यह 'मेघ-माला' (Meghmala) पुस्तक का सार है. पूरी पुस्तक आप इस लिंक पर देख सकते हैं मेघमाला Meghmala. भगत मुंशीराम जी का सारा साहित्य इस लिंक पर उपलब्ध है -> भगत मुंशीराम
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मनुष्य इस संसार में आता है, उसके अन्दर स्वाभाविक ही यह जानने की इच्छा पैदा होती है कि वो क्या है, कहाँ से आया है, कहाँ जाएगा? इसी तरह हर व्यक्ति जो किसी भी जाति, धर्म, समाज, सम्प्रदाय, देश का हो, वो भी यह जानने के लिए विवश है कि मेरी जाति, धर्म, सम्प्रदाय क्या है, कैसे बनी? अपने आप को जानने से पहले इन बातों का ज्ञान आवश्यक है. इन बातों के ज्ञान के लिए प्रकट रूप में पता लगता है कि मुझे माता-पिता ने उत्पन्न किया और मेरा यह नाम है, यह जाति है, यह धर्म है. तो यह माता पिता बताते हैं, तेरा क्या नाम है, तू हमारा लड़का-लड़की है, किस जाति का है.। इसी क्रम में मुझे भी जीवन के प्रारम्भिक समय में ये ख्यालात आते थे कि मैं कौन हूँ? माता-पिता ने जितना हो सका बता दिया. मेरा नाम रखा. अब जो भी इस नाम से मुझे पुकारता है, मुझे यकीन हो गया है कि मैं मुन्शीराम हूँ. जाति का अपने माता-पिता से, समाज के लागों से यकीन हो गया कि मैं मेघ जाति का हूँ. इसके बाद वास्तव में मनुष्य क्या है, यह गुरु बताता है. गुरु की दया से यह पता चला जाता है कि इन्सान शरीर है या मन है या आत्मा है या इससे परे भी कोई हमारा अपना आप है. उसको जान लेने के बाद अपने आप का पूरा विश्वास हो जाता है. इस विश्वास के हो जाने के बाद गुरु की दया, माता-पिता की दया शेष रह जाती है या इनके ऋण सिर पर रहते हैं. उसे चुकाना बहुत ज़रूरी समझा जाता है. माता-पिता ने तो यह संसार दिखाया, इस शरीर में उत्पन्न किया. अपने असली रूप को जानने के लिए शरीर में आना ज़रूरी है. अपने आप का पूर्ण ज्ञान तभी हो सकता है, जब इन्सानी चोला मिलता है जिसमें अपने आप को जानने की यह सारी व्यवस्था होती है.
मेघ जाति में जन्म लेने के कारण इस जाति के लोगों को यह बता देना कि तुम कौन हो, मातृ और पितृ ऋण चुकाना है क्योंकि मेघ जाति के अन्दर पता नहीं कब से यह प्रश्न चल रहा है कि मेघ जाति क्या है. इसको बताने के लिए जो समझ में आया, मैंने अपने माता-पिता या गुरु से ग्रहण किया, उसके मुताबिक यह मेघ माला नाम की पुस्तक लिखी गई. इसको जो भी ध्यान से पढ़ेगा, अपने शारीरिक मानसिक, आत्मिक और इससे भी आगे का पता लगेगा और अपने कर्मों और मालिक की दया से शांति हासिल करेगा.
मेघ जाति में जन्म लेने के कारण इस जाति के लोगों को यह बता देना कि तुम कौन हो, मातृ और पितृ ऋण चुकाना है क्योंकि मेघ जाति के अन्दर पता नहीं कब से यह प्रश्न चल रहा है कि मेघ जाति क्या है. इसको बताने के लिए जो समझ में आया, मैंने अपने माता-पिता या गुरु से ग्रहण किया, उसके मुताबिक यह मेघ माला नाम की पुस्तक लिखी गई. इसको जो भी ध्यान से पढ़ेगा, अपने शारीरिक मानसिक, आत्मिक और इससे भी आगे का पता लगेगा और अपने कर्मों और मालिक की दया से शांति हासिल करेगा.
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घर से बहुत दूर रहा. अपने भाइयों और जाति वालों से मिलने का उतना समय नहीं मिला. थोड़े आदमियों की सेवा ज़रूर की. उनको काम दिलाया. मगर ऐसा काम करने का अवसर नहीं मिला जिससे सारी जाति बल्कि सारी मानव जाति की सेवा कर सकूँ. इसलिए इस पुस्तक के लिखने की आवश्यकता मस्तिष्क में आई. क्योंकि गुरु ऋण, मातृ और पितृ ऋण सिर पर है, इसलिए यह पुस्तक उन्हीं के चरणों में भेंट करता हूँ. उनसे जो ज्ञान प्राप्त हुआ, वही इसमें लिखा है. गुरु महाराज या माता-पिता तो इस समय हैं नहीं, इसलिए संसार के समझदार लोगों और अपनी जाति को यह पुस्तक भेंट करता हूँ.
किसी बात को सिद्ध करने के लिए यह वस्तु क्या है, किसी न किसी प्रमाण की आवश्यकता होती है. प्रमाण से यह सिद्ध हो जाता है कि जैसे और चीज़ बनी, मिसाल दी जाती है कि जिस तरह की वो वस्तु है यह भी उसी तरह है. प्रमाण के तीन भाग है. एक अनुमान, दूसरे प्रत्यक्ष, तीसरे पुस्तकीय या लिखित रूप में किसी चीज़ का नाम-रूप बताना कि यह फ़लाँ पुस्तक में लिखी हुई है. इस ‘मेघ-माला’ पुस्तक में अनुमान और किताबों के हवाले का प्रयोग नहीं किया गया है. इसमें सिद्ध किया गया है कि किताबें लिखने वालों ने अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को नीचा, अयोग्य बनाया और अपने को ऊँचे और योग्य बनाया और अपने बल से झूठी कहानियाँ बनाकर किसी देश, प्रांत या गाँव को अपना बना लिया या और छोटी-छोटी चीजों के स्वामी बन गए. इस पुस्तक में एक कुल्लुवाल गाँव की सच्ची कहानी लिखी गई है. इसे पढ़ें. इसी तरह जम्मू-कश्मीर या और प्रान्तों में भी सत्ता हथियाने के लिए महकमा माल के काग़ज़ों में भी वही बातें लिखाईं जिससे उनका स्वार्थ सिद्ध होता था. बड़े-बड़े सन्तों ने किताबों में लिखी बातों को प्रमाणित नहीं माना. इसलिए इस किताब में न अनुमान और न पुस्तकों का प्रमाण देकर यह सिद्ध किया गया है कि मेघ जाति कहाँ से बनी. मेघ जाति क्या है? प्रकृति के योग से, नाना प्रकार के तत्त्वों के मेल से जो कैमीकल एक्शन होता है, उसके लिहाज़ से यह बताया गया है कि मेघ जाति कैसे बनी. प्रकृति द्वारा देश काल और वस्तु में परिवर्तन आता रहता है और उन्हीं संस्कारों के अनुसार देश, प्रान्त जातियाँ, वृत्तियाँ बनते रहते हैं. ये वृत्तियाँ ही हैं, प्रकृति जिन्हें रूप देती है और वे वृत्तियाँ तरह-तरह के काम करती हैं. इनके भी पाँच कार्य हैं (1) प्रमाण (2) विपर्य्य (मिथ्या ज्ञान) (3) विकल्प (जिसमें ज्ञेय वस्तु कुछ न हो, केवल शब्दों के उच्चारण से व्यवहार होता है) (4) निद्रा (5) स्मृति. ये पाँचों वृत्तियों के ही रूप होते हैं. वृत्तियाँ उठती रहती हैं और ख़त्म होती रहती हैं. पीछे उनकी स्मृतियाँ (याद) रह जाती है और लेनदेन का सिलसिला शुरु हो जाता है इन्सान के अन्दर ऐसी शक्तियाँ हैं जो ले सकती हैं और बाहर में प्रकृति के अन्दर वो शक्तियाँ हैं जो ली जा सकती हैं. इस तरह लेने-देने के सिलसिले में प्रकृति इन्सान को अलग-अलग प्रभाव में बाँट देती हैं. देश और जातियाँ बन जाती हैं. इस पुस्तक में इसीलिए प्राकृतिक सत्ता और उसके कार्य के मुताबिक मेघ जाति जो ब्रह्म रूप थी, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्त्वों से मेघ का रूप धारण किया और आख़िर में सब तत्त्वों को छोड़ कर फिर मेघ के मेघ अर्थात ईश्वर और ब्रह्म बन गया. इसमें साबित किया गया है कि क्या राम या कृष्ण, क्या देवी-देवता, ईश्वर और ब्रह्म से ही प्राकृतिक रूप में आते हैं. मेघ जाति में इनका संस्कार है. जैसे जिस प्रान्त में मेघ ज़्यादा बरसते हों, वहाँ के रहने वाले मेघों के संस्कार से किसी भी रूप में नहीं बच सकते. मेघ जाति के पूर्वज जम्मू प्रान्त के ऊँचे पहाड़ों में रहे और वहाँ से मेघों का संस्कार लिया. प्राकृतिक संस्कारों से ही देश, प्रान्त और जातियों के नाम रखे गए जैसे आर्यवर्त्त, मेघालय, पंजाब (पाँच) नदियों की भूमि इसी तरह उन ऋषियों, सच्चे ब्राह्मणों और उस जगह की जलवायु के अनुसार जाति का नाम पड़ गया. जो इन्सान पहले वहाँ रहे वे अपने वास्तविक रूप को, वास्तव में जो इन्सान है, उसे जानने के लिए वहाँ तप किया करते थे. क्योंकि उन महापुरुषों के आश्रम समाधियाँ और स्मृतियाँ पहाड़ों में मौजूद हैं इसलिए शारीरिक रूप में हम उन्हीं की सन्तान हैं. यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि जाति तब तक रहती है, जब तक शरीर है. शरीर समाप्त होने पर इसको जला दिया जाता है. उसके साथ ही शरीर से संबंधित देश जाति, प्रान्त या और शरीरिक संबंध खत्म हो जाता है. मगर प्रत्यक्ष प्रमाणित संस्कार साथ जाते हैं और हमारा भावी जन्म होता है. भावी जन्म की जाति तब बनेगी जब प्राकृतिक संस्कार फिर नाम-रूप धारण करेगा. वो लोग तप करके अपने असली रूप को जानकर ब्रह्म और परब्रह्म में रमण करते थे. शरीर मन, आत्मा को छोड़ कर निर्वाण अवस्था में जाना, प्रकाश और शब्द में रहना ही ब्रह्म में रमण करना है. उन सच्चे ब्राह्मणों की सन्तान बाद में मेघ जाति के नाम से जाति के रूप में परिणत हो गई. इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध हो गया कि मेघ जाति सच्चे ब्राह्मणों की सन्तान है. सच्चे ब्राह्मण ही आदि मेघ थे. इन सब बातों को प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुसार सिद्ध किया गया. अनुमान और किताबी ज्ञान का सहारा नहीं लिया गया. इससे किसी को इन्कार नहीं हो सकता.
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इसके बाद कई और तब्दीलियाँ इस जाति में आईं. मेघ बने. मेघ शब्द से हम यह संस्कार ग्रहण करके इस संसार में जीवन गुजारने का सबसे अच्छा ढंग अपना सकते हैं. मेघ दूसरों की सेवा के लिए तप करते हैं, जिस तरह यह बाहर का मेघ समुद्र से खारा पानी लेकर बनता है और अपनी संगत से प्राकृतिक तत्त्वों द्वारा उसका खारापन दूर करके पृथ्वी पर मीठा जल बरसाता है. मेघ जाति के लोगों को प्राणी मात्र की इसी प्रकार सेवा करनी चाहिए ताकि यह नाम जब भी किसी को याद आए, सुने या पढ़े तो इसकी सभ्यता द्वारा वो सुसंस्कृत हो जाए और यह नाम सुनते ही प्रेमभाव शरीर मन और आत्मा में समा जाए. केवल मेघ नहीं बनना बल्कि मेघ का काम भी करना है.
भगत बनें
भगत बनना क्या है? सबसे प्रेम रखने वाला ही भगत कहलाता है.
इस पुस्तक में यह भी सिद्ध किया गया है कि कोई जाति या समाज या व्यक्तित जन्म से नीच या अछूत नहीं होता. विचारों से कर्म बनते हैं. जिसके विचार गन्दे हैं वही कर्म का गन्दा होता है. सफाई या चमड़े के काम से कोई अछूत नहीं हो जाता. ये कर्म सेवा में आते है. आर्य समाज या वैदिक धर्म ने भी यही प्रचार किया था कि जन्म से कोई अछूत नहीं होता, बल्कि बुरे कर्म या बुरे विचार से होता है.
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पाकिस्तान में हमारे गाँव के पास एक ढल्लेवाली गाँव था. वहाँ के ब्राह्मणों, हिन्दू जाटों और महाजनों ने चमारों और हरिजनों या सफाई करने वालों को तंग किया, और गाँव से निकल जाने के लिए कहा. उन्होंने स्यालकोट शहर में जाकर जिला के डिप्टी कमिश्नर को निवेदन किया. उसने अंग्रेज़ एस. पी. और पुलिस भेजी. वे गाँव से न निकले मगर अपना काम बन्द कर दिया. विवश होकर उन बड़ी जाति वालों को अपने मरे हुए पशु स्वयं उठाने पड़े और अपने घरों की सफाई आप ही करनी पड़ीं. यह काम करने पर भी वे बड़ी जातियों के बने रहे. कोई नीच या अछूत नहीं बन गए. ये सब स्वार्थ के झगड़े हैं. दूसरों को, दूसरी जातियों को आर्थिक या सामाजिक दशा का संस्कार दे देना और उनको दबाए रखना, अपने काम निकालना यह समय के मुताबिक रीति-रिवाज़ बना रहा. अब अपना राज्य है, प्रजातन्त्र है. हर एक व्यक्ति जाति, समाज या देशवासी को यथासम्भव उन्नति करने का अधिकार है. रहने का अच्छा स्तर, रोटी, कपड़ा और मकान प्राप्त करना सब के लिए ज़रूरी है. अभिप्राय यह है कि अपना जीवन अच्छा बनाने के लिए रोटी, कपड़े और मकान के लिए, आर्थिक दशा सुधारने के लिए, अनुसूचित जाति में आने के लिए कई जातियाँ मजबूर थीं. जो लोग उनको नीच या अछूत कहते हैं यह उनकी अज्ञानता है. सबको प्रेमभाव से रहना चाहिए.
