अरे नहीं भाई, नहीं थे. वे हमारे आपके जैसे ही इंसान थे. वे वैसे बिलकुल नहीं थे जैसा आपने असुरों के बारे में कथा-कहानियों में पढ़ा-सुना है, या किताबों और कॉमिक्स में छपी तस्वीरों में देखा है. मेघ प्राणवान और शक्तिशाली थे इसमें कोई शक नहीं.
जब मैं छठी क्लास में गया तब 'दैनिक हिंदुस्तान' अखबार पढ़ने की आदत पड़ी. मेरे लिए 'दैनिक हिंदुस्तान' का अर्थ दुनिया से जुड़ाव, दुनिया को देखने की एक बड़ी खिड़की और एक भरी-पूरी संस्कृति था. साथ ही स्कूली सिलेबस, अन्य पुस्तकों और कॉमिक्स (पराग और चंदामामा) आदि के ज़रिए रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाओं की एक बाढ़ आई जिसका मेरे मन पर प्रभाव पड़ा. उनमें से सागर-मंथन की कहानी इतनी प्रभावशाली थी कि मैं मानने लगा कि मैं जो दुनिया में टिका हुआ हूं इसलिए टिका हुआ हूं क्योंकि मैं सुर या देवता था. अज्ञानता और मूढ़ता कुछ समय के लिए वरदान हो सकती है.
बड़ा होने पर पता चला कि मैं अनुसूचित जाति से हूं और कि मेरे पुरखों से छुआछूत होती रही थी. अब खटका सा होने लगा कि कुछ तो गड़बड़ है. मेरा सामाजिक स्टेटस वैसा नहीं है जैसा समझा था. स्कूल, कॉलेज पूरा हुआ और यूनिवर्सिटी का समय भी अज्ञानता और मूढ़ता में कट गया. नौकरी में आने के बाद एक प्रकार का कन्फ्यूज़न छा गया जब देखा कि दफ्तर में काम करने वाले अन्य लोगों का मेरे साथ व्यवहार ठीक-ठाक है लेकिन आरक्षण की बात उठते ही उनकी नजरों में अचानक कड़ुवाहट उभर आती है. उन दिनों ओबीसी के लिए आरक्षण नहीं था लेकिन उन जातियों के लोगों के प्रति कइयों का व्यवहार आमतौर पर उतना सम्मानजनक नहीं था. सब से बुरी ख़बर तब मिली जब वर्ष 2010 और 2011 के दौरान मैंने कहीं पहली बार पढ़ा कि आज की अनुसूचित जातियों के लोगों को ही पौराणिक कथाओं में असुर या राक्षस कहा गया है. मेरे लिए यह एक तरह का झटका था जिसने मुझे सोच के एक अलग धरातल पर ला खड़ा किया. जब तक यह जानकारी लिखित और बड़े रूप में मुझ तक पहुँची तब तक मेरे जीवन के 60 साल निकल चुके थे और मैं एक पिछड़ा हुआ बच्चा था. ख़ैर, इस बीच यह भी पता चला कि भारत में एक आदिवासी (मूलनिवासी) असुर जाति है जो बंगाल, झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश में मिलती है.
