"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


Megh: Myth and history



कहा-अनकहा मेघ मिथ और इतिहास
Told and untold Megh myth and history 
1.
मेघों और मेघवंशियों के इतिहास के बारे में मैं जानना चाहता था. राजस्थान के स्वामी गोकुलदास ने 'मेघवंश-इतिहास' और चंडीगढ़ के श्री मुंशीराम भगत (मेरे पिता) ने 'मेघ-माला' नाम से मेघवंशियों पर किताबें लिखी थीं. पिछले कुछ साल में राजस्थान के श्री ताराराम जी ने 'मेघवंश-इतिहास और संस्कृति' लिखी जिसके एक से अधिक खंड आ चुके हैं. कच्छ, गुजरात के श्री नवीन भोइया ने 'बारमतीपंथ' पर कार्य किया है जिस की मुझे जानकारी थी. डॉ. ध्यान सिंह का थीसिस - 'पंजाब में कबीरपंथ का उद्भव और विकास' मेघों के पिछले दो सौ साल के इतिहास को छूता है. श्री आर.पी. सिंह की पुस्तिका 'मेघवंश: एकसिंहावलोकन' मैंने पढ़ी थी.
दुनिया का कोई ऐसी कोई बिरादरी नहीं जिसके पूर्वज किसी न किसी समय किसी न किसी ज़मीन के टुकड़े के मालिक या शासक न रहे हों. उसी ज़मीन के प्राकृतिक स्रोतों और धन के लिए युदध लड़े गए, जीते-हारे गए. लड़ाई जीतने वाले ने अपनी कहानी बढ़िया सी लिखवाई और हारे हुओं के इतिहास और रिकार्ड को ख़त्म किया. जो इतिहास लिखा, पढ़ाया या गाया गया वही आने वाली पीढ़ियों के दिमाग़ पर छप गया.
मेघवंशी लोग आपस में पूछते रहे हैं कि भाई, हमारा इतिहास क्या है? उत्तर मिलता है कि भाई, पता नहीं चलता कि हमारे पुरखे कौन थे और कहाँ से आए थे. लेकिन ग़रीब समुदायों या जातियों का दिल अनजाने में अपनी ग़ुलामी के इतिहास को महसूस करता है कि कैसे उन्हें खुशहाली के जीवन से बेदख़ल करके गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा गया होगा. यहीं से उनकी मुक्ति की चिंतनधारा शुरू होती है.
लोग मान बैठते हैं कि स्कूल में जो पढ़ाया जाता है केवल वही इतिहास है. ऐसा नहीं है. ऐसा नहीं है कि मेघों या मेघवंशियों का इतिहास है ही नहीं या पूरी तरह ख़त्म हो चुका है. मेघवंश आज है तो उसका कुछ इतिहास भी है. कई इतिहासकारों ने उसके इतिहास को ढूँढ-ढूँढ कर इकट्ठा किया है.
एक सवाल पूछा जाता है कि क्या मेघवंशियों ने कोई युद्ध लड़ा है? हाँ, इसके बहुत से संकेत हैं कि मेघवंशी योद्धा रहे हैं हालाँकि उनके ज़्यादातर इतिहास का लोप कर दिया है. उस इतिहास के बचे हुए पन्नों को डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भली प्रकार समेटा है. उसे पढ़ना चाहिए. नवल वियोगी जैसे अदम्य इतिहासकारों ने न जानकारियों के साथ इतिहास को फिर से लिखा है. उन्होंने बताया है कि भारत के मूल निवासी और शासक नागवंशी थे जिनके वंश की शुरुआत वृत्र अर्थात मेघऋषि से हुई कही जाती है.
इतिहास में धर्म की कहानी भी ज़रूरी है. कहते हैं कि धर्म के नष्ट होने से देश नष्ट नहीं होता अलबत्ता देश के नष्ट होने से धर्म नष्ट हो जाता है. भारत का इतिहास इससे अलग नहीं हैं. पुराने ज़माने के इस बौध सभ्यता वाले देश के थोड़ी-थोड़ी जनसंख्या के साथ दूर-दूर बसे लोगों की हत्याओं, उनके इधर-उधर बिखरने का ही परिणाम है कि आज देश के 85 प्रतिशत लोग गुलामी और ग़रीबी के नतीजों से जूझ रहे हैं. बौध सभ्यता वाला यह देश सामूहिक आत्मरक्षा के लिए संभवतः तैयार नहीं था. आज भारत कुल मिलाकर ग़रीब तबकों का देश है
मेघों और मेघवंशियों के गोत्रों पर एक टिप्पणी ज़रूरी है. वे बहुत हद तक ब्राह्मणवादी कर्मकांडों और पंरपराओं में जकड़े हुए हैं. उन कर्मकांडों में अपना गोत्र बताना व्यक्ति की जाति के छोटा या बड़ा होने का पैमाना है. ब्राह्मणवादी कर्मकांडों में इसे उच्चारना होता है. इसके तहत व्यक्ति अपनी जाति का इश्तेहार ख़ुद बाँटता है. लोग अपनी इस मजबूरी के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने इसे ज़बरदस्ती ओढ़ा हुआ है. दूसरी ओर आम आदमी के दिल में धर्म का इतना डर बैठा हुआ है कि धर्म नरभक्षी दिखने लगा है. न चाहते हुए भी व्यक्ति ऐसी गाय बन जाता है जो केवल मनुवाद और ब्राह्मणवाद को दूध पिलाती है. कोई उस दूध को तरसता रह जाता है तो वह है आपका अपना वंश, आपका अपना बछड़ा.
डॉ. अंबेडकर ने इस गोत्र प्रथा से पीछा छुडाने का सरल हल बौध सभ्यता में देखा. संभव है आपके पास भी कोई बढ़िया आइडिया हो. उसे ज़रूर आज़माएँ.


2.
'हम कहाँ से आए थे'...यह प्रश्न प्रत्येक मानव समूह स्वयं से पूछता है और हर जवाब को अपने हक़ में और ख़ूबसूरत रंगों में देखना चाहता है. मेघ जाति भी यह सवाल सदियों से पूछती आई है और माता-पितारिश्तेदार, जानकार लोग अपनी-अपनी जानकारी के हिसाब से कुछ न कुछ बताते रहे हैं. 

इस सिलसिले में मेरी बात श्री रतन लाल गोत्रा, कर्नल तिलक राज, डॉ. ध्यान सिंह, श्री ताराराम, श्री नवीन भोइया से घंटों फोन पर बातें हुईं. उनके दिए संकेतों पर कार्य किया और कई स्रोतों से जानकारी ले कर 'मेघनेट' ब्लॉग पर इकट्ठी करता रहा. 

मेघों के इतिहास के बारे में मिली जानकारी कई जगह इकतरफ़ा है. कुछ मानदारी से लिखी बातें भी मिलीं जो कड़ुवा सच थीं. आर्यों के आक्रमण से पहले सिंधुघाटीमुजो दाड़ोहड़प्पा सभ्यता का उल्लेख है जिसके राजा और निवासी मेघवंशीनागवंशी थे. इसी क्षेत्र को द्रवड़ियन सभ्यता का मूल स्थान भी माना जाता है. यह अब तक पाई गई अपने समय की सब से विकसित सभ्यता थी जिसके निवासी अमन पसंद थे और छोटी-छोटी बस्तियों में रहते थे. कृषि और कपड़ा बुनना उनका मुख्य व्यवसाय था. उन बिखरी हुई छोटी-छोटी बस्तियों के निवासी ईरान आदि की ओर से आए जंगली, हिंसक और खुरदरे आर्यों के आक्रमणों का मुकाबला नहीं कर सके और पराजित हुए. इसके बाद उनकी गुलामी का बुरा समय शुरू हुआ. इतना जान लेना काफ़ी है कि उस संघर्ष के बहुत बाद यानि ईसा के बाद संस्कृत में लिखे गए वेदों में वृत्रासुर, अहि मेघ मतलब- नाग मेघ, प्रथम मेघ, आदि का उल्लेख है. पौराणिक कहानियों में मेघों, नागवंशियों और उनके राजाओं के बारे में उल्लेख है जिसे विद्वान ऐतिहासिक संकेत भी मानते हैं. उन कहानियों ने मेघों या नागों की ऐसी तस्वीर बनाई है जिसे उनकी पीढ़ियाँ देखना तक नहीं चाहती. उन कहानियों में उस समय के वीर मेघ आर्यों के साथ युद्ध करते, जीतते और अंततः एकता (एकता न होने का अर्थ सामूहिक आत्मरक्षा का प्रबंध न होने से लेना चाहिए) न होने के कारण हारते हुए दिखाई देते हैं. असुरों, राक्षसों, नागों (हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, प्रह्लाद, विरोचन, बाणासुर, राजा महाबली, रावण, तक्षक, वृत्र, तुष्टा, शेष, वासुकी आदि) के बारे में जो लिखा गया और उनकी जो तस्वीरें नाई गईं उन्हें जानबूझ कर ऐसा बना दिया गया कि वे नफ़रत के लायक दिखाई देने लगते हैं. भारत के सभी मूलनिवासी अब इस सच्चाई से सामना कर रहे हैं.

