"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


02 March 2017

Via Spirituality - बारास्ता रूहानियत

इन दिनों देख रहा हूँ कि व्हाट्सएप्प ग्रुपों में लामबंद हुए मेघों में कई बार धर्म को लेकर बहस छिड़ती है और दिखने लगता है कि वे डेरों और गद्दियों को लेकर बहुत जज़्बाती हैं. ग्रुप में मेघ मधाणी (मथनी) अक्ल के दही को रिड़कने लगती है. मैं इससे परेशान नहीं होता बल्कि अच्छा लगता है कि जो बहिष्कृत समाज धार्मिक स्थलों में प्रवेश नहीं कर सकता था अब उसके लिए डेरा प्रमुखों और गद्दीधारियों ने अध्यात्म और भक्ति के रास्ते खोले हैं. यह उन्हें मुख्यधारा में होने का जैसा भी है लेकिन एक अहसास दिलाता है.


जब बहिष्कृत समाज का कोई बंदा मुख्यधारा में आता है तो इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि वह एक शरणागत (रिफ्यूजी) की हैसियत से आगे न बढ़े. उसे कई तरीकों से डेरे और गद्दी के अनुशासन में बाँध दिया जाता है और यदि वो स्वभाव से ही भक्त है तो वो बँध भी जाता है. भक्ति चाहे गुलामी की सबसे बदतर हालत में ही क्यों न ले जाए वो भक्ति पाप नहीं कहलाती. धर्म ने यह व्यवस्था पहले ही कर रखी है.


वंचित जातियों ने अध्यात्म की खोज के लिए आधुनिक डेरों आदि का निर्माण किया है जहाँ जात-पात की संकरी गली से हो कर भी पहुँचा जा सके. कई डेरे अनुसूचित जातियों के अनुरूप सजाए गए हैं. वहाँ समता और मानवता का बैनर ले कर कोई गुरु या उसका पीए खड़ा रहता है. एक जैसी जातीय पहचान वाले समूह वहाँ सुकून से बैठ सकते हैं, एकदम टेंशन फ़्री. इस लिए डेरों को जब भी देखें सबसे पहले जाति के नज़रिए से देख लें. इससे सुविधा होगी. डेरे पर आपका चढ़ावा महत्वपूर्ण है. डेरों और धार्मिक स्थलों के संचालकों में चढ़ावे को लेकर आपस में एक संघर्ष, कभी-कभी ख़ूनी संघर्ष भी चलता रहता है. उनकी पृष्ठभूमि को एक बार देख लेना आपके हित में होगा.


जितने भी संत हुए हैं कबीर, रविदास, पीपा, पलटू आदि ये सभी वंचित जातियों से हुए हैं और इनकी जात-पात विरोधी विचारधारा का बहुजन में खूब प्रचार-प्रसार हुआ. होना ही था क्योंकि जात-पात उनके लिए घाटे की गारंटी थी वो भी बेमीयादी. जब संतों के नाम से डेरे बने और चल निकले तो वहां निम्न जातियों के लोगों से चढ़ावा आने लगा. ये डेरे एक तरह से सामाजिक संगठन का काम करते थे. यहाँ से आस्था का व्यवसाय भी साथ-साथ चल निकला इसलिए उनका अन्य के साथ कंपीटीशन होना तय था और वो हो गया.


प्रसंगवश, आस्था के व्यवसाय में पैसा है, आध्यात्मिक ग्लैमर है और नैतिकता की घूरती आँख भी है. पहले इस पर ब्राह्मणों का प्रभाव था. इसे देख कर पढ़े-लिखे कायस्थ समुदाय के प्रबुद्धजनों ने आगरा में 'राधास्वामी' नाम से डेरे का निर्माण किया जिस पर कायस्थों का प्रभाव है. वहां से प्रेरणा लेकर अमृतसर के पास ब्यास में राधास्वामी डेरा बनाया गया जिस पर जाटों का प्रभाव है. यहाँ इतनी बड़ी गुरु शिष्य परंपरा है कि आदमी देखता रह जाए. जाटों का इतिहास बताता है कि उनकी धार्मिक विचारधारा ओबीसी से उभरे संतों से बहुत प्रभावित है.

कई डेरे-गद्दी वालों ने राजनीतिक और सामाजिक रौब-दाब की कमाई की है जो उनकी सामाजिक संगठन तैयार करने की गहरी समझ का सबूत है. उनका राजनीतिक महिमामंडल साफ दिखता है. राजनीतिक पार्टियाँ उन्हें वोट बैंक के तौर पर दुलारती हैं. इनसे आपका अपना चिंतन प्रभावित हो सकता है.

सभी डेरों को जाति के नज़रिए से परखिए. समझने में आसानी होगी....और हाँ....ज़रा रुकिए....सोचिए.... कि क्या आप उनके बिना भी बेहतर ज़िंदगी बिता सकते हैं?

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