पिछले दिनों एक मेघ सज्ज्न की तीमारदारी के दौरान
उनके पास बैठने का मौका मिला. बूढ़े मेघ अभी कबीर मंदिर का सपना भुला नहीं पाए
हैं. मैंने कुरेदा तो एक तस्वीर निकली जो आपके सामने रख रहा हूँ.
पंजाब सरकार ने एक बार विज्ञापन दिया था कि
धर्मार्थ सोसाइटियाँ यदि आवेदन करें तो 2 कनाल ज़मीन लीज़ पर अलाट की जा सकती है.
उस समय एक शहर में मेघों का एक संगठन अस्तित्व में
था. इसमें दो विचारधाराओं के दल थे. एक दल
ने कबीर भवन के लिए प्रयास प्रारंभ किए. एक ट्रस्ट बनाया. दूसरे दल को इसमें
रिश्तेदारियों का मामला नज़र आय़ा. बातचीत के बाद उसे ब्राडबेस बनाया गया. नए सदस्य
जोड़े गए. संविधान बदला गया. पुनः रजिस्ट्रेशन हुआ. नया प्रबंधन बना. फिर से ज़मीन
के लिए आवेदन किया गया. एक बड़ी रकम जमा की गई. प्राधिकारियों से मिलने वाले
प्रतिनिधि दल में उस समय के अच्छी स्थिति वाले गणमान्य मेघ नौकरशाह थे.
प्राधिकारियों का प्रश्न था कि कबीर मंदिर ही क्यों? उन्हें स्पष्ट किया गया कि यह
मंदिर आम आदमी और श्रमिकों के लिए है जो अन्य धर्मों के सख्त अनुशासन में हमेशा
बँध कर नहीं रह सकते. दूसरे उस क्षेत्र में ऐसी कोई संस्था नहीं थी जहाँ सारे
समुदाय बैठ कर अपने गुरु का जन्मदिन मना सकें. प्राधिकारियों का रवैया सकारात्मक
था. उल्लेखनीय है कि कबीर मंदिर जैसी धर्मार्थ संस्थाओं के लिए ग्रांट (धर्मशाला हेतु) उपलब्ध थी.
इस बीच दूसरे दल ने अलग से प्राधिकारियों से संपर्क
किया. यह दल (इसमें आर्यसमाजी विचारधारा वाले लोग अग्रणी बन कर आए थे) एक भवन बनाने
के पक्ष में था. प्राधिकारियों ने जान लिया कि यह एक ही समुदाय के दो दल हैं. बात
बिगड़ी. समय बीतने लगा. धीरे-धीरे ज़मीन की कीमतें पहुँच से बाहर होने लगीं. पैसा
एकत्रित होता रहा. कीमतें भी बढ़ती रहीं. परिणाम की अभी प्रतीक्षा है.
क्या कबीर मंदिर का विचार बुरा था? क्या उसके
लिए संगठित प्रयास (एकता) करने में बुराई थी?
अन्य शहरों में भी इसी से मिलती-जुलती कहानियाँ कही
जाती हैं. एकता के प्रति आम मेघ आज भी आशावान हैं.