"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


25 May 2017

Mrs, Shashi Bhatia - our pride - श्रीमती शशि भाटिया - हमारा गौरव

पंजाब के मेघ भगत श्री मिल्खीराम भगत, पीसीएस को बहुत आदर से याद करते हैं. उनका व्यक्तित्व बहुत प्रेम भरा था और वे हमेशा दूसरों की मदद करने को तैयार रहते थे. उनके सभी बच्चे पढ़-लिख कर अच्छे पदों पर गए या समाज-सेवा के कार्य में लगे. 17 मई, 2017 को उनकी बेटी श्रीमती शशि भाटिया केनेडा से आई हुई थीं और ऑल इंडिया मेघ सभा के अनुरोध करने पर उन्होंने चंडीगढ़ में उपस्थित सदस्यों के साथ अपने अनुभव साझा किए. उनके उद्बोधन के ज़रिए उनके जीवन के कई अनजाने पक्ष सामने आए जिन्हें उपस्थितों ने बड़े शौक से सुना और सवाल भी किए. यह बहुत ही सुखद अनुभव रहा. इसके अलावा उन्होंने मुझे एक अलग से इंटरव्यू देना भी स्वीकार किया जिसे वीडियो के तौर पर MEGHnet पाठकों के लिए संभाल कर रख लिया है जिसे आप नीचे यूट्यूब लिंक पर देख सकते हैं.

केनेडियन आर्म्ड फ़ोर्सिस ने शशि भाटिया को एक प्रभावी व्यक्ति के तौर पर भर्ती किया है. “A new commemorative medal was created to mark the 2012 celebration of the 60th anniversary of Her Majesty Queen Elizabeth ll's accession to the Throne as Queen of Canada. Among seven of Durham Region recipients Shashi Bhatia daughter of late Mr. M.R. Bhagat was honored to receive Queen's Elizabeth ll Diamond Jubilee Medal during the Durham Regional Police Service ceremony on September 14, 2012 in Ajax, Ontario Canada.” इस अवसर पर मैडल के साथ उन्हें एक प्रशस्तिपत्र भी दिया गया. मेघ समुदाय उनकी इस उपलब्धि पर गर्व महसूस करता है.




नीरजा भनोट के भाई अनीश भनोट ने एक काफी टेबल पुस्तक की परिकल्पना की थी जो Inspiring Stories of Successful Indian Personalities Worldwide के नाम से प्रकाशित हुई है. इसमें शशि भाटिया का व्यक्तित्व और उपलब्धियाँ भी शामिल की गई हैं. पुस्तक का यह लोकार्पण कार्यक्रम 17-05-2017 को चंडीगढ़ में आयोजित किया गया था.


19 May 2017

Megh Civility - मेघ सभ्यता



हमारा जो भी इतिहास मिलता है वो हमने नहीं लिखा दूसरों ने लिखा और वो जो लिखना चाहते थे वो उन्होंने अपने आत्मगौरव (self pride) के लिए लिखा और उसे अपने हक़ में भुनाने के लिए लिखा. इसीलिए क्लासरूम में पढ़ाए जाने वाले इतिहास में हमें अपना कुछ नहीं मिलता. मेघ जाति सदियों तक शिक्षा से वंचित रही. अपना अतीत पूछती रही. दूसरों ने जितना बताया उतना मानती रही. शिक्षित होने के साथ मेघों को नई जानकारियाँ मिलने लगी है. वैज्ञानिक सोच आने लगी है.

