"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


27 February 2021

Meng, Makhs or Maghs - मेंग, मख, मघ

    लगभग एक वर्ष पहले मैंने एक ब्लॉग लिखा था - गुंजलिका में एक कथा

    ‘मेंग’ को ढूँढने निकले मेरे ख़्यालों के जंगली घोड़े दूर-दूर तक घूम आए थे. उत्तर-पूर्व में, बल्कि उससे भी आगे. उसी ब्लॉग में लार्ड अलेग्ज़ैंडर कन्निंघम को भी उद्धृत किया था.

    अब इतिहासकार श्री ताराराम जी ने फेसबुक के एक ग्रुप ‘Megh विचार गोष्ठी’ में एक पोस्ट डाली है जिसमें उन्होंने मध्यकाल में मेघों के लिए प्रयुक्त कुछ अन्य नामों का भी उल्लेख किया है यथा- मेख, मख, मोकर या मौखरि. अपनी पोस्ट में वे लिखते हैं- “अपने मूल स्थान से विस्थापन के बाद यह जाति सिंधु से बर्मा तक फैल गयी. जहां मंगोल जाति से इसका संपर्क हुआ. अरकान का क्षेत्र इसके अधीन था. मेघों के वहां निवास के कारण ब्रह्मपुत्र नदी का नाम वहां पर मेघना हो गया. मेगाद्रू और मेघना, दोनों नामों में मूल जाति (मेग) का नाम सुरक्षित है”.

    अपनी बात को पुष्ट करने के लिए उन्होंने CULCUTTA REVIEW, Volume LXXX, Page- 193, publication: 1885 का हवाला दिया है और उससे संबंधित स्क्रीन शॉट भी वहाँ पेस्ट कर दिए हैं.


मेघ समुदाय के महान सपूत डॉ पी जी सोलंकी


डॉ बाबा साहब अंबेडकर ने बॉम्बे में मेघ समुदाय को संबोधित किया था इसका उल्लेख मेघवंश के इतिहासकार श्री ताराराम जी कर चुके हैं. उसी की कड़ी में उन्होंने कल फोन से एक संदर्भ भेजा और फेसबुक पर एक ग्रुप 'मेघवंश का इतिहास' में एक पोस्ट लिखी थी जिसे नीचे कॉपी-पेस्ट भी कर दिया है.

"मेघ बिरादरी का महान नेता डॉ पी जी सोलंकी:
डॉ पी जी सोलंकी को वह हर एक शख्स जानता है, जिसने डॉ आंबेडकर का साहित्य पढ़ा है। हर एक वह व्यक्ति जानता है, जो आरक्षण के बारे कुछ जानकारी रखता है और जिसको पूना पैक्ट के बारे में ज्ञान है। डॉ पी जी सोलंकी गुजरात के मेघवाल थे, जो बॉम्बे में जा बसे थे। वे बॉम्बे म्युनिसिपल बोर्ड के लंबे समय तक कॉउंसीलर भी रहे। वे बॉम्बे विधान परिषद के सदस्य भी रहे। संविधान सभा के भी सदस्य रहे। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में डॉ आंबेडकर के साथ भाग लिया और हमेशा डॉ आंबेडकर का समर्थन किया। सन 1912 में विभिन्न जातियों के सहभोज का आयोजन किया। उन्होंने साइमन कमीशन हो या वयस्क मताधिकार की कमेटी, उनके सामने अछूतों का पक्ष रखा। उनकी वजह से शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के प्रावधान पारित हुए। डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने कई जगह यह जताया कि वे जो कुछ कर पाए है, उसमें डॉ सोलंकी का महत्वपूर्ण योगदान है। इनके विस्तृत कृतित्व को कुछ पंक्तियों में नहीं लिखा जा सकता है। इस पर फिर कभी लिखा जाएगा।
अभी यहां पर वसंत मून द्वारा लिखित पुस्तक के एक अंश का उल्लेख कर रहे है, जिसमें डॉ सोलंकी की जाति का उल्लेख है, अन्यथा अन्य ग्रंथों में उनका उल्लेख डॉ सोलंकी के रूप में ही हुआ है। डॉ सोलंकी मेघ बिरादरी के एक दूरदर्शी और अपराजित योद्धा थे। हालांकि, उन पर ईसाई धर्म अपनाने के लांछन लगे, पर वे अछूतों के हितों को सुरक्षित करवाने हेतु हमेशा कटिबद्ध रहे और डॉ बाबा साहेब अंबेडकर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर योजनाबद्ध कार्य करते रहे। गोलमेज सम्मेलन में डॉ आंबेडकर के व्यस्त रहने पर उन्होंने हर तरह से डॉ बाबा साहेब अंबेडकर के करवां को गतिमान बनाये रखा। इसलिए उन्हें डॉ आंबेडकर का एक मजबूत बाजू भी कहा जाता था।
वसंत मून (1991) अपनी पुस्तक 'बाबा साहेब डॉ आंबेडकर' में लिखते है: "सन 1927 के प्रारम्भ काल में ही डॉ आंबेडकर को विधान मंडल का सदस्य नियुक्त किया गया। 18 फरवरी 1927 के दिन उन्होंने शपथ ग्रहण की। उनके साथ ही मेघवाल समाज के डॉ सोलंकी भी अस्पृश्यों के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त हुए थे।"