इसी भाव को लेकर, इस पुस्तक के अन्त में लिखा है कि जो भी आप चाहे बनें, किसी भी देश के हों, सम्प्रदाय और धर्म के हों, किसी भी जाति के हों, सबको मनुष्य बन कर रहना चाहिए. संसार में हर देश से साम्प्रदायिक झगड़े, देशों और सूबों के झगड़े तभी खत्म होंगे जब मानव जाति के सभी व्यक्ति मानवता के मार्ग पर चलें, मनुष्य बनो की शिक्षा के मुताबिक चलते हुए, जिसे थोड़े शब्दों में इस मेघमाला पुस्तक में लिखा है, उसको समझ कर वे मानवता को एक प्लेटफार्म पर लाएँ. इस संसार में आज केवल एक ही शांति का मार्ग है और वो है इन्सानियत. जब तक इस पर नहीं चला जाएगा, शांति कठिन है. यह इस युग के लिए जरूरी शिक्षा है. मेरे सत्गुरु हुजूर परमदयाल फकीचन्द जी महाराज ने अपने जीवन के अनुभव के पश्चात सांसारिक, आध्यात्मिक और अन्त में उस अवस्था का अनुभव करके जहाँ से हम सब आते हैं, यहाँ आकर भिन्न-भिन्न नाम रूप रख लेते हैं, झगड़े करते हैं, आप भी अशान्त और दूसरों को भी अशान्त करते हैं उसे समझते हुए 'मनुष्य बनो' की आवाज उठाई. वो तो यहाँ तक भी फरमा गए कि अगर मानव जाति मनुष्य बनो के मार्ग पर न चली, तो कर्म के नियम के मुताबिक संसार के लोगों पर कष्ट, आपदाएँ आएँगी, फिर लोग इन्सान बनो के मार्ग पर चलने के लिए विवश होंगे. इसलिए सबके हित में है कि अभी से इस शिक्षा को समझा जाए और मानवता के भले के लिए काम किया जाए और अपना जीवन खुशी से गुजार दें.
मेघ जाति के लोग भी वास्तव में ‘इन्सान’ हैं. मेघ शब्द का वास्तविक अर्थ इन्सान ही है. दूसरी जातियों के लोग भी इस पुस्तक को पढ़ कर मेघमाला का अध्ययन करें और अपने आपको मेघ के रंग में रंग सकते हैं अर्थात ‘इन्सान’ बन सकते हैं यह मेघ माला का जपना है.
मालिक सब को शान्ति दे.
पहला प्रकरण
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प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर यह स्वाभाविक गुण है कि वो यह जानना चाहता है कि मैं कौन हूँ. कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके अन्दर सूझबूझ की शक्ति नहीं होती अर्थात् मूढ़मति होते हैं. वो जिस हालत में होते हैं या दूसरे लोग उसे जो कुछ भी समझते हैं वो उसी हालत में अज्ञानवश खुश रहते हैं. ऐसे लोगों को संसार की घटनाएँ प्रभावित नहीं करतीं. मगर समय के हेरफेर के अनुसार जब उनकी बुद्धि भी विकसित हो जाती है, दूसरों को देख कर उनके रहन-सहन को अपने रहन-सहन से मिलाते हैं, तो उसमें भी तब्दीली आ जाती है.
हर एक व्यक्ति जो शरीर रखता है वह अपने शारीरिक रूप को देखता है और जानना चाहता है कि मैं कौन हूँ. यह शरीर किसी घर, गाँव, तहसील, जिला, प्रान्त और देश में पैदा हुआ. वो इस दृष्टि से समझता है कि मैं अमुक गाँव, तहसील, जिला, प्रान्त और देश का रहने वाला हूँ. जब कोई व्यक्ति दूसरे गांव में जाता है तो उसे लोग कहते हैं कि यह फलाँ गाँव का है. इसी तरह तहसील, जिला, प्रान्त, देश से बाहर जब जाते हैं, वहाँ के लोग उसे वहीं का रहने वाला कहते हैं. मेरा अपना तजुर्बा है जब मैं 1958 में भारत-पाकिस्तान की सरहद की निशानदेही करता था तो पाकिस्तान के लोग मुझे हिन्दुस्तानी कहा करते थे. वे मुझे मेरे प्रान्त या गाँव के नाम से नहीं जानते थे.
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इस शरीर का संबंध जाति, धर्म, पंथ और समुदाय से भी है. जब कोई दो या अधिक जातियों, धर्म, पंथ और सम्प्रदाय वालों से मिलता है, तो वो एक-दूसरे को किसी जाति, धर्म, पंथ और समुदाय के नाम से पुकारते हैं. हमारे भारत देश में अनेक जातियाँ, धर्म-सम्प्रदाय हैं. कभी समय था कि सब अपनी जाति और अपने धर्म-सम्प्रदाय में रहते थे. एक-दूसरे को बुरा भला नहीं कहते थे.
प्रत्येक जाति के साथ उसके कर्म का भी संबंध है. जिस प्रकार के किसी खास जाति के लोग कर्म करते हैं उसके प्रभाव से उस जाति का नाम रख दिया जाता था. जैसा कोई काम करता है वैसी ही उस पर रंगत चढ़ जाती है और आगे उस जाति के लोग चाहे पिछले कर्मों को छोड़ दें, मगर वो नाम रखा हुआ नहीं छोड़ा जा सकता. कर्म वास्तव में कोई भी हो समय के मुताबिक बदलते रहते हैं. जिस तरह चमार जाति के लोग चमड़े का काम करते हैं वो चमार के नाम से मशहूर हो गये. मगर ज्यों-ज्यों इस काम ने उन्नति की, अधिक लाभ होने लगा तो दूसरी जाति के लोगों ने भी चमड़े का काम शुरू कर दिया. हमारे पंजाब में लाहौर में सबसे पहले भल्ला साहिब जोकि खत्री जाति के थे, जो वर्णाश्रम के मुताबिक वैश्य गिने जाते थे, उन्होंने अनारकली में बूटों की दुकान खोली. अपनी और दूसरी बड़ी-बड़ी जाति वालों ने उनका विरोध किया कि आपने नीच काम करना शुरू कर दिया है. मगर इस काम से उन्होंने बहुत पैसा कमाया. भल्ले की हट्टी मशहूर थी. उसके बरखिलाफ़ किस्से भी छपे, मगर आर्थिक लाभ या पेट के लालच की खातिर उन्होंने चमड़े के बूटों का काम न छोड़ा. और अब आप देख सकते हैं बड़ी-बड़ी ऊँची जाति के कहे जाने वाले सज्जन इस काम को अपना व्यवसाय बनाए हुए हैं. जो काम उच्च जाति वाले निकृष्ट समझते थे वो अब अच्छा काम समझा जाता है. बड़े-बड़े कारखाने लग गए. चमड़े की कई चीजें बनती हैं, मगर इस काम का प्रभाव उनकी जाति पर नहीं पड़ा. अब तो सभी जातियाँ चमड़े का काम करती हैं. इसी तरह लकड़ी का, लोहे का काम या और काम जो तरखान करते थे, अब बड़ी जाति वाले करने लग गए. कारखाने खुल गए.
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पहले कपड़े के बुनकर जुलाहा जाति के कहलाते थे. हाथ से खडि्डयों-करघों पर कपड़ा बुना जाता था. अब मशीन का युग शुरू हो गया. कपड़े के बड़े-बड़े कारखाने खुल गए. अब इस काम को बड़ी-बड़ी जाति वाले और हर धर्म, पंथ वाले करते हैं. वो अपनी जाति का नाम तब्दील नहीं करते. अपने आपको जुलाहे नहीं कहते, मगर जुलाहों का काम करते हैं. मगर पुराने ज़माने से जुलाहा जाति के लोग जो कपड़े बुनने की सेवा का काम करते थे उनको अब भी जुलाहा कहा जाता है. इससे सिद्ध हो गया कि कोई भी काम तिरस्कार योग्य नहीं है. अपना लालच, धन की इच्छा, मान और इज्जत, बड़प्पन की खातिर काम तो बदल लिया, उससे लाभ उठा लिया, मगर वो जाति जिन्होंने पहले यह काम शुरू किया उनको अब भी पतित, दलित या पिछड़े वर्ग के लोग कहा जाता है. वो अगर कोई दूसरा व्यवसाय करना चाहें तो उनके पास न तो इतना धन है और न ही कोई और ज़रिया है. सन् 1929 की बात है, महात्मा गाँधी लाहौर में आए. उस समय अभी छोटी जातियों की लिस्टें नहीं बनी थीं, मगर जो लोग गरीब थे, कोई सफाई का, कोई चमड़े का, कोई धोबी का, कोई नाई का, कोई कपड़े का काम करते थे, पेट पालते थे, वे महात्मा जी से मिले. मुझे भी उनके दर्शन करने का अवसर मिला. उन्होंने उस वक़्त गरीब जाति वालों को सहानुभूति से विश्वास दिया कि देश की आज़ादी मिल जाने के बाद आप लोगों को आर्थिक और सामाजिक उन्नति का अवसर मिलेगा और सब कष्ट निवारण किए जाएँगे. महात्मा जी के इस आश्वासन से वे सन्तुष्ट और खुश हो गए कि आजादी मिलने पर हमें रोटी, कपड़ा और मकान की सुविधा मिल जाएगी. मगर इस जातिभेद से जो कष्ट दलित जाति वालों को होता है वह उस समय महात्मा जी के ध्यान में नहीं था और न ही नेतागण उसके निवारण का यत्न करते हैं. अब आज़ादी आ जाने के बाद इन लोगों के लिए कुछ काम किया गया है विशेषकर गवर्नमेंट की नौकरियाँ आरक्षित रखी हैं.
अब वो ज़मीन भी खरीद सकते हैं. कोई व्यवसाय करने के लिए कर्ज़ा भी सरकार दे देती है. इन सब सुविधाओं के लिए इन जाति के लोगों को भारत सरकार का धन्यवाद करना चाहिए. मगर वो जो गहरी तह में, गहराई में जाति की हीनता का संस्कार है, वह अब भी बना हुआ है. नौकरी के लिए या कर्ज़े के लिए अपने आपको शिडयूल्ड कास्ट और जनजाति, पतित वर्ग या पिछड़े वर्ग का लिखाना पड़ता है, जिसके कारण अगर कोई धन-धान्य के रूप में कितना भी बड़ा हो जाए, उन्नति कर ले मगर उनका जाति की हीनता का ख्याल जो अब भी चल रहा है, छुड़ाया नहीं जा सकता. अब जो इन जातियों के लोग अनुभव करते हैं कि भाई, हम इस हीन भावना से कैसे बचें. हमें यह न लिखना पड़े कि हम पतित हैं, दीन-हीन हैं, यह ख्याल अब स्वाभाविक काम कर रहा है और कई लोग अपनी जातियों के नाम बदल रहे हैं. कुछ अपने पुराने धर्म, पंथ छोड़ कर दूसरे धर्म-पंथों में जा रहे हैं, मगर फिर भी जान नहीं छूटती. अगर कोई सफाई का काम करने वाला हिंदू है तो भंगी या वाल्मीकी कहलाता है वो मुसलमान हो जाए तो मुसल्ली कहलाता है, अगर सिख हो जाए तो मज़हबी नाम रख दिया जाता है, जाति फिर भी अलग रह गई. इस आरक्षण सिस्टम ने नाना जातियों में मतभेद पैदा कर दिया है और लोगों के दिलों में वो एकता या प्रेम का भाव समाप्त होता जा रहा है. अगर यही हाल रहा, जातियों के आधार पर मानव जाति और बँट जाएगी. यह समाज का कर्तव्य है कि इस समस्या का कोई न कोई समाधान निकालें.
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रीति-रिवाज़
सांसारिक दृष्टि से यदि इन जातियों की आर्थिक अवस्था सुधर भी जाए तो पुराने जमाने के जो रीति-रिवाज़ हैं उनको छोड़ना आवश्यक है. प्राचीन काल से इन तथाकथित, पतित या दलित जाति वालों की अलग बस्तियाँ चली आ रही हैं. हर शहर में, कस्बे और गाँव में इनकी बस्तियाँ अलग हैं. दूसरी जाति के लोग इन बस्तियों में जाना भी पसन्द नहीं करते थे. इनके साथ खाना-पीना भी नहीं था. अछूत समझे जाते थे. धार्मिक स्थानों में दाखिल नहीं हो सकते थे. ऐसे और भी कई प्रकार की कुरीतियाँ प्रचलित हैं. इनका समाधान बहुत आवश्यक है. अलग बस्तियाँ समाप्त करनी होंगी. इकट्ठे रहना होगा. वेशभूषा और भाषा में भी कोई अन्तर नहीं होना चाहिए. ये सब रीति-रिवाज जब तक न बदले जाएँगे जाति-पाति की समस्या समाप्त नहीं होगी.
संस्कार का प्रभाव
तमाम जातियों के लोगों का सामाजिक जीवन स्तर एक जैसा होना चाहिए ताकि जन्म से ही अच्छे संस्कार मिलें और कोई भी अपने को दीन-हीन न समझे. संस्कार देने वाले अपने-अपने धर्मों के कार्यकर्ता और शिक्षक होने चाहिए. शिक्षा पद्धति ऐसी हो जिससे बचपन से ही एकता और राष्ट्रीयता के संस्कार मिलें. सबमें मानवता का भाव उत्पन्न हो जाए और सभी लोग प्रेमपूर्वक अपना जीवन गुजार सकें. शेष रह गया विवाह शादियों का. जब से सृष्टि बनी है तब से विवाह शादियों के तरीके बदलते आए हैं. पहले स्वयंवर रचाए जाते थे. लड़कियाँ स्वयं देखकर अपनी खुशी से वर चुन लेती थीं. उसके बाद एक समय आया जब लड़कियों को बलपूर्वक उठा कर ले जाते थे, जिस तरह अर्जुन और सुभद्रा का विवाह हुआ. उसके बाद शादियों का काम पुरोहितों के हाथ आ गया. फिर समय बदला. मातापिता अपने बच्चों की शादियाँ करते थे. पहले छोटी उम्र में शादी हो जाती थी, अब लड़की की शादी 18 वर्ष और लड़के की शादी 21 वर्ष से पहले नहीं की जा सकती. अब समय आ रहा है लड़कियाँ-लड़के आपस में प्यार मोहब्बत कर लेते हैं और शादियाँ हो जाती हैं. इसी तरह ऊपर लिखी कुरीतियों को भी छोड़ना चाहिए. समय के मुताबिक अपने आपको बदलना चाहिए.