मेघों को यदि मानवजाति विज्ञान (Ethnology) के अनुसार देखना हो और मूलनिवासी की कसौटी पर कसना हो तो ऐसे उल्लेख मिल जाते हैं जो प्रमाणित करते हैं कि मेघों ने आर्यों से पहले आकर सिंधु दरिया के आसपास अपनी बस्तियाँ बसाईँ. मेघों को कोलारियन ग्रुप का कहा गया है जो सेंट्रल एशिया से इस क्षेत्र में आ कर बसा था. जो समूह सबसे पहले आ कर बसा उसे ईरान में तूरानियन (तूरान नामक स्थान के लोग) कहा गया है. वो तूरानियन ग्रुप मंगोलॉयड था. यह ग्रुप ईरान की ओर से हो कर नहीं आया. 'तूरानियन' को संस्कृत में किरात कहा गया. दूसरा कोलारियन मंगोलॉयड ग्रुप असम की ओर से भारत में आया और उसका संपर्क द्रविड़ियन रेस से हुआ. उस ग्रुप को संस्कृत में निषाद कहा गया. जो उत्तर-पश्चिम में कोलारियन ग्रुप बसा वो आर्यों और मुग़लों के संपर्क में आया. इस कोलारियन ग्रुप के लोगों का रंग आमतौर पर गेहुँआ होता है. लेकिन इनमें बहुत गोरे और काफी साँवले रंग के लोग भी पाए जाते हैं. यह रक्तमिश्रण की कहानी है जो पूरे विश्व में एक फिनॉमिना है. लेकिन कोलारियन एक ऐसा सांस्कृतिक ग्रुप है जिसकी अपनी एक सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक व्यवस्था थी.


मेघों का आर्यसमाज में आना-जाना हुआ तो उन्होंने वेदों का गुणगान सुना और माना. धर्म में वेदों-पुराणों की इतनी महिमा गाई गई कि हम आदतन अपना पिछोकड़ (इतिहास) वहीं ढूँढने की कोशिश करते हैं. लेकिन एक बात को समझने की ज़रूरत है कि आर्य ब्राह्मणों ने जो साहित्य लिखा वो अपने आत्मगौरव के लिए लिखा है. उसमें दूसरों की जगह कम है. यह बात भी समझ लेनी ज़रूरी है कि यदि वेदों-पुराणों में इतिहास ढूँढने की बात करनी हो तो पहले यह निर्धारित करना ज़रूरी है कि वेद लिखे कब गए थे. अब भाषाविज्ञानी इस बात को प्रमाणित कर चुके हैं कि संस्कृत भारत की सब से पुरानी भाषा नहीं है. दूसरे यह भी जानना पड़ेगा कि वेदों में नायक कौन है और खलनायक कौन है. वेदों में इंद्र आर्यों का हीरो है. उसके विरोध में जो लोग खड़े हैं वे असुर और राक्षस हैं जिन्हें आजकल मूलनिवासी कहा जाता है. मूलनिवासियों को वैदिक और पौराणिक कथाओं में निहायत गंदे तरीके से दिखाया गया. वे मूलनिवासी लोग यूरेशिया की ओर से आए आक्रमणकारी आर्यों से अपने दरियाओं के पानी, जंगलों और ज़मीन की हिफाज़त कर रहे थे. वे नए दुश्मन का सामना कर रहे थे जो बहुत बर्बर था. कहते हैं कि लगभग 500-600 वर्ष तक चले युद्धों के बाद वे आर्य यहाँ के दरियाओं और उसके आसपास की ज़मीन पर कब्ज़ा जमाने में कामयाब हो गए और हारे हुए लोगों को उन्होंने गुलाम बना लिया जैसा कि उन दिनों रिवाज़ था. उस जीत का बखान और अपना गौरवगान आर्यों ने वेदों और उसके बाद लिखे अपने ग्रंथों में दर्ज किया. हारे हुए लोगों में मेघवंशी भी थे. वेदों में बताई गई उन कथाओं की पड़ताल करके हमारे अपने समाज के श्री आर.एल. गोत्रा ने एक लंबा आर्टिकल ‘Meghs of India’ शीर्षक से लिखा जिसकी तारीफ़ ताराराम जी भी करते हैं जिन्होंने ‘मेघवंश : इतिहास और संस्कृति’ नामक पुस्तक लिखी है.