20 February 2021

Anniversary of Santram BA - संतराम बीए की जयंती

    

मानव इतिहास की हर तारीख को कुछ न कुछ घटित हुआ होता है. 14 फरवरी 2021 को मेघ समुदाय के श्री संतराम बी.ए. (14-02-1887 से 31-05-1988) की जयंती थी. फेसबुक पर बहुत पोस्ट उनके बारे में आईं. दो का उल्लेख कर रहा हूँ जो उनके बारे में लेखकों की भावनाओं और संतराम जी के जीवन और कार्य पर प्रकाश डालती हैं.

डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लिखा ने लिखा:    

संतराम, बी. ए. -जाति - पाँति का खूब विरोध किए.....खूब जिए....खूब लिखे.....छोटी - बड़ी 100 किताबें लिखीं ....101 साल जिए....प्रेमचंद ने खुद जिनकी पुस्तक "काम-कुंज" का संपादन किया.....राहुल सांकृत्यायन ने खुद जिनका संस्मरण "जिनका मैं कृतज्ञ" में लिखा.....बाबा साहब अंबेडकर ने खुद जिनकी चिट्ठियों को "एनिहिलेशन ऑफ कास्ट" में शामिल किया.....

    विलक्षण व्यक्तित्व संतराम, बी. ए. - अल बेरुनी के भारत को हिंदी में पहली बार परिचय कराने का श्रेय इन्हें है....तीन खंडों में अनुवाद प्रस्तुत किए....वो भी तब, जब अभी छायावाद जन्म ले रहा था....मातृभाषा पंजाबी....फारसी में ग्रेजुएट थे.....अरबी पढ़ते थे.....अंग्रेजी पढ़ते थे .....हिंदी पर मजबूत पकड़ थी....1925 तक चीनी बौद्ध यात्री इत्सिंग की भारत - यात्रा का किसी भी भारतीय भाषाओं में अनुवाद नहीं हुआ था....इसे पहली बार हिंदी में अनूदित करने का श्रेय इन्हें है.....

    संतराम, बी. ए. - खूब जिए, खूब लिखे, जाति - पाँति का खूब विरोध किए, खुद जाति - पाँति का शिकार हुए, साहित्य में, इतिहास में वो जगह नहीं मिली जिसके हकदार थे….इसीलिए कि कुम्हार थे...... (जब डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने फेसबुक पर संतराम बी.ए. के बारे में यह पोस्ट लिखी थी तभी इतिहासकार ताराराम जी ने उस पर एक टिप्पणी कर के कहा था कि संतराम जी मेघ थे.) 

दिलीप मंडल की पोस्ट थी थी:

    'जात-पात तोड़क मंडल' के संस्थापक, प्रखर विद्वान, पंजाब विधान परिषद के पूर्व सदस्य, संपादक एवं प्रसिद्ध समाजसुधारक संतराम बी.ए. की 135वीं जयंती पर उन्हें नमन।

    "मैं ऐसा समाज देखना चाहता हूं जिसमें न कोई इतना निर्धन हो कि उसे किसी से मांगने की आवश्यकता हो और न ही कोई इतना धनाढ्य हो कि लोगों को धन लुटा सके "- संतराम बी.ए.

