"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


31 January 2021

The Unknowing Sage - अनजान वो फ़कीर-2

The Unknowing Sage का अनुवाद करते हुए पिछले चार महीने तो ऐसे गुज़र गए जैसे सपना जल्दी-जल्दी गुजरता है. लैपटॉप की स्क्रीन के सामने घंटों बैठा, कई बार खाना ठंडा हुआ, कई बार मेहमानों को थोड़ा इंतजार करना पड़ा. आंखों पर दबाव भी पड़ा लेकिन धुन थी कि कार्य पूरा करना है. वादा किया है और निभाना है.

यह ऐसी पुस्तक है जो मेरे दिल के बहुत करीब है. बाबा फकीर चंद ने जो अपना जीवन अनुभव कहा उसका मनोवैज्ञानिक, धार्मिक और दार्शनिक विश्लेषण डॉ लेन ने बहुत परिश्रम से किया है. उनके इस कार्य में विश्व के प्रसिद्ध समाजशास्त्री मार्क जुर्गंसमेयर का भी योगदान  रहा. वे खुद भी फकीर से पंजाब के होशियारपुर शहर में मिले थे. इस नज़रिए से भी इस पुस्तक को मैं बहुत सम्मान की दृष्टि से देखता हूं और दिल ही दिल में चाहता था कि इसका हिंदी अनुवाद पुस्तक के साथ पूरा न्याय करे. कितना न्याय हुआ इसका मूल्यांकन तो इसके पाठक ही करेंगे. जहां तक मेरी संतुष्टि की बात है मैं संतुष्ट हूं. अनुवाद में कोई कमी नहीं है यह दावा भी नहीं है.

अनुवाद करते हुए कई जगह तो मुझे अनुसृजन (transcreation) की भी ज़रूरत पड़ी  ताकि बात पूरी तरह स्पष्ट हो और पढ़ने वालों को भली प्रकार संप्रेषित हो जाए. लेकिन संप्रेषण के अपने सिद्धांत और सीमाएं हैं. अनुवाद कर डालने के बाद अब मैं उन सीमाओं की परवाह नहीं करता. अब यह कार्य दस्तावेज़ के रूप में पढ़ने वालों के हाथ में रहेगा. यह पुस्तक डॉ लेन की साइट पर यहां उपलब्ध है.


30 January 2021

The Unknowing Sage - अनजान वो फ़कीर - 1

आज से कई वर्ष पहले मैंने डॉ डेविड सी. लेन से वादा किया था कि उनकी पुस्तक द अननोइंग सेज (The Unknowing Sage) का एक समर्पित अनुवाद ज़रूर दूंगा.

पिछले कुछ वर्षों में इसके ऐसे अंशों का अनुवाद मैं करता रहा जो इस कृति का आधार बने थे. उनसे संतुष्ट हो कर शेष पुस्तक का अनुवाद किया. लेकिन मुश्किल यह थी कि जो कुछ उस पुस्तक में लिखा गया था वह लगभग आधा ऐसा था जो मुख्यतः और मूलतः हिंदी-उर्दू में लिखवाई गई  एक आत्मकथा का अंग्रेजी अनुवाद था जिसका फिर से हिंदी में उलथा करना था. यह अपने आप में एक चुनौती थी क्योंकि वह साहित्य किसी न किसी रूप में कई जगह मौजूद तो होगा लेकिन उस तक मेरी पहुंच नहीं थी. डॉ लेन के अनुरोध पर ही फकीर चंद जी ने उर्दू में डिक्टेशन दे कर अपनी आत्मकथा लिखवाई थी. इसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रो. बी.आर. कमल ने किया था.  विडंबना यह कि वह आत्मकथा मानवता मंदिर के प्रकाशनों में नहीं मिल पाई और ना ही उसकी हस्तलिखित कॉपी वहाँ उपलब्ध हो पाई. इस लिए अनुवाद करते हुए केवल एक विश्वास था कि जब मैंने फकीर चंद जी के सैकड़ों सत्संग उनके मुखारविंद से सुने हुए हैं तो उनकी भाषा और मुहावरा ज़रूर मदद करेगा. फ़कीर के दिए हुए ज्ञान को व्यवहारिक नज़रिए से मैं जीवन में नहीं उतार पाया विशेषकर साधन-अभ्यास वगैरा की बातों को. साधन-अभ्यास की गूढ़ बातें वे सरल भाषा में बताया करते थे. साथ ही वे कहा करते थे कि जो कोई उनकी बात को अकली तौर पर या बौद्धिक रूप से समझ लेगा उसको भी 50% फायदा हो जाएगा.