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वर्णाश्रम धर्म
यह वर्णाश्रम धर्म पहले नहीं था. जब आबादी थोड़ी थी, तो अपने गुण, कर्म, स्वभाव के मुताबिक लोग काम करते थे और तब अपने आपको आदि मनु, जो इन्सान सबसे पहले पैदा हुआ था उसकी सन्तान मानते थे. ज्यों-ज्यों जनसंख्या बढ़ती गई देश में एकता और प्रेम की व्यवस्था रखने के लिए अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार काम बाँट दिए गए और यह वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था जारी हो गई. जिन्होंने इसे बनाया वो उच्च कोटि के महापुरुष थे. इस व्यवस्था में बड़ी गहरी फिलॉसफी है. उन्होंने चार वर्ण मानव शरीर की बनावट और उसके अंगों और प्रत्यंगों के स्वाभाविक काम को देखते हुए चार वर्ण बनाए. हमारे शरीर के चार भाग हैं सिर, बाजू, धड़, टाँगे और पैर. इन्हीं के काम का नाम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र रखा गया. सिर का काम जिसमें मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार और इसके आगे ज्ञान अथवा तत्त्व विचार आता है, जो कर सकते थे, इसके गुणों का ज्ञान रखते थे, जिनके गुण, कर्म, स्वभाव इस प्रकार के थे कि वो सूक्ष्म और कारण या मन और आत्मा का ज्ञान रखते थे, उनको ब्राह्मण का काम दिया. इसी तरह जिनमें बाहुबल अधिक होता था और राजा थे, भूमि के मालिक होते थे, उनको रक्षा का काम दिया गया और क्षत्रिय नाम दिया गया. जो लोग उद्योग करके अपना और दूसरों का पेट पालते थे, खाने-पीने का प्रबंध करते थे, उनको वैश्य कहा था. जिनके गुण, कर्म, स्वभाव में सेवा करना था उन्होंने खेती या कपड़े, सोने, लोहे, लकड़ी, सफाई का काम लिया उनको शूद्र कहा गया है. उस समय वो लोग जिनके गुण, कर्म, स्वभाव में सेवा करना था, सबसे महान थे और सच्चे सन्त थे क्योंकि उन्होंने सेवा का काम अपने जिम्मे लिया. इज्ज़त, मान, भूमिपति और उद्योगपति बनने का त्याग किया. पैर सारे शरीर का भार उठाते हैं, इसी तरह शूद्र वर्ण चारों वर्णों की सेवा का भार अपने सिर पर रखते हुए जीवन गुजारते थे क्योंकि पैर सबसे नीचे हैं, वो हमारे शरीर का ही एक अंग हैं, मगर नीचे होने की वजह से स्वार्थ प्रिय लोगों ने शूद्रजाति के लोगों को नीच और निकृष्ट का भाव देकर शूद्र का अर्थ ही बदल दिया. एक-एक अक्षर के कई अर्थ होते हैं. अपने-अपने मतलब के मुताबिक लोग अर्थ लगा लेते हैं. अब यह वर्णव्यवस्था बिखर गई है और समाप्त हो रही है. अपना-अपना काम जो इनको दिया गया, उसके करने की क्षमता नहीं रही. हो सकता है समय के मुताबिक लोग समझ जाएँ. मालिक करे उनको सद्बुद्धि मिले.
यह वर्णाश्रम धर्म का एक दृष्टिकोण है मगर इसकी तह में बहुत सूक्ष्म ख्याल है. वर्ण कहते हैं रूप को, शक्ल को. आश्रम, जहाँ हम ठहरते हैं, जो हमारे कर्म का स्थान है, अर्थात् यह हमारा जीवन ही आश्रम है. धर्म कहते हैं उन नियमों को जिनका पालन हम अपने जीवन में करके अपने वर्ण को, अपने नाम को या अपने रूप को पहचान सकें. तात्पर्य यह कि ये चारों वर्णों के लोग जीवन व्यतीत करते हुए, ऐसे धर्म का पालन करते हुए अपना दिखाई देने वाले वर्ण अर्थात् शारीरिक वर्ण के काम विधिवत करते हुए अपने असली वर्ण को जान सकें. या यों कहिए कि हम यह ज्ञान हासिल कर सकें कि हम क्या हैं. यह वर्णाश्रम धर्म की गहरी फिलॉसफी है जिसे साधारण लोग भुला बैठे और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का काम करने में अपना स्वार्थ आ गया. मान प्रतिष्ठा, हुकूमत, धन-धान्य की इच्छा के फलस्वरूप साहित्य बदल दिया, नियमों में तब्दीलियाँ कर दीं और अपने आपको किसी विशेष जाति के और वर्ग के मानने लग गए. अपने आपको ऊँचा रखने के लिए दूसरों को नीचा बना दिया और सारी की सारी वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था बिगड़ गई. अगर इन बातों को विस्तारपूर्वक लिखा जाए तो कुछ लोग अपने या अपने पूर्वजों के कर्तव्यों का जब ध्यान करेंगे तो उनके अन्दर आश्चर्य और चिन्ता पैदा होगी. मगर यह लेख लिखने का हमारा मन्तव्य वह नहीं है. इसका वास्तविक अभिप्राय सार बात को जानना है.
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पुराना इतिहास
मेरे प्यारे मेघ भाई, बहनों और बच्चो! अब तक जो बातें मैंने लिखी हैं, जिसके पढ़ने में, जानने में और सोचने में आपका पर्याप्त समय लग गया, इसलिए लिखी हैं कि आपको विश्वास हो जाए कि आपके अन्दर जो यह इच्छा है कि हम कौन हैं, मेघ जाति कब और कैसे बनी, ठीक है. आप यह सोचने का अधिकार रखते हैं.
इस बात को जानने के लिए पुराने साहित्य का सहारा लेना पड़ता है. मगर अनुभव में आया है कि पुराने साहित्य में जो कुछ लिखा है, उसमें स्वार्थवश तब्दीली की गई है और अब भी करते हैं. अन्य पुस्तकों की बात छोडिये सभी धर्मों, पंथों के पवित्र ग्रथों में कुछ ऐसी बातें लिखी हुई थीं जो समय आने पर यथार्थ सिद्ध न हुईं. उनको या तो निकाल दिया गया या उसका अर्थ बदल दिया गया. दूसरे ये जितनी पुस्तकें हैं सब स्वरों और वर्णों के मेल से लिखी जाती हैं. समय के मुताबिक लोगों के भावों, विचारों में तब्दीली आने के बाद, वो स्वर वर्ण तब्दील करने पड़ते हैं. ये वर्ण आदमी के बनाए हुए हैं. आदमी की अक्ल से बनी हुई कोई भी चीज़ सदा ठीक नहीं रहती. उसमें समय के मुताबिक तब्दीली लानी पड़ती है. ये पुरानी किताबें समय के मुताबिक लिखी हुई हैं जो देश और समाज के लिए इस समय हानिकारक सिद्ध हो रही हैं, उनको बदला जाए. जो बातें अच्छी हैं, देश और समाज के लिए लाभप्रद हैं, एकता और प्रेम सिखाती हैं, उनको आम लोगों तक पहुँचाया जाए.
सत्ता प्राप्त होने पर कुछ लोगों ने पुराने साहित्य में तब्दीलियाँ कीं. ऐसा स्वयं को ऊँचा और दूसरों को नीच बनाने के लिए किया गया. जिसकी लाठी उसकी भैंस. बलवान अपने बल के कारण जो चाहे कर सकता है. कमजोर को उसकी माननी पड़ती है. इसी असूल पर यह जातिवाद लिखा गया. ताकि उनकी सत्ता बनी रहे. भारत का इतिहास सिद्ध करता है कि समय-समय पर बाहर से लोग आए, आक्रमण किए, यहाँ की धरती पर कब्जा कर लिया और यहाँ के प्राचीन या आदिकाल से चलते आए निवासी दबा दिए गए. इसका उदाहरण अपने जीवन में मैंने देखा है. अब तो पाकिस्तान बन गया मगर इससे पहले जिला स्यालकोट में मेरे जन्मस्थान सुन्दरपुर गाँव के पास चिनाब दरिया के किनारे पर एक गांव था जिसका नाम कुल्लूवाल था. वहाँ पर काफी समय से मुसलमान जुलाहे रहते थे. गाँव की ज़मीन को भी वही संभालते थे. कुछ समय के बाद वहाँ हिंदू जाट आ गए और गाँव की जमीन में खेती का काम करना शुरू कर दिया. जुलाहों ने उनके आने पर खुशी मनाई क्योंकि जमीन फालतू पड़ी थी. उन्होंने समझा कि ये भी यहाँ रह करके अपना पेट पालेंगे. मगर जब महकमा माल का बन्दोबस्त आया तो भूमि और गाँव की मिल्कियत का सवाल आया. जुलाहों ने उस वक्त की सरकार के अधिकारियों को कहा कि इस गाँव में पर्याप्त समय से हम रह रहे हैं. हमारा एक पूर्वज जो पहले यहाँ आया, उसका नाम कुल्लु था और जुलाहा था. इसलिए यह गाँव भूमि समेत हमारा है. ये लोग किसान हैं, अपना काम करें मगर भूमि के मालिक नहीं हो सकते. उन हिंदू जाटों ने कहा कि महाराज इस गाँव में जो हमारा पूर्वज पहले आया था उस समय यहाँ कोई नहीं था. हमारे पूर्वज ने एक झोंपड़ी या कुल्ली बनाई और फिर उस कुल्ली पर दो-तीन कुल्लियाँ और बना लीं और उस जगह का नाम कुल्लु मशहूर हो गया और गाँव का नाम कुल्लूवाल रखा गया. हम इस गाँव व ज़मीन के मालिक हैं. क्योंकि उनके हाथ में सत्ता थी, गिनती में अधिक थे, इसलिए बन्दोबस्त में गाँव और ज़मीन के मालिक बन गए. अब उस गाँव का इतिहास कहता है कि वहाँ के मालिक जाट थे जोकि ग़लत था और ज़बरदस्ती बनाया गया था.
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इसी तरह हम मेघ जाति का कोई इतिहास किताबों से देखना चाहें, माल के बन्दोबस्त या और जाति कोषों से पता करना चाहें तो उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता. किताबों में लिखा ग़लत भी हो सकता है और खास तौर पर जो लोग यह जानना चाहते हैं कि हम कौन हैं, उनके लिए पुराने पुस्तकीय इतिहास काम नहीं देते. सन्त कबीर जो महान सन्त हुए हैं उन्होंने एक शब्द लिखा हैः-
मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होई रे।।
मैं कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी ।।
पुस्तकों में लिखे गए पुराने साहित्य हमारा पता नहीं दे सकते. इसी तरह मेघ वर्ण की बाबत जो कुछ किताबों में लिखा हुआ है उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता. इसलिए मैं आपको मेघ का वो वर्ण या रूप बताना चाहता हूँ जो हम आंखों से देखकर इन जाति-पाति के झगड़ों से निकल सकें.
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जाति भेद का मूल कारण
इस संसार में जो भी जीव-जन्तु हैं, कई रूप, रंग, वर्ण रखते हैं. उनके समूह को ही जाति कहा गया है. जल, थल, आकाश के जीव अपनी-अपनी जातियाँ रखते हैं. पशु-पक्षियों और जल में रहने वाले मच्छ, कच्छ, व्हेल मछली जैसी जातियाँ पाई जाती हैं. मनुष्य जाति में अनेक जातियाँ बन गई हैं. अलग-अलग देश और प्रांत होने के कारण, कर्म, भाषा, वेशभूषा के कारण कई जातियाँ बन गईं जिनकी गणना सरकार का काम है. अलग-अलग और नाना जातियाँ बनने का मूल कारण यह है कि ये जितने रंग, रूप और शरीर वाले जीव हैं, ये स्थूल तत्त्वों से बने हैं. इनके मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, विचार, भाव सूक्ष्म तत्त्वों से बने हैं. इनकी आत्माएँ कारण तत्त्वों से बनी हैं और प्रत्येक जीव जन्तु में ये जो पाँच तत्त्व हैं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश. इनका अनुपात एक जैसा नहीं होता. सबका अलग-अलग है. किसी में वायु तत्त्व और किसी में आकाश तत्त्व अधिक है. इन्हीं के अनुसार हमारे गुण, कर्म, स्वभाव अलग-अलग होते हैं. गुण तीन हैं. सतोगुण, रजो गुण और तमोगुण. किसी के अन्दर आत्मिक शक्ति, किसी में मानसिक शक्ति, किसी में शारीरिक शक्ति अधिक होती है. इसी तरह कर्म भी कई प्रकार के होते हैं. अच्छे, बुरे, चोर, डाकू, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार भी किसी में अधिक, किसी में कम. किसी में प्रेम और सहानुभूति कम है किसी में अधिक. इस वक़्त संसार में कई देश चाहते हैं कि हम दूसरों पर विजय पा लें. तरह-तरह के ख़तरनाक हथियार बन रहे हैं. इन सब चीजों का यही मूल कारण है. यह प्राकृतिक भेद है. कहा जाता है कि जो जैसा बना है वैसा करने पर मजबूर है. जिस महापुरुष का शरीर, मन और आत्मा इन तत्त्वों से इस प्रकार बने हैं, जो समता या सन्तुलित रूप में हैं, उस महापुरुष को संत कहते हैं. प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर वासना उठती है और उसी वासना (कॉस्मिक रेज़) से सकारात्मक व नकारात्मक शक्तियाँ पैदा होती हैं जो स्थूल पदार्थों की रचना करती रहती हैं. वासना एक जैसी नहीं होती. इसलिए भिन्न-भिन्न प्रकृति के लोग उत्पन्न हो जाते हैं और नाना जातियाँ बन जाती हैं.
अब प्रश्न पैदा होता है कि क्या इसका कोई उपाय हो सकता है कि संसार में (पशु, पक्षी, और मच्छ, कच्छ को छोड़ दें) मनुष्य जाति में प्रेमभाव पैदा हो जाए और सब एक-दूसरे की धार्मिक, सामाजिक, जातीय और घरेलू भावनाओं का सत्कार करते हुए आप भी सुखपूर्वक जीएँ और दूसरों को सुखपूर्वक जीने दें. मेरी आत्मा कहती है कि हाँ, इसका हल है और वह है मेघ जाति को समझना कि यह जाति कब और कैसे और किस लिए बनी, जिसको मैं इस लेख में विस्तारपूर्वक वर्णन करने का यत्न अपनी योग्यता अनुसार करूँगा. दावा कोई नहीं.