    "मैं न किसी को अपने से नीचा मानता हूं और न किसी को अपने से ऊंचा"  - संतराम बी.ए.

    "मैं न तो हिन्दू धर्म, ईसाई धर्म या मुस्लिम धर्म नाम के कोई अलग-अलग धर्म मानता हूं और न भारतीय संस्कृति या पाश्चात्य संस्कृति नाम की कोई अलग-अलग संस्कृतियां। मैं केवल मानव धर्म और केवल एक मानव संस्कृति मानता हूं। मेरी सम्मति में धर्म उन विषयों का नाम है जो मानव समाज में सुख शांति बनाए रखने में सहायता देते हैं। संस्कृति भी मानवी व्यवहार को सुखद बनाने वाली बातें ही हैं। - संतराम बी.ए.

            चला जाऊंगा छोड़कर जब इस आशियाने को,

            वफाएं तब याद आएंगी मेरी इस जमाने को। - संतराम बी.ए.

    संतराम बी.ए. के नेतृत्व में चल रहे जाति-पाति तोड़क मंडल के निमंत्रण पर ही बाबा साहब लाहौर में भाषण देने जाने वाले थे। वही भाषण बाद में Annihilation of Caste नाम से छपा। - संकलन - Shiv Das


18 February 2021

Ladder of Caste - जाति की सीढ़ी

पिछले तीन वर्ष से मेरे एक परिचित हैं, श्री जतिंदर सिंह, हरियाणा से हैं. उनके नज़रिए से (मेरे भी) एक महत्वपूर्ण विषय को लेकर वे तीन बार चर्चा के लिए मेरे यहां आए हैं. वे जानना चाहते हैं कि क्या मेघ जाति को ओबीसी की सूची में रखने के लिए कुछ किया जा सकता है. विषय मेरी पसंद का है इस लिए चर्चा भी ख़ूब हुई.

उन्होंने मुझे इस बारे में ब्लॉग लिखने और कुछ लोगों से संपर्क करने के लिए कहा. मैंने किया ताकि इस विषय में कोई रास्ता दिखे. मैंने कुछ जानकारों से बात की. लोगों से शेयर किया, फ़ोन किए. अब इस विषय पर अपनी लगभग आखिरी बात रिकॉर्ड कर रहा हूं. 

आज किसी जाति को एक सूची से निकाल कर दूसरी में डलवाना आसान प्रक्रिया नहीं है. ओबीसी जातियों की पहचान का कार्य राज्य सरकारें करती हैं और अनुसूचित जातियों की पहचान का कार्य केंद्र सरकार का है. केंद्र में इनसे संबंधित विभिन्न आयोग भी बने हुए हैं. यदि कोई जाति समाज में बनी जातियों की सीढ़ी पर चढ़ना या उतरना चाहती है तो इस बाबत संसद में सवाल उठते हैं. श्री जतिंदर सिंह अक्सर यह पूछते हैं कि क्या हमारे आईएएस अधिकारी इस बारे में सहायता कर सकते हैं? शायद कुछ मदद कर सकें. लेकिन निर्णय राजनीतिक स्तर पर होता है.

विशेषकर उत्तरी पंजाब में बसी मेघ जाति के पास राजनीतिक प्रतिनिधित्व लगभग है ही नहीं. राजनीति में उनके कुछ सितारे लगता है जल्दी उभरेंगे. इसलिए वर्तमान सामाजिक स्थिति में फिलहाल रहना होगा. आगे क्या होगा वह राजनीति तय करेगी. बाकी सब अनुमान या हमारे परेशान मन के विषय हैं. व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर मेघ समुदाय उच्चतर सामाजिक स्टेटस का हक़दार है.

सॉरी जितेंद्र सिंह जी, राजनीति में मैं कमज़ोर बच्चा हूँ.


16 February 2021

Asur Religion - असुर धर्म

श्री आर.एल. गोत्रा जी का Meghs of India नामक लंबा आलेख मैंने पढ़ा था तब ऐसा आलेख मेरे लिए वह चौंकाने वाली घटना थी. तब से मैं गोत्रा जी के संपर्क में लगातार रहा.