यही कारण था कि उनका अनुभव ज्ञान जो अब मेरे सामने अंग्रेज़ी में उपलब्ध था उसका हिंदी अनुवाद करते हुए उस अकली ज्ञान से सहायता मिली. कई बार ऐसी अनुभूति हुई कि फकीर चंद जी मेरे भीतर बैठकर मुझे डिक्टेशन दे रहे हैं. कई बार तो ऐसा भी लगा कि जैसे अचानक उन्होंने मेरी अर्धनिद्रा अवस्था में आकर मुझे बताया कि यह नहीं बल्कि यह शब्द इस्तेमाल करो. अनुवाद करते हुए मैं उससे मिलता-जुलता शब्द इस्तेमाल कर गया था.

मैं संशयवादी-सा हूँ. चमत्कारों में विश्वास नहीं करता लेकिन ये ऐसे मानसिक अनुभव हैं जो कुछ ना कुछ हैरान तो कर ही देते हैं.

शेष....


25 January 2021

Bhakt and Bhagat - भक्त और भगत

    ऐतिहासिक (historical) सूचनाओं से स्पष्ट है कि पूरा भारत कभी बौद्धमय था. इस ऐतिहासिक प्रभाव से भारत का कोई धरा-खंड या समाज-खंड इससे अप्रभावित रहा होगा ऐसा सोचना कठिन हो जाता है. मेघ समाज भी इसके प्रभाव में रहा होगा इस बात को सहज ही समझा जा सकता है।

     समाज में यह विचार अक्सर चर्चा का विषय रहा है कि मेघ समाज को भगत कब से कहा जाने लगा. कुछ ने इसे भगत कबीर के साथ जोड़ा और किसी ने इसे 'भक्त' शब्द से बिगड़ कर बना मान लिया. किसी ने इसे आर्यसमाज द्वारा शुद्धिकरण और लाला गंगाराम से जोड़ा. लेकिन क्योंकि यह विषय इतिहास और भाषा का है इसलिए भाषा विज्ञानियों की बात सुनना बेहतर होगा.

     प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह जो इतिहास के भी अन्वेषक हैं, उन्होंने बताया है कि कबीर जब अपनी वाणी में 'साधो' कह कर संबोधित करते हैं तो उसका सीधा अर्थ होता है कि वे श्रमण परंपरा के साधु को संबोधित कर रहे हैं. जैसा कि पहले भी मैंने एक ब्लॉग में लिखा था कि कबीर बौध परंपरा के हैं. उसी बात में यह एक और प्रमाण जुड़ जाता है कि कबीर श्रमण परंपरा के ही हैं. साधु का अर्थ होता है 'जो सील संपन्न' हो. डॉ सिंह ने एक बात और कही है जो रुचिकर है. वे लिखते हैं कि कबीर 'भक्त' नहीं थे और कि 'भगत' शब्द श्रमण परंपरा का शब्द है जो 'भगवत' शब्द का संक्षिप्त रूप है. इसलिए कबीर निर्गुण परंपरा के नहीं बल्कि श्रमण परंपरा के 'भगत' हैं इसीलिए वे 'साधु' को संबोधित करते हैं.

     ज्ञान का कोई अंत नहीं जितना ले लिया जाए उतना कम प्रतीत होता है.

