"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


30 September 2013

True Ramayana - सच्ची रामायण

पेरियार

यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के 20-12-1969 के ग़ज़ट के अनुसार जब्त की गई थी. मुकद्दमा हुआ और रिस्पांडेंट श्री ललई सिंह यादव की जीत हुई. इस पुस्तक के लेखक प्रसिद्ध पेरियार ई.वी. रामासामी नायकर हैं. इस सच्ची रामायण को आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं:-
   

22 September 2013

Worship places of Megh Bhagats - मेघ भगतों के पूजा स्थल


देहुरियाँ (डेरे-डेरियों) का इतिहास-
(यह आलेख डॉ. ध्यान सिंह के शोधग्रंथ के एक अंश का संपादित रूप है जिसे उनकी अनुमति से यहाँ प्रकाशित किया गया है)
पंजाब और जम्मू क्षेत्र की मेघ जाति की अधिकतर देहुरियाँ और देहुरे' (देरे-देरियाँ) जम्मू क्षेत्र में बने हैं. पंजाब में भी दो-एक देहुरियाँ हैं जो जम्मू की देहुरियों से कुछ यादगार या प्रतीक के तौर पर कुछ मिट्टी-पत्थर ला कर बनाई गई हैं. ये डेरियाँ मेघों के पूजा स्थल हैं. प्रत्येक गोत्र (खाप) की अलग डेरी है. इन पर वर्ष में दो बार  मेला लगता है जो दशहरा और जून मास में होता है. इसे ‘मेल कहते हैं. प्रत्येक गोत्र के लोग अपनी-अपनी डेरी पर इकट्ठे होते हैं. ये देहुरियाँ जम्मू के आसपास छोटे-छोटे गाँवों में बिखरी हुई हैं. झिड़ी नामक गाँव में देहुरियों की काफी संख्या है.
अधिकतर देहुरियाँ खेतों में बनी हैं. खेतों की मेढ़ पर चल कर इन तक पहुँचना पड़ता है. कुछ देहुरियों का स्थान जंगल-सा दिखाई देता है. वहाँ पेड़ व झाड़ियाँ हैं. इसे बाग़ भी कहते हैं. कुछ स्थानों पर इन बाग़ों को काट कर देहुरियों को अच्छी तरह से बनाया जा रहा है. पहले ये अधिकाँशतः कच्ची मिट्टी की और बहुत छोटी हुआ करती थीं.
ये देहुरियाँ (मौखिक इतिहास के अनुसार) मेघ शहीदों और सतियों के स्मृति स्थल हैं जिन्हें ऊँची जाति वालों ने कत्ल कर दिया था. लोगों ने क़त्ल की जगह पर कुछ पत्थर या पिंडी रूपी पत्थर लगवा दिए और उनकी पूजा करने लगे.
अधिकतर देहुरियाँ इतनी छोटी हैं कि इनके भीतर बैठना, खड़े होना संभव नहीं. देहुरी के भीतर जो पिंडी होती है जिसे 'स्थान' अथवा 'शक्तिपीठ' भी कहते हैं. परंपरागत आस्था के अनुसार उसमें बहुत शक्ति होती है. जब से पंजाब के मेघ, भगत, कबीरपंथी इन देहुरियों पर जाने लगे हैं, इनकी हालत में सुधार आया है. पिछले 20-25 वर्षों में लोगों का इस ओर रुझान हुआ है.
पहले इन देहुरियों पर बकरा हलाल किया जाता था. लेकिन अब यहाँ झटका हो रहा है, क्योंकि पहले वहाँ मुसलमानों का प्रभाव था. वे इन्हें झटका नहीं करने देते थे.
इन देहुरियों पर लोग अपनी मन्नतें माँगने आते हैं. मन्नत पूरी होने पर अहसान के तौर पर बकरे की बलि दी जाती है. मेघ अपने यहाँ पहला पुत्र होने पर बकरा देते हैं. मुंडन पर भी बकरा देते हैं. शादी होने पर भी कुछ देहुरियों पर बकरा लगता है, जिसे अपनी जाति की देहुरी पर लेकर जाते हैं. 
देहुरी के पुजारी को पात्र कहा जाता है. पुजारी का एक चेला भी होता है.पात्र या चेला मेले के दिन देहुरी पर बैठते हैं. जो मेघ बकरे को बलि के लिए लेकर आते हैं वे परिवार सहित देहुरी के भीतर या बाहर बैठते हैं और कहते हैं कि बाबा जी दर्शन दो, बकरा परवान करो, मेहर करो.
बकरे के सामने धूप जलाया जाता है, उसका सिर व पाँव पानी से साफ़ करते हैं. वह शरीर झटकता है. यदि वह शरीर न झटके तो उसके ऊपर पानी के छींटे लगाए जाते हैं. वह फिर अपना शरीर झटकता है तो लोग कहते हैं कि बिजी गया और फिर उसको काट देते हैं. उसके रक्त से सभी को टीका लगाया जाता है. उसकी कलेजी पोट पहले बनाकर खाई जाती है जो प्रसाद की तरह लिया जाता है. से 'मंडला' भी कहा जाता है.
यदि किसी कारण बकरा अपना शरीर नहीं झटकता तो बकरा चढ़ाने वाले परिवार के बड़े बूढ़े कान पकड़ते हैं, नाक रगड़ते हैं और कहते हैं कि हमें कुछ पता नहीं था. हमारी भूल क्षमा करो. सिर झुकाते हैं. यह तब तक दुहराया जाता है जब तक बकरा बिज नहीं जाता. यहाँ आने वाले मेघों को जाति निर्धारित नियमों का उपदेश दिया जाता है. फिर सभी बकरा खा लेते हैं. अब राजपूत व मुसलमान भी इसमें शरीक होते हैं.
मेले के अवसर पर बकरा अर्पित करते हुए लोग शराब पीते हैं, बकरा भी खाते हैं. इससे कई बार विवाद हो जाता है. इसी लिए कुछ देहुरियों पर बकरा काट कर रांधने की मनाही है. इन देहुरियों पर लाल रंग का झंडा होता है. वहाँ कुछ चूहों ने मिट्टी निकाल कर ढेर लगा रखा होता है. कहा जाता है कि ऐसे स्थान पर सांप देवता निवास करते हैं. उस मिट्टी को लोग वरमी कहते हैं. उसकी भी कुछ लोग पूजा करते हैं. एक देहुरी पर एक ही दिन में 10 बकरों की बलि भी होती है. शाकाहारी मेघ भी यहाँ आ कर रीति को निभाने के लिए बकरा चख लेते हैं. ऐसे मौकों पर देहुरी का पात्र मेल के अवसर पर चौंकी (ज़ोर से सिर हिलाना) करता है तथा आए हुए लोगों की पुच्छों (प्रश्नों) के उत्तर देता है.
कभी इन देहुरियों पर पीने का पानी नहीं होता नहीं होता था लेकिन अब वहाँ नल लगा लिए गए हैं. कुछ देहुरियों पर छाया के लिए शैड बन गए हैं. कुछ ने आने-जाने वालों के लिए बर्तन भी रख लिए हैं. बकरा बनाने के लिए ईंधन इकट्ठा कर लिया जाता है.
कुछ देहुरियों पर अन्य चित्रों के साथ कुत्ते की भी पूजा होती है क्योंकि वह किसी की शहादत या सती होने के समय वहाँ रहा था. कुछ राजपूत यज्ञ आदि करते हैं तो वह एक मेघ और कुत्ते को रोटी खिलाते हैं. इसी से वह यज्ञ संपूर्ण हो पाता है. कहा जाता है कि राजपूतों की एक जाति को हत्या लगी हुई है. इसलिए ये यज्ञ के दिन मेघ की पूजा करते हैं.


साकोलियों की डेरी, बडियाल ब्राह्मणा, आर.एस. पुरा, जम्मू.




















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14 September 2013

Religious and Caste Riots - धार्मिक और जातीय दंगे

मुलायम सिंह ने कहा कि मुज़फ़्फ़रपुर में हुए दंगे धार्मिक नहीं जातीय थे. कुछ सवाल मन में उठे हैं :-

1.
क्या जातीय दंगे कहने से उनकी गंभीरता कम हो जाती है?
2. 90
प्रतिशत मुसलमान जातिवाद से तंग आकर धर्मांतरण करके मुसलमान बने हैं. उनके विरुद्ध दंगे क्या केवल धार्मिक दंगे हैं?
3.
यदि मुसलमान और दलित अपना एक वोट बैंक मज़बूत करके कांग्रेस, बीजेपी और एसपी के खिलाफ वोट डालें तो क्या यह बेहतर नहीं होगा?
अब तक 47 लोग काट डाले गए हैं. वैसे यह प्रश्न भी पीछा नहीं छोड़ता कि अचानक गली-कूचों में इतने हथियार कहाँ से निकल आते हैं! सरकार जी, आपने हथियार जब्त करने का कानून बनाया हुआ है न? बना के कहाँ रख दिया हुजूर? Civil War कराने का इरादा है क्या?
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