‘असुर’ शब्द पर उनके द्वारा की गई खोजबीन को मैं बहुत महत्व देता हूं. उनके द्वारा जोड़ी गई कड़ियों से प्रमाणित हो जाता है कि असुर, अशुर, अहुर आदि शब्द एक ही शब्द की वेरिएशंस हैं. भारतीय साहित्य में चाहे वह आधुनिक है या प्राचीन वहां असुर शब्द की जितनी महिमा गाई गई है उतनी ही उसकी फ़ज़ीहत भी की गई है. यह बात आम पाठक के लिए समझना बहुत कठिन है. लेकिन अब इस शब्द का महत्व समझ में आता है. 

प्राचीन इतिहास की कई कड़ियां देखने के बाद श्री गोत्रा ने फेसबुक पर एक ग्रुप Ancientologist Meghs में बताया है कि असुर शब्द का प्रचलन असुर धर्म से हुआ. असुर एक देवता था Mediterranean (जिसमें मेघ भी शामिल थे) का; जो कभी धीरे-धीरे सप्तसिन्धु तक फैल गए थे. काफ़ी समय बाद असुर में विश्वास रखने वाले ही ऐकेश्वरवादी हो गये.

असुर जगह एक घोषित World Heritage वाला मशहूर धार्मिक स्थान है. पुराने समय से यह पर्शिया में टिगरिस नदी के किनारे स्थित है; जहां 4200 साल पहले ‘असुर’ नाम का धर्म शुरू हुआ था. यह धर्म अग्नि पूजक आर्यों से अलग था और इस कारण आर्यों की इनसे बनती नहीं थी. आज कल यह इराक़ का एक ज़िला है. असुर शब्द का प्रचलन इसी से हुआ।

श्री गोत्रा द्वारा उक्त फेसबुक ग्रुप में  दिए गए विभिन्न लिंक्स को जोड़ कर देखने की ज़रूरत होगी.



12 February 2021

Purification - Another Narration - शुद्धिकरण - एक और कथा

जाटों और मेघों का सह-अस्तित्व रहा है. दोनों का सांस्कृतिक संघर्ष और धार्मिक नज़रिया भी लगभग एक जैसा है. आर्य समाज द्वारा शुद्धीकरण के बाद दोनों के अनुभव भी लगभग एक जैसे रहे. जनेऊ पहनने के बाद जिन मेघों ने अपने आसपास की उँची जाति वालों को ‘गरीब नवाज़’ कहना छोड़ कर अभिवादन में ‘नमस्ते’ कहना शुरू किया तो उन्हें मारा-पीटा गया.

शुद्धीकरण के बाद मेघों में यह भावना पैदा हो गई थी कि समाज में उनके स्तर को ऊंचा उठा दिया गया है जिसे समाज सहज स्वीकार करेगा. लेकिन ज़ाहिर है कि आगे चल कर उन्हें कड़ुवे अनुभवों से भी गुज़रना पड़ा. मेघों को सामूहिक तौर पर शक्ति प्रदर्शन करने वाली जाति के तौर पर कम ही देखा गया है. इसके उलट जाट (जट्ट) समुदाय अपने जुझारूपन के लिए मशहूर है. वे संघर्ष करते हैं और अड़चनों को अपने शरीर पर सहने की ग़ज़ब की कूव्वत उनमें है.

मेरे एक जाट मित्र राकेश सांगवान जी ने इतिहास के पन्नों से एक घटना जाट और जनेऊ’ नामक आलेख से साझा की है जिसका सार नीचे दे रहा हूं. इससे आप शुद्धीकरण के सामाजिक, धार्मिक और सियासी अर्थों को अलग-अलग करके देख पाएंगे. राकेश जी लिखते हैं -

