डॉ नवल वियोगी ने मेघों की लगभग पूरी कथा लिख डाली। यह बात समझी जा सकती है कि उनके द्वारा इकट्ठी की गई जानकारी पूरे मेघ समाज तक जल्द पहुंचने वाली नहीं है। यह चिट्ठा एक कोशिश है कि नवल जी ने जो खोजा-पाया है उसकी कहानी का सार मेघनेट के पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश की जाए। यह स्कैच मात्र है। बेहतर होगा कि उनकी लिखी पुस्तक ‘मद्रों और मेघों का प्राचीन और आधुनिक इतिहास’ पूरी पढ़ी जाए और ख़रीद कर पढ़ी जाए। उनकी मेहनत की क़द्र की जानी चाहिए।
‘मेघ’ (जनजाति) शब्द की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों ने कई अनुमान लगाए गए हैं। लेकिन जाति नाम के तौर पर यह शब्द कब और कैसे अस्तित्व में आया इसका कुछ उत्तर डॉ नवल की पुस्तक में मिल जाता है। इसका मद्र, मग, मागी, मीडिया (दक्षिणी ईरान का क्षेत्र) से संबंध है ऐसा इतिहासकार ने बताया है।
मद्र नामक जनजाति ईरान के मीडिया प्रदेश में रहती थी। उनके पुजारी या पुरोहित मग कहलाते थे। उनकी भाषा अमेगीर (Emagir) थी। वे मग बेबीलोनिया और काल्डिया में भी पुजारी थे। वहीं से इनका भारत में आगमन हुआ था। नस्ली तौर पर वे द्रविड़ थे। मीडिया में गोल सिर वाले अल्पाइन अथवा कसाहट लोगों के साथ दीर्घकाल तक रहने के कारण उनमें संकरण हुआ। उनके समाज में राजऋषि परंपरा थी। शासक राजा धार्मिक मुखिया भी होता था। इसलिए मग धीरे-धीरे पुजारी बन गए।
उनका समाज गणतांत्रिक था। जहां प्रत्येक नागरिक बराबर था। उनकी सामाजिक परंपराओं के अनुसार सभी नागरिक बहादुर सैनिक होते थे और कुशल शिल्पी भी। मद्रों का संबंध जोहाक नाग राजपरिवार के साथ था। मद्र भारत में जोहाक या तक्षक नाग परिवार की एक शाखा के रूप में हैं। अर्थात मद्रों और मगों दोनों का संबंध उस जोहाक या नाग परिवार के साथ था जो गांधार और तक्षशिला के शासक थे। 2500-2100 ई.पू. जब आर्य ईरान आए तब वहां के शासक बन गए। उनमें पशु-वध से जुड़ी यज्ञ परंपरा थी। मग राजऋषि उनकी यज्ञ परंपरा से जुड़े और उनके पुजारी बने।
मगों का भारत में पहला आगमन तब हुआ जब आर्यों ने ईरान पर आक्रमण किया। जीवन रक्षा के लिए वे कई अन्य ईरानियों के साथ भारत भू-भाग में आ गए। वे अपना असीरियन धर्म भी साथ लाए। यह सांख्य दर्शन पर आधारित था। इसी में से बौध और जैन धर्म आए। ये बराबरी और भाईचारे पर आधारित थे। आर्यों ने 1650 ई.पू. भारत पर आक्रमण किया तब मग भी उनके साथ भारत आए। मगों ने ऋग्वेद की रचना और जाति आधारित व्यवस्था निर्माण में मदद की। मग द्रविड़ थे लेकिन आर्यों के साथ रहने के कारण ख़ुद को आर्य समझने लगे थे। लेकिन आर्यों ने उन्हें आर्य नहीं माना।
मीडिया के मग पुरोहित तंत्र विकसित करने की ओर प्रवृत्त रहे। ईरान में कोई यज्ञ उनके बिना नहीं होता था। उन्होंने ज्योतिष विद्या विकसित की। वे सपनों के आधार पर भविष्य बताते थे। इन्हीं कलाओं की सहायता से वे राजाओं-महाराजाओं की निकटता प्राप्त कर पाए। अंधविश्वासी होने के साथ-साथ वे झूठा दिखावा भी करते थे। इससे उन्हें राजनीति में घुसपैठ करने और समाज में महत्व पाने का अवसर मिला। तभी एक हादसा हो गया। अख़माइन राजवंश के राजकुमार डेरियस प्रथम के सिंहासनारूढ़ होने में गोमत नामक मशहूर राजऋषि मग नेता बाधा बन गया। नतीजतन उसकी और उसके मागी साथियों की हत्या कर दी गई। उन्हें सबक सिखाने के लिए एक मेगाफ़ोनिया नाम का पर्व मनाया जाने लगा। किसी एक मग को पकड़ कर उसे 5 दिन के लिए ईरान की राजगद्दी पर बिठाया जाता। उसके बाद उसे फांसी दे दी जाती। इस दिन मगियों को कई तरह से अपमानित किया जाता। जिससे वे अपने घरों में छिप जाते। बरसों के अपमान से दुखी होकर 521 ई.