"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


22 September 2019

Santram BA, Commitment against casteism - संतराम बीए, जातिवाद के खिलाफ प्रतिबद्धता


हम भारतीय जब किसी मशहूर आदमी का नाम सुनते हैं तो आदतन उसकी जाति ढूंढते हैं. संतराम बीए जैसे व्यक्तित्व के बारे में मैंने भी यही किया था. एक पुस्तक के एक पन्ने की फोटो हाथ लगी थी और उसमें संतराम जी के नाम के साथ ‘मेघ’ शब्द लगा था जिसे केंद्र में रख कर मैंने उस पर ब्लॉग लिखा. होना यह चाहिए कि जब महत्वपूर्ण और असाधारण कार्य करने वाले किसी महापुरुष की बात हम करें तो उसकी बात उसके संपूर्ण कार्य के संदर्भ में करें. जिसने अपना जीवन-संघर्ष और कार्य विस्तार से दर्ज कर दिया है उसके कार्य को शुरू से आखिर तक देखना चाहिए. संभव है कि उसने जिस माने हुए सत्य के साथ कोई काम शुरू किया हो अंत में वो उसी सत्य के खिलाफ़ खड़ा दिखे. उस सत्य का इस्तेमाल और ज़िंदगी का तजुर्बा उसे ऐसा बना सकता है. उसके जीवन में उसकी जाति के अलावा भी ऐसा बहुत कुछ होता है जिसे ध्यान से पढ़ा और देखा जाना चाहिए. उनका साहित्य उनके पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए सीढ़ी का काम करता है. 
संतराम बीए की यह फोटो चारु गुप्ता जी के आलेख में मिली जिसे संतराम जी की दुहिता
मधु चढा जी के सौजन्य से प्रकाशित किया गया है. आप दोनों का आभार.
संतराम जी पर लिखे पिछले ब्लॉग में मैंने भारत सरकार की वेबसाइट का लिंक लगाया था जिस पर उनकी आत्मकथा उपलब्ध थी. एक दिन देखा कि वो लिंक गायब था. इससे थोड़ी तकलीफ हुई. फिर से लिंक की तलाश शुरू की तो एक शोधकर्ता चारु गुप्ता के एक आलेख की पीडीएफ मिली. “Speaking Self, Writing Caste - Recovering the life of Santram B.A.” इससे  अच्छी जानकारी मिली. इसमें कई देशी-विदेशी लेखकों द्वारा बहुजन लेखकों की आत्मकथाओं की विशेषताओं का विश्लेषण दिया गया है जो पढ़ने योग्य है. इसके लिए चारु गुप्ता का आभार. अंग्रेज़ी में लिखे अपने आलेख के शुरू में ही चारु गुप्ता ने इस बात का उल्लेख किया है कि 'जाति के कारण संतराम जी के साहित्य को हिंदी साहित्य के हाशिए पर रख दिया गया.'

संतराम जी ने सौ के लगभग पुस्तकें-पुस्तिकाएँ लिखीं. संतराम जी शिक्षित और अध्ययनशील व्यक्ति थे. विज्ञान की जानकारी ने उन्हें तर्कशील बनाया. लेकिन उस समय का हमारा समाज वैज्ञानिक तर्क के साथ खड़ा नहीं था. शायद आज हो.

हमें जानना चाहिए कि संतराम ने डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की पुस्तक ‘जात पात उन्मूलन’ (एनीहिलेशन ऑफ कास्ट) का हिंदी अनुवाद करके उसे प्रकाशित कराया था. उनकी आत्मकथा से मालूम पड़ता है कि वे हिंदू दायरे में रह कर जातिप्रथा में सुधार की बात करते थे. उनका चिंतन गांधी और अंबेडकर दोनों से प्रभावित था. उनका रास्ता आर्य समाज और आदधर्म आंदोलन के बीच से गुजर रहा था. उनकी आत्मकथा ‘मेरे जीवन के कुछ अनुभव’ जाति प्रथा को चुनौती देती पुस्तक है. वे उसमें लिखते हैं कि यदि आप जाति प्रथा के खिलाफ कोई संघर्ष करते हैं तो आप ही की जाति के लोग आपके खिलाफ खड़े हो जाते हैं, यहां तक कि आपके परिवार के लोग भी. संतराम अपने समय के ऐसे लेखक थे जिनके आलेख उस समय की कई जानी-मानी पत्रिकाओं में छपे. उन्होंने उर्दू पत्रिका ‘क्रांति’ और हिंदी पत्रिका ‘युगांतर’ का संपादन किया. इनके ज़रिए वे जातपात तोड़क मंडल (JPTM) का संदेश देते रहे. स्वतंत्रता के बाद वे होशियारपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘विश्वज्योति’ से जुड़े रहे.

अपनी साधारणता को साथ रखते हुए किसी असाधारण समस्या पर अपनी बात रखना ऐसी कथा है जो बहुजन साहित्य की खास पहचान है. इसे इस संदर्भ में भी देख लेना चाहिए कि संतराम जी ने अपने जीवनकाल में मानवाधिकारों की स्थापना अंग्रेज़ी शासन के दौरान होते देखी थी जिसने बाद में भारतीय संविधान में जगह पाई.

संतराम जी के जीवन बारे में प्रसिद्ध बहुजन लेखक कंवल भारती का यह हिंदी में लिखा आलेख आप ज़रूर पढ़ लीजिए जो फार्वर्ड प्रेस में छपा था. इसमें उनके जीवन-संघर्ष से जुड़ी बहुत मार्मिक बातें वर्णित हैं. इस आलेख से पता चलता है की संतराम जी और राहुल सांकृत्यायन मित्र थे. उनकी मित्रता आर्यसमाज के दायरे से बाहर व्यक्तिगत जीवन तक थी. राहुल सांकृत्यायन ने ही संतराम जी की बिटिया का नाम गार्गी रखा था.