मेरी जानकारी अनुसार जाट के गले में यह जनेऊ आर्य समाज आने के बाद ही आया. हालाँकि, हर जाट जनेऊ नहीं धारण करता पर जिन्होंने भी धारण किया उन्होंने बहस और बग़ावत में धारण किया था….1883 के आसपास की बात है, चौधरी मातू राम हुड्डा (पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के दादा) ने जनेऊ धारण किया और अन्य जाट-भाइयों को भी ऐसा ही करने के लिए कहा….इससे काफ़ी हलचल मच गई. काशी से एक ब्राह्मण बुलाया गया. उसने आते ही खडवाली गाँव में इस 'धर्म मर्यादा के विरुद्ध कार्य' के ख़िलाफ़ पंचायत बैठा दी. उसने कहा, "जाट शूद्र होते हैं, जनेऊ धारण करने का अधिकार नहीं है. भगवान इस बात से नाराज़ हो जाएँगे और आसपास के इलाक़े पर मुसीबत आ जाएगी. इसका जनेऊ उतरवा दो"....जब चौधरी मातूराम से यह सब कहा गया तो उन्होंने उत्तर दिया, "जनेऊ किसी कीकर पर तो टंगा नहीं है जो कोई भी उतार ले. मेरी गर्दन पर है. भाइयों के सामने गर्दन हाज़िर है. इसे काट दो, जनेऊ अपने आप उतर जाएगा". पंडित ने दूसरा विकल्प सुझाया, "इनको जाति से बाहर कर के हुक्का-पानी बंद कर दो. चौधरी मातूराम ने कहा, "मैं तो किसी के घर बिना बुलाए जाता ही नहीं. उन्हीं के घर जाता हूँ जो इज़्ज़त से बुलाते हैं. उन्हीं के घर हुक्का-पानी पीता हूँ जो घोड़ी की लगाम पकड़ कर घोड़ी से उतरने के लिए कहते हैं और स्वागत करते हैं."....सब तरफ़ सन्नाटा छा गया. खडवाली के कुछ लोग खड़े हो गए और कहने लगे, "ज़ैलदार साहब, हमारे घर चलो और हुक्का-पानी पियो और जिसका जी चाहे सो कर ले." बस फिर क्या था, चारों तरफ़ शोर मच गया, पंचायत बिखर गई. बहुत से लोगों ने जनेऊ धारण कर लिया….उस ज़माने में यह धर्म का भ्रम देहात में कम था. देहात वालों को इससे कुछ लेना-देना नहीं था. उनकी अपनी मान्यताएं थी. अपनी आस्था थी जैसे कि-- भैया/दादा खेडा/जठेरा या फिर किसी साधू-पीर-फ़कीर का समाधी स्थल. इन्हीं के नाम पर मेले लगते थे जोकि आजतक लगते आ रहें हैं.’

मैंने राकेश सांगवान जी द्वारा बताए गए इस प्रकरण को इसलिए यहां रख लिया है ताकि इसे पढ़ने वाले सचेत रहें कि यदि धर्म आपके भीतर या बाहर संघर्ष पैदा करता है तो धर्म को संशय की दृष्टि से देखने की ज़रूरत होती है.


06 February 2021

The Unknowing Sage - अनजान वो फ़कीर -4

एक परंपरा है कि कोई धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद, कीर्तन-आरती करने के बाद हम उस अनुष्ठान का भोग भी लगाते हैं. उक्त पुस्तक का अनुवाद संपन्न हुआ है. उस पर लिखे गए ये चार ब्लॉग एक प्रकार का भोग हैं और यह चौथा ब्लॉग उस भोग का भी अंतिम पड़ाव है.

यहां पहुंच कर मैं सबसे पहले परम दयाल फ़कीर चंद जी का एहसान मानता हूं कि उनकी शिक्षा के सदके मैं जीवन भर किसी भी प्रकार की धार्मिक लूट से बचा रहा. मैं धार्मिक नहीं हुआ. धर्म में धंसा भी नहीं. नास्तिक-सा ज़रूर हो गया लेकिन वो दरअसल संशयवाद था जो बचपन से ही मेरे साथ चल रहा था. वो मेरी जीवन शैली का हिस्सा था. उसे फ़कीर की शिक्षाओं ने सत्य के प्रति आश्वासन से पोषित किया. मैंने सही मायनों में धर्म को समझा और धार्मिक-सा हो गया. मेघ समुदाय के बारे में मैंने कुछ कार्य किया और उनके इतिहास की कई कड़ियां जोड़ने का कुछ कार्य मैं करता रहा. इस कार्य की पृष्ठभूमि में भी फकीर का दिया हुआ एक विशेष संस्कार था जिसने मुझसे यह कार्य करवा लिया. इतना कह देने के बाद यह जोड़ना भी ज़रूरी है कि हम संस्कारों के बने हैं और उन्हीं के अनुसार हमारा कार्य व्यवहार चलता जाता है. वे समय-समय पर उभर कर मूर्त रूप लेते रहते हैं.