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मेघ जाति
आप इस लेख को अब तक पढ़ने से समझ गए होंगे कि जातियों के नाम कहीं देश, कहीं प्रान्त, कहीं आश्रम, कहीं वेशभूषा, कहीं भाषा और कहीं रंग से हैं. जैसे आजकल दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को लेकर गोरे और काले रंग के लोगों की जाति वालों में लड़ाई झगड़े हो रहे हैं. अभिप्राय यह है कि जातियों के नाम किसी न किसी कारणवश रखे गए और कोई नाम देना पड़ा. अब सोचना यह है कि मेघ जाति का मेघ नाम क्यों रखा गया? क्या यह कर्म पर या किसी और कारण से रखा गया? मनुष्य द्वारा बनाई गई भाषा के अनुसार मेघ एक गायन विद्या का राग भी है, जिसे मेघ राग कहते हैं. मेघ बादल को भी कहते हैं. जिससे वर्षा होती है और पृथ्वी पर अन्न, वनस्पतियाँ, वृक्ष, फल, फूल पैदा होते हैं. नदी नाले बनते हैं. जब सूखा पड़ता है, अन्न का अभाव हो जाता है तो धरती पर रहने वाले बड़ी उत्सुकता से मेघों की तरफ देखते हैं कि कब वो अपना जल बरसाएँ. जब मेघ आकाश में आते हैं और गरजते हैं तो लोग खुश हो जाते हैं और प्रार्थना करते हैं कि जल्दी वर्षा हो जाए. जब वर्षा होती है तो उसकी गर्जना भी होती है. योगी लोग जब योग अभ्यास करते हैं वो योग अभ्यास चाहे किसी प्रकार का भी हो उन्हें अपने अन्दर मेघ की गर्जना सुनाई देती है. उस जगह को त्रिकुटी का स्थान कहते हैं. गायत्री मंत्र के अनुसार यही सावित्री का स्थान हैः-
ओं भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
इसका अर्थ यह है कि जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति से परे जो सूरज का प्रकाश है उसको नमस्कार करते हैं. वही हमारी बुद्धियों का प्रेरक है. उस स्थान पर लाल रंग का सूरज दिखाई देता है और मेघ की गर्जना जैसा शब्द सुनाई देता है. सुनने वाले आनन्द मगन हो जाते हैं क्योंकि वो सूक्ष्म सृष्टि के आकाश में सूक्ष्म मेघों की सूक्ष्म गर्जना होती है सुनने से मन एकत्रित हो जाता है. यह गर्जना हमारे मस्तिष्क में या सिर में सुनाई देती है. तीसरे, हर एक आदमी हर वस्तु को ध्यानपूर्वक देख कर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है कि यह कैसे और किन-किन तत्त्वों से बनी है. जिस तरह हिमालय पर बर्फ होती है ऊपर जाने पर या वहाँ रहने वालों को बर्फ का ज्ञान होता है, उससे लाभ उठाते हैं. बर्फ पिघल कर, पानी की शक्ल में बह कर, नीचे आकर भूमि में सिंचाई के काम आती है. इसी तरह मेघालय हमारे भारत देश का प्रांत है जो बहुत ऊँचे पहाड़ों से घिरा हुआ है. वहाँ के रहने वाले लोगों को मेघ का ज्ञान होता है, वहाँ मेघ छाए रहते हैं, गरजते हैं, वर्षा करते हैं इत्यादि. इसी के नाम पर मेघालय उसका नाम है. सम्भव है वहाँ के वासी भी मेघ के नाम से पुकारे जाते हों.
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तो मेघ शब्द क्यों और कैसे बना, जितना हो सका लिख दिया. प्राचीन काल से हिन्दू जाति में यह नाम बहुत लोकप्रिय है. अपने नाम ‘मेघ’ रखा करते थे. अब भी मेघ नाम के कई आदमी मिले. रामायण काल में भी यह नाम प्रचलित था. रावण उच्च कोटि के ब्राह्मण थे, उन्होंने अपने लड़के का नाम मेघनाद रखा. उन्होंने अपने लड़के को बजाए मेघ के मेघनाद का संस्कार दिया. वो बहुत ऊंचे स्वर से बोलता था. जब लंका पर वानर और रीछों ने आक्रमण किया तो मेघनाद गरजे और रीछों और वानरों को मूर्छित कर दिया. पूरा हाल आप राम चरित मानस से पढ़ लें. कबीर सहिब का भी कथन हैः-
तरुवर, सरवर, सन्तजन, चौथे बरसे मेंह।
परमारथ के कारणे, चारों धारें देह ।।
साध बड़े परमारथी, घन ज्यों बरसे आय,
तपन बुझावे और की, अपना पौरुष लाय ।।
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मेघ जाति का नामकरण संस्कार
प्राचीन काल में मनुष्य जाति के कुछ लोग जम्मू प्रदेश में ऊँचे पहाड़ी भागों में निवास करते थे. उस समय दूसरे गाँव या दूसरे पहाड़ी प्रदेश के लोगों से मिलना नहीं होता था. जहाँ जिसका जन्म हो गया, उसने वहीं रहकर आयु व्यतीत कर दी. हमने आपनी आयु में देखा है, लोग पैदल चलते थे, दूर जाने के कोई साधन नहीं थे. बच्चों को पढ़ाया भी नहीं जाता था. कोई स्कूल नहीं थे. रिश्ते नाते छह-सात मील के अन्दर हो जाते थे, जहाँ पैदल चलने की सुविधा होती थी. उस समय जो लोग ऊँचे पहाड़ी प्रदेशों में थे, उनको भी वहीं पर ज्ञान हो जाता था. दूर की बातें नहीं जानते थे. इन ऊँचे पहाड़ी इलाकों में मेघ छाए रहते थे और बरसते रहते थे. वहाँ के वासियों के जीवन मेघों का संस्कार ग्रहण करते थे. उनको केवल यही समझ होती थी कि ये मेघ कैसे और किन-किन तत्त्वों के मेल से बनकर आकाश में आ जाते हैं और इनके काम से क्या-क्या लाभ होते हैं और क्या-क्या हानि होती है. जैसी वासी वैसी घासी. मेघों के संस्कार उन लोगों के हृदय और अन्तःकरण में घर कर जाते थे. जो मेघों का स्वभाव, परोपकार का भाव, ठंडक, आप भी ठंडे रहना और दूसरों को भी ठंडक पहुँचाना, उन लोगों की वैसी ही रहनी हो जाती थी क्योंकि दूसरे लोग जो उनके सम्पर्क में आ जाते थे उनको शांति, खुशी, ठंडक मिलती थी. इसलिए वो उन ऊँचे पहाड़ों पर रहने वाले लोग स्वाभाविक तौर पर मेघ के नाम से पुकारे जाते थे. यह नाम किसी व्यवसाय या कर्म के ख्याल से नहीं है. यह मेघ नाम मेघों से लिया गया और वहाँ के वासियों को भी मेघ कहा गया. ज्यों-ज्यों उनकी संतान की वृद्धि होती गई, वे नीचे आकर अपनी जीवन की यात्रा चलाने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की ज़रूरत के अधीन कई प्रकार के काम करने लगे. किसी ने खेती, किसी ने कपड़ा, किसी ने मज़दूरी, और वो अब नक्शा ही बदल गया. अब इस जाति के लोग धीरे-धीरे उन्नति कर रहे हैं. पुराने काम काज छोड़ कर समय के मुताबिक नए-नए काम कर रहे हैं और मालिक की दया से और भी उन्नति करेंगे, क्योंकि इनको मेघों से ऊँचा संस्कार मिला. ऊपर जो कुछ लिखा है उससे यही सिद्ध होता है कि समय-समय पर हर जाति के लोग अपना काम भी बदल लेते हैं. मेघ जाति का यह नाम प्राकृतिक है, स्वाभाविक ही पड़ा. यह किसी विशेष कार्य से संबंध नहीं रखता.
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मेघ कैसे बनते हैं
इस धरती पर सूरज की गरमी से जब धरती में तपन पैदा हो जाती है तो स्वाभाविक ही वो ठंडक चाहती है और ठंडक जल में होती है. वह गर्मी समुद्र की तरफ स्वाभाविक ही जाती है और वहाँ की ठंडक गर्मी की तरफ जाने लग जाती है और इससे वायु की गति बन जाती है और वह चलने लग जाती है. हवा तेज़ होने पर अपने साथ जल को लाती है या वह अपने गर्भ में जल भर लेती है और उड़ कर धरती की तपन बुझाने के लिए उसका वेग बढ़ जाता है. मगर उन हवाओं में भरा जल तब तक धरती पर नहीं गिर सकता जब तक कि जाकर वो ऊँचे पर्वतों से न टकराएँ. उसका वेग बंद हो जाता है. आकाश में छा जाता है. जब यह दशा होती है कि अग्नि, वायु और जल इकट्ठे हो जाते हैं, इनकी सम्मिलित दशा को मेघ कहते हैं. मेघ केवल अग्नि नहीं है, केवल वायु नहीं, केवल जल नहीं, बल्कि इन सबके मेल से मेघ बनते हैं. जब ऊपर मेघ छाए रहते हैं, तो हवा को हम देख सकते हैं, अग्नि को भी देख सकते हैं, इन सबके मेल से जो मेघ बना था उसे भी देख सकते हैं. जब वर्षा खत्म हो गई, मेघ जल बरसा लेता है, तो न मेघ नज़र आता है, न वायु, न अग्नि. आकाश साफ़ हो जाता है. वो मेघ कहाँ गया? इसका वर्णन आगे किया जायेगा कि वे कहाँ गए. मेघ ने अपना वर्ण खोकर पृथ्वी की तपन बुझाई. पृथ्वी पर रहने वाले जीवों की आवश्यकताओं को पूरा किया और उनको सुखी बनाया. आकाश से वायु बनी, आकाश और वायु से अग्नि बनी, आकाश और वायु और अग्नि से जल बना, आकाश, वायु अग्नि और जल से पृथ्वी बनी. जब सृष्टि को प्रलय होती है तो पहले धरती जल में, फिर धरती और जल अग्नि में, धरती, जल और अग्नि वायु में, धरती, जल, अग्नि और वायु आकाश में सिमट जाते हैं. आकाश का गुण शब्द है, वायु का गुण स्पर्श है, अग्नि का गुण रूप है, जल का गुण रस है और पृथ्वी का गुण गंध है. इन्हीं गुणों को सूक्ष्म भूत भी कहते हैं. ये गुण ब्रह्म की चेतन शक्ति से बनते हैं. ब्रह्म प्रकाश को ही कहते हैं. ब्रह्म का काम है बढ़ना, जैसे प्रकाश फैलता है. वो प्रकाश या ब्रह्म शब्द से बनता है. यह सारी रचना शब्द और प्रकाश से बनती है. शब्द से ही प्रकाश और शब्द-प्रकाश से ही आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी बन जाते हैं. तो इस सृष्टि या त्रिलोकी के बनाने वाला शब्द है :-
‘शब्द ने रची त्रिलोकी सारी’
आकाश का यही गुण अर्थात 'शब्द’ इन सब तत्त्वों में काम करता है. जो त्रिकुटी में मेघ की गर्जना सुनाई देती है, वो भी उसी शब्द के कारण है. मेघ नाम या मेघ राग या दुनिया के प्राणी जो भी बोल सकते हैं, वो आवाज़ उसी शब्द के कारण है. विज्ञानियों ने भी सिद्ध किया है कि यह सृष्टि आवाज़ और प्रकाश से बनी है.
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जिस व्यक्ति को इस शब्द का और ब्रह्म का और इस सारे काम का जो ऊपर लिखा है, पता लग जाता है, ज्ञान हो जाता है, अन्तःकरण में यह बात गहरी घर कर जाती है, उस व्यक्ति को इन्सान कहते हैं. इन्सानियत की इस दशा को प्राप्त करने के लिए या तो योग अभ्यास करके आकाश के गुण को जाना जाता है या जिस महापुरुष के शरीर, मन और आत्मा इन सब तत्त्वों की सम्मिलित संतुलित दशा से बने हैं, उसे संत भी कहा गया है, उसकी संगत से हम इन्सानियत को प्राप्त कर सकते हैं. जो इन्सान बन गया उसके लिए न कोई जाति, न कोई पाति और न कोई भेदभाव रह जाता है. उसके लिए सब एक हो जाते हैं. उसमें एकता आ जाती है. वो किसी भी धर्म-पंथ का नहीं रहता. उसके लिए इन्सानियत ही सब कुछ है. हम सब इन्सान हैं. मानव जाति एक है. तो वो शब्द और प्रकाश जिससे यह सृष्टि पैदा हुई, तरह-तरह के वर्ण बन गए, मेघ वर्ण भी उसी से बना है. जब इन्सान में मानवता आ जाती है तो उसके लक्षण संतों ने बहुत बताए हैं. परोपकार, सबको शांति, वाणी ठंडक देने वाली बन जाती है.
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आइये अब कुछ विख्यात शब्दकोषों के अनुसार मेघ शब्द का विचार करें.
हिन्दी शब्द सागर
1. मेघ--घनी भाप को कहते हैं जो आकाश में जाकर वर्षा करती है (भाप ठोस या तरल पदार्थ की वह अवस्था है जो उनके बहुत ताप पाने पर विलीन होने पर होती है--भौतिक शास्त्र)
2. मेघद्वार--आकाश
4. मेघनाथ--स्वर्ग का राजा इन्द्र
5. मेघवर्तक--प्रलय काल के मेघों में से एक मेघ का नाम
6. मेघश्याम--राम और कृष्ण को कहते हैं
7. मेघदूत--कालीदास महान कवि हुए हैं. उन्होंने अपने काव्य में मेघदूत का वर्णन किया है. इसमें कर्तव्यच्युति के कारण स्वामी के शाप से प्रिया वियुक्त एक विरही यक्ष ने मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रिया के पास मेघों द्वारा संदेश भेजा है.
हिन्दी पर्याय कोष
1. मेघ और जगजीवन दोनों एक ही अर्थ के दो शब्द हैं.
हिन्दी राष्ट्रभाषा कोष
1. जगजीवन--जगत का आधार, जगत का प्राण, ईश्वर, जल, मेघ.
यदि आप ध्यान से पढ़ें तो इन शब्द कोषों में मेघ का अर्थ जो लिखा गया है वो ईश्वर और नाना ईश्वरीय शक्तियों के मेल से रसायनिक प्रतिक्रिया होने पर जो हालतें या वस्तुएँ उत्पन्न होती है उनमें से एक को मेघ कहा गया है. इसलिए जो कुछ ऊपर लिखा गया है कि मेघ ब्रह्म से ही उत्पन्न होते हैं और उसी में समा जाते हैं, ठीक है. इससे सिद्ध हुआ कि मेघ शब्द कोई बुरा नहीं है और इसी के नाम पर उन्हीं के संस्कारों को ग्रहण करते हुए मेघ जाति बनी.
दूसरा प्रकरण
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आदि मेघ
जिन भाई बहनों ने इस पुस्तक का पहला प्रकरण पढ़ लिया, सम्भव है उनके अन्दर आश्चर्य उत्पन्न हो कि बात क्या थी और मेघ शब्द की परिभाषा क्या की गई. प्रश्न तो यह है कि आदि मेघ अर्थात् जो आदमी पहले मेघ बना, कहलाया या रूप में आया वो कौन था? क्या वो पहले किसी और जाति का था उसने किसी की सन्तान होते हुए अपना नाम मेघ रख दिया. यह प्रश्न आदि मेघ के शारीरिक रूप से संबंध रखता है.
यह ठीक है कि शारीरिक रूप में आदि मेघ की खोज करनी है ताकि वर्तमान मेघ जाति के भाई-बहनों को अपने आदि का पता लग जाए. यदि किताबों से पढ़ा जाए तब भी हमारी समस्या का हल पूर्ण रूप से समझ नहीं आता. एक 'जातिकोष’ नामी पुस्तक है. वह पुस्तक इस समय भी साधु आश्रम, होशियारपुर, पंजाब की लाईब्रेरी से पढ़ी जा सकती है. इसके पृष्ठ 77 पर लिखा है कि ‘इनका पूर्वज ब्राह्मण की सन्तान था. वह काशी में रहा करता था. उसके दो पुत्र थे एक विद्वान और दूसरा अनपढ़. पिता ने विद्वान पुत्र को पढ़ाने के लिए कहा, पर उसने पढ़ाने से इन्कार कर दिया. इस पर विद्वान पुत्र को अलग कर दिया. उसी की सन्तान मेघ है.’
