"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


10 February 2017

Unity of Meghs - मेघों की एकता - 1



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जब-जब सामाजिक-राजनीतिक निर्णयों की बात आती है तो यह सवाल मन पर लटक जाता है कि मेघों में एकता क्यों नहीं होती? ऐसी सोच रखने वाला मैं पहला व्यक्ति नहीं हूँ न ही मेघ समाज अकेला ऐसा समाज है. पहली बात यह कि लंबी अनपढ़ता के कारण बहुत से समुदाय अपने अतीत और वर्तमान का सही विश्लेषण नहीं कर पाते. कुछ कमियां और कमज़ोरियां ऐतिहासिक होती हैं. दूसरे, धर्म की सही समझ न होने से वे समुदाय नहीं समझ पाते कि इंसानों को बांटने वाले तत्वों में धर्म सबसे बदनाम चीज़ है जो इंसान के मन और जीवन में बहुत तोड़-फोड़ मचाता है. कुछ राहत भी देता है इससे इंकार नहीं लेकिन उसके व्यावसायिक और राजनीतिक स्वरूप को समझा जाए.


पंजाब के मेघ भगत लोगों ने तथाकथित मुख्यधारा में शामिल होने की कोशिश में आर्यसमाज से लगन लगा ली. यह कुदरती था क्योंकि उन्हें शिक्षित करने में आर्यसमाज का बहुत रोल था. उन दिनों आर्यसमाज का मतलब था - कांग्रेस. इसलिए धर्म और राजनीति का एक घालमेल मेघों को मिल तो गया लेकिन आगे चल कर राजनीतिक-धार्मिक ताने-बाने और ताने-पेरे को समझने में उनको मुश्किलें आईँ.


1977 में जनता पार्टी के उदय के समय कुछ मेघजन कांग्रेस से छिटकते हुए नज़र आए. जिन्होंने ‘हलधर’ को चुना वे अन्य कांग्रेसी-आर्यसमाजी मेघों की नज़र में बिरादरी के ग़द्दार ठहराए गए. जब पूरा देश जनता पार्टी की लहर में बह रहा था तब मेघों ने कांग्रेस को जिताया. इस दौरान कई मेघ समझ गए कि आर्यसमाज ने उन्हें अपने एजेंडा से निकाल दिया हुआ था. लेकिन वे हवन से संतुष्ट और राजनीतिक नुक़सान से बेख़बर थे. आर्यसमाज-कांग्रेस की जुगलबंदी से वे ऐसा कोई समर्थन नहीं पा सके जो उन्हें विधानसभा में प्रतिनिधित्व दिला पाता.


मेघ इस ग़लतफ़हमी में रहे कि आरक्षण कांग्रेस ने दिया है. उधर आर्यसमाजियों की स्वाभाविक कोशिश थी कि मेघ डॉ. अंबेडकर की विचारधारा से दूरी बनाए रखें. आज बहुत से मेघ अंबेडकर को मानने लगे हैं लेकिन पुरानी पीढ़ी के कुछ बचे-खुचे बूढ़े आर्यसमाजी आज भी उन्हें अंबेडकरी विचारधारा से दूर रहने की सलाह देते हैं. वे नहीं जानते कि मेघों से अलग दिखने वाले अन्य समुदाय जिन्हें मेघ ख़ुद से कमतर मानते थे वे अंबेडकरी विचारधारा को अपना कर सामाजिक जागृति में पहलकदमी कर पाए और राजनीतिक तौर पर मेघों से आगे निकल गए.


1980-90 के मध्य में मेघों ने अंबेडकर को अपनाना शुरू किया था इसके संकेत मिलते हैं. लेकिन आर्यसमाजियों के विरोध के कारण वे दबाव में आ गए और 14 अप्रैल को ‘मेघ-दिवस’ के तौर पर मनाने की उनकी कोशिश को निराशा मिली. आज अंबेडकरवाद देश में एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर स्थापित हो चुका है.


मेघों में कबीर के प्रति झुकाव का कोई तारीख़वार इतिहास तो नहीं मिलता लेकिन कहा जाता है कि 1947 तक 2 प्रतिशत मेघजन कबीर को मानते थे और आज 98 प्रतिशत कबीर को मानते हैं. (मेघों ने इतने कबीर मंदिर बना लिए हैं कि अब उन्हें कबीर मंदिरों का बीमा कराना चाहिए🙂). ‘कबीरपंथी मेघ’ होना एक ऐसी पहचान है जिसमें वोट बैंक बनने की भरपूर क्षमता है. एक बार रवीश कुमार ने ऐसा ही संकेत दिया था. तो मान लिया जाए कि मेघों में एक प्रकार की धार्मिक एकता विकसित हो गई है. लेकिन केवल धर्म से काम नहीं चल सकता. सदियों की ग़रीबी से लड़ने के लिए सत्ता में बढ़ती हुई भागीदारी ज़रूरी है.

इस समय चुनाव का समय है. पंजाब में वोटिंग हो चुकी है. मेघों की राय ईवीएम में बंद है. जालंधर (वेस्ट) की सीट के लिए आप पार्टी, भाजपा और शिवसेना ने मेघों को टिकट दिया. 3 उम्मीदवार मैदान में हैं. (पूरे पंजाब में शिवसेना ने 5 मेघों को टिकट दिया है). कांग्रेसी मेघों में बहुत बेचैनी रही. अब वोट बँट जाने का भय भी सताता है. फिर भी मुमकिन है इस बार के चुनाव के नतीजे इस बात को साफ़ कर दें कि मेघों में एकता की बुद्धि विकसित हुई है.


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