अपने
जीवन में 1965 और
1971 के
युद्धों का अनुभव हुआ जो बड़े
पैमाने पर लड़े गए थे.
1965 के युद्ध के दौरान मैं 14 साल का था सो रेडियो पर देशभक्ति के गीत सुन कर उठते जज़बातों को महसूस करता था. घरों
की बत्तियाँ बुझा दी जाती थीं.
सायरन
की आवाज़ पर हम खंदकों (trenches) में
दुबक जाते थे.
एक बार बमों
के फटने की आवाज़ें
सुनी. 1971 के युद्ध के दौरान युद्ध के वातावरण को बेहतर तरीके से देखा-समझा. रात
में हम आकाश में उड़ते ट्रेसर
देखते थे और अगले दिन अख़बारों
में युद्ध की सुर्खियाँ पढ़ते.
रात
में या दिन में टैंकों,
तोपों
की मूवमेंट देखते.
माल
गाड़ियों पर रखे टैंकों के
साथ जाते फौजियों को देख कर
जोश भर-भर
आता था. दिल
करता था कि कोई पाकिस्तानी
जासूस हाथ आ जाए तो उसे ढेर कर
दें. एक
शरीफ़ मलेशियन नागरिक हमारे
हाथों पिटने से बच गया जिसके
बारे में किसी ने अफवाह फैलाई
थी कि वह पाकिस्तानी जासूस
है. युद्ध रुका और युद्ध का पागलपन भी कम होता
गया. कुल मिला कर 1971 का युद्ध एक अनुशासित लड़ाई थी. दोनों ओर आम नागरिकों के हताहत होने की खबरें न के बराबर थीं.
कारगिल की लड़ाई ज़रूरी थी लेकिन सीमित थी. वाजपेयी
सरकार ने बड़ी कुशलता से बिना
युद्ध का पागलपन फैलाए उसे
जीता. बहुत
से फौजियों की जानें गईं जो
तकलीफ़ और दर्द दे गईं.
अब
आया है एक सर्जिकल ऑपरेशन जो
अपने साथ कई आंतरिक विवाद भी लाया. आमलोगों के लिए तकनीकी युद्ध की रणनीतियाँ रहस्य होती हैं लेकिन
कूटनीतिक
चालें, कूटनीतिक
बयानबाज़ियाँ कई बार मनोरंजक मोड़ तक खिंच जाती हैं.
युद्ध
का पागलपन है तो सिविल क्षेत्र में अफवाहें फैलेंगी ही. बार्डर
पर असल में क्या होता है यह
केवल युद्ध लड़ रहे फौजी जानते हैं.
'सर्जिकल
ऑपरेशन' को लेकर मीडिया से अधिक
सोशल मीडिया में हलचल और परेशानी
रही. सरकार
की कार्रवाई की प्रशंसा भी
हुई और उस पर सवाल भी उठे. नेशनल मीडिया ने युद्ध केे माहौल को गर्म करने के लिए हवा दी. सोशल
मीडिया ने फौजियों की कुर्बानी
और उनके परिवारों की पीड़ा
को रेखांकित किया और सीमा पर
बसे भारतीयों पर मंडराते ख़ौफ़
और उन्हें हो रहे आर्थिक नुकसान
की बात की जो युद्ध का बहुत बड़ा साइड
इफैक्ट है और अनेक परिवारों को
गरीबी में धकेल जाता है.
कुल
मिला कर युद्ध का पालपन फैला
रहे कुछ चैनलों और 'भक्तों' पर तीखे
सवाल उठे हैं.
मैं
भी मानने लगा हूँ कि बड़बोले
नेतृत्व के मुकाबले इंदिरा
गाँधी, अटल
बिहारी वाजपेयी और मनमोहन
सिंह जैसा नेतृत्व अधिक कारगर
और संतोषजनक होता है.
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यह आदमी एटम बमों की धमकी देता है. बेवकूफों की कमी नहीं पाकिस्तान में. |