अगर यह ठीक है तो ब्राह्मण के विद्वान लड़के की सन्तान का नाम मेघ क्यों रखा? क्या यह मेघ नाम बुरा या घृणासूचक है क्योंकि उसने अपने पिता की आज्ञा नहीं मानी? क्या आज्ञा न मानने वाले को मेघ कहते हैं? दूसरे क्या उस समय पहले से चली आ रही कोई मेघ जाति थी जिससे लोग घृणा करते थे. तो उस जाति के आधार पर घृणा सूचक नाम द्वारा पुकार कर उसका नाम मेघ रख दिया. जिस तरह अगर कोई उच्च जाति का आदमी कोई बुरा काम करे तो उसे नीच या चोर या डाकू या कोई और घृणित नाम से पुकारा जाता है. इस विचार से उस आदमी की जाति नहीं बदली जाती. केवल एक बुरे ख्याल या गाली के तौर पर ऐसा कहा. यदि काशी के ब्राह्मण ने अपने विद्वान पुत्र को इस तरह घृणित समझ कर उसकी सन्तान का नाम मेघ रख दिया और यह मेघ जाति पहले भी थी, तो वो ब्राह्मण का विद्वान लड़का आदि मेघ नहीं हो सकता. इसलिए इस किताब में जो कुछ लिखा है उसे बुद्धि नहीं मानती. सम्भव है उसमें मनमानी की गई हो.
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इस पुस्तक के शब्दों को ध्यानपूर्वक पढ़ें. इसमें लिखा हुआ है कि इस जाति का पूर्वज ब्राह्मण जाति का था. वह काशी में रहा करता था. उसके दो पुत्र थे. एक विद्वान और एक अनपढ़. जब विद्वान लड़के ने अनपढ़ भाई को पढ़ाने से इन्कार कर दिया तो पिता ने उसको अलग कर दिया. उसी की सन्तान मेघ है. इस जाति का पूर्वज तो ब्राह्मण था और वो विद्वान लड़का भी ब्राह्मण का पुत्र था. उसकी सन्तान मेघ नाम से कैसे मशहूर हो गई. इस समस्या का समाधान मेघ जाति के समझदार आदमी करें.
एक बात और भी है. उस पुस्तक में यह नहीं लिखा कि काशी के ब्राह्मण का विद्वान लड़का जम्मू में आकर बसा या किसी और प्रान्त में चला गया. वहाँ पर उसने किस जाति की स्त्री से विवाह किया. अगर मेघ जाति की स्त्री से शादी की और सन्तान पैदा की तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि मेघ जाति पहले भी वहाँ पर थी. इसलिए वो आदमी आदि मेघ नहीं हो सकता है.
हाँ, एक बात समझ में आती है कि काशी के ब्राह्मण का एक लड़का विद्वान था. जब विचारों को किसी भाषा में लिखा जाता है तो एक-एक बात के कई अर्थ निकलते हैं. विशेषकर जो महापुरुष आध्यात्मिकता का ज्ञान रखते हैं, उनकी आध्यात्मिकता की बातों को समझना कठिन है. वो काशी के ब्राह्मण का विद्वान लड़का कौन सी विद्या जानता था? यदि वो विद्या इन क, ख, ग द्वारा अक्षरों से लिखी हुई होती तो उसको दूसरों को पढ़ाना कोई कठिन नहीं था. वो यह बाहर की विद्या तो पढ़ा सकता था. ब्राह्मण दो प्रकार के होते हैं. पहला वह जो ब्राह्मण जाति में उत्पन्न हुआ है और आगे उसने अपनी पत्नी ब्राह्मणी के पेट से सन्तान उत्पन्न की. दूसरा ब्राह्मण वो होता है जो ब्रह्म में रमण करता है, वो किसी भी जाति का हो सकता है.
जाति पांति पूछे नहिं कोय, हर को भजे सो हर का होय।
वो काशी का जो ब्राह्मण था, वो ऐसा ब्राह्मण नहीं था जो ब्रह्म में रमण करता हो अगर उसके विद्वान लड़के को सच्चा ब्राह्मण मान लिया जाए तो वह ब्रह्म में रमण करता था और ब्रह्म में रमण करने के कारण उसकी सन्तान वास्तव में ब्रह्म की ही उत्पत्ति कहलाती. जितने भी भाव-विचार ऐसे महापुरुषों के अन्दर उठते हैं, वो भी उनकी उत्पत्ति ही होती है या सन्तान ही होती है. हम सब संतान पैदा करते हैं, किसी ख्याल के अधीन ही करते हैं. इस दृष्टि से मेघ जाति के लोग ब्रह्म की ही सन्तान हैं. जैसा कि ऊपर लिख आए हैं कि सारी सृष्टि ब्रह्म से ही पैदा होती है. उस विद्वान लड़के को आत्मज्ञान हो चुका था. आत्मविद्या हर एक को नहीं पढ़ाई जा सकती, चाहे अपने कितने भी निकट संबंधी हों. प्राचीन काल से आप देख सकते हैं कि जो आत्मज्ञान रखते थे वे केवल एकाध को आत्मविद्या पढ़ा सके. ऋषियों, मुनियों, साधु-सन्तों के इतिहास में यह बात देखी गई है.
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आत्मज्ञान की विद्या ग्रहण करने के लिए एक तो अधिकार और संस्कार चाहिए. दूसरे, अपनो को यह विद्या पढ़ाने में निज स्वार्थ काम करता है. आत्मज्ञान को निज स्वार्थ के लिए नहीं दिया जा सकता. तीसरे, यदि आत्मज्ञान अपनी सन्तान, अपने भाई आदि को पढ़ाया जाए तो उनको विश्वास भी नहीं आता, क्योंकि वो उसे शारीरिक रूप में संबंधी समझते हैं. ऋषि वेद व्यास जी महाराज ने अपने लड़के शुक देव को स्वयं यह विद्या नहीं पढ़ाई, बल्कि उसे इस काम के लिए राजा जनक के पास भेजा. यह विद्या हर एक को पढ़ानी कठिन है. इसी तरह काशी के ब्राह्मण का विद्वान लड़का आत्मज्ञानी होने के कारण अपने अनपढ़ भाई को विद्या न पढ़ा सका. ऐसे लोग अपने आप अलग हो जाते हैं. अलग होने का अर्थ लड़ाई झगड़ा करके घर छोड़ना नहीं है बल्कि इस जाति पांति से अलग होना है. यदि उसने सन्तान पैदा की, तो वो अपनी सन्तान को बुरा संस्कार नहीं देता. अगर उसकी सन्तानें आत्मविद्या की अधिकारी न भी हों तो वो उनका नाम ऐसा रखता है जिससे उनको अच्छा संस्कार मिले. यदि उसने अपनी सन्तान का नाम मेघ रखा तो मेघ नाम कोई बुरा संस्कार देने वाला नहीं है. हर एक नाम अपने-अपने गुणदोष रखता है. मैंने इसलिए मेघ जाति की मेघ से तुलना की कि वह आकाश से वर्षा करता है. यदि उस विद्वान लड़के ने अपनी सन्तान को उन मेघों का संस्कार दिया तो इससे यह समझा जा सकता है कि मेघ आते हैं, बरसते हैं और चले जाते हैं. इसी तरह सब मानव जाति के लोग इस संसार में आते हैं अपना काम करते हैं और चले जाते हैं. इसलिए विश्वास हो गया कि जो कुछ मैंने पहले प्रकरण में लिखा, वह ठीक है.
जम्मू प्रान्त के रहने वाले लोग इस प्रकार की और बातें भी करते हैं. मैं जम्मू में रहा. दो वर्ष वहाँ पढ़ता रहा. वहाँ लोग सुनाया करते थे कि यह मेघ जाति ब्राह्मण की सन्तान है. प्राचीन काल में कोई ब्राह्मण वहाँ गया. उस समय यह मशहूर था कि ब्राह्मण यज्ञों में गौ की बलि देते हैं और बाद में गौ को जीवित कर देते हैं. एक बात समझ में आई कि गौ इन्द्रियों को कहते हैं. सन्त तुलसीदास ने भी लिखा है :-
गो गोचर जहँ लग मन जाई। माया कृत सब जानियों भाई ।।
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जहाँ तक ये इन्द्रियाँ और मन काम करता है, सब माया है. माया कहते हैं जो है तो नहीं, मगर भासती है. जब योग अभ्यास करने वाले महापुरुष सब इन्द्रियों और मन के ख्यालों को समेट कर आत्मिक अवस्था में जाते हैं तो इन्द्रियों को एकाग्र करने का अर्थ 'गौ की बलि’ लिया जाता है और जब समाधि से उत्थान होता है इन्द्रियाँ अपनी अपनी जगह काम करने लग जाती है, तो उसको गौ जीवित कर देना कहा गया है यह यज्ञ क्या है. एक तो बाहर में अग्नि जलाकर उसमें सामग्री और घी की आहुति डालते हैं. मगर वास्तविक यज्ञ वो होता है जिसमें अपने अन्दर ज्योति प्रकट करके उसमें अपने मन के विचारों और भावों की आहुति दी जाती है. इसलिए ये कहानियाँ विश्वास योग्य नहीं है. हो सकता है कि अपनी जाति को ब्राह्मणों से जोड़ने के लिए यह कहानियाँ बताई गई हों या जिस तरह मैंने लिखा है, सत्य हो.
मेघ जाति के विषय में एक और भी कथा सुनाई जाती है. पहले इन राजाओं के पास जम्मू रियासत ही थी. यह कश्मीर का इलाका बाद में उन्होंने ख़रीदा था. जम्मू के प्रथम राजा के विषय में सुनाया जाता है कि उसके अंगरक्षक बड़े बहादुर नौजवान थे. जब भी राजा को उनकी सेवा की आवश्यकता होती, आदेश मिलने पर वो एकदम रक्षा करते थे और जिन आदमियों से ख़तरा होता उनको झटपट पकड़ लेते थे, सज़ा देते थे. उनसे उधर के लोग बहुत डरा करते थे और उनको कहा करते थे कि ये मेघ हैं मेघ! जिस तरह आकाश से ऊँचे पहाड़ों की तरफ़ से अकस्मात मेघ बरसने शुरू हो जाते हैं, ऊपर छाये रहते हैं, इसी तरह ये अंग रक्षक भी अकस्मात बरसने लग जाते हैं. अपराधी को पकड़ लेते हैं क्योंकि वो लोग भी ऊँचे पहाड़ों पर रहने वाले थे वहाँ की स्थिति के अनुसार और संस्कारों की वजह से उन अंगरक्षकों को मेघ जाति का कहते थे. उसके बाद उन अंगरक्षकों की जो सन्तान हुई वो भी बहादुरी का संस्कार प्रचलित रखने के लिए मेघ कहलाए. ये जातियाँ और उपजातियाँ इसी तरह बनीं. दूसरी सवर्ण जातियों में भी देखा जाता है कि अपने पूर्वजों के नाम प्रचलित हुए. ब्राह्मणों में जिसने एक वेद पढ़ा वो वेदी, जिसने दो वेद पढ़े वो द्विवेदी, जिसने तीन वेद पढ़े वे त्रिवेदी और जिसने चार वेद पढ़े वो चतुर्वेदी. इसी तरह हर एक जाति और उपजाति के पीछे कोई न कोई घटना है, कोई काम है जिससे उनके नाम मशहूर हो गये. इसलिए इन घटनाओं या कहावत को हम ग़लत नहीं कह सकते. प्राकृतिक संस्कारों के अनुसार भी यह ठीक है.
अब इस प्रश्न को कि मेघ जाति के लोग शारीरिक रूप में कब से बने, आदि मेघ कौन था, मैं अपने जीवन के अनुभव के आधार पर लिखूँगा. मेरा जन्म पंजाब में तहसील और जिला स्यालकोट के सुन्दरपुर गांव में 1906 में हुआ. मेरे पिता का नाम श्री मँहगा राम और दादा का नाम श्री नत्थूराम था. ज़मीन अपनी थी. खेती का काम करते थे. कोई समय के बाद मेरे पिता जी ने ठेकेदारी का काम शुरू किया और 40 वर्ष यह काम करते रहे. आर्थिक दशा अच्छी थी. मेरे दादा साधु थे. वे कई तीर्थ स्थानों पर गए और एक दफा सरहन्द में जहाँ गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज के दो लड़के दीवार में चिनवाए गए थे वहाँ लगातार एक महीना उस दीवार को तोड़ते रहे. सुबह ईँटें उखाड़ कर सिर पर रख लेते थे और चल देते थे. जहाँ शाम पड़ती थी ईंटें फेंक देते थे, और दूसरे दिन वापिस सरहन्द आ जाते थे. उस समय हिन्दु और सिख में नाम मात्र को भी भेद नहीं था. हमारी जाति के निकट गाँव के रहने वाले लोग मेरे दादा जी को गुरु मानते थे. यह सुन्दरपुर गाँव नहर, अपर चिनाब और चिनाब नदी के किनारे पर था. वहाँ से थोड़ी दूर त्रिवेणी थी अर्थात् तीन नदियाँ चिनाब दरया, जम्मू तवी और मनावर तवी मिलते थे. वहाँ पर कई साधु, सन्त-महात्मा आया करते थे और तप किया करते थे. हमें मेघ जाति के और साकोलिया उपजाति का कहा करते थे. जम्मू की तरफ से हमारा ब्राह्मण पुरोहित हर साल आता था और एक मुसलमान मिरासी भी आया करता था. वे हमारी वंशावली पढ़ कर सुनाया करता था और आखिर में हमारी जाति को सूर्यवंश से मिलाता था. यह सूर्यवंशी खानदान श्री रामचन्द्र जी के वंश से संबंध रखता है. उस समय मैं नहीं समझ सकता था, मगर अब अपने जीवन के अनुभव के आधार पर यकीन होता जा रहा है कि हम मेघ जाति के लोग सब सूरजवंशी हैं.
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रामचरित मानस को ध्यान से पढ़ा जाए तो पता चलता है कि जब पृथ्वी और पृथ्वी पर रहने वाले पुरुष तापग्रस्त हो जाते हैं, नाना प्रकार के कष्ट सहते हैं और उनके अन्दर स्वाभाविक ही इन कष्टों से मुक्ति पाने के लिए वासना उत्पन्न होती है. और उस वासना को पूर्ण करने वाली शक्ति हर इन्सान के अन्दर मौजूद है. किसी के अन्दर थोड़ी किसी के अन्दर ज्यादा. पृथ्वी और मुनि अपनी वासना को पूरा करने के लिए किसी के विरुद्ध नहीं सोचते बल्कि अपने आदि जहाँ से वो आए उसे याद करते हैं. जिस तरह हमें जब कोई दुःख होता है तो स्वाभाविक ही हम ‘हाय माँ’ कह कर पुकारते हैं और जब पृथ्वी और मुनियों ने पुकार की तो उनको आवाज़ आई कि मैं तुम्हारे लिए नर रूप धारण करके अपने अंशों सहित, अपने भक्तों सहित जो वहाँ ब्रह्म (प्रकाश) में ही रहते हैं, उनको साथ लेकर सूर्यवंश में नर रूप में आऊँगा और तुम्हारे दुःखों का निवारण करुँगा. इससे सिद्ध होता है कि श्रीरामचन्द्र जी महाराज अवतार लेकर सूरजवंश में उत्पन्न हुए और इसी वंश के साथ मेघ जाति को भी मिलाया जाता है. इसलिए उस मिरासी महाशय (एक परंपरागत लोक कलाकार) का कहना विचार योग्य है. इस पर मेघ जाति के लोगों को गम्भीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि मेघ भी आकाश में तब उतरते हैं जब पृथ्वी और उस पर रहने वाले लोग सन्तप्त हो जाते हैं.