आज संतराम जी का जीवन संघर्ष हमारे लिए एक उदाहरण के रूप में मौजूद है जिसे जानने के बाद हम अपने बारे में बेहतर तरीके से सोचने लगते हैं. चारु गुप्ता का आलेख एक शोध-आलेख (Research Paper) है. उसका अपना महत्व है. लेकिन जो अन्य जानकारियां हमें यहां-वहां से मिलती हैं या पुस्तकों में दर्ज हुई हैं वह हमें तत्कालीन व्यवस्था की बड़ी तस्वीर देती हैं. उसका ऐतिहासिक महत्व है. तब से लेकर आजतक उन परिस्थितियों में कुछ परिवर्तन ज़रूर आया होगा. उसके पीछे कई लोगों और आंदोलनों की भूमिका रही होगी. उसे भी देखा जाना चाहिए.

प्रजापति समाज ने संतराम जी को उनकी जीवनी में उल्लिखित ‘कुम्हार’ शब्द के आधार पर अपनाया है और उन्हें सम्मान दिया है. मुझे उनके जाति नाम में ‘मेघ’ शब्द का उल्लेख आकर्षित कर गया यह अपनी जगह है. मिल रही जानकारी के अनुसार संत राम जी का कुछ साहित्य संभवतः अभी तक अप्रकाशित है. उसमें दर्ज उनके जीवन अनुभव भी प्रकाश में आने चाहिएँ ताकि हम अपनी आज की जीवन-परिस्थितियों के आलोक में कुछ और भी सीखें और आज की जरूरतों के हिसाब से उन्हें बदलें या ख़ुद को ट्यून करें.

आदरणीय संतराम बीए जी के बारे में इतना कुछ जान लेने के बाद मैं सोच में पड़ा हूं कि क्या फर्क पड़ता है यदि संतराम जी मेघ हैं या प्रजापति समाज से हैं. सच्चाई यह है कि हम जिस वृहद् समाज में रह रहे हैं वहां जाति एक हक़ीक़त है और हर व्यक्ति अपनी जाति को लेकर अकेला खड़ा है. जातिवाद की यही खासियत है कि वो एक जाति के भीतर खड़े एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से अलग कर देता है चाहे वो व्यक्ति जातिवाद के खिलाफ़ आंदोलन ही क्यों न कर रहा हो, वो अकेला हो जाता है. इसका असर समाज के उस हिस्से पर भी पड़ रहा है जो जातपात के कारण अभी तक फ़ायदे में रहा.


6 comments:

  1. जाती की ले के चलना न चलना ...
    लाभ है या हानि ... शायद जिनके बारे में हम सोचते हैं उनका दर्शन ही कुछ और रहा हो ... पर ये भी एक सच है की हम अपनी दृष्टि से देखते हैं ... रोचक आलेख ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. सही कहा आपने. हर व्यक्ति का अपना नेरेटिव होता है और होना भी चाहिए. इंसानियत इसी रास्ते से गुज़र कर आई है.

      Delete
  2. कोई मुक्त होना नहीं चाहता है जब अवचेतन से ही जातिगत संस्कार बन कर आता है । जब इसके विरुद्ध आंदोलन होता है तो व्यापक विरोध बताता है कि बेड़ियाँ कितनी सशक्त है । चाहे वो बेड़ियाँ लोहे की हो या सोने की ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सच कहा आपने. अपनी बेड़ियों की आवाज़ संगीत लगने लगती है.

      Delete
  3. जातिवाद की विकट समस्या हमारी कुंठा हुई मानसिकता के कारण पैदा हुई है
    साहित्य केवल साहित्य होता है फिर ये "बहुजन साहित्य" क्या बला है।
    संतराम जी एक लेखक व एक समाज सुधारक है बस... इसके बाद अन्य प्रकार की कोई भी पहचान इनकी जाति से नहीं बनती है।
    ना ही कोई अन्य मुद्दा बनना चाहिए।
    पधारें - शून्य पार 

    ReplyDelete
  4. आपको बहुत बहुत नमन!

    सन्तराम बी ए जिस सामाजिक व्यवस्था का स्वप्न देखते हुए निर्वाण को प्राप्त हुए उसमें जाति का तो सन्दर्भ ही नहीं है। सन्तराम बी ए जी एक अखण्ड, अविचल, निर्लेप, निष्कपट व राष्ट्रप्रेमी समाजसुधारक एवं साहित्य सृजक थे। उन्होंने देश में नासूर की तरह जीवन को सड़ा रही जाति व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने हेतु अपना समस्त प्राण व जीवन लगा दिया। 101 एक साल का सुदीर्घ, सम्मानित व संघर्षी जीवन व लगभग उतनी ही संख्या में पुस्तकों की रचना का महा-कर्म इन्होंने कर दिखाया, जो केवल इन्ही के बूते की बात थी।

    वो मेघ थे या कुम्हार ये चिंतन का विषय नहीं है अपितु मेरे विचार में तो हर्ष का विषय है जो इस देश के दो बड़े व संघर्षी समाजों इसे अपना माना है। और चिन्तन का विषय है तो ये की इतने बड़े समाजसुधारक व साहित्यकार को इनके बराबर का सम्मान इस देश मे क्यों नहीं मिला।

    अंततः आपके इस उत्त्तम लेखन के लिए साधुवाद।

    कंवल किशोर प्रजापति, रोहतक, हरियाणा।

    ReplyDelete