इतिहास में हमारे छात्रों की रुचि क्यों नहीं बैठती इस बारे में पहले भी पोस्ट की है. जब कोई इतिहास के आइने में ख़ुद को देख ही नहीं पाता तो वो आइना खरीदे ही क्यों.
यह बात भारतीय छात्रों के संदर्भ में सटीक है जबकि कई देशों के छात्र समाजशास्त्र से लेकर इतिहास और धर्म तक में बहुत रुचि रखते हैं. मैंने लिखा था कि हमें पढ़ाए जाने वाला इतिहास तारीखों से भारी है जिसे रटना मजबूरी सी लगती है. दो तारीखों के बीच राजा-महाराजा तो दिखते हैं लेकिन विस्तृत समाज नहीं दिखता. रुचि का तो फिर सवाल ही नहीं. ज़ाहिर है कि हमारा इतिहास समाज की यात्रा के दृश्य दिखाते हुए नहीं चलता. उससे तारीखें जानने के अलावा कुछ सीख पाना संभव नहीं होता.
समय-समय पर समाजों में हलचल हुई है और उस पर बातचीत भी ज़रूर हुई होगी. इतिहास ने उसका दस्तावेज़ीकरण क्यों नहीं किया. क्यो उस विमर्श को दरकिनार किया गया. ऐसा न करने के पीछे तथाकथित इतिहास लिखने वालों की क्या मंशा रही होगी. क्या वे किसी के किए पर तारीखों के पत्थर डाल कर तेज़ी से आगे बढ़ जाना चाहते थे.
पुरातत्व ने और आधुनिक इतिहासकारों ने मिल कर मुअनजो दाड़ो (जिसे सिंधुघाटी सभ्यता कहने का रिवाज़ अधिक था) को बौध सभ्यता प्रमाणित किया है और उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर उसे विकसित नगरीय या नागरी सभ्यता पाया है. फिर क्या वजह हो सकती है उसके बाद हमारा यहाँ का समाज जातियों में बँटा, अंधविश्वासों से भर गया. समाज की यह धारा यदि विकास कही गई तो उस धारा का स्रोत कहाँ है. आज के समाज के स्वरूप को लेकर हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति सोच में पड़ जाता है. इस विषय पर संजय श्रमण जी की निम्नलिखित टिप्पणी फेसबुक पर पढ़ने को मिली :
"अगर अपराधियों के हाथ मे शिक्षा और धर्म संस्कृति की कमान हो तो वे अपने अपराध का इतिहास मिटा देते हैं. साथ ही वो ऐसा बहुत कुछ भी मिटा देते हैं जिससे किसी समाज या राष्ट्र को आगे बढ़ने में मदद मिलती है. जिन मुल्कों ने तरक्की की है उनका इतिहासबोध साफ रहा है. साफ इतिहासबोध से ही साफ भविष्यबोध जन्म लेता है. भारत के पास अपने क्रम विकास का व्यवस्थित इतिहास नहीं है. और भारत इसीलिए एक सभ्य समाज या एक राष्ट्र नहीं बन पाया है. अपने इतिहास से वंचित भारत अपने भविष्य से भी वंचित हो गया है. इन दो बातों में सीधा संबन्ध है। इसे देखिये, समझिये. - संजय श्रमण"
विकास की प्रक्रिया में कई बातें इस तरह गुँथ चुकी होती हैं कि विकास के सकारात्मक या नकारात्मक होने का निर्णय करना मुश्किल हो जाता है. यह ठीक उसी तरह है जैसे हम विज्ञान के लाभ-हानियाँ गिनवाने लगते हैं और तभी हमें कारखानों और प्रदूषण के विचार एक साथ आने लगते हैं.
भारत अब एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में तेज़ी से चल रहा है. अब इसके इतिहास को विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक पद्धति से पुनः लिखने की ज़रूरत है.