समय पराजित हुए भारतीय समुदायों ने अब पुरातत्व (आर्कियालोजी), लोक-स्मृति (पब्लिक मेमोरी), तर्क (लॉजिक), प्रमाण (प्रूफ, एविडेंस) पर आधारित लोकतांत्रिक इतिहास बोध (Democratic Sensibility of History) के साथ अपना इतिहास खुद लिखना शुरू किया है. जाट और सैनी समुदायों सहित कई दूसरे समुदाय पोरस को 'अपना बंदा' कहते हैं. कहने का तात्पर्य है कि भारत के कई समुदाय अब अपना-अपना इतिहास खुद लिख रहे हैं. आगे चल कर उन सब के समन्वय (Coordination) की ज़रूरत होगी.

आप भी ज़रूर कुछ कहना चाहते होंगे? ज़रूर कहिए. बल्कि बेहतर है कि लिख डालिए. शुभकामनाएँ.