हालाँकि कबीर, रविदास आदि संतों, ज्योतिबा फुले, पेरियार, अंबेडकर आदि बहुतों को पौराणिक हेराफेरी (फ़्रॉड) की जानकारी थी लेकिन मेरे परिवार और पुरखों को नहीं थी. न ही वैसी कोई जानकारी उनके ज़रिए मुझे मिल पाई. हमारा मेघ भगत परिवार था जो निपट भगत था. मूलनिवासी होने वाली बात बहुत देरी से पता चली. लेकिन उसकी डिटेल स्पष्ट नहीं थी. अपनी अधूरी जानकारी का प्रयोग मैंने कुछ जगह किया लेकिन उसके साथ यह उल्लेख ज़रूर किया कि पुराणों में असुरों और राक्षसों का वो चित्रण भारत के मूलनिवासियों का है जो जातिवादी घृणा से प्रेरित है. इधर सोशल मीडिया से पता चला कि मेरे समुदाय के कुछ लोगों ने यह बात फैला दी कि मैंने मेघों को असुर या राक्षस बताया है. यह सच नहीं था. अनुसूचित जातियों, जनजातियों और ओबीसी की भद्दी छवि बनाने का काम तो पौराणिकों और वैसी कहानियाँ लिखने वालों का था. सच यह भी है कि मुझे असुर शब्द की कम जानकारी थी. अन्य की तरह मैं मानता था कि जो 'सुर' (देवता) नहीं है वह 'असुर' है, उसके दांत बाहर को निकले हुए लंबे-लंबे होते हैं, उसके सिर पर सींग होते हैं, उसके नाखून बड़े-बड़े और उसकी नाक मोटी होती है, वो काला और मोटा होता है, उसके पैर की हड्डियाँ बेढब होती हैं, वो मनुष्यों को खा जाता है, भयानक दिखता है वगैरा. वैसे पढ़े-लिखे लोग जानते हैं कि पुराणों में किए गए ऐसे चित्रण के पीछे स्वार्थ भरी घृणा है.
वो 'असुर' वाला विषय मेरी पिछली पोस्ट ‘मुअन जो दाड़ो से मेलुख्ख तक’ के सिलसिले में फिर से उभरा जब एक पाठक ने अपनी टिप्पणी में कहा कि - "Sir according respected RIGVEDA Vritra Was a asura ab iska matlab ki hum sab megh asur hain reply if possible" ('सर, सम्मानित वेदों के अनुसार वृत्र असुर था अब इसका मतलब कि हम मेघ असुर हैं. मुमकिन हो तो जवाब दें'). किस्मत अच्छी थी कि अभी हाल ही में 'असुर' शब्द के बारे में नई जानकारी मुझे मिली थी जिसके आधार पर उस पाठक को उत्तर दिया. लेकिन महसूस किया कि वो जानकारी मेघनेट पढ़ने वालों को एक ही बार में बेहतर तरीके से दे दी जाए.
कई मेघ किसी 'वृत्र', 'वृत्रासुर' (वृत्र+असुर), जिसे ऋग्वेद में 'प्रथम मेघ' (या मेघऋषि) भी कहा गया है, उसके होने या उसका वंशज होने में विश्वास नहीं रखते. वेरिगुड. उनको 'असुर' शब्द से कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. जिनके लिए समस्या है वे इसे आगे पढ़ते रहें.
असुर का पुराना और सही अर्थ राक्षस जैसी छवि का नहीं है. वैदिक कोश में लिखा है कि असुर वो है जो असु (प्राण, जीवन) दे, जो प्राणवान हो. संस्कृत के विद्वान और डिक्शनरी लिखने वाले वी.एस. आप्टे ने 'असु' का अर्थ 'प्राण' किया है. वेद में इंद्र देवता को 'असुर' कहा गया है. कृष्ण को भी असुर कहा गया है. असुर में "अ" को उपसर्ग समझ लेने की वजह से एक ग़लतफ़हमी में 'सुर' शब्द पैदा हुआ है. हाँ, असु+र होगा. अ+सुर नहीं होगा. 'सुर' शब्द का कोई अपना अलग अस्तित्व नहीं था। (असली शब्द असु+र है न कि अ+सुर. ऐसा प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह का कहना है.) असुर शब्द की भद्दी व्याख्याएँ वेदों की रचना के बाद लिखी गई हैं. वैसे यह कहना भी मुश्किल है कि पिछले 2000 या 1600 साल में वेदों में कितनी बार और कितने परिवर्तन किए गए हैं.
इस लिए इसे साफ़ तौर पर समझ लेना चाहिए कि अगर किसी भी अर्थ या संदर्भ में मेघों या किसी अन्य (असुर जनजाति सहित) के साथ 'असुर' शब्द आ जुड़ता है या जुड़ता हुआ प्रतीत होता है तो उसका अर्थ प्राणवान या शक्तिमान के अर्थ में लिया जाना चाहिए. 'बादल' के अर्थ में 'मेघ' शब्द का अर्थ धरती में जान-प्राण डालने वाला और 'जगत का प्राण' भी होता है. असुर शब्द के अर्थ से संबंधित प्रमाण नीचे दे दिए गए हैं.
