The Unknowing Sage

06 August 2018

Waiting for Mega Transformation - मेघ-परिवर्तन की प्रतीक्षा में

वैसे तो समाज जैसे-जैसे फैलता है वैसे-वैसे वो कई आधारों पर बँटता भी जाता है जैसे कि नाम, रूप, रंग, एरिया, धर्म-डेरे, राजनीतिक पार्टी वगैरा के आधार पर.

मेघ समाज भी इस फैलाव और बिखराव की प्रक्रिया से गुजरा है. मेघ, भगत और कबीरपंथी तीन नाम दिमाग़ को झल्लाने के लिए काफी हैं. एक समय था जब मेघों की इस बदलाव की प्रक्रिया के सारे स्विच आर्यसमाज के हाथों में थे जिसने इनकी मौजूदा बनावट में अहम रोल निभाया. फिर भी, यह देख कर हैरानी होती है कि मेघों की बहुत बड़ी, कहते हैं कि, लगभग 70% आबादी राधास्वामी मत में दाखिल हो गई. आर्यसमाज से अलग होकर उन्हें क्या मिला इस पर जितनी चाहे माथापच्ची की जा सकती है लेकिन इसे तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक विभिन्न धार्मिक पंथों के जात-पात विरोधी स्टैंड की भाषा को अच्छे से पढ़ नहीं लिया जाता. कुछ भवानात्मक पहलू भी हो सकते हैं उनका अध्ययन किया जाना चाहिए. बहरहाल राधास्वामी मत का 'नो-जातपात' का बैनर बहुत बड़ा था.

आर्यसमाज ने अपने धार्मिक-सामाजिक रूप-रंग के सहारे राजनीति में पैठ बनाई लेकिन सामाजिक आंदोलन के क्षेत्र में वह पिछड़ता रहा. यह बात मेघ समाज के संदर्भ में कही जा रही है. दूसरी ओर कबीरपंथ नामक सामाजिक आंदोलन इस समाज में पहुंचा और काफी तेजी से फैला. राधास्वामी मतावलंबियों की भी इसमें भूमिका रही क्योंकि राधास्वामी मत को संतमत की शाखा माना जाता है. 'मेघ भगत' नामकरण की वजह से मेघों को कबीरपंथ आंदोलन में संतमत की पहचान स्थापित नज़र आई. कबीर की छवि को अपनाने में न उन्हें दिक्कत हुई और न मशक्कत करनी पड़ी. वैसे भी शुरुआत से ही कबीर एक फैलता हुआ फिनॉमिना (असाधारण घटना) है. यही कारण है कि जालंधर के भार्गो कैंप में स्थित कबीर मुख्य मंदिर पर विभिन्न सियासी दलों की नज़र जमी रहती है. 

मेघों की सियासी समझ पहले के मुकाबले बहुत बढ़ी है लेकिन उसे परिपक्व कहा जा सकता है या नहीं मैं नहीं जानता. उन्होंने अपना कोई आज़ाद उम्मीदवार जिताने के लिए कभी कोशिश नहीं की जिससे इनके वोटों की शक्ति का परिचय मिलता जाता. पार्टियों वाली राजनीति के कई आयाम है. पहली बात यह कि उसके लिए बहुत-सा धन और अन्य संसाधन चाहिएँ. मेघों के पास जो है वो नाकाफी है. लेकिन जिन लोगों के पास कुछ संसाधन हैं उन्हें सियासी दल अपनी दावत में शामिल कर लेते हैं विशेषकर तब जब वे सियासी समझ ना रखते हों लेकिन दावत में कंट्रीब्यूट कर सकते हों. उसे पार्टी फंड कहते हैं. पार्टियों ने शिक्षित, राजनीति में प्रशिक्षित और तेज़-तर्रार मेघों पर कभी ध्यान दिया हो ऐसा दिखा नहीं.

हमारे समाज के पढे-लिखे लोग भी राजनीति और समाज सेवा में लगे हैं लेकिन उनके पास संसाधनों की कमी है. बेहतर होता कि समाज के धन्नासेठ उनकी ग्रूमिंग का प्रबंध करते. कभी लगता है कि ऐसा कुछ कार्य शुरू तो हुआ है. मेघों की सियासत की सबसे बड़ी सीमा यह है कि उनके पास संख्या बल नहीं है कम-से-कम राजनीतिक पार्टियाँ ऐसा ही मानती हैं. पंजाब में वे कुछ लाख हैं. इस स्थिति को देखते हुए यह जागृति बहुत पहले आ जानी चाहिए थी कि उनके नेता अन्य समुदायों के साथ कारगर राजनीतिक संबंध बनाते. सामाजिक संबंधों की शुरुआत तो हो ही चुकी है.

इस बात को समझ लेना चाहिए कि जब तक हम दो-चार राजनीतिक विचार बटोरते हैं तब तक पॉलिटिकल पार्टियां बहुत-सी नई जानकारियाँ और आँकड़े इकट्ठा कर चुकी होती हैं. इसलिए इस बात की सख़्त ज़रूरत है कि अपने माज़ी (अतीत) से सीखिए. इतिहास ख़ुद को तब तक दोहराता रहता है जब तक आप सीख लेकर अपना वर्तमान और भविष्य बेहतर ना बना लें. लेकिन समय को देखते हुए सीखने की गति तेज़ होनी चाहिए. 


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