अब मेघ जाति के लोग इस बात को विचारें जो यह समझते थे कि कोई ब्राह्मण जम्मू में आया था उसने यज्ञ किया और गौ की बलि दी मगर गौ को जीवित न कर सका, इसलिए उन ब्राह्मणों ने उसका तिरस्कार किया और उसकी सन्तान मेघ कहलाई. अब ये ऋषि वशिष्ठ और श्रृंगी उच्च कोटी के ब्राह्मण, ब्रह्म में रमण करने वाले थे. उन्होंने यज्ञ में बलि तो नहीं दी बल्कि इन्द्रियों और मन को छोड़ कर ब्रह्म अवस्था में जाकर, जिस अवस्था में वो रमण करते थे वहाँ जा कर दशरथ के यहाँ पुत्र की इच्छा की. यह यज्ञ का वास्तविक अर्थ है. वह ब्रह्म जो सर्व व्यापक है, प्रकाश स्वरूप है उसको यहाँ मानव रूप में लाने की इच्छा की और खीर का प्रसाद दे दिया. वो बाँट कर रानियों ने खाया. खीर भी एक जैसी नहीं बांटी गई. जिसका अर्थ यह है कि ब्रह्म का अंश सब में एक जितना नहीं होता. फिर वो रानियाँ गर्भवती हो गईं. कौशल्या के राम, कैकेयी के भरत, सुमित्रा के लक्ष्मण और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए. 'भगवान ने गर्भ में वास किया’ का यह अर्थ है कि प्रकाश का ही एक अंश गर्भ में आ गया.
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उस प्रसंग में देवताओं की फूलों की वर्षा और नगाड़े मेघ के ही प्रतीक हैं. मेघ से ही वर्षा होती है और गर्जना पैदा होती है. जब जन्म का समय आया तो प्रकृति की सब अवस्थाएँ सम अवस्था में आ गईं. सभी ग्रह अनुकूल हो गए. उस समय वो दयालु ब्रह्म या प्रकाश बच्चे के रूप में पैदा हुआ. उस समय बच्चे का वर्ण मेघ के समान श्यामवर्ण वाला था. वहाँ पर मेघ से उपमा दी गई है. इसलिए महापुरुषों की तुलना मेघों से की है जो आकाश में वर्षा करते हैं, पृथ्वी और पृथ्वी पर रहने वाले लोगों का दुःख दूर करते हैं. ऐ मेघ जाति के भाई बहनों! अपने आपको जानने का यत्न करो. आप ब्रह्म की अंश हैं, प्रकाश से आए हैं. वास्तव में यही आपका आदि है. जब वो मेघ के समान बालक उत्पन्न हुआ तो माता कौशल्या ने उसकी पहले स्तुति की और प्रणाम किया क्योंकि माता कौशल्या को ज्ञान हो गया कि यह सर्वशक्तिमान ब्रह्म है. उसके बालक श्री रामचन्द्र जी ने माया का प्रयोग किया. उस ज्ञान को हटाया, प्रकाश की जगह अंधेरा पैदा किया, तब माता कौशल्या ने उनको अपना पुत्र कहा.
जो मैं अपने मिरासी से सुना करता था, वो ठीक सिद्ध हो गया. अब उस पर हमें गम्भीरता से विचार करना है. अगर किसी को रामचरित मानस के पढ़ने से समझ न आए तो उसको साधारण शब्दों में समझाने का एक और तरीका भी है. आप सोचें कि हमारा यह शरीर किस तरह पैदा होता है. यह पिता के वीर्य और माता की रज से बना. पिता ने जो अन्न खाया उसका वीर्य और माता ने जो अन्न खाया उससे रज (ख़ून) बना और इन दोनों के मेल से माता के गर्भ में यह मानव शरीर बन गया. वो अन्न जो माता-पिता ने खाया पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ. पृथ्वी पर जब तक जल न पड़े तब तक पृथ्वी अन्न नहीं पैदा कर सकती. इसलिए मेघों की वर्षा बहुत आवश्यक है. इसके बाद जब तक उस अन्न पर सूरज की किरणें न पड़ें, रोशनी और गर्मी न पड़े तो अन्न या और वनस्पतियाँ फल फूल आदि पैदा ही नहीं हो सकते. जब कोई चीज़ बोई जाती है तो वो स्वाभाविक ही ऊपर को जाती है. सब चीजें ऊपर को जाती हैं, पृथ्वी के नीचे नहीं जातीं क्योंकि हर चीज़ अपने आदि की तरफ जाना चाहती है. सूरज से ही हर चीज़ पैदा होती है और सूरज में जाना चाहती है. आकाश में जहाँ से मेघ आते हैं, ऊपर को ही आना चाहते हैं. तो यह सब सृष्टि सूरज से ही पैदा हुई, इसलिए हम सब इन्सान सूर्यवंशी हैं जिसमें मेघ जाति भी आ जाती है. अब किसी को कोई संदेह नहीं रहना चाहिए क्योंकि यह उदाहरण आप आंखों से देखते हैं. इससे इन्कार नहीं किया जा सकता. इसलिए मेघ जाति सूर्यवंशी है.
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गोत्र
सन् 1954 में जब मेरी माता जी का देहान्त हुआ तो उनकी अस्थियाँ गंगा में प्रवाह करने के लिए हरिद्वार गया. अस्थियाँ प्रवाह करने के बाद मैं अपने पंडे श्री गंगा राम के दफ़्तर गया और उनसे पूछा कि मुझे मेरे पूर्वजों के नाम या उनकी वंशावली बताइये. पंडा जी ने एक कर्मचारी को हमारी फाईल लाने के लिए कहा. वो गया, बहुत तलाश की मगर उसे हमारी फाईल न मिली. कुछ देर के बाद वो वापिस आया और बताया कि इनकी फाईल नहीं मिलती. तो पंडा जी ने उसे कहा कि भारद्वाज फाईल लाओ. वो गया और एक मिनट में फाईल ले आया. मैंने पंडा जी से पूछा कि इस फाईल का नाम भारद्वाज फाईल क्यों है? उसने बताया कि फाईलों के नाम ऋषि गोत्रों के आधार पर रखे गए हैं. आपका गोत्र भारद्वाज है. इसके अतिरिक्त उसने मेरे पूर्वजों के नाम बता दिये और मेरा भी लिख लिया. वो फाईल तब की खुली हुई है जब हम जम्मू प्रांत के घराना गांव में रहा करते थे. वहाँ हमारे पूर्वज ज़मीन के मालिक थे, खेती करते थे. तवी नदी के किनारे पर ज़मीन थी. नदी में हर साल बाढ़ आने के कारण ज़मीन बह गई. कोई और व्यवसाय न रहा, तो वे जम्मू की रियासत जहाँ क्षत्रिय राजा राज करते थे, छोड़ कर, अंग्रेजों के राज पंजाब में जिला स्यालकोट के गाँव सुन्दरपुर में आ गए. जो पहला पुरुष आया उसका नाम श्री काहनचन्द था. उस गाँव में हम सब उसी की सन्तान थे. 1954 में जब मैं हरिद्वार गया तो पाकिस्तान बन चुका था. हम भारत में आ गए थे और कोई किसी जगह और कोई किसी जगह बस गया और नाना प्रकार के व्यवसाय करने लगे. तो हरिद्वार जाने से मुझे पता लगा कि हमारा गोत्र भारद्वाज है.
यह इसलिए लिखा है, कि मेघ जाति के लोग यह न समझें कि जातपात के लिहाज से इन्सानी शक्ल में उस जाति के बन गए हैं जिसे अज्ञानग्रस्त लोग छोटी जात कहते हैं. उनको असलियत का पता लग जाए. एक बार ऋषि वशिष्ठ जी महाराज ने श्री रामचन्द्र जी महाराज को कहा कि हे राम! तू ब्रह्म का अवतार है. उन्होंने उत्तर दिया कि महाराज! मुझे तो पता नहीं. मगर वशिष्ठ जी जानते थे क्योंकि उन्होंने जब यज्ञ किया और खीर का प्रसाद बनाया तो उसमें ब्रह्म का संस्कार भरा था. तो श्री रामचन्द्र जी का ब्रह्म अवतार बनना स्वाभाविक था. इसलिए आप अपने शरीर की तरफ ध्यान देकर जाति-पाति से संबंध न जोड़ें.
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गोत्र शब्द के भी कई अर्थ निकलते हैं. किसी एक व्यक्ति के नाम से ही उसकी सन्तान, कुल, वंश का गोत्र बन जाता है. इसी तरह प्राचीन काल में जब अधिक जातियाँ नहीं थीं, नाम-रूप और जनसंख्या कम थी तो सच्चे ब्राह्मण यानी ब्रह्म से पैदा हुए ऋषि की सन्तान, कुल और वंश का गोत्र उसी ऋषि के नाम से प्रचलित हुआ, वे वास्तव में ब्रह्म की ही सन्तान थे जिसमें वो रमण करते थे, मगर उनके शारीरिक संबंध से उनका गोत्र भी उसी के नाम से चल पड़ा. शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ के अनुसार केवल सात ऋषि थे. जिनके नाम से गोत्र चले. उनके नाम हैं विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ और कश्यप. इसके बाद सम्भव है और भी बन गए हों. अब आप सोचें कि यह विश्वामित्र शारीरिक जाति के ब्राह्मण नहीं थे, मगर वो ब्रह्म में रमण करते थे. अपने अन्दर ब्रह्म का अनुभव करते थे. इनका जो गोत्र चला वो उस ब्रह्म के कारण चला जिसको वो अपने अन्दर अनुभव करते थे. कारण रूप में ब्रह्म के अन्दर रहते थे. मगर उनके गोत्र के लोग शारीरिक रूप में कहें कि हम ब्राह्मण हैं तो यह ग़लत है. यह बात समझने योग्य है. शास्त्रों में लिखा है कि विश्वामित्र और वशिष्ठ जी का आपस में झगड़ा भी रहा. विश्वामित्र अपने आपको ब्रह्म ऋषि मानते थे मगर वशिष्ठ जी राजऋषि कहते थे. मगर समय आने पर जब वो ब्रह्म में लीन हुए तो वशिष्ठ जी भी मान गए. यह गोत्रों और जाति पाति के झगड़े प्राचीनकाल से चले आ रहे थे. तो सबसे पहले सात गोत्र थे, उसके बाद और भी बने.
इसलिए संसार में या भारत वर्ष में जितने भी मानव जाति के लोग हैं, इन सातों गोत्रों के ही हैं. सूरज में भी सात रंग हैं जो मेघों द्वारा वर्षा हो जाने के बाद आकाश में दिखाई पड़ते हैं. इसे गुड्डे गुड्डी की पींग कहते हैं. हम सब गुड्डी गुड्डे से ही पैदा हुए हैं, माता और पिता से ही पैदा हुए हैं और वास्तव में सूर्य की ही सन्तान हैं. गुड्डी गुड्डे की पींग को इन्द्रधनुष भी कहते हैं.
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इस गोत्र प्रणाली के अनुसार हम किसी गोत्र के या हम भारद्वाज गोत्र के न होने से इन्कार नहीं कर सकते. हमारा गोत्र भारद्वाज ठीक है. जिनकी बुद्धि इतनी विकसित नहीं है वो यह समझ लें कि हमारा आदि भारद्वाज है, उससे हम पैदा हुए हैं. मगर समझदार व्यक्ति यह समझें कि हम सब मेघ जाति के लोग ब्रह्म (प्रकाश) से पैदा हुए, वही हमारा गोत्र है और वही हमारा आदि है. यह जो हम तलाश करते हैं कि मेघ जाति किस जाति से निकली, किस वर्ण से निकली, यह सब व्यर्थ है. अपने उस आदि मेघ को जितना मर्ज़ी है तलाश कर लो, उसके शरीर का, उसके नाम रूप का हमें पता नहीं लग सकता. कबीर साहिब ने ठीक लिखा हैः-
राम के पिता जो दशरथ कहिए, दशरथ कौने जाया।
दशरथ पिता राम को दादा, कहो कहाँ से आया ।
स्थूल रूप में अपने आदि का पता लगाना कठिन है.
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भगत
हमारी मेघ जाति के लोग प्राचीन काल से भगत भी कहलाते आ रहे हैं. अब सोचना है कि ये मेघ जाति से कैसे जुड़े. मेघ जाति के सभी नर और नारी उपजाति के रूप में अपने नाम के साथ भगत लिखते हैं. इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए. प्राचीन काल में बड़े-बड़े भगत हुए हैं. ध्रुव भगत, भगत प्रह्लाद, भगत सूरदास, कबीर भगत, पूर्णभगत, भगत सुदामा, धन्ना भगत या इसी तरह और भगत हुए हैं. उन्होंने भक्तियाँ करके भगत बनने का अधिकार प्राप्त किया. मेघ जाति के लोगों ने कौन सा काम किया जिससे ये भगत नाम से प्रसिद्ध हुए. भगत वो है जो भक्ति करता है. इसलिए सबसे पहले हमें सोचना होगा कि भक्ति क्या है? इस विषय में कबीर साहिब का शब्द हैः-
भक्ति द्राविड़ उपजी, लाये रामानन्द।
परगट करी कबीर ने, सात दीप नौं खण्ड ।
इस शब्द को पढ़ कर कोई क्या समझे, मगर यह सत्य है. यह द्राविड़ मद्रास की तरफ एक प्रदेश है. अगर भक्ति वहाँ पैदा हुई तो सभी लोग वहाँ जाकर भक्ति ले आते, मगर ऐसा नहीं है. कबीर भगत के गुरु महाराज रामानन्द जी थे. द्राविड़ में पैदा हुए और इधर काशी या दूसरे स्थानों में आकर रहे. यह एक एहसान का ख्याल है.
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हम यह सोचते हैं कि हमें पैदा करने वाला पहला इन्सान कौन है. मेघ जाति के लोग भी आदि मेघ को ढूँढ़ते हैं कि शरीर से संबंधित हमारा पहला पूर्वज कौन था, किस जाति का था. जब तक यह जाति पाति का संबंध है उस समय तक भक्ति नहीं हो सकती. भक्ति शरीर द्वारा नहीं होती, न ही मन भक्ति कर सकता है. भक्ति करना उस चीज का काम है जो असल में हम हैं उसका कोई नाम रख लें, आत्मा कह लें, रूह कह लें, सुरत कह लें. जो इस शरीर मन आदि से नाता तोड़ लेता है, वो भगत है.