Meghs of India में किया गया अध्ययन बताता है कि आर्यों के आने से पहले सप्तसिंधु क्षेत्र के लोग एक ‘वृत्र’ नाम के पुरोहित नरेश के अनुगामी थे या उसके प्रभाव-क्षेत्र में बसे थे. काबुल से लेकर दक्षिण में नर्बदा नदी तक उसका प्रभाव था. ऋग्वेद में उसे प्रथम मेघ, अहिमेघ भी कहा गया है. बहुत से मेघवंशी वृत्र को अपना वंशकर्ता मानते हैं. एक जाट नेता मनोज दूहन ने भी कहीं लिखा था कि वृत्र उनका वंशकर्ता है. क्योंकि वृत्र को अहि यानि नागमेघ भी कहा गया इससे पता चलता है कि मेघवंशियों और नागवंशियों का कभी निकट संबंध रहा होगा.


मेघऋषि को लेकर एक समस्या सोशल मीडिया पर उभरी है. लोगों में मेघवंश और मेघवंशी जातियों को लेकर शंकाएँ हैं. हो सकता है यह समस्या नहीं होती अगर हिंदू व्यवस्था के तहत जातियाँ न होतीं. लेकिन हिंदू व्यवस्था (वास्तव में ब्राह्मणीकल व्यवस्था) के लागू होने के कारण वंश या रेस का कई जातियों में बँटवारा हुआ. आज मेघवंश के तहत आने वाली मेघवाल, मेघवार, मेघ आदि जातियाँ निश्चित रूप से जाति के रूप में अलग-अलग हैं. नागवंशी जातियों की भी काफी बड़ी संख्या है.


दूसरी समस्या मेघऋषि की पूजा और उसके नाम पर हाल ही में स्थापित मंदिर हैं. जो लोग सनातनी परंपरा से प्रभावित हैं वे मेघऋषि को पूज्य देव के रूप में स्थापित रहे हैं. अन्य विचारधारा के लोग इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे. इस समस्या का समाधान नहीं सुझाया जा सकता. भारतीय संविधान से मशविरा करना पड़ेगा.


इतिहास में लिखे 'अंधकार युग' (dark period या dark ages) के बारे में पढ़ें तो पता चलता है कि आधुनिक इतिहासकारों के.पी. जायसवाल, नवल वियोगी, एस.एन. रॉय-शास्त्री ने ऐसे राजाओं के सिक्कों और शिलालेखों का अध्ययन किया है जिनके नाम के साथ ‘मेघ’ शब्द सरनेम की तरह लगाया जाता था. ‘मेघ’ सरनेम वाले जो राजा थे उनसे पहले और बाद के राजाओं का इतिहास मिला लेकिन ‘Megh’ सरनेम वाले राजाओं का इतिहास नहीं मिला. उनके शासनकाल को अंधकार काल कहा गया. ज़ाहिर है कि परंपरावादी इतिहासकार उन राजाओं के बारे में लिखना ही नहीं चाहते थे. लेकिन आधुनिक और ईमानदार इतिहासकार इस पर और अधिक रोशनी डाल रहे हैं.


अपने पिछोकड़ के बारे में जानना हो तो लोकगीत उसमें मदद करते हैं. अभी तक की जानकारी के अनुसार मेघ समुदाय के अपने लोकगीत नहीं हैं. इसका ज़िक्र डॉ. ध्यान सिंह ने अपने थीसिस में किया है. एक बार श्री आर.एल. गोत्रा जी ने बताया था कि हमारे एक लोकगायक राँझाराम हुए हैं जो कथावाचक थे और कई कथाओं के साथ-साथ मेघों की कथा भी सुनाते थे. इसकी पुष्टि कर्नल तिलकराज जी ने भी की. राँझाराम जी मेघों की कथा को सिकंदर से जोड़ते थे. कैसे जोड़ते थे, वो कथा क्या थी उसका रिकार्ड नहीं मिलता. फिलहाल इस बात का इतना महत्व तो है कि मेघों की कथा में सिकंदर है. सैनी और जाट सहित कई समुदाय पोरस को अपना आदमी बताते हैं. और तथ्य यह भी है कि सिकंदर के रास्ते में मेघों की घनी बस्तियाँ थीं. उस युद्ध में मेघों की कोई भूमिका न रही हो, ऐसा हो नहीं सकता. बाकी आपकी कल्पना पर छोड़ रहा हूँ. अच्छी कल्पना कीजिएगा. प्रसंगवश हमारे कमाल के लोकगायक राँझाराम जो थे वो श्री सुदेश कुमार, आईएएस के पिता श्री तिलकराज पंजगोत्रा के फूफा थे.