जब मैं छठी क्लास में गया तब 'दैनिक हिंदुस्तान' अखबार पढ़ने की आदत पड़ी. मेरे लिए 'दैनिक हिंदुस्तान' का अर्थ दुनिया से जुड़ाव, दुनिया को देखने की एक बड़ी खिड़की और एक भरी-पूरी संस्कृति था. साथ ही स्कूली सिलेबस, अन्य पुस्तकों और कॉमिक्स (पराग और चंदामामा) आदि के ज़रिए रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाओं की एक बाढ़ आई जिसका मेरे मन पर प्रभाव पड़ा. उनमें से सागर-मंथन की कहानी इतनी प्रभावशाली थी कि मैं मानने लगा कि मैं जो दुनिया में टिका हुआ हूं इसलिए टिका हुआ हूं क्योंकि मैं सुर या देवता था. अज्ञानता और मूढ़ता कुछ समय के लिए वरदान हो सकती है.
बड़ा होने पर पता चला कि मैं अनुसूचित जाति से हूं और कि मेरे पुरखों से छुआछूत होती रही थी. अब खटका सा होने लगा कि कुछ तो गड़बड़ है. मेरा सामाजिक स्टेटस वैसा नहीं है जैसा समझा था. स्कूल, कॉलेज पूरा हुआ और यूनिवर्सिटी का समय भी अज्ञानता और मूढ़ता में कट गया. नौकरी में आने के बाद एक प्रकार का कन्फ्यूज़न छा गया जब देखा कि दफ्तर में काम करने वाले अन्य लोगों का मेरे साथ व्यवहार ठीक-ठाक है लेकिन आरक्षण की बात उठते ही उनकी नजरों में अचानक कड़ुवाहट उभर आती है. उन दिनों ओबीसी के लिए आरक्षण नहीं था लेकिन उन जातियों के लोगों के प्रति कइयों का व्यवहार आमतौर पर उतना सम्मानजनक नहीं था. सब से बुरी ख़बर तब मिली जब वर्ष 2010 और 2011 के दौरान मैंने कहीं पहली बार पढ़ा कि आज की अनुसूचित जातियों के लोगों को ही पौराणिक कथाओं में असुर या राक्षस कहा गया है. मेरे लिए यह एक तरह का झटका था जिसने मुझे सोच के एक अलग धरातल पर ला खड़ा किया. जब तक यह जानकारी लिखित और बड़े रूप में मुझ तक पहुँची तब तक मेरे जीवन के 60 साल निकल चुके थे और मैं एक पिछड़ा हुआ बच्चा था. ख़ैर, इस बीच यह भी पता चला कि भारत में एक आदिवासी (मूलनिवासी) असुर जाति है जो बंगाल, झारखंड, बिहार, मध्यप्रदेश में मिलती है.
हालाँकि कबीर, रविदास आदि संतों, ज्योतिबा फुले, पेरियार, अंबेडकर आदि बहुतों को पौराणिक हेराफेरी (फ़्रॉड) की जानकारी थी लेकिन मेरे परिवार और पुरखों को नहीं थी. न ही वैसी कोई जानकारी उनके ज़रिए मुझे मिल पाई. हमारा मेघ भगत परिवार था जो निपट भगत था. मूलनिवासी होने वाली बात बहुत देरी से पता चली. लेकिन उसकी डिटेल स्पष्ट नहीं थी. अपनी अधूरी जानकारी का प्रयोग मैंने कुछ जगह किया लेकिन उसके साथ यह उल्लेख ज़रूर किया कि पुराणों में असुरों और राक्षसों का वो चित्रण भारत के मूलनिवासियों का है जो जातिवादी घृणा से प्रेरित है. इधर सोशल मीडिया से पता चला कि मेरे समुदाय के कुछ लोगों ने यह बात फैला दी कि मैंने मेघों को असुर या राक्षस बताया है. यह सच नहीं था. अनुसूचित जातियों, जनजातियों और ओबीसी की भद्दी छवि बनाने का काम तो पौराणिकों और वैसी कहानियाँ लिखने वालों का था. सच यह भी है कि मुझे असुर शब्द की कम जानकारी थी. अन्य की तरह मैं मानता था कि जो 'सुर' (देवता) नहीं है वह 'असुर' है, उसके दांत बाहर को निकले हुए लंबे-लंबे होते हैं, उसके सिर पर सींग होते हैं, उसके नाखून बड़े-बड़े और उसकी नाक मोटी होती है, वो काला और मोटा होता है, उसके पैर की हड्डियाँ बेढब होती हैं, वो मनुष्यों को खा जाता है, भयानक दिखता है वगैरा. वैसे पढ़े-लिखे लोग जानते हैं कि पुराणों में किए गए ऐसे चित्रण के पीछे स्वार्थ भरी घृणा है.