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अब प्रश्न पैदा होता है कि क्या मेघ जाति के लोग सचमुच भक्ति भाव रखते थे या यों ही किसी से सुन कर यह नाम रख दिया. इस जाति के लोगों में हिन्दू धर्म के संस्कार कूट-कूट कर भरे हुए थे. इनके रीति रिवाज़, धर्म, कर्म, हिन्दू धर्म और वेदों के अनुसार थे. हिन्दुओं की तरह के सब क्रियाकर्म ब्राह्मम जाति के कर्मों से मिलते थे. मरने के बाद क्रियाकर्म ग्यारहवें दिन करते थे और ब्राह्मण भी ग्यारहवें दिन ही करते हैं और भी दान, पुण्य, विवाह, तीर्थ यात्रा ये काम हिन्दू धर्म के अनुसार थे. भगत बनने का संस्कार भी उन्होंने इसी धर्म से ग्रहण किया. इस धर्म पर चलते-चलते आर्थिक दशा अच्छी न होने के कारण और अशिक्षित रहने के कारण, इस जाति में गरीबी, अधीनता और दासपने का आना स्वाभाविक है. जिस जाति के लोगों की आवश्यकताएँ सीमित हो जाती हैं वो जिस काम में भी लगें हो, वो किसी प्रकार का भी हो, आय-व्यय का कोई प्रश्न नहीं, वे जैसा वक़्त आ गया वैसा काट लेते हैं. ऐसी स्वाभाविक रहनी के लोग स्वाभाविक भगत हो जाते हैं. आप पूछेंगे कि आप यह क्या कह रहे हैं. भक्ति भाव तो बड़े-बड़े तप करने के बाद आता है. इसके लिए लोग घर-बार, कामकाज, धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठा छोड़ कर जंगलों और पहाड़ों की गुफाओं में जाकर कठिन साधन करते हैं, तब जाकर भक्तिभाव आता है. मेघ जाति के लोगों ने कोई तप नहीं किया, कोई साधन नहीं किया तो कैसे भगत बन गए. यह प्रकृति का एक भेद है जिसको सर्वसाधारण चाहे किसी भी जाति का हो, किसी भी धर्म को मानने वाला हो, नहीं जानता, जब तक कि उसे प्रकृति का ज्ञान न हो जाए. मैंने अपने सत्गुरु हुजूर परमदयाल फकीरचन्द जी महाराज से जो कुछ समझा उसे बताने की कोशिश करूँगा. हर एक आदमी अगर ध्यान से अपने अन्दर देखे तो पता चलेगा कि हर समय कोई न कोई इच्छा, आशा और वासना हर व्यक्ति के अन्दर उठती रहती है. उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए हम हरकत में आ जाते हैं, कर्म करते हैं. इच्छा पूरी हो जाने के बाद जिस चीज़ की इच्छा की, उसका भोग करते हैं और भोग से आनन्द, खुशी लेते हैं. फिर और इच्छा पैदा होती है कि इस प्रकार के भोग भोगते रहें. इसी तरह इच्छा, कर्म, फल, भोग फिर इच्छा, कर्म, फल और भोग का चक्कर चलता रहता है. जब तक यह चक्कर है कोई भी व्यक्ति भगत नहीं बन सकता. भगत वो है जिसकी आवश्यकताएँ कम हो गई हों, अधिक भोग-विलास की इच्छा न रही हो. चाहे ये आवश्यकताएँ और इच्छाएँ तप करने से अपने अधीन कर लो या उसकी जिन्दगी में दूसरे लोग उसको दबाए रखें, दलित और पतित बनाए रखें उसको आश्रित बनाए रखें, उसका कोई काम बड़े लोगों की सहायता के बगैर न हो सकता हो तो थोड़े में, ग़रीबी में, पतितपने में अपना जीवन गुजारता है. उसकी इच्छाएँ और वासनाएँ बलपूर्वक दबा दी जाती हैं. जिसकी आवश्यकताएँ बहुत सीमित हो गई हों और उसके अनुसार वासनाओं का उठना भी कम हो गया वह बिना किसी तप-साधन और अभ्यास के भगत बन सकता है और भक्ति भावना को अपने चित्त पटल में जगह दे सकता है. इच्छाएँ और वासनाएँ कम हो जाती हैं. जब तक जीवन है वे बिल्कुल समाप्त तो होती नहीं. साधु, संत, महात्मा की भी नहीं चाहे वह किसी भी जाति का हो, किसी भी धर्म-पंथ को मानने वाला हो. वह इन इच्छाओं और आशाओं के जाल से बच नहीं सकता.
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तो मेघ जाति के लोगों के अन्दर क्योंकि दासता, ग़रीबी और अधीनता-- जो मिल जाए खा लिया, पहन लिया और संतोष कर लिया-- के संस्कार भक्ति के रूप में उनके चित्तों पर भाव रूप में जब इकठ्ठे हो जाते हैं, तब वो भगत कहलाने के योग्य होते हैं. बड़े-बड़े संत अपने आपको दास कहते थे उनकी वाणी पढ़ के देखो.
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वे दास तब बने जब उन्होंने कठिन तप किए, साधन किए और अपनी आशाओं और वासनाओं पर विजय पाई तब दास कहलाए और मेघ जाति के लोगों के भाग्य में ज़बरदस्ती दासपना बिठा दिया गया. मैंने इनकी हालत अपनी आँखों से देखी है. कई परिवार ऐसे थे जिनको तन ढँकने के लिए कपड़ा नहीं मिलता था. फटे पुराने कपड़ों में गुजारा करते थे, वह भी एक धोती और चादर. जब उनके घर खाना बनता था तो कोई सब्जी, दाल नहीं होती थी. तन्दूर की सूखी रोटियाँ हुआ करती थीं. अगर घर में पाँच सदस्य हैं तो पाँच रोटियाँ बनाते थे. एक-एक रोटी सब को देते थे. अगर किसी की भूख रह जाए तो और तो है नहीं, माताएँ अपने बच्चों को पहले ही कह देती थीं कि एक रोटी से अधिक नहीं मिलेगी. अगर भूख रह जाए तो पानी से गुजारा करो. यह हालत मैंने आप देखी. इस ग़रीबी, दलित और पतितपने में कुदरती तौर पर उनके अन्दर ईश्वर, भगवान या कुछ और कह लो, का सहारा आ जाता था. चाहे वे ईश्वर-भगवान का नाम लें या न लें.
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संभव है कोई यह कहे कि यह भगत नाम किसलिए पड़ा? इस जाति के अधिक लोग कपड़ा बुनने का काम करते थे. क्योंकि भगत कबीर भी यह काम करते थे इसलिए इनको भी भगत कहा गया. यह भी स्वीकार करने योग्य बात है क्योंकि कभी समय था जब कपड़ा बुनना, चरखा कातना एक पुण्य कार्य समझा जाता था. महात्मा गाँधी ने भी 1920 में खादी पहनने, खादी बुनने, चरखा कातने का प्रचार किया. खादी भण्डार भी खोले. स्वयं भी चरखा कातते रहे. उन्होंने यह काम देशभक्ति के आधार पर किया और इस काम से देश को स्वतन्त्रता मिली. बड़ी-बड़ी जाति के लोगों ने यह काम किया. मगर मेघ जाति के लोग सब स्त्री-पुरुष पर्याप्त समय से ही यह काम कर रहे थे और उनके अन्दर भक्ति का भाव उठना ज़रूरी था. क्योंकि कपड़े से आदमी का शरीर सुरक्षित रहता है. नग्न होने से बच सकता है. नंगे को कपड़ा, भूखे को रोटी और जिसको कोई सहारा न हो उसको सहारा देना यह महान पुण्य कर्म हैं और सच्चे भगतों का काम है. आप महाभारत पढ़ें. भगवान कृष्ण ने द्रोपदी को नग्न होने से बचाया, चीर बढ़ाया. मेघ जाति के लोग भी चीर बढ़ाने का काम करते थे. यह ठीक है कि वे अपनी पेट की खातिर भी यह काम करते थे, मगर इसमें देश और समाज के दीन-दुखियों की सेवा थी. मेघ जाति के लोगों ने श्री कृष्ण जी महाराज के इस काम से लोगों को नग्न होने से बचाने के लिए यह काम किया. श्री कृष्ण भी मेघ के समान श्यामवर्ण वाले थे जैसे भगवान राम जन्म के समय अपनी माता को मेघ के समान सुन्दर वर्ण वाले दिखाई पड़े. इसी तरह भगवान श्री कृष्ण भी मेघों जैसे सुन्दर वर्ण के थे. कोई उनको काला कहता है, कोई श्यामवर्ण कहता है, श्याम वर्ण मेघों का ही होता है. मेघ भी वर्षा करके पृथ्वी के तन को नग्न होने से बचाते हैं. इस जाति के लोग कबीर पंथी नहीं थे बल्कि हिंदू या वेदधर्म मानने वाले थे. संभव है कबीर में भी विश्वास रखते हों क्योंकि भगत कबीर भी महान संत हुए हैं, जिन्होंने सन्तमत को नया रंग दिया और भक्ति को सारे संसार में प्रगट किया.
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एक चीज और बड़े महत्व की मेरे जीवन के अनुभव में आई. जम्मू प्रांत में ऊँची श्रेणी के सज्जन जब देखते थे कि कोई पिछड़ी जाति का आ गया है तो परे, परे, परे कहते थे. तीन बार परे कहते थे. ऐसा कहना उनका आचार व्यवहार बन गया था. इनसे दूर रहना हिंदुओं में पुण्य समझा जाता था. अपना आप भ्रष्ट नहीं होने देते थे, यह उनका स्वभाव बन गया था. एक बार मैं जम्मू से स्यालकोट आ रहा था. रेलगाड़ी पर सवार मेरे साथ जम्मू प्रांत की ऊँची जात की एक माता बैठी थी. रास्ते में जहाँ अंग्रेजों का राज शुरू हो जाता था, वहाँ एक स्टेशन जिसका नाम टाहलीवाला था, जब उस स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो एक व्यक्ति भरी गाड़ी पर सवार हुआ. रंग साँवला, कपड़े फटे पुराने पहने हुए. जब वह गाड़ी पर चढ़ा, उस बूढ़ी माता जी की ओर बढ़ा तो माता जी के मुँह से परे, परे, परे निकला. वह बड़े जोश में आई कि मैं भिट जाऊँगी. उठकर दौड़ी और मेरे ऊपर गिर पड़ी. वह मैले कपड़े पहने हुए जो व्यक्ति था, उसने कहा कि माता जी, मैं राजपूत हूँ, ज़मीदार हूँ. फिर माता जी ने उसे अपने पास बैठने की आज्ञा दे दी. इससे पता चलता है कि यह छुआछूत का भाव उनके अन्दर कितना प्रबल था. जिनको परे, परे, परे कहा जाए अगर वे सच्चे भगत हों तो उसका अर्थ वे अपने भक्ति भाव के आधार पर कुछ और ही लगा लेते हैं.
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इस परे-परे के ख्याल के प्रभाव से मेघ जाति में भी अच्छे-अच्छे भगत साधू उत्पन्न हुए, जिनमें केरनवाले साधू, कतोबन्दे वाले साधू, ऋषि साधू, वाहगराँ गाँव के साधू, साधूराम और जागीरी साधू जैसे महापुरुष पैदा हुए. कतोबन्दे वाले साधू और ऋषि साधू की तो समाधियाँ बनीं मगर अब वो पाकिस्तान में चली गईं. केरन वाले साधू की अब भी जम्मू रियासत में समाधि है और इस लड़ी के अब भी काम करते हैं. इसके अतिरिक्त भगत मंगल देव, भगत रामरखा, ये विद्वान भी थे, उपदेशक का काम करते थे. और भी होंगे जिनका मुझे पता न लगा हो मगर जाति भाव के संस्कार ने इस जाति के लोगों पर बहुत अच्छा प्रभाव किया.
इसलिए विश्वास से कहा जा सकता है कि इस जाति के लोग भगत कैसे कहलाए और यह भगत नाम सबकी उपजाति बन गई. भारतवर्ष में और भी जातियाँ हैं जो अपने आपको भगत कहती हैं.
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आर्य
स्वामी दयानन्द जी ने आर्य समाज की स्थापना की.
समय गुज़रता गया. मेघ जाति के लोग जम्मू प्रांत के पहाड़ी इलाकों से उतर कर अंग्रेजी राज्य पंजाब में काफी संख्या में आ बसे. अधिकतर पंजाब के गुरदासपुर, स्यालकोट और गुजरात के जिलों, गाँवों और कस्बों में आकर बसे. उन्नीसवीं सदी के अन्त में स्यालकोट में मेघ उद्धार सभा खोली गई. उस सभा के सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ता लाला गंगाराम हुए. न्होंने मेघ जाति के सुधार के लिए और उन्नति के लिए बहुत काम किया. उस सभा ने स्यालकोट में एक आर्य स्कूल भी खोला. उस स्कूल में मेघ जाति के लड़के मुफ़्त शिक्षा पाने लगे. इनके लिए मुफ़्त खाने-पीने का भी प्रबंध था. इस सभा के लोग सभी आर्यसमाजी विचारों के थे. मेघ जाति के लोगों में आर्य समाज का प्रचार शुरू किया. आर्य समाज का मन्दिर भी बना. पंजाब के जिला मुलतान में ज़मीन खरीदी गई और एक गाँव बसाया जहाँ मेघ जाति के लोग पंजाब और जम्मू की तरफ से आये और वहाँ बसे. इस गाँव का नाम आर्य नगर रखा. आर्य समाज ने जम्मू में भी मेघ जाति के भले के लिए बहुत काम किया. उनकी सहायता करते हुए, वहाँ पर एक रामचन्द्र नाम का आर्य समाज का उपदेशक अपनी जान न्योछावर कर गया उसको अख़नूर से जम्मू आने वाली नहर में डुबो दिया गया. आर्य समाज के उपदेशक इनके घर-घर जाकर, इनके रहन सहन का ख्याल रखते हुए, आर्य समाज का प्रचार करते और इस जाति का नया नामकरण संस्कार ‘आर्य’ नाम से किया.
