"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


07 March 2021

After the Hindi translation of 'The Unknowing Sage' - 'The Unknowing Sage' के हिंदी अनुवाद के बाद - 1

        मुझे ‘मानव मंदिर’ पत्रिका के 1968 के कुछ अंकों की तलाश थी. उन्हीं की तलाश में लगभग पाँच वर्ष पहले मैं मानवता मंदिर, होशियारपुर, पंजाब गया था. मुझे ऐसी पुस्तक की भी तलाश थी जिसमें परमदयाल फ़कीर चंद जी की जीवनी हो.

    फ़कीर ने अपने बारे में सत्संगों में हालाँकि बहुत कुछ कह दिया हुआ है जिसे मैंने उनके सामने बैठ कर उन्हीं से सुना है, लेकिन, डॉ. डेविड सी. लेन की पुस्तक ‘The Unknowing Sage’ में मैंने फ़कीर की एक विशेष नज़रिए से लिखी और अंग्रेज़ी में अनूदित आत्मकथा देखी थी जिसका हिंदी पाठ मैं पढ़ना चाहता था. उसकी उर्दू या हिंदी पांडुलिपि मानवता मंदिर आश्रम में उस समय मिल नहीं पाई.

    उसी साल मैंने डॉ. लेन को प्रस्ताव किया था कि मैं उनकी पुस्तक का हिंदी अनुवाद करूँगा. उद्देश्य यह था कि फ़कीर के बारे में डॉ. लेन की खोज तथा दृष्टिकोण से हिंदी के पाठक भी परिचित हो सकें. वे जान सकें कि ‘चंदियन प्रभाव Chandian Effect’ क्या है उसका मनोवैज्ञानिक, परामनोवैज्ञानिक और दार्शनिक महत्व क्या है. लोग जान सकें कि साधक या अभ्यासी हमें सामान्य (normal) प्रतीत क्यों नहीं होते. कभी-कभी तो परम दयाल जी भी अपने अनुभवों के सूक्ष्म पक्ष का वर्णन करते हुए कह दिया करते थे कि ‘हो सकता है मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया हो. लेकिन मैं इसलिए आश्वस्त हूँ कि मैं दुनियाँ के काम-काज ठीक से कर पा रहा हूँ.’ इससे पता चलता है कि वे कितनी सतर्कता से अपने मन की चौकसी करते थे.

    डॉ लेन के लिए ख़ासकर लिखाई गई अपनी आत्मकथा में फ़कीर ने अपने जीवन के ऐसे पक्षों पर काफी कुछ कहा है जिनके बारे में प्रभावशाली लोग कुछ कहने से बचते हैं. फ़कीर ने अपने सत्संगों में अपने निजी जीवन के बारे में ऐसी बातें बताई हैं कि दूसरा कोई हिम्मत नहीं करता. ध्यान देने वाली बात है कि फ़कीर के सत्गुरु दाता दयाल जी ने जब-जब फ़कीर में कोई कमी-कमज़ोरी देख कर फ़कीर को सुधरने का आदेश दिया तब फ़कीर ने तुरत और हमेशा के लिए ख़ुद में सुधार कर लिया. यह बात बहुत महत्वपूर्ण है. 1960 के दशक में वे एक तरह की ‘डंडे मार’ शैली में सत्संग कराते थे. उनके उस फक्कड़ फ़कीराना रूप को जिसने देखा वो किसी और के लायक नहीं रहा. लेकिन 1972-73 के सत्संगों में वे मन का ऑपरेशन करने वाले सहज सर्जन के रूप में दिखे. तब उनकी फ़कीरी से फूटती आध्यात्मिकता की किरणों में एक बौद्धिकता भी आ गई थी. इस परिवर्तन का मैं ख़ुद गवाह रहा.

    1978 तक आते-आते उनकी भाषा बहुत प्रेममयी और कोमल हो गई थी. यह वही फ़कीर था जो साठ के दशक में ‘डंडे मार’ भाषा का प्रयोग इसलिए करता था क्योंकि कई गुरुओं ने गुरुवाई को लूट का साधन बनाया हुआ था.  


1 comment:

  1. आपके नितांत निजी दृष्टिकोण एवं अनुभूति को जानने की जिज्ञासा थी । थोड़ी सी झलक मिल रही है ।

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