मेघों के अतीत का एक और महत्वपूर्ण पन्ना है उनका आर्यसमाज द्वारा शुद्धिकरण. अब पढ़े-लिखे लोग हँस कर पूछते हैं कि क्या हमें कीड़े पड़े हुए थे जो हमारा शुद्धिकरण किया गया. पिछले दिनों श्री ताराराम जी ने आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब, लाहौर द्वारा प्रकाशित की गई पुस्तक के एक सफ़े की फोटोकापी मुझे भेजी जिस पर ऐसा कुछ लिखा था जो चौंकाने वाला था. लिखने वाला सही था या नहीं, पता नहीं, उसमें लिखा है, “1901 में पहली बार आर्य-भक्त भाइयों ने समाज में आना प्रारंभ किया. उस समय इन मेघों का हिंदुओं के साथ मिल बैठ कर एक स्थान पर संध्या-हवन आदि में सम्मिलित होना आश्चर्यजनक था.” मेघों के शुद्धिकरण की बात वहाँ की गई है. इससे एक सवाल तो खड़ा होता है कि क्या शुद्धिकरण से पहले मेघों का धर्म कुछ और था कि उनका हिंदुओं के साथ बैठना आश्चर्यजनक हो गया? इस विषय को एक सवालिया निशान के साथ यहीं छोड़ रहा हूँ. आर्यसमाज ने मेघों की शिक्षा के लिए जो शुरुआती प्रबंध किया उससे मेघों को बहुत फायदा हुआ इसमें शक नहीं होना चाहिए. लेकिन एक बात साफ कर लेनी चाहिए कि नैतिकता (Morality) और सभ्य व्यवहार से क्या कोई समुदाय ख़ाली हो सकता है चाहे उसकी पहचान किसी धर्म से न भी हो? क्या नैतिकता सिखाने का हक़ सिर्फ़ धर्म को ही है? मेरा विचार है कि जब हमारे पुरखों को किसी धार्मिक स्थान में जाने नहीं दिया जाता था तो उन्हें नैतिकता का पाठ कौन पढ़ाता था. हमारे समाज में उन दिनों माताएँ किस धर्म के आधार पर अपने बच्चों को सिखाती थीं कि झूठ मत बोलो, पशु-पक्षियों पर दया करो, दिल में करुणा रखो, बूढ़ों-बुज़ुर्गों की सेवा करो वगैरा वगैरा. वो कौन-सी सभ्यता (civility) थी जो हमारे पुरखों के ख़ून में रची-बसी थी? यहाँ धर्म और सभ्यता को इसलिए अलग-अलग कर के देख रहा हूँ क्योंकि सभ्य व्यवहार धर्म के माध्यम से ही आए यह ज़रूरी नहीं. हमारी पृष्ठभूमि में कोई तो सभ्यता ज़रूर रही होगी जिसने सदियों से हमें सभ्य व्यवहार सिखाया है. थोड़ा याद कीजिए कि क्या हमारे समाज में महिलाओं को सती कर डालने की परंपरा थी? नहीं. क्या हमारे यहाँ विधवा विवाह की कोई समस्या थी? नहीं. क्या हमारे यहाँ दहेज हत्याओं की कोई समस्य़ा थी? नहीं. मैंने कई साल पहले पढ़ा था कि मेघ अदालतों में नहीं जाते. वजह थी कि हमारी एक अपनी पंचायत जैसी न्याय प्रणाली थी. कभी सुना नहीं कि उस व्यवस्था के अधीन किसी को क्रूर सज़ा सुनाई गई हो. अगर हुक्कापानी बंद करने की बात छोड़ दें तो मेघ अपनी न्याय प्रणाली से संतुष्ट थे. इन सभी ख़ासियतों को आप ‘मेघ-सभ्यता’ कह सकते हैं. ऐसी ‘मेघ-सभ्यता’ जिसमें इंसानियत सबसे सुंदर रंगों में खड़ी दिखाई देती है.


अब कुछ बेसिक से सवालों पर अपनी राय दे रहा हूँ. क्या मेघऋषि से ही हमारा वंश चला? बच्चा भी कहेगा कि मेघऋषि का भी कोई बाप ज़रूर रहा होगा. हाँ भई ज़रूर रहा होगा. बच्चे की बात में सच्चाई है और उसे मान लेने में भलाई है. वैसे भी मेघऋषि हारे हुए पुरोहित नरेश की कहानी है. आप चाहें तो मेघऋषि के प्रति आँखें मूँद कर चलते रह सकते हैं.


बड़ा मशहूर डायलॉग है कि ‘मेघों में एकता नहीं हो सकती’. यह सच्चाई है कि सियासी पार्टियाँ और धर्म या डेरे बनाने वाले लोग यह काम लोगों में एका लाने के लिए नहीं करते. उन्हें वोट, पैसा और आपकी सेवा चाहिए. इसके लिए ज़रूरी है कि पार्टियाँ और धर्म-डेरे आपको आपस में बाँट लें. आप जिसके यहाँ जाते हैं उसका ठप्पा या स्टिकर जाने-अनजाने में आप पर लग जाता है. जब ठप्पे और स्टिकर अलग-अलग हो गए तो पहचान अपने आप अलग हो गई और एकता की भैंस भी पानी में चली गई. मेघों के अपने कई छोटे-छोटे सामाजिक संगठन बने हुए हैं. सभी चौधरी हैं. वे इकट्ठे नहीं हो सकते. चलिए इस बात को एक ही बार में मान लें कि बिरादरी के तौर पर मेघों में एकता नहीं हो सकती. तो क्या कोई दूसरा रास्ता है? हाँ है जिसे अपनाया जाना चाहिए. मेघों में कार्य कर रही सियासी पार्टियों और सामाजिक संगठनों को आपसी कंपिटीशन और गतिविधियाँ बढ़ानी चाहिएँ. इससे निश्चय ही बेहतर रिज़ल्ट निकलेगा और वो मेघ-भगत समाज के लिए लाभकारी होगा. शुभकामनाएँ.


जय मेघ, जय भारत.
भारत भूषण भगत, चंडीगढ़.


(यह आलेख डॉ. शिवदयाल माली द्वारा गठित 'मेघ जागृति मंच' के 21-05-2017 को आयोजित कार्यक्रम के लिए लिखा गया था. मैं चाहते हुए भी कारणवश इसमें भाग नहीं ले सकूँगा. रिकार्ड के लिए इसे यहाँ रख लिया है.)

विशेष नोट - इसी तरह का एक सेमिनार 30 अगस्त, 2015 को जालंधर में हुआ था जिसकी शुरुआत मैंने इस प्रकार की थी, "पहली बात यह है कि मैं इतिहासकार नहीं हूँआपकी तरह अपना इतिहास जानने में मेरी रुचि थीमैंने जो पढ़ा उसके नोट्स बनाता रहामेरे नोट्स इतिहासकारों की देन हैंआपका इनसे सहमत होना ज़रूरी नहीं हैये नोट्स अब आपकी सेवा में हैं." ऊपर प्रस्तुत जानकारी पर भी मेरी यह टिप्पणी उसी प्रकार से लागू है.

11 May 2017

Remote Memory - पुरानी याद


अमृतसर के नवांकोट मोहल्ले और कैंब्रिज कालेज की यादों के अलावा एक फिल्म की कुछ यादें ज़हन में गहरी बैठी थीं जो इन दिनों उभर आईं. बचपन में पहली (शायद पहली) फिल्म पिता जी दिखाने ले गए थे. नाम याद है - ‘नौशेरवान-ए-आदिल’. यह नाम पिता जी से ही सुना था याद रह गया. उस फिल्म का एक ही डायलॉग याद है जो हीरो ने ठसक भरी आवाज़ में चुनौती देते हुए बोला था - ‘तो हम…..की हिफ़ाज़त के लिए न जाएँ?’. बाकी कुछ याद नहीं सिवाय एक गाने के - ‘तारों की ज़ुबां पर है मोहब्बत की कहानी.....’ - हो सकता है फिल्म देखते हुए मैं सो गया होऊँ. तब 6-7 साल का था (जन्म जनवरी 1951, अरे बाप रे! अब मैं सीनियर सिटिज़न हो गया हूँ🙊).

बचपन में इश्क-मुश्क की जितनी समझ हो सकती थी उतनी तो ज़रूर थी. लेकिन गाने की जो तर्ज़ ताज़ा दिमाग़ पर बैठ गई थी वो पिछले दिनों ज़ोर-शोर से याद हो आई. भला हो यूट्यूब का जहाँ लोगों ने पुराने गानों का ख़ज़ाना संभाल कर रखा है. जो चाहे, जब चाहे खोल कर देख ले. बुलो सी. इरानी के संगीत का वो हीरा नीचे रखा है. गीत के पूरे बोल यूट्यूब पर अब होश में सुने हैं जो कभी बचपन में एक सोते हुए बच्चे ने सुने होंगे.


कहते हैं जिसे चाँदनी है नूर-ए-मोहब्बत
तारों से सुनहरी है हमेशा तेरी किस्मत
जा जा के पलट आती है फिर तेरी जवानी
ए चाँद मुबारक हो तुझे रात सुहानी


हम हों न हों दुनिया यूँ ही आबाद रहेगी
ये ठंडी हवा और ये फ़िज़ा याद रहेगी
रह जाएगी दुनिया में मोहब्बत की निशानी
ए चाँद मुबारक हो तुझे रात सुहानी




07 May 2017

Megh and Aryasamaj - मेघ और आर्यसमाज

मेघ होने के नाते ख़ुद को सियालकोट और आर्यसमाज के नाम से प्रभावित महसूस करता रहा हूँ. पिता जी ने मुझे मेघों के उत्थान में आर्यसमाज की भूमिका के बारे में बताया था. तब पिता जी से अधिक सवाल करने की आदत नहीं थी. आज वे होते तो उन्हें कुछ सवालों का जवाब देना पड़ता.

कई मेघों को कहते सुना है कि मेघ मूलतः ब्राह्मण हैं. उनके रीति-रिवाज़ ब्राह्मणों से मिलते-जुलते हैं. वो कैसे मिलते-जुलते हैं मुझे पता नहीं. आर्यसमाज में प्रवेश मिलने से पहले उनके कौन से रीति-रिवाज़ ब्राह्मणों जैसे थे यह बात बहस का विषय हो सकती है. यहाँ एक मुख्य उदाहरण मेघों की देरियों का दे सकता हूँ जो मेघ-सभ्यता का रेखांकित उदाहरण है और उनके ब्राह्मणीकल मूल को झुठलाता जाता है.

लेकिन तर्क के तौर पर यदि श्री भीमसेन विद्यालंकार द्वारा लिखित “आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का सचित्र इतिहास” नामक पुस्तक से संदर्भ लिया जाए तो एक बात-जैसी-बात निकलती दिखती है. उसमें उल्लेख है कि आर्यसमाज ने "मेघ और उनकी शुद्धि " नामक पुस्तक सन् 1936 में प्रकाशित की थी जिसमें मेघों को ब्राह्मण घोषित किया गया था. इस पुस्तक में उल्लेख है कि भक्त पूर्ण के सुपुत्र श्री रामचंद्र मेघ जाति से प्रथम स्नातक (ग्रेजुएट) हुए. उन्हें सियालकोट आर्यसमाज ने गुरुकुल में शिक्षा दिलाई. पुस्तक के पृष्ठ 172 पर दर्ज किया गया है कि सन् '1901 में पहली बार ‘आर्य-भक्त’ भाइयों ने समाज में आना आरंभ किया. उस समय इन मेघों का ‘हिंदुओं के साथ’ मिल बैठ कर संध्या-हवन करना आश्चर्यजनक था.' ज़ाहिर है कि आर्यसमाज का ‘समाज’ ने विरोध किया. यह समझने की ज़रूरत है कि आर्यसमाज का किस समाज ने विरोध किया लेकिन आर्यसमाज ने मेघों को ‘शुद्ध’ करने का विचार किया यह बड़ी बात है. सन् 1903 में आर्यसमाज के वार्षिक उत्सव पर 'मेघ बिरादरी के चौधरियों को एकत्रित करके' उनका शुद्धिकरण किया गया.

उन्हीं दिनों या उसके आसपास - “लाला गणेशदास ने ‘मेघ और उनकी शुद्धि’ नाम का ट्रैकट (ट्रैक्ट के हिंदी/अंग्रेज़ी पर्यायवाची शब्द हैं - निबंध, Dissertation, treatise, thesis, tractate, system, method, mode, channel, manner.) प्रकाशित किया और मेघ जाति को ब्राह्मण जाहिर करके उनके पतन के कारण लिखे और उनकी शुद्धि शास्त्रोक्त करार दी.” - यह बात ध्यान खींचती है. यह आलेख सुरक्षित रखा गया है तो मुझे हैरानगी होगी और यदि वह उपलब्ध हो तो वह संदर्भ देने योग्य ज़रूर होगा क्योंकि आज भी बहुत से मेघ मानते हैं कि वे ब्राह्मण हैं या फिर ब्राह्मणों से निकले या फिर निकाले हुए हैं. वो ट्रैक्ट मेघों की स्थिति को दूर तक स्पष्ट कर देगा. वहीं एक और वाक्य लिखा है कि - “सन् 1901 में पहली बार ‘आर्य-भक्त’ भाइयों ने समाज में आना आरंभ किया.” ‘आर्य-भक्त’ शब्द कई अर्थ देता है. आर्य एक रेस (वंश) है और रेस मानव-विज्ञान का एक ऐसा घटक है जो अपरिवर्तनशील है जिसमें डीएनए स्थिर खड़ा है. आर्यों (ब्राह्मणों) का वंश कभी नहीं बदला यह सामाजिक तथ्य है. ब्राह्मणों की जाति बदली है ऐसा सुना है लेकिन जब तक वो जाति समूह ख़ुद इसे स्वीकार न करे तब तक उसे उदाहरण के रूप में नहीं रखा जा सकता.  दूसरा शब्द ‘भक्त’ है. कहा जाता है कि इसी शब्द को ‘भगत’ के रूप में मेघों ने अपनाया. लेकिन इससे भी समस्या का समाधान नहीं होता. ‘आर्य-भक्त’ शब्द को समास पद्धति से लिखा गया है जिसका एक अर्थ है ‘आर्यों का भक्त’. जैसे ‘राम-भक्त’ शब्द है. अब ‘भक्त’ शब्द की परिभाषा करें तो यह भारत की गुलामी-प्रथा तक खिंचने की क्षमता रखता है. ‘भक्त’ उसे कहा जाता रहा है जो अपने समाज से टूट कर आर्यों के पाले में चला गया जैसे विष्णु-भक्त प्रह्लाद, राम-भक्त विभीषण, भक्त हनुमान आदि. संस्कृत में ‘भक्त’ शब्द की धातु ‘भज्’ इसी ओर संकेत करती है.   

उक्त संदर्भ में आई यह बात भी ध्यान खींचती है कि - “मेघों का हिंदुओं के साथ मिल बैठ कर संध्या-हवन करना आश्चर्यजनक था.” आखिर वो आश्चर्यजनक क्यों था? एक नज़रिए से ऐसा कहना उस पुरानी बहस की ओर इशारा करता है कि क्या मेघ हिंदू थे? कल नहीं थे तो आज कैसे? मेघ समाज में इस पर (ख़ास कर सोशल मीडिया पर) बहस होती रहती है. बहस होना एक अच्छा संकेत है.

अंत में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब, लाहौर का उक्त प्रकाशन के लिए आभार और ताराराम जी का आभार जिन्होंने उक्त प्रकाशन के संदर्भित पृष्ठों की फोटो भेजी है.

'भक्त' शब्द की एक व्याख्या. संदर्भ है जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक 'भारत की खोज' (Discovery of India) :-