"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


23 February 2018

Social Media: A Freedom - सोशल मीडिया: एक आज़ादी

सोशल मीडिया ने आम और साधारण लोगों को इज़हार की आज़ादी दी है. बहुतों ने तो अपने न्यूज़ चैनल बना लिए हैं. कुछ के लिए सोशल मीडिया क्रेज़ बन चुका है. यह मीडिया आपके विचारों या आपके प्रोडक्ट का विज्ञापन है. जिन समाचारों को तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया (गोदी मीडिया) नहीं दिखाता वो सोशल मीडिया पर मिल जाते हैं.
मनोरंजन और पारिवारिक ईवेंट्स को एक तरफ़ रख दें तो पाएँगे कि सोशल मीडिया पर वैचारिक कंटेंट बहुत अधिक होता है. राजनीति में सक्रिय लोगों ने अपने वैचारिक उत्पादों को इस बड़ी मार्कीट में उतारा है. यहाँ वैचारिकी और उसके फलसफ़ों की भरमार है. उनकी इतनी वैरायटी है कि कभी वहाँ राजनीति प्रमुख हो जाती है, कभी सामाजिक या धार्मिक मुद्दे उठने लगते हैें. हालाँकि फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर आप एक विचार पसंद करते हैं तो फेसबुक के इंजिन आपको ख़ुद ही आपके पसंदीदा ग्रुपों, पेजिज़ और विज्ञापनों तक ले जाने लगते हैं. आपका दायरा उसी के अनुसार बनने लगता है. नए दायरे ढूँढने के लिए आपको ख़ास कोशिशें करनी पड़ती हैं.
व्यक्ति का मन कभी-कभी विचारों की भरमार के प्रति रिएक्ट करने लगता है. सोचना पड़ता है कि इतनी तरह की इतनी सारी ‘क्रांतियां’ मेरे दायरे में जब हो रही हैं तो किस क्रांति पर ख़ास ध्यान दिया जाए. किसी विचार की अति हो जाने पर मानव मन बोर हो जाने की हालत में पहुँच जाता है. कुछ लोग अपने दोस्तों को सूचित करते देखे गए कि वे सोशल मीडिया से कुछ दिन या हमेशा के लिए विदा ले रहे हैं. ऐसा वैचारिक अपच की वजह से होता है. सोशल मीडिया पर बैठी विरोधी विचारधारा के सोशल लठैत कई बार इन्नोवेटिव गालियों और हिंसक भाषा से शरीफ़ क्रांतिकारियों में दहशत पैदा करके उन्हें थका देते हैं. हिंसक वीडियोज़ को अपलोड करने का शौक सोशल मीडिया के शरीर में एक नया कैंसर है. फेसबुक ने ऐसे वीडियोज़ पर एक फिल्टर लगा कर अच्छा काम किया है.
यह सोशल मीडिया ख़ासकर पूँजीपतियों, औद्योगिक घरानों द्वारा दी गई एक सुविधा मात्र है. इसे जब चाहे सीमित या समाप्त किया जा सकता है. तब सोशल मीडिया के एडिक्ट लोगों पर क्या ग़ुज़रेगी पता नहीं. उन्हें इसके विकल्पों की तलाश कर लेनी चाहिए.
यहाँ नुक्कड़ बैठकों और ज़मीनी कार्य की अहमियत दिखाई देने लगती है.
हर शाख पर है वैचारिक क्रांति


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