पिताजी 14 वर्ष तक फ़कीर की संगत में रहे. वे उनकी शिक्षाओं का प्रतिरूप हो चुके थे. वे जो भी कहते वह फ़कीर की शिक्षाओं के अनुरूप होता. जीवन भर उनका मार्गदर्शन मुझे मिला. इस तरह से फ़कीर और उनका जीवन-दर्शन और जीवन-व्यवहार पिताजी के रूप में भी मेरे लिए उपलब्ध रहा. फ़कीर का चोला छूट जाने के बाद भी उनके उपलब्ध रहने की भावना हमेशा बनी रही. वो हमें ट्रेनिंग ही ऐसी दे गए थे कि दिल ने कभी माना ही नहीं कि वे दूर हैं. वो आज भी अंग-संग हैं. उन्होंने जो-जो कार्य करने का संस्कार दिया हुआ है वे करवाते रहते हैं.

अंत में यह कि उनका कहा हुआ सच, उनका किया हुआ कार्य धन्य है. उनका यह अनुभव-ज्ञान भी धन्य है कि अंतिम सच्चाई कोई नहीं जानता.

सब का भला.


03 February 2021

The Unknowing Sage - अनजान वो फकीर-3

 The Unknowing Sage (अनजान वो फकीर) के अनुवाद के बारे में जो कुछ मैंने अभी तक कहा है वह तब तक अधूरा रहेगा जब तक मैं यह ना बता दूं कि इसके अनुवाद की प्रक्रिया के दौरान मेरे मन पर क्या-क्या बीती. मैं किन-किन स्मृतियों के बीच से गुजरा.

 फ़कीर से मेरा पहला परिचय संभवतः 1962 में हुआ था जब पिताजी होशियारपुर से उनकी फोटो लाए थे उसके बाद 1968 में मेरे बड़े भाई मुझे पहली बार होशियारपुर में मानवता मंदिर ले गए थे जो फ़कीर का कर्मक्षेत्र था. फ़कीर का ज़ाहिरा रूप एकदम साधारण था लेकिन प्रेम से भरा था. वे बिना माइक के ऊंची आवाज़ में सत्संग कराते थे. अंदाज़ ऐसा जैसे कोई कह रहा हो ‘मैंने सच्चाई बता दी; मुझे क्या परवाह.’ उनका सबसे अधिक रेखांकित वाक्य रहता - ‘सत्संगियों के अंतर में या बाहर मेरा रूप प्रकट होता है लेकिन मुझे पता नहीं होता’.

मैंने कई लोगों को देखा जो उनके पास आकर कहते थे कि ‘महाराज जी, आपका रूप प्रकट हुआ’ और ‘मेरा यह काम हो गया’, ‘मुझे यह हिदायत दे गया जिससे मुझे फायदा हुआ’, 'आपने मुझे बचा लिया', वगैरा.

मेरा होशियारपुर आना-जाना रहा और मैंने विद्यार्थी जीवन में गर्मियों की लगभग सारी छुट्टियां मंदिर में बिताईं. उनके सत्संग सुने. उन्होंने बहुत सारी सीख दी. बहुत सी सीख मेरे जीवन में उतर गई. बहुत सी सीख नहीं भी उतरी. यह बात मुझे याद आती है कि उन्होंने मुझे त्रिकुटी पर उंगली रखकर कहा था कि यहां सुमिरन किया करो. मेरे रूप का ध्यान किया करो. वह मैंने याद रखा. आदत के रूप में वह आज भी जीवन में है.

उन्होंने मुझे ऊंचे साधन से मना किया था. उसके बाद मेरे पिताजी ने भी मुझे ऊंचे साधन करने से मना किया. क्यों किया वही जाने. लेकिन फ़कीर द्वारा किया गया ऊंची अवस्थाओं का वर्णन मेरे मन पर गहरा बैठा हुआ है. उसने उक्त पुस्तक के अनुवाद में बहुत सहायता की.

विशेष बात यह है कि अनुवाद की प्रक्रिया में मैं उन अवस्थाओं के आसपास घूमता रहा जिनका वर्णन फकीर ने जीवन भर किया.