कुछ जगह ‘मेघ-इतिहास Megh History’ शब्द का इस्तेमाल हुआ है. उसका आशय ‘मेघों का इतिहास’ रहा होगा ऐसा मैं मानता हूँ. ‘मेघ-इतिहास’ का दूसरा अर्थ ‘बड़ा इतिहास’ हो सकता है. यहाँ ‘‘आर्य-भक्त’’ या ‘आर्यों का भक्त’ वाली प्रयुक्ति याद हो आती है. यह समास पद्धति का कमाल है. इन शब्दों के बारे में यह किसी वैयाकरणिक (ग्रामेरियन) का नेरेटिव है. इस बारे में आपके मन में जो चल रहा है यदि उसे आप लिख देते हैं तो वो आपका नेरेटिव होगा. शब्द का अर्थ इस बात पर निर्भर करता है कि उसके विभिन्न प्रयोगों की कथा में उसका अर्थ क्या-क्या रहा है. शब्द का वो यात्रा वृत्तांत या ‘कथा’ किसी भाषाविज्ञानी का ‘नेरेटिव’ है. इस बारे में हर व्यक्ति का नेरेटिव अलग हो सकता है. यह तो बात हुई दो-तीन शब्दों के ‘नेरेटिव’ की. इसके आगे अब दूसरी कथा है.
पंजाब में 'आप' पार्टी के एक बड़े पदाधिकारी डॉ. शिवदयाल माली ने गढ़ा, जालंधर की आर्य-समाज में सेमिनार का आयोजन किया था जिसमें अपनी बात रखने का मुझे भी मौका मिला. मेरा विषय था- ‘मेघों का पीछोकड़ (अतीत, इतिहास)’. इस विषय पर कहने के लिए काफी कुछ था लेकिन समय की पाबंदी थी, मैंने बात को सीमित रखा. ख़ासकर आर्य-समाज के साहित्य में मेघों के उल्लेख पर मैंने अपनी बात रखी.
मेघों में कहीं-कहीं एक अवधारणा बनी हुई है कि उनके इतिहास का उदय ‘आर्य-समाज’ के शुद्धिकरण आंदोलन के साथ होता है. इसकी वजह है. मेघों की शिक्षा का पहला प्रबंध ‘आर्य-समाज’ संस्था ने किया था जिसके साथ-साथ ‘आर्य-समाज’ ने उन्हें यह भी बताया-पढ़ाया कि मेघों का उद्धार ‘आर्य-समाज’ ने कैसे किया और उसके साथ कौन-सी सामाजिक और धार्मिक कड़ियां जुड़ती थीं. राजनीतिक कड़ियां तो थी ही नहीं और अगर थीं तो वे सवर्ण समाज से जुड़ी थीं. आशय यह कि जो इतिहास मेघों को पढ़ाया गया वो उतना ही था जितना ‘आर्य-समाज’ ने अपने मिशन को गौरवान्वित करने के लिए लिखा और बताया. लेकिन दूसरी ओर ऐसे इतिहासकार भी हो चुके थे जिन्होंने मेघ (रेस) के ऐसे संदर्भ अपनी पुस्तकों में दिए थे जिनसे मेघों की उपस्थिति दो-अढाई हज़ार वर्ष पहले के इतिहास में नज़र आती थी. मेघों के बारे में आर्य-समाजियों का नेरेटिव अधिकतर ‘शुद्धीकरण’ की संकरी गली में आता-जाता रहा. उससे बाहर के मेघों की बात नहीं हुई. ‘सिंह सभा आंदोलन’ से जुड़ कर जो मेघ सिख बने ‘आर्य-समाज’ के नेरेटिव ने उनसे दूरी बनाए रखी.
‘आर्य-समाज’ द्वारा पढ़ाए गए इतिहास की परंपरा को बढ़ाते हुए मैंने प्रो. कस्तूरी लाल सोत्रा को देखा-सुना-पढ़ा है उनके अलावा कुछ अन्य बुजुर्ग भी इसी कथा के पक्षधर होंगे. इस बारे में मेरी रुचि रहेगी कि क्या उनमें से किसी ने कुछ लिखा भी है. सोत्रा जी ने यहां-वहां कुछ लिखा है. आजकल वे सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं.