इतिहास और कहानियों में वैसा ही लिखा जाता है जैसा कि जीतने वाला लिखवाता है या लिखने देता है. यही वजह है कि जिस समय में मेघवंशी और इस देश के अन्य मूलनिवासी सत्ता में रहे उसे इतिहास का 'अंधकार युग, अंधकार काल' (dark ages) कहा गया या लिख दिया गया कि उस काल के बारे में जानकारी नहीं मिली है. लेकिन आधुनिक समय में मेघवंशी राजाओं के सिक्के मिले और इतिहास का हिस्सा बन गए. आज इतिहास में वैसा 'अंधकार काल' नहीं है.

कथात्मक शैली में लिखे तथाकथित इतिहास में पूर्ववर्ती संपूर्ण सत्य को खंडित कर एक पक्ष को गौरान्वित कर दिया गया और दूसरे पक्ष को भद्दा चित्रित किया गया. आज उस दूसरे पक्ष को अपना समझ कर कितनी देर देखा जा सकता है. यह ऐसी फटी पुरानी तस्वीर की तरह है जिस पर गंदे हाथ लग चुके हैं, उसे मरोड़ा गया है और पहचानने लायक नहीं छोड़ा. इसलिए उस पर खेद जताते जाना और अफ़सोस करते जाना ठीक नहीं. दूसरी ओर अब इतिहासकारों ने वैज्ञानिक और नए सबूतों के आधार पर मेघवंशियों/ नागवंशियों के इतिहास पर काम शुरू किया हुआ है. अब वैदिक और पौराणिक कहानियों के स्थान पर इतिहास सामने आ रहा है. (ऐसे संकेत सामने आए हैं कि रामायण, महाभारत आदि को एक विशेष विचारधारा के तहत इतिहास सिद्ध करने की कोशिश की जाए). यह भी देखने में आया है कि अब लगभग सभी बड़ी जातियाँ अपना-अपना इतिहास ढूँढ कर ला रही हैं और लिख रही हैं. आगे चलकर और भी नई बातें सामने आएँगी. फिलहाल ज़रूरत है कि अपने वर्तमान को सहेजा जाए और उसे बेहतर बनाया जाए.

सच यही है कि समय के मुताबिक 'मेघ' पहले भी चमकदार थे और आज भी निखरे हुए भारतीय हैं. उनका मन पहले से अधिक रोशन है. वे अन्य जातियों के साथ कंधे से कंधा मिला कर देश की रक्की के लिए का कर रहे हैं. 

आने वाले समय में मेघों की भूमिका और भी बढ़िया और सक्रिय होगी.

अंत में बस इतना ही कि अपने अतीत और इतिहास को थोड़ा-सा जान लीजिए जो इतिहास जैसा और आपका-सा तो बिलकुल नहीं है, लेकिन वर्तमान सँवारिए, भविष्य बनाइए जो निश्चित रूप से आपका-सा है और बेहतर है.

शुभकामनाएँ.

भारत भूषण भगत



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