 


02 January 2021

Baba Faqir Chand - बाबा फ़कीर चंद

    मैंने पहले भी बाबा फ़कीर चंद पर कुछ ब्लॉग लिखे हैं. उन्हीं की निरंतरता में एक ब्लॉग यह भी है जिसे मैं महत्व देता हूँ. यह डेविड सी लेन की पुस्तक द अननोइंग सेज (The Unknowing Sage) पुस्तक का एक अंश है.   

    "खुशहाल ज़िंदगी जीओ और अपनी आमदनी से ज़्यादा खर्च न करो। अपनी हैसियत से ज़्यादा दान मत दो। मानवता मंदिर या किसी दूसरे गुरु और उनके सेंटर को दान देने के लिए अपने बच्चों की ज़रूरतों में कटौती मत करो। ऐसा करोगे तो यह बहुत बड़ा पाप होगा। खुशहाल ज़िंदगी के लिए एक और बात - बिना नागा नियमित रूप से साधन-अभ्यास किया करो। जैसे खाते हो, सोते हो ऐसे ही यह तुम्हारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा होना चाहिए। हर रोज़ एक या दूसरी चीज़ का दान किया करो। पता है हमारे बुज़ुर्ग क्या करते थे? वे भोजन करने से पहले गाय, कुत्ते और कौवों के लिए अलग निवाले रखते थे। गाय, कुत्ते और कौए के साथ अपना भोजन बांटे बिना नहीं खाना उनका धर्म था। क्या हम उनके रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं? यदि तुम एकमुश्त राशि दान नहीं कर सकते, तो जरूरतमंदों या बेसहारा लोगों के लिए हर रोज़ एक-दो पैसे बचाने की कोशिश करो। इससे तुममें बाँट कर खाने और दान देने की आदत पड़ जाएगी। अगर कोई शख़्स आज दान में एक लाख रुपये देता है, लेकिन फिर कई साल तक कुछ भी नहीं देता है, तो इससे उसे उतना लाभ नहीं होगा जितना उस आदमी को होगा जो एक या दूसरे तरीके से हर रोज़ दान देता है। इसलिए हर रोज़ दान देने, हर रोज़ ध्यान करने और हर रोज़ नए और constructive (तख़लीक़ी, रचनात्मक) ख़्याल करने का उसूल बनाओ। ये तुम्हारी ज़िंदगी को बदलने में मददगार होंगे। जो दान देता है, उसका दिलो दिमाग दानशील और उदार हो जाता है।

    यदि तुम्हारी माली हालत बहुत अच्छी नहीं हैं, तो तुम्हें पैसा दान करने की ज़रूरत नहीं है। महिलाएँ परिवार के लिए भोजन पकाने से पहले एक मुट्ठी आटा या चावल अलग रख दें। जब एक हफ़्ते का चावल या आटा इकट्ठा हो जाए तो उस आटे की रोटी बना कर या चावल पका कर चिड़ियों, कुत्तों और कौवें दें। मैं तहे दिल से ये सुनहरे उसूल तुम्हें बता रहा हूं। ये बहुत छोटी चीजें लगती हैं। लेकिन इन्हें छोटी मत समझो। ये ज़िंदगी को सुखी और खुशहाल बनाने के उसूल हैं। साल के सारे 365 दिन इस नेम का पालन करो, और अगर तुम्हारी गरीबी नहीं जाती, तो मेरी तस्वीर पर फूल मत चढ़ाना, जितना भी चाहे खराब सुलूक करना। हमारे ऋषि-मुनि बहुत बुद्धिमान थे। उन्हें हर चीज़ का मूल कारण पता था। लेकिन आज हम उनके बनाए हुए रीति-रिवाज़ों को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हैं। तुम पुरानी रसमों और सामाजिक रिवाज़ों के महत्व को समझने की कोशिश करो। तुम हर रोज़ भलाई का एक काम करो और एक साल बाद देखो कि तुम्हारे खाते में भलाई के कितने काम हैं।"