राजनीति
को लेकर सभी समुदायों में
झिकझिक होती है.
मेरे
मेघ भगत समुदाय में भी होती
है.
पिछले
दिनों एक सज्जन ने सोशल मीडिया पर मेघ समुदाय को किसी पार्टी का टिकट न मिलने की वजह
डॉ.
ध्यान
सिंह के शोधग्रंथ को बताया. हँसी भी आई और हैरानगी भी हुई. बस एक विवाद पैदा किया जा रहा था.
असल में उक्त शोधग्रंथ (थीसिस) मेघ भगत समुदाय के पिछले 200 वर्ष के इतिहास और मेघ जाति (जो कबीरपंथी के नाम से भी जानी जाती है) के उद्भव (मूल) की खोजबीन करता है.
असल में उक्त शोधग्रंथ (थीसिस) मेघ भगत समुदाय के पिछले 200 वर्ष के इतिहास और मेघ जाति (जो कबीरपंथी के नाम से भी जानी जाती है) के उद्भव (मूल) की खोजबीन करता है.
राजनीतिक दलों की नीति है कि वे
टिकटों का आबंटन जाति के आधार
पर करते हैं. उसकी वजह से किसी जाति या समुदाय को टिकट नहीं मिलता है तो उसका समाधान राजनीतिक स्तर पर
होना चाहिए. यदि किसी राज्य में मेघवंश से
निकली कई
जातियाँ बसी हैं और राजनीतिक
पार्टी सभी को एक ही जाति
मान कर एक ही टिकट देती है तो
दोष उसका दोष किसी शोधग्रंथ को कैसे कैसे दिया जा सकता है, ख़ास कर तब जब उस शोधग्रंथ में उन अलग-अलग
जातियों को कहीं भी 'एक जाति' न
बताया गया हो.
इस सच्चाई को खास तौर पर देखना ज़रूरी है कि उक्त शोधग्रंथ पर डॉक्टरेट
की डिग्री सन् 2008 में
दी
गई थी.
अब देखना
यह चाहिए कि 2008
से
पहले जालंधर के आसपास बसी मेघ भगत
जाति के प्रति राजनीतिक दलों
का रवैया क्या था?
देखना
यह भी चाहिए कि मेघ भगत जाति का क्या अपना कोई कद्दावर नेता
है जो समुदाय की
जातिगत स्थिति और उनकी विभिन्न लोकल समस्याओं को असरदार तरीके से ऊपर तक पहुँचा सके,
समुदाय
की राजनीतिक और सामाजिक लड़ाई लड़ सके?
यदि
पूरा समुदाय एक मज़बूत राजनीतिक
वोट बैंक है तो कमज़ोरी
कहाँ है? मेघ भगत समुदाय की असल समस्या है कि उसके पास बढ़िया क्वालिटी के सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं की कमी है. आज के समय में यह कमी मामूली नहीं है.