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आर्य शब्द के कई अर्थ हैं. जैसे श्रेष्ठ और भद्रपुरुष, अपने ही धर्म में लगा हुआ, इसके अतिरिक्त आर्यवर्त के रहने वाले इत्यादि और भी कई अर्थ हैं. तो ऋषि दयानन्द जी महाराज और उनकी बनाई गई आर्य समाज, इनके श्रेष्ठ पुरुषों और उपदेशकों के प्रचार के कारण मेघ जाति के लोग और भगत लोग, आर्य समाज के नियमों की रंगत में रंगे गए. जो भी किसी गाँव, कस्बे में या शहर में जाकर उनसे मिलता, बातचीत करता, इनसे परिचय पूछता तो क्या बूढ़े, जवान और बच्चे, स्त्रियाँ अपने आपको 'आर्य' बतातीं. जिले में आर्य नगर को देखने के लिए बड़ी-बड़ी दूर से लोग जाते थे, जहाँ आर्यों के बिना और कोई नहीं रहता था. गाँव को देख कर आर्यवर्त, आर्यों का प्राचीन समय, आर्यों की सभ्यता याद आती थी. भगत मंगल देव व भगत रामरखा को लोग पंडित भी कहते थे, क्योंकि उपदेश करते थे, संध्या, गायत्री मंत्र सिखलाते थे. मुझे भी पंडित मंगल देव जी ने 1912 में गायत्री मंत्र का जाप दिया था. ये कवि भी थे. पंडित मंगल देव ने पूरन भगत के किस्से में बड़ी सुन्दरता से उसका जीवन लिखा. पंडित मंगल देव कोटली लोहारां जिला स्यालकोट के रहने वाले थे. पूरन भगत का किस्सा लिखते समय उन्होंने अपने गाँव की बहुत महिमा लिखी. सारी तो याद नहीं एक कड़ी याद हैः-
ब्राह्मण बनिये, आर्ये, झयूर, छींबे,
विच कोटली बहुत लोहार रहन्दे ।
इस गाँव में मेघ जाति के लोग रहते थे, मगर आर्य कहलाते थे.
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अगर गहराई से सोचा जाए तो मेघ, भगत और आर्य शब्दों का एक ही भाव है. कोई देश है जिसे नाना प्रकार के नामों से प्रकट किया गया है, जहाँ से सब मानव जाति के लोग आते हैं. आर्य शब्द का भी असली अर्थ (स्वधर्मरत) जो अपने आपको जानता है कि मैं कहाँ से आया हूँ, वही सच्चा आर्य है.
तीसरा प्रकरण
पहला इन्सान
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आज के युग में सबकी बुद्धि तीव्र होती जा रही है. मेरे इन दो प्रकरणों को पढ़ कर सम्भव है कोई अनुमान लगाये कि मैंने बहुत बातें बनाई हैं, बुद्धि से काम लिया है. मगर जिस बात की खोज में मेघ जाति के लोग लगे हुए हैं, उसका वर्णन नहीं किया गया. समस्या वहीं की वहीं है. ये लोग जानना चाहते हैं कि मानव रूप में जो पहला इन्सान बना वो कहाँ से आया, किसकी सन्तान थी.
P-44-45
इस ख्याल का पता मुझे तब लगा जब मैं अपने सत्गुरु परम दयाल फकीर चंद जी महाराज की शरण में गया. उन्होंने इस ख्याल का रूप और उसके काम समझाए. भगत लोग राम को, कृष्ण को, देवी-देवताओं को, गुरुओं को, अपने ख्याल से पैदा करके उनसे काम ले लेते हैं. बात की समझ नहीं आती थी, किससे पूछते. बीते अवतार, देवी-देवता तो हैं नहीं जिनसे पता चलता कि वे आते हैं या नहीं, लोगों के काम करते हैं या नहीं जैसे कि भगत लोग कहते हैं कि राम ने प्रगट होकर यह कर दिया, वो कर दिया. उन्होंने इतिहास में पहली बार संसार के लोगों को बताया कि कई लोग अपनी इच्छा को लेकर मेरा सुमिरन-ध्यान करते हैं. मुझे प्रकट कर लेते हैं और काम ले लेते हैं, मगर मैं नहीं होता. इससे यकीन हो गया कि यह सब ख्याल की दुनिया है. हम भी ख्याल की संतान हैं. ख्याल ही जन्म लेता है और ख्याल ही मर जाता है.
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जो लोग इन सब बातों को समझ जाते हैं जो मैंने तीसरे प्रकरण में लिखी हैं कि यह सब कुछ मन-माया का खेल है, उस ख्याल की ताकत है जो यह सारी रचना करता है, वे लोग इस शरीर को रखते हुए भी शारीरिक अहंभाव में नहीं आते और अन्त में खुशी से इसका त्याग कर देते हैं. इसको कबीर साहिब ने ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ कहा.
P-51
चौथा प्रकरण
मानव जाति का विभाजन
P-52
मानव जाति के विभाजित होने का सबसे बड़ा कारण अज्ञान है. वह अज्ञान यही है कि मानव उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय को नहीं जानते, ख्याल की ताकत को नहीं समझते और इस सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, और महेश को नहीं जानते. ख्याल का उठना, कुछ देर बने रहना और फिर खत्म हो जाना ही ब्रह्मा- विष्णु- महेश है. अज्ञान के अतिरिक्त और भी कारण हैं, जिनमें बड़े कारण हुकूमत, धन-धान्य, मान-प्रतिष्ठा की इच्छा है. जब यह वर्णाश्रम धर्म नहीं बनाया गया था, तब सब इन्सान थे. लोगों ने अज्ञान से समझ लिया कि हमारे चार भाग हो गए हैं. जैसा कि पीछे लिखा जा चुका है कि शरीर एक है, उसके चार भाग है. सिर, बाजू, धड़, और टाँगे पैर. इनकी हरकतों के या काम के अनुसार ये चार वर्ण बनाए गए हैं. जैसे शरीर एक ही है, उसके चार भाग हैं. इसी तरह इन्सान सब एक थे मगर समय की आवश्यकता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र (सेवा) का काम दिया गया इसमें इन्सान की बाँट नहीं थी. जैसे शरीर का कोई भी अंग काम करे, वो सारे शरीर का काम समझा जाता है, इसी प्रकार प्रत्येक वर्ण का काम सारे वर्णों का होता था. ब्राह्मण का काम चारों वर्णों के लिए और क्षत्रिय का काम चारों वर्णों के लिए, वैश्य का काम चारों वर्णों के लिए और शूद्र का काम भी चारों वर्णों के लिए हुआ करता था. समय आया जब इस वर्ण व्यवस्था के यथार्थ आशय को लोग भूल गए. जिस इच्छा को लेकर ये वर्ण बनाए गए थे, उसकी समझ छिन्न-भिन्न हो गई और अज्ञान छा गया. ज्यों-ज्यों समय गुजरता गया जिन लोगों को ब्राह्मण और शूद्र का काम दिया गया था, वे भी, अपने कर्त्तव्य को निभाने के योग्य न रहे. ब्राह्मण, ब्राह्मण न रहे, शूद्र, शूद्र न रहे. हुकूमत क्षत्रियों के हाथ में चली गई. धन-धान्य पर वैश्य छा गए. ये दोनों वर्ग (ब्राह्मण और शूद्र) आर्थिक रूप में बहुत गिरे. जीवन स्तर भी गिर गया. अन्त में वो वक़्त आया जब इन दोनों वर्गों के लोग क्षत्रियों और वैश्यों से माँग-माँग कर खाने लगे. फिर उन्होंने अपना जीवन स्तर ऊँचा करने के यत्न किए. ब्राह्मण अपने पूर्वजों वशिष्ठ, व्यास, मनु और भृगु की शिक्षा के अनुसार कई प्रकार के व्यवसाय करने लगे. मनु जी ने क्या शिक्षा दी? यही कि हम सांसारिक अवस्थाओं को अनुकूल बनाएँ, उन नियमों पर चलें कि जिन नियमों पर चलकर सांसारिक जीवन ठीक रह सके. भृगु जी की शिक्षा में कर्म फिलासफी है कि जैसे-जैसे हमारे विचार या भाव हैं उनके अनुसार हमें जन्म मिलते हैं. ज्योतिष का सबसे बड़ा ग्रन्थ भृगु संहिता इस नियम के आधार पर है. वशिष्ठ जी ने कहा है कि संसार का यह जितना खेल है सब मानसिक या सूक्ष्म प्रकृति का है. यह मनोमय जगत है या संकल्पमय संसार है. व्यास जी ने ज्ञान दिया. व्यास जी ज्ञानदाता कहे जाते हैं कि संसार का खेल मानसिक प्रकृति का है. मगर इससे परे अर्थात् संकल्प की रचना से परे क्या है, इसकी शिक्षा भी देते हैं. इन चारों की शिक्षा के अनुसार अपने तरह-तरह के व्यवसाय बना लिए. इसी तरह शूद्र (सेवादारों) ने भी नाना प्रकार के व्यवसाय बना लिए. किसी ने खेती का काम, किसी ने सोने चाँदी का, किसी ने लकड़ी का, किसी ने लोहे का, किसी ने कपड़े धोने का, किसी ने कपड़े बुनने का, किसी ने सफ़ाई का, किसी ने चमड़े का और किसी ने बाल काटने का. इसी तरह और भी छोटे-छोटे कई व्यवसाय वर्ण आश्रम के असली भाव को भुलाकर किए जाने लगे और अज्ञान के कारण छुआछूत और घृणा करने लगे. मगर जो असली कर्त्तव्य पहले ब्राह्मण करते थे, यज्ञ करना और कराना, शिक्षा पढ़नी और पढ़ानी, दान करना और कराना उसमें असमर्थ हो गए. इसी तरह शूद्र भी अपने आपको न जानकर दूसरों की सेवा-परोपकार का काम भूल गए.
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इसी तरह क्षत्रिय और वैश्य भी जिन नियमों के आधार पर वर्ण आश्रम बनाए गए थे उसको भूल गए. ज्यों-ज्यों उनकी सन्तान का फैलाव होता गया, त्यों-त्यों उन्होंने आपस में मतभेद होने के कारण देश के टुकड़े कर दिए. छोटे-छोटे राज्य बन गए. अपनी सन्तान को भूमिपति बनाते गए और दूसरों को उनके अधीन काम करने के लिए मजबूर किया गया. जिसका नतीजा यह हुआ कि बाहर से आक्रमणकारी आए और उन्होंने भारत देश पर आसानी से प्रभुसत्ता बना ली. इसी तरह वैश्य लोगों ने अपने यथार्थ मन्तव्य को भूलकर आप और अपनी संतान को साहूकार बना दिया. व्यापार और दूसरे उद्योग अपने हाथ में ले लिए. दूसरे वर्ग के लोगों को कर्ज़ा देते, उसका सूद लेते. सूद इतना होता कि लोगों के लिए उतारना मुश्किल हो जाता. मैंने अपने जीवन में देखा कि बड़े-बड़े क्षत्रिय, ब्राह्मण साहूकारों से कर्ज़ा लेते और सारी आयु उतार न सकते. कर्ज़ा बढ़ता ही जाता. सूद दर सूद लगाया जाता था. हर चीज़ की हद होती है. पंजाब में इसी के कारण दो वर्ग बन गए. एक ज़मींदारों का और एक साहूकारों का. समय आया पंजाब के सभी ज़मींदार हिंदू, मुसलमान इन साहूकारों के विरुद्ध मिलकर काम करने लगे. पंजाब में यूनियन सरकार बन गई. उन्होंने साहूकारों के खिलाफ कानून बनाए और धीरे-धीरे साहूकारा खत्म हो गया. कर्ज़े भी खत्म हो गए, किसी ने नहीं दिए. जब वर्ण आश्रम धर्म का अभिप्राय समाप्त हो गया तो ये जातियाँ बन गईं. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की अनेक जातियाँ बन गई और अब इनकी अनगिनत जातियाँ हैं. एक दूसरे से घृणा-द्वेष अपने स्वार्थ के लिए करने लगे और कई जातियों के लोगों को दबाना पड़ा. इसके लिए कई तरीके अपनाए गए जिसमें एक छुआछूत भी है. इस छुआछूत की तह बहुत गहरी है. जो लोग परमार्थिक दृष्टि से अपने मन को शुद्ध करने में लगे उनको गन्दे विचार के लोगों से दूर रहना पड़ता था. गन्दे विचारों से बचने के लिए गन्दे विचारवालों की संगत छोड़नी पड़ती थी और भी कई साधन करने पड़ते थे. अपनी शक्ति से जो लोग ध्यान-धारणा आदि साधनों में लगे उन्हें गन्दे विचार छोड़ने पड़ते थे. उन्हें भी गन्दे विचारों वाले लोगों से दूर रहना पड़ता था. उन लोगों की देखा-देखी लोगों ने अज्ञानवश कमजोर वर्ग की जातियों से घृणा शुरू कर दी. अपनी उन्नति के लिए दूसरों को दबाना शुरू कर दिया. इससे उनके अनेक व्यवसाय, पेट पालने के साधन बढ़ते गए और वे उन्नति करने लगे. मगर अपने व्यवसायों में उस शिक्षा की नकल करते थे. हर असल की नकल होती है. जिस व्यक्ति में असली काम करने की शक्ति न हो, उसके लिए नकली काम करना स्वाभविक है.
मुझे याद है स्यालकोट जो अब पाकिस्तान में है वहाँ पर एक अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर था. उसका एक मुसलमान चपरासी था, जो बड़ा आज्ञाकारी था. एक बार चपरासी ने डिप्टी कमिश्नर से अर्ज़ की कि साहिब! मैं गरीब आदमी हूँ, मेरा एक लड़का है. उसने आठवीं कक्षा पास की है, आगे मैं उसको पढ़ा नहीं सकता. डिप्टी कमिश्नर ने कहा, उसको कल मेरे दफ़्तर में ले आना. दूसरे दिन जब वो लड़का आया तो डिप्टी कमिश्नर ने उसको माल अफ़सर लगा दिया. हुक्म लिख कर दे दिया. वह लड़का उसी दिन काम पर लग गया. मगर उसको माल अफ़सर का काम नहीं आता था. वह घबरा गया. चपरासी ने अर्ज़ की कि यह काम तो इससे नहीं होगा. न इतनी पढ़ाई है, न इतनी योग्यता है. डिप्टी कमिश्नर ने लड़के को कहा कि मेरी बात मानो. अपने दफ़्तर के बाहर ‘नो एंट्री’ का बोर्ड लगा दो अर्थात् बिना आज्ञा अन्दर आना मना है. दूसरे यह कहा कि किसी के साथ अधिक बातचीत नहीं करनी. अपने आपको सुरक्षित रखना है, ज्यादा मेल-मिलाप नहीं करना. जो पत्र हैड क्लर्क लेकर आए जहाँ वो कहे पढ़ कर हस्ताक्षर कर देना. कुछ वक़्त के बाद तजुर्बा हो गया और काम चल पड़ा. इसी तरह बड़ी जाति के लोगों के व्यवसाय चले. यह एक उदाहरण है जिसमें (नो एडमिशन) और आम लोगों से परे का भाव छुआछूत से मिलता है. वास्तव में अछूत वो होता है जिसके विचार-भाव गंदे हों. सच्चे इन्सान उनसे घृणा का बर्ताव नहीं करते बल्कि उनका भी सुधार करने का यत्न करते हैं. मगर जिन्होंने वास्तविकता, आध्यात्मिकता नहीं जानी वो अन्य जाति के वर्ग से घृणा करते हैं. अपने व्यवसाय चलाते हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं.
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छुआछूत और घृणा-द्वेष के क्रम में जम्मू कश्मीर के लोग किसी से कम नहीं बल्कि आगