"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


19 November 2017

Divorce? - तलाक?

एक समय था जब हमारे समाज में तलाक़ जैसे मामले नाममात्र के ही थे. वैसे भी वे अदालतों में नहीं जाते थे. पत्नी संतान नहीं दे सकी, पति संतान नहीं दे सका, या जीवन-साथी किसी भयंकर बीमारी का शिकार हो गया - ऐसे-ऐसे कारणों से शादीशुदा महिलाएँ और पुरुष अलग होते रहे हैं. कभी-कभी ऐसे-वैसे कारणों से भी होता होगा. बुज़ुर्ग कहते रहे हैं कि अगर मियां-बीवी में नहीं ही बनती है तो बेहतर है अलग हो जाओ. समाज बहुत समझदार होता है.

लेकिन पिछले चार-पाँच दशकों से तलाक़ के मामले बढ़े हैं. 'हिंदू मैरिज एक्ट' ने लोगों मानसिकता को काफ़ी बदला है. तलाक़ के चल रहे मामले से परेशान पति से पूछा कि क्या उसकी पत्नी हिंदू मैरिज एक्ट का हवाला देती है? उसने हामी भरी. मेरे मुँह से निकल गया कि ‘देन विश यू ऑल द बेस्ट’. उनमें तलाक़ हो गया. यदि कोई पति या पत्नी या दोनों एक-दूसरे को हिंदू मैरिज एक्ट की कापी दिखाने लगें तो उसे ख़तरे की घंटी समझें 😜.

अब बच्चे बहुत पढ़-लिख गए हैं. उन्हें किसी उपदेश की ज़रूरत नहीं. लेकिन कुछ संकेत कर देना ठीक होगा कि अधिकतर मन-मुटाव छोटी-छोटी बातों पर होते हैं जैसे किसी बात पर वाद-विवाद करना और अपने विचार एक-दूसरे पर थोपने की कोशिश करना, अपने ‘कहने का मतलब’ समझाना जैसे "मेरे कहने का मतलब यह था, यह नहीं था" वगैरा. ये गुस्से की वजह बन सकते हैं. लेकिन ज़रूरी नहीं कि वहाँ आपसी प्रेम की कमी ही हो. जयशंकर प्रसाद ने लिखा है :-

"जिसके हृदय सदा समीप है
वही दूर जाता है,
और क्रोध होता उस पर ही
जिससे कुछ नाता है."

झगड़े बढ़ भी सकते हैं. पत्नी मायके चली जाती है और बच्चे टुकुर-टुकुर पप्पा की ओर देखते हैं. प्यार की पप्पी, लाड़-दुलार की झप्पी काम नहीं करती. नाटककार भुवनेश्वर ने कहा है कि यदि शादी के एक वर्ष के अंदर पति-पत्नी का झगड़ा नहीं होता तो उन्हें मनोचिकित्सक (psychiatrist) से सलाह करनी चाहिए. उनके ऐसे अपसामान्य (abnormal) व्यवहार का इलाज ज़रूरी है. आपसी झगड़े और रार आमतौर पर नार्मल होती है. बस, उसे खींचना नहीं चाहिए. नेवर खींचोफ़ाई.


यदि आप दोनों मियाँ-बीवी आपस में बहसबाज़ी करते हैं, झगड़ते हैं तो बधाई ले लीजिए. मनोचिकित्सकों ने आपकी पीठ थपथपाई है. वे कहते हैं कि जो प्यार दिल (💓) और तितलियों (🦋) से शुरू होता है वो वाद-विवाद (😈) तक स्वभाविक ही पहुँच जाता है. दरअसल यह आपसी संप्रेषण (communication) विकसित होने की प्रक्रिया (process) है. इसमें कुछ चुनौतियाँ हैं. प्रेम और एक-दूसरे का सम्मान ज़रूरी शर्त है, वो बरकरार रहना चाहिए. मनोचिकित्सकों का कहना है कि जो जोड़े तर्क-वितर्क, बहस करते हैं वास्तव में वे एक-दूसरे से बहुत प्रेम करते हैं. एक आलेख का लिंक नीचे दिया है इसे पढ़ लीजिए और आपसी समझ बढ़ाइए.


15 November 2017

It is enough - इतना काफ़ी है

चलिए थोड़े में बात करते हैं. आपके पास भी टाइम कम है और मेरे पास भी.
इंसान धरती पर चला धरती के इतिहास में यह पुरानी घटना नहीं. भाषा, धर्म, उधार लेने की शुरुआत, पूंजी बनाना और पूँजीवादी व्यवस्था तो एकदम नई बातें हैं. इंसान ने कृषिपालन किया या कृषि कार्य ने इंसान को पालतू बना दिया यह विषय सुनने में कठिन ज़रूर लगता है लेकिन भारत में किसानों की लग़ातार आत्महत्याओं ने इस विषय को बेहतर तरीके से समझा दिया है. अनाज पैदा करने और इकट्ठा करके रखने की आदत में इंसानी मुसीबतों की जड़ें देखी गई हैं. पूँजीवाद भी उस आदत को अपना पुरखा मानता है.
हम फैक्ट्रियों में बना भोजन खाने लगे हैं. ऑर्गेनिक खेती नया सेहतमंद नारा है और उसकी ओर लपकना हमारा नया शौक हालाँकि यह महँगा है. कृषि और फैक्टरी से आ रही खाने-पीने की चीज़ों में कैमिकल्ज़ का इस्तेमाल बढ़ा है. वो परिंदों, चरिंदों के साथ-साथ इंसानी शरीर की कैमिस्ट्री पर भारी है. चीनी और फैट्स ने शारीरिक मोटापा दिया. सूचना उद्योग यानि पुस्तकों, अख़बारों, पत्रिकाओं, पोर्नोग्राफ़ी, टीवी, इंटरनेट वग़ैरा ने हमें अच्छा-ख़ासा दिमाग़ी मोटापा गिफ़्ट किया है. जंक फूड यू नो, आप जानते हैं.
हमें बताया गया है कि चिकित्सा-विज्ञान मनुष्य के लिए अमरत्व के तारे तोड़ कर लाएगा. हर देश में युद्ध की तैयारी है. कृषि क्रांति और औद्योगिक क्रांति के साइड इफैक्ट्स एक धोखाधड़ी का अहसास कराते हैं.
प्रकृतिवाद गहरी शिकायत भरी नज़र से पूँजीवाद को घुड़कता है. पूँजीवाद उसे यह कह कर रिलैक्स हो लेता है कि जनसंख्या बढ़ने से जो बोझ पड़ता है उसे पृथ्वी झेल पाए उसका इकलौता उपाय मैं हूँ. मार्क्सवाद गुर्राता है, "मैं यहीं हूँ." पूँजीवाद मुस्करा देता है, "खड़ा रह. अपनी कीमत बता."
सरकारों के सरोकार अलग हैं. वे योजना भिड़ाती हैं कि क्या किया जाए. जनसंख्या पर लोग नियंत्रण नहीं रखते, नहीं रखना चाहते तो क्यों न उन्हें वहाँ छोड़ दिया जाए जहाँ वे सस्ते मज़दूरों की लाइन में हमेशा बने रहें, बाज़ार की उम्मीदी-नाउम्मीदी के खेल में वे ज़िंदगी भर भक्ति और प्रार्थनाएँ पेलते रहें. कुछ पैसा मिलता रहे, कुछ जाता रहे, उधारी-चुकौती चलती रहे. बाज़ार ख़ुश. बहुत हुआ तो हिंदू-मुसलमान-सिख-ईसाई, कांग्रेसी-भाजपाई की बारह गोटी की तरह वे बिछते रहें. धर्म और सियासत ख़ुश. ज़िदगी पार हो गई. आदमी ख़ुश. आबादी पर लोग कंट्रोल न करना चाहें न करें उसे प्रगति के साइड इफ़ैक्ट्स पर छोड़ दें.
आपको नहीं लगता कि दुनिया ठीक-ठाक चल रही है? मुझे तो लगता है. मैं ख़ुश हूँ.



07 November 2017

Myth of Sudama - सुदामा का मिथ

कृष्ण और सुदामा का प्रसंग जो भक्ति साहित्य ने दिया है वो भावुकता भरा है इसीलिए अविश्वसनीय है. एक शक्तिशाली राजा अपने पुराने सहपाठी (क्लासफैलो) की आवभगत करने के लिए भावविह्वल हो कर रोता हुआ,भागता हुआ बाहर आए और उसे अपने सिंहासन पर बिठाकर उसके पांव धोए ऐसा संबंध सहपाठियों में तो नहीं देखा जाता. कथा में कुछ लोचा है. कुछ लोचा कवि सूरदास के पदों में भी है जहाँ वे कृष्ण और सुदामा के मिलन प्रसंग का वर्णन ऐसे करते हैं :-
अब हम जानी तुमहिं वो मूरख
कहाँ रहे तुम कहाँ बसत हो
सुधरे हो या निरे भगत हो।
घरबार संगहिं तुमहिं रहत हो
करम से का तुम अभहिं बचत हो
(अर्थ - अब मैं पहचान गया हूं कि तुम वही मूर्ख हो. बताओ, अब तक तुम कहाँ रहे और अभी कहाँ रहते हो. तुम्हारे अंदर कुछ सुधार हुआ है या अब भी तुम केवल भक्त ही हो. तुम घर-परिवार के संग ही रहते हो या नहीं. और परिश्रम से क्या तुम अभी पहले की ही तरह बचते हो?)
बात समझ में आती है. सुदामा ब्राह्मण था इसलिए कई बातें संकेत रूप में समझ आ जाती हैं. लेकिन शक्तिशाली यदुवंशी राजा कृष्ण उसके पाँव आखिर क्यों धोएगा? नए संदर्भों में यादव यह सवाल पूछने लगे हैं. इसे भी टटोलने की जरूरत है कि सूरदास ने सुदामा को ‘निरे भगत’ क्यों कह दिया. अगर भक्त सूरदास का यह हाल है तो बाक़ी भक्तों का क्या होगा. कबीर को तो मैं 'भक्त' नहीं मानता बल्कि 'मुक्त' मानता हूँ. उनका समय 'मुक्तिकाल' था.
सूरदास का पद Mahendra Yadav जी ने उद्धृत किया है और यह उन्हीं की पोस्ट का पश्चप्रभाव (After effect) है.

02 November 2017

Advocate Hans Raj Bhagat - Some records - एडवोकेट भगत हंसराज - कुछ रिकार्ड


श्री आर एल गोत्रा जी ने ही सबसे पहले एडवोकेट हंसराज भगत जी के बारे में जो बताया था वो मैंने यहाँ दर्ज कर दिया था. जो छुटपुट बातें अन्य से प्राप्त हुई उसे भी साथ ही दर्ज कर दिया. पहला रिकार्ड लुधियाना के श्री सुरजीत सिंह भगत से मिला. उन्होंने तब की पंजाब विधानसभा के सदस्यों की एक फोटो उपलब्ध कराई थी. उन्होंने यह भी बताया कि उनको मिली जानकारी के अनुसार भगत हंसराज जी का बेटा इंडियन एयरलाइंस में था. आज (01-11-2017) को जोधपुर से ताराराम जी ने एक पुस्तक के कुछ पृष्ठों की फोटो प्रतियां भेजी हैं जिनमें तब की पंजाब विधान सभा का कुछ रिकार्ड उपलब्ध है. उससे पता चलता है कि एडवोकेट भगत हंसराज उस विधान सभा के मंत्रीमंडल में पार्लियामेंट्री प्राईवेट सेक्रेटरी रहे थे. नई जानकारी के संदर्भ में आज फिर गोत्रा जी से बात हुई. उन्होंने बताया कि भगत हंसराज भगत का उल्लेख अमेरिका के महान विद्वान मार्क योर्गन्समायर (Mark Juergensmeyer) की पुस्तक ‘रिलीजियस रिबेल्स ऑफ पंजाब’ में भी आया है. उन्होंने यह भी कहा कि जालंधर के कुछ आर्यसमाजी मेघ कहते हैं कि भगत हंसराज ने मेघों को आर्यनगर की ज़मीन का वाजिब हक़ दिलाने के लिए जो मुक़द्दमा किया था उस पर अदालती निर्णय न हो कर बाहर ही समझौता हो गया था. इसकी पुष्टि की जानी बाकी है. कुछ और विवरण ताराराम जी से प्रतीक्षित है.








गज़ट के नीचे बाईं ओर भगत जी के नोटरी के तौर पर नियुक्त होने की बात का उल्लेख है.
This is screenshot from the book 'Religious Rebels of Punjab' written by Mark Juergensmeyer