मेघों के लोक-गायक रांझाराम के बारे में कहा जाता है कि वे ‘मेघों की कथा’ सुनाते थे और उस कथा को सिकंदर (Alexander The Great) से जोड़ते थे. कलाकार का अपना थीम होता है जिसे वो अपनी कथा में बताता है. रांझाराम क्या कथा कहते थे उसका कोई विवरण उपलब्ध नहीं है. तो इस तान को यहीं तोड़ते हैं कि संभव है रांझाराम ने सिकंदर और पोरस (पुरु) की वे कथाएं जानी-सुनी हों जो हमें अन्य स्रोतों से अब मिली हैं. यहाँ जान लेना अच्छा होगा कि पोरस का पुरु के रूप में जो महाभारतीकरण और पौराणीकरण हुआ है वो एक अलग ही कथा है. किसी के लिए वो रोचक हो सकती है.
मेघों के बारे में एक कथा श्री आर.एल. गोत्रा जी की है जिसे उन्होंने दो शीर्षकों से लिखा है ‘Meghs of India’ और ‘Pre-historic Meghs’. इनमें वैदिक और ऐतिहासिक दोनों प्रकार के संदर्भ हैं. गोत्रा जी ने कई जगह स्पष्ट कर दिया है कि इतिहासिक संदर्भ अपनी पृष्ठभूमि के साथ अधिक उपयोगी होते हैं. पौराणिक संदर्भ बात को उलझा देते हैं ('पुराण' शब्द धोखेदार है. कुछ पुराण अंग्रेज़ों के शासन काल में लिखे गए. हो सकता है कुछ पुराण आज लिखे जा रहे हों. मतलब कि ज़रूरी नहीं कि पुराण बहुत पुराने हों). यदि अपने बारे में किसी ने खुद अपनी कही हो तो उसका अलग ही महत्व होता है. आपको और आपकी पृष्ठभूमि को आपसे बेहतर कोई नहीं जान सकता. अपने बारे में अपना इमानदार लेखन आपका इतिवृत्त (इतिहास) होता है. आपके बारे में अन्य का लेखन उनकी आपके बारे में कम जानकारी के कारण पूर्वग्रह (prejudice) और पूर्वाग्रह (bias) से ग्रस्त और अधूरी समझ वाला हो सकता है. इस सब का परिणाम आपके बारे में एक ऐसी छवि का निर्माण हो सकता है जो आपका सत्य ना हो.
पिछले दिनों कर्नल तिलकराज जी ने बताया था कि भार्गव कैंप (जिसे मैं कभी-कभी अनधिकारिक रूप से ‘मेघनगर’ कह देता हूं) वहां रहने वाले लोगों के जीवन के बारे में किसी ने पुस्तक (संभवतः थीसिस) लिखी है. मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने जो थोड़ा-सा बताया (मुझे उनके थोड़ा बताने से बहुत शिकायत है) उसका सार यह था कि इस पुस्तक में मेघों को बहुत ‘सहनशील’ बताया गया है. मैंने ख़ुद कहीं लिखा है कि ‘मेघ समाज कमोबेश एक संतुष्ट समाज है’. मेरे वैसा कहने के पीछे मेघ समाज के व्यापक जीवन के कई संदर्भ समेटने की एक कोशिश थी अन्यथा पूरा समाज संतुष्ट कैसे हो सकता है. लेकिन ‘सहनशील’ शब्द से मेरा माथा ठनका. इसे ठनकने की आदत है. कोई पूरा समुदाय ‘सहनशील’ कैसे हो सकता है? यह किसकी कथा है? और ऐसी क्यों है? मेघ समाज क्या समाज के रूप में कभी प्रतिक्रिया नहीं करता? क्या मेघों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ कि उनकी सहनशीलता (बरदाश्त) की ताकत जवाब दे गई हो? इन सवालों के जवाब उक्त पुस्तक को पढ़ने के बाद ही मिल सकते हैं. कर्नल तिलकराज द्वारा दिए संकेत से यह तो स्पष्ट है कि एक नई कथा का जन्म हुआ है.
