दिलीप मंडल (Dilip Mandal) के आलेख का सार-संक्षेप
मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही इस बात की मांग उठने लगी थी कि देश में जाति आधारित जनगणना करायी जाए. इससे किसी समुदाय के लिए विशेष अवसर और योजनाओं को लागू करने का वस्तुगत आधार और आंकड़े संभव हो जाते हैं. वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी पर विश्वास करें तो इस बार जाति आधारित जनगणना होगी.
लगभग सभी राजनीतिक दल जाति आधारित जनगणना के समर्थन में आए हैं. जातिगत जनगणना के विरोधी अपने कुतर्कों के साथ अपना पक्ष रख रहे हैं. एक पक्ष जातिगत जनगणना की जगह केवल ओबीसी की गणना कराना चाहता है. ऐसे शार्टकट विचारहीनता ही दर्शाते हैं.
ओबीसी गणना के समर्थकों का तर्क है कि कुल आबादी से दलित , आदिवासी और ओबीसी आबादी के आंकड़ों को निकाल दें तो इस देश में “हिंदू अन्य” यानी सवर्णों की आबादी का पता चल जाएगा. सवर्णों के लिए तो इस देश में सरकारें किसी तरह का विशेष अवसर नहीं देतीं अतः सवर्ण जातियों के अलग आंकड़े एकत्रित करने से मिलेगा क्या? जो भी व्यक्ति जनगणना के दौरान खुद को दलित, आदिवासी या ओबीसी नहीं लिखवाएगा, वह सवर्ण होगा. यह अपने आप में ही अवैज्ञानिक विचार है. इस आधार पर कोई व्यक्ति अगर खुद को जाति से ऊपर मानता है और जाति नहीं लिखाता, तो भी जनगणना में उसे सवर्ण (हिंदू अन्य) गिना जाएगा. जबकि वास्तविकता कुछ और होगी.
यदि कोई व्यक्ति अल्पसंख्यक की श्रेणी में दर्ज छह धर्मों में से किसी एक में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे हिंदू मान लिया जाता है. यानी कोई व्यक्ति अगर आदिवासी है और अल्पसंख्यक श्रेणी के किसी धर्म में अपना नाम नहीं लिखाता, तो जनगणना कर्मचारी उसके आगे “हिंदू” लिख देता है. इस देश के लगभग 8 करोड़ आदिवासी जो न वर्ण व्यवस्था मानते हैं, न पुनर्जन्म और न हिंदू देवी-देवता, उन्हें इसी तरह हिंदू गिना जाता रहा है. उसी तरह अगर कोई व्यक्ति किसी भी धर्म को नहीं मानता, तो भी जनगणना की दृष्टि में वह हिंदू है. अगर जातिगत जनगणना की जगह दलित, आदिवासी और ओबीसी की ही गणना हुई तो किसी भी वजह से जो “हिंदू” व्यक्ति इन तीन श्रेणियों में अपना नाम नहीं लिखाता, उसे जनसंख्या फॉर्म के हिसाब से “हिंदू अन्य” की श्रेणी में डाल दिया जाएगा. इसका नतीजा हमें “हिंदू अन्य” श्रेणी की बढ़ी हुई संख्या की शक्ल में देखने को मिल सकता है. अगर “हिंदू अन्य” का मतलब सवर्ण लगाया जाए तो पूरी जनगणना का आधार ही गलत हो जाएगा. दलित, आदिवासी और ओबीसी की लोकतांत्रिक शक्ति का आकलन नहीं हो पाएगा.
साथ ही अगर जनगणना फॉर्म में तीन श्रेणियों आदिवासी , दलित और ओबीसी और अन्य की श्रेणी रखी जाती है, तो चौथी श्रेणी ‘सवर्ण’ रखने में क्या समस्या है. यह कहीं अधिक वैज्ञानिक तरीका होगा.
जातिगत जनगणना के विरोधियों का विचार है कि जातिगत जनगणना कराने से समाज में जातिवाद बढ़ेगा. यह एक कुतर्क है. क्या धर्म का नाम लिखवाने से ही सांप्रदायिकता बढ़ती है?
