"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


24 June 2019

Jat Dharma and Megh Dharma - जाटधर्म और मेघधर्म

जाट समुदाय में सक्रिय राजनीतिक संगठन ‘यूनियनिस्ट मिशन’ के अग्रणी श्री राकेश सांगवान से कई मुद्दों पर विचार-विमर्श होता है. जाट समुदाय के लोग अपने आत्मविश्वासी स्वभाव के कारण पहचाने जाते हैं. जहाँ तक शिक्षा और जानकारी का सवाल है वे कुल मिला कर अभी तीसरी पीढ़ी तक आए हैं जो शिक्षित है. जाति व्यवस्था के आखिरी पायदानों पर खड़े अन्य समुदायों की तरह वे सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों में संघर्षरत हैं. हरयाणा जैसे राज्य में वे सत्ता का स्वाद चख कर उसे खो चुके हैं इसलिए उनमें अधिक बेचैनी है. उन्होंने जो खोया है वो बेशकीमती था. ख़ैर.
Rakesh Sangwan राकेश सांगवान
राकेश सांगवान जी ने पाखंड के खिलाफ काफी मुखर हो कर लिखा है जिसका विरोध उनके ही बीरदारी भाइयों ने उन्हें नास्तिक कह कर किया. संभवतः इसी वजह से राकेश जी ने मंशा जताई कि वे आने वाले साल में धन्ना भगत की जयंती पर सिख धर्म अपना लेंगे ताकि कोई उन्हें नास्तिक न कह सके. जाटों के लिए सिखी अनजानी चीज़ नहीं है. जाटों ने सिखी का जी-जान से निर्वाह किया है और वे ख़ुद भी सिखी की जान हैं. उनकी दलील है कि सिखी मीरी-पीरी और पाखंड रहित किरत पर आधारित है जिसे अध्यात्म कहा जाता है. उनकी पोस्ट पढ़ कर मेरे मन में कई विचार कौंधने लगे जिसे कमेंट के तौर पर उन्हें भेजा है. उसी कमेंट को अपने पाठकों के साथ साझा कर रहा हूँ :- “
आपकी यह पोस्ट पढ़ने के बाद कई बातें याद हो आईं. खुशवंत सिंह ने कहीं कहा है कि सिखी का मतलब जाट ही है (उनके ओरिजिनल शब्द याद नहीं लेकिन अर्थ यही था.)
आपकी पोस्टों पर कई लोग आपको नास्तिक कहते रहे हैं. नास्तिक या तर्कशील होना कोई अवगुण या गाली नहीं है. जो लोग इस शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं वास्तव में वे धर्म की अवधारणा (कंसेप्ट) को लेकर भ्रम में है. आदमी धर्म की शरण में नहीं जाता बल्कि वो धर्म यानी किसी आचार-व्यवहार, गुण और विचार को ओढ़ता है. उस ओढ़ने को धर्म कह दिया जाता है. कोई बता रहा था कि ‘धर्म’ की अवधारणा ‘धम्म’ की अवधारणा से अलग है. फिर आपकी यह बात सही है कि धर्म-धर्म खेलना है तो धर्म पकड़ना ही पड़ेगा. एक घुंडी यह है कि यदि कोई कहता है कि वो किसी खास धर्म में जा रहा है तो प्रतिक्रिया बड़ी होती है. यदि वो कहता है कि मेरी गुरु नानक या गुरु गोविंद सिंह या खालसा पंथ में आस्था है तो प्रतिक्रिया की प्रकृति (narrative कह सकते हैं) बदल जाती है. आप की पोस्ट पर कई लोगों ने कमेंट करके जाटधर्म का उल्लेख किया है. एक सज्जन ने कहा है कि जाटधर्म, बौद्धधर्म और सिखधर्म में कोई अंतर नहीं है. सिखिज़्म के लिए ‘सिखी’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जो बहुत सटीक है. जीवन शैली के संदर्भ में मुझे सिखी और जाटिज़्म को एक समझने में कोई दिक्कत नहीं होती. लेकिन जब सरकारी फॉर्म में धर्म लिखने की बात आती है तो जाटधर्म या जाटिज़्म शब्द के सरकारी संदर्भ कहीं नहीं मिलते. जाहिर है कि जाटों के इतिहास में जाटधर्म ना तो परिभाषित है और ना स्थापित. उसे जैसे-तैसे परंपरागत हिंदू शब्द के अर्थ में फिट किया गया है. बुद्धिज्म के साथ भी यही हुआ लेकिन नवबौधों ने और सिखों ने अपनी अलग धार्मिक पहचान बनाने की प्रभावी कोशिशें की हैं जो जारी हैं. क्या दलित भी जाटधर्म में आते हैं? मेरा मानना है कि आते हैं क्योंकि इन सभी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में बौधमत है. एक धर्म से दूसरे धर्म में ‘भागने’ का जहां तक सवाल है यह सवाल उन लोगों की सोच से पैदा होता है जिनके दिल में धर्म नाम की चीज का डर इतना बैठा दिया गया है कि ‘धर्म बदलने’ के नाम से ही उनकी धमनियों का चलता रक्त रुकने लगता है. बिना जाने कि धर्म डरने की नहीं बल्कि धारण करने की चीज है. यदि हम धर्म को प्रेत बना लेंगे तो वह पक्का पीछे पड़ेगा वरना धर्म का काम नहीं कि वो इंसान के पीछे पड़े बल्कि यह इंसान का काम है कि वो किसी इंसानी गुण का पीछा करे और उस धर्म को धारण कर ले. सिखी की विशेषता यह है कि वो स्थापित है - समाज में भी, धार्मिक क्षेत्र में भी और राजनीति में भी.” यहाँ स्पष्ट करना ज़रूरी है कि मैंने इस मुद्दे को महत्व क्यों दिया है. पहली बात यह कि कुछ मेघ सिखी में हैं. दूसरे, धर्म को लेकर मेघों की नई पीढ़ी में बेचैनी और उलझन है. तीसरे, पढ़ी-लिखी पीढ़ी परंपरागत धर्म पर कड़े सवाल ज़ोर से उठाने लगी है. इसके अलावा सोशल मीडिया पर और अन्यथा भी ‘मेघ धर्म’ और ‘मेघ मानवता धर्म’ पर चर्चाएँ होती रही हैं. हो सकता है अन्य जातियों में भी अपने धर्म की पहचान करने की प्रवृत्ति हो. इन जानकारियों का मुझ पर असर हुआ है. इसलिए यह सब लिख डाला.

1 comment:

  1. शायद अपने मूल को पहचानने की तलाश बार बार किसी क किसी पंथ या धर्म की कल्पना को ले जाती है इंसान को ... पर जब सब समझ आ जाता है तो शायद गंतव्य भी आ जाता है ...

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