वो 'असुर' वाला विषय मेरी पिछली पोस्ट ‘मुअन जो दाड़ो से मेलुख्ख तक’ के सिलसिले में फिर से उभरा जब एक पाठक ने अपनी टिप्पणी में कहा कि - "Sir according respected RIGVEDA Vritra Was a asura ab iska matlab ki hum sab megh asur hain reply if possible" ('सर, सम्मानित वेदों के अनुसार वृत्र असुर था अब इसका मतलब कि हम मेघ असुर हैं. मुमकिन हो तो जवाब दें'). किस्मत अच्छी थी कि अभी हाल ही में 'असुर' शब्द के बारे में नई जानकारी मुझे मिली थी जिसके आधार पर उस पाठक को उत्तर दिया. लेकिन महसूस किया कि वो जानकारी मेघनेट पढ़ने वालों को एक ही बार में बेहतर तरीके से दे दी जाए.
कई मेघ किसी 'वृत्र', 'वृत्रासुर' (वृत्र+असुर), जिसे ऋग्वेद में 'प्रथम मेघ' (या मेघऋषि) भी कहा गया है, उसके होने या उसका वंशज होने में विश्वास नहीं रखते. वेरिगुड. उनको 'असुर' शब्द से कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. जिनके लिए समस्या है वे इसे आगे पढ़ते रहें.
असुर का पुराना और सही अर्थ राक्षस जैसी छवि का नहीं है. वैदिक कोश में लिखा है कि असुर वो है जो असु (प्राण, जीवन) दे, जो प्राणवान हो. संस्कृत के विद्वान और डिक्शनरी लिखने वाले वी.एस. आप्टे ने 'असु' का अर्थ 'प्राण' किया है. वेद में इंद्र देवता को 'असुर' कहा गया है. कृष्ण को भी असुर कहा गया है. असुर में "अ" को उपसर्ग समझ लेने की वजह से एक ग़लतफ़हमी में 'सुर' शब्द पैदा हुआ है. हाँ, असु+र होगा. अ+सुर नहीं होगा. 'सुर' शब्द का कोई अपना अलग अस्तित्व नहीं था। (असली शब्द असु+र है न कि अ+सुर. ऐसा प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह का कहना है.) असुर शब्द की भद्दी व्याख्याएँ वेदों की रचना के बाद लिखी गई हैं. वैसे यह कहना भी मुश्किल है कि पिछले 2000 या 1600 साल में वेदों में कितनी बार और कितने परिवर्तन किए गए हैं.
इस लिए इसे साफ़ तौर पर समझ लेना चाहिए कि अगर किसी भी अर्थ या संदर्भ में मेघों या किसी अन्य (असुर जनजाति सहित) के साथ 'असुर' शब्द आ जुड़ता है या जुड़ता हुआ प्रतीत होता है तो उसका अर्थ प्राणवान या शक्तिमान के अर्थ में लिया जाना चाहिए. 'बादल' के अर्थ में 'मेघ' शब्द का अर्थ धरती में जान-प्राण डालने वाला और 'जगत का प्राण' भी होता है. असुर शब्द के अर्थ से संबंधित प्रमाण नीचे दे दिए गए हैं.