भारतीय समाज में राजनीति से लेकर शादी-ब्याह तक के फैसलों में जाति अक्सर निर्णायक पहलू के तौर पर मौजूद है. ऐसे समाज में जाति की गिनती को लेकर भय क्यों है? जाति भेद कम करने और आगे चलकर उसे समाप्त करने की पहली शर्त यही है कि इसके सच को स्वीकार किया जाए और जातीय विषमता कम करने के उपाय किये जाएं. जातिगत जनगणना जाति भेद के पहलुओं को समझने का प्रामाणिक उपकरण साबित हो सकती है. इस वजह से भी आवश्यक है कि जाति के आधार पर जनगणना करायी जाए.
कहा जाता है कि ओबीसी नेता संख्या बल के आधार पर अपनी राजनीति मजबूत करना चाहते हैं. लोकतंत्र में राजनीति करना कोई अपराध नहीं है और संख्या बल के आधार पर कोई अगर राजनीति में आगे बढ़ता है या ऐसा करने की कोशिश करता है, तो इस पर किसी को एतराज क्यों होना चाहिए? लोकतंत्र में फैसले अगर संख्या के आधार पर नहीं होंगे, तो फिर किस आधार पर होंगे?
जनगणना प्रक्रिया में यथास्थिति के समर्थकों का एक तर्क यह है कि ओबीसी जाति के लोगों को अपनी संख्या गिनवाकर क्या मिलेगा. उनके मुताबिक ओबीसी की राजनीति के क्षेत्र में बिना आरक्षण के ही अच्छी स्थिति है. मंडल कमीशन के बाद सरकारी नौकरियों में उन्हें 27 फीसदी आरक्षण हासिल है. केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में भी उन्हें आरक्षण मिल गया है. वे आशंका दिखाते हैं कि हो सकता है कि ओबीसी की वास्तविक संख्या उतनी न हो, जितनी अब तक सभी मानते आए हैं.
अगर देश की कुल आबादी में ओबीसी की संख्या 27 फीसदी से कम है, तो उन्हें नौकरियों और शिक्षा में 27 फीसदी आरक्षण क्यों दिया जाना चाहिए? यूथ फॉर इक्वैलिटी जैसे संगठनों और समर्थक बुद्धिजीवियों को तो इस आधार पर जाति आधारित जनगणना का समर्थन करना चाहिए!
रोचक है कि जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले ये वही लोग हैं, जो पहले नौकरियों में आरक्षण के विरोधी रहे. बाद में इन्होंने शिक्षा में आरक्षण का विरोध किया. ये विचारक इसी निरंतरता में महिला आरक्षण का समर्थन करते हैं. तथ्य यह है कि जाति के प्रश्न ने राजनीतिक विचारधारा के बंधनों को लांघ लिया है. जाति के सवाल पर वंचितों के हितों के खिलाफ खड़े होने वाले कुछ भी हो सकते हैं, वे घनघोर सांप्रदायिक से लेकर घनघोर वामपंथी और समाजवादी हो सकते हैं. जाति संस्था की रक्षा का वृहत्तर दायित्व इनके बीच एकता का बिंदु है. लोकतंत्र की बात करने के बावजूद ये समूह संख्या बल से घबराता है.
अगर बौद्धिक विमर्श से देश चल रहा होता, तो नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण कभी लागू नहीं होता. जाहिर है लोकतंत्र में जनता की और संख्या की ताकत के आगे किसी का जोर नहीं चलता. इस देश में जातीय जनगणना के पक्ष में माहौल बन चुका है. यह साबित हो चुका है कि इस देश की लोकसभा में बहुमत जाति आधारित जनगणना के पक्ष में है.
जातिगत जनगणना के अन्दर की राजनीति को अच्छी तरह विश्लेषण किया है .आम आदमी तक ये बात जाना चाहिए ताकि वे इसका समर्थन करे .
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