‘सहनशील’ शब्द बहुत मुलायम, नाज़ुक और सौम्य अभिव्यक्ति है जिसमें किसी की शिक्षा, ग़रीबी, मूलभूत संसाधनों की कमी आदि से उठे क्रंदन को छिपाया जा सकता है. फिर भी लिखने वाले की नीयत पर शक नहीं करना चाहिए. लेकिन जो लिखा गया है उसका व्यापक अध्ययन करके अपना नेरेटिव बताया जाना चाहिए.
कबीरपंथ के बैकड्रॉप में मेघों के बारे में डॉ. ध्यान सिंह का पीएचडी की डिग्री के लिए लिखा शोध-ग्रंथ बहुत महत्वपूर्ण है. यह मेघों से संबंधित कई कथाओं को ख़ुद में समेटे हुए है. प्रत्यक्षतः यह सबसे पहले डॉ. सिंह का है लेकिन मुख्य रूप से डॉ. सेवा सिंह का है जो शोध के कार्य में ध्यान सिंह जी के गाईड थे. ज़रूरी नहीं कि इसमें जो जिस तरह से लिखा गया है वो डॉ. ध्यान सिंह का ही हो. इसमें सेवा सिंह जी का नेरेटिव शामिल है. ग़ौर से देखें तो शोधकर्ता और गाईड में यदि मतभेद हो तो अधिकतर मामलों में शोधकर्ता को गाईड के आगे नतमस्तक होना पड़ता है. ख़ैर. इस शोधग्रंथ में पौराणिक कथाओं, आर्य-समाज आंदोलन, सिंह सभा आंदोलन, कबीरपंथी आंदोलन आदि के नेरेटिव से काफ़ी कुछ शामिल किया गया है. शोधग्रंथ के लिए प्रयुक्त पुस्तकों की सूची अकसर बहुत लंबी होती है तो यह मान कर चलना चाहिए कि उसमें अनेक नेरेटिव शामिल किए गए हैं. लेकिन सबसे रुचिकर यह है कि मेघों पर किए गए शोध का शीर्षक ‘पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास’ ही क्यों रखा गया. क्या मेघों की कथा का संबंध कबीरपंथ से है? है तो कितना है और कब से है? उसका एक स्पष्टीकरण तो इस तथ्य में मिल जाता है कि जब यह शोध हुआ (सन् 2008 में प्रस्तुत) तब तक कई जगह मेघों ने ख़ुद को जनगणना के आंकड़ों में ‘कबीरपंथी’ भी लिखवाया हुआ था. मेघ समाज के अपने कबीर मंदिर थे और कबीर साहब की पूजा का प्रचलन था. कहने का तात्पर्य यह कि ‘कबीरपंथ’ नाम का सामाजिक आंदोलन मेघ समाज में दस्तक दे चुका था. उसके रूप-स्वरूप पर अलग से बहस हो सकती है. साथ ही एक बात का नोटिस लिया जाना चाहिए कि मेघ समाज के शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन की कथा को छोड़ दें तो मेघों के जीवन और व्यवसाय में हुई उन्नति और नए व्यवसायों में उनकी कुशलता और प्रोफेशनल स्किल के बारे में दर्ज की गई पहली सकारात्मक टिप्पणियाँ भी डॉ. सिंह के शोधग्रंथ में आई हैं. मेघों की लोक-परंपराओं का पहला लेखा-जोखा इसी शोधग्रंथ में मिलता है. इसके अलावा याद रहना चाहिए कि लेखक का कोई भी कार्य अंतिम नहीं होता. आशा करनी चाहिए कि आगे चल कर डॉ. ध्यान सिंह वो नरेटिव लिखेंगे जो उनका ख़ुद का होगा जिसे वो साधिकार लिखना चाहेंगे.
जागते रहिए. अपना नेरेटिव अपनी कथा ख़ुद, मतलब 'ख़ुद' लिखिए. अपना कथ्य (थीम) ख़ुद तय कीजिए और दर्ज कीजिए. भोजपुरी में जीने का आशीर्वाद यों दिया जाता है- "जिअऽजागऽ". जिओ और जागते हुए जिओ.
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जियो उर जागते हुए जियो ...
ReplyDeleteजो कौम ऐसा करती ही वही अपना इतिहास लिखती है ... सच है ...
आपका आभार दिगम्बर जी.🙂
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