कृष्ण और सुदामा का प्रसंग जो भक्ति साहित्य ने दिया है वो भावुकता भरा है इसीलिए अविश्वसनीय है. एक शक्तिशाली राजा अपने पुराने सहपाठी (क्लासफैलो) की आवभगत करने के लिए भावविह्वल हो कर रोता हुआ,भागता हुआ बाहर आए और उसे अपने सिंहासन पर बिठाकर उसके पांव धोए ऐसा संबंध सहपाठियों में तो नहीं देखा जाता. कथा में कुछ लोचा है. कुछ लोचा कवि सूरदास के पदों में भी है जहाँ वे कृष्ण और सुदामा के मिलन प्रसंग का वर्णन ऐसे करते हैं :-
अब हम जानी तुमहिं वो मूरख
कहाँ रहे तुम कहाँ बसत हो
सुधरे हो या निरे भगत हो।
घरबार संगहिं तुमहिं रहत हो
करम से का तुम अभहिं बचत हो
(अर्थ - अब मैं पहचान गया हूं कि तुम वही मूर्ख हो. बताओ, अब तक तुम कहाँ रहे और अभी कहाँ रहते हो. तुम्हारे अंदर कुछ सुधार हुआ है या अब भी तुम केवल भक्त ही हो. तुम घर-परिवार के संग ही रहते हो या नहीं. और परिश्रम से क्या तुम अभी पहले की ही तरह बचते हो?)
बात समझ में आती है. सुदामा ब्राह्मण था इसलिए कई बातें संकेत रूप में समझ आ जाती हैं. लेकिन शक्तिशाली यदुवंशी राजा कृष्ण उसके पाँव आखिर क्यों धोएगा? नए संदर्भों में यादव यह सवाल पूछने लगे हैं. इसे भी टटोलने की जरूरत है कि सूरदास ने सुदामा को ‘निरे भगत’ क्यों कह दिया. अगर भक्त सूरदास का यह हाल है तो बाक़ी भक्तों का क्या होगा. कबीर को तो मैं 'भक्त' नहीं मानता बल्कि 'मुक्त' मानता हूँ. उनका समय 'मुक्तिकाल' था.
सूरदास का पद Mahendra Yadav जी ने उद्धृत किया है और यह उन्हीं की पोस्ट का पश्चप्रभाव (After effect) है.
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