पू. के आसपास वे मग बलुचिस्तान, सिंध, गुजरात व विन्ध्याचल के रास्ते मगध में चले गए। यहां भी 5-6 सौ साल तक वे हिंदू समाज का हिस्सा नहीं बन सके। उन्हें म्लेच्छ, मग, विदेशी, यवन, पारसी कहकर पुकारा गया। आखिर उन्हें दूसरी सदी में ब्राह्मण के तौर पर मान्यता मिल गई। लेकिन आर्यों ने उन्हें ख़ुद से नीचे रखा। वे मग, शांकल, कश्यप अथवा कान्यकुब्ज ब्राह्मण कहलाए। डॉ वियोगी ने बताया है कि भविष्य पुराण में उन म्लेच्छ ब्राह्मणों के 10 गोत्र बताए हैं- कश्यप, उपाध्याय, दीक्षित, पाठक, शुक्ल, मिश्र, अग्निहोत्री, द्विवेदी, पांडेय, चतुर्वेदी। आगे चल कर इन्हीं ब्राह्मणों ने हिंदू धर्म को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। हिंदू धर्म के कठोर नियम बनाए और पूर्व ग्रंथों में उन्हें जोड़ा।
डॉ वियोगी ने बताया है कि प्राचीन काल में, पश्चिम एशिया से तीन प्रमुख अनार्य जनजातियां आईं- जोहाक अथवा तक्षक नाग, हाइक्सोस अथवा इक्ष्वाकु, यादव अथवा पंचजन्य। ये सभी मूल रूप से एक ही थे। तीनों ही सिंधु घाटी के बसाने वाले थे। अस्थाना शशि और हेरोडोटस के हवाले से बताया गया है कि मीडिया के मीड तथा भारत के मद्र भिन्न नहीं थे। वे मग या मागी मद्रों की ही एक शाखा थे।
उशीनर गणराज्य का एक भाग झंग मधियाना (मग से मधियाना) कहा जाता था। यह दोआब के दक्षिणी भाग में था। उशीनर जन मद्रों से संबंधित थे। यानी मद्र या मग मीडिया की तरह यहां भी एक साथ ही निवास करते थे। आगे चल कर मद्रों ने सिआलकोट (शांकल) पर दीर्घ काल तक राज किया। कौरवों-पांडवों के साथ उनके वैवाहिक संबंध होते थे। सिकंदर के आक्रमण (326 ई.पू.) के समय मद्र अथवा पौरुष उस क्षेत्र में निवासित थे। यहीं से मद्रों के पौराणिक और इतिहासिक सूत्र मिलने लगते हैं।
मगों की एक मुख्य शाखा ने आगे बढ़कर भारत के मध्य-पूर्व में शासन किया। वे चेदि पुकारे जाने लगे थे। उन्हीं की एक शाखा ने मगध पर शासन किया। जरासंध चेदि वंश का प्रसिद्ध राजा था जिसे राक्षस या असुर कहा गया है। कृष्ण और पांडवों के साथ युद्ध में वह मारा गया। चेदियों की एक शाखा ने दक्षिण कोसल व कलिंग पर अधिकार जमाया, नंदों और अशोक महान से युद्ध किया। उन्हीं की एक शाखा थी खारवेल या महामेघवाहन। उसने दक्षिण-पूर्व में बहुत ही शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। ये लोग जैन धर्म के अनुयायी और उसके रक्षक थे। उनकी एक शाखा ने 129 ई.-217 ई. तक कोसंबी में शासन किया। वे बौद्ध धम्म के अनुयायी थे। उनमें 9 बड़े राजा और छोटे 10 राजा हुए। प्रमुख राजाओं के नाम थे- मघ, भीमसेन, मद्रमघ व प्रोष्ठाश्री, भट्टदेव, कौत्सीपुत्र, शिवमघ प्रथम, वेश्रवण, शिवमघ द्वितीय, तथा भीम वर्मन। उनके शिलालेख और मुद्राएं मिली हैं। उनके आखिरी राजा को समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। मध्यकाल (Medieval period) में मेघों की एक शाखा ने मध्य भारत में शासन किया।
(ब्लॉगर का नोट: ऊपर के विवरण से जाना जा सकता है कि ‘मग’ से ‘मेघ’ शब्द की यात्रा सदियों में तय हुई है। मग से मघ बनते हुए इसे 129 ई. से 217 ई. के दौरान कोसंबी में देखा गया है। घ, ध, भ जैसी महाप्राण ध्वनियां भारतीय हैं। ग के घ हो जाने के इस परिवर्तन की भाषा वैज्ञानिक व्याख्या कहीं न कहीं मिल जाएगी। कहा जाता है कि बुद्धकाल ही भूतकाल है। यानि ब का भ और ध का त हो जाना किसी उच्चारण प्रवृत्ति की वजह से है। ‘कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी’ वाली बात है। मीड, मेदे, मेगी, मग, मद्र, मेद, मेध, मध्य, मेघ, मेंग, मींग, मेंह्ग, आदि शब्द एक ऐसी प्राचीन जनजाति की ओर इशारा करते हैं जिसकी सैंकड़ों शाखाएं, वर्ग और जातियां हैं। ये दक्षिण-पश्चिम एशिया के बहुत बड़े भू-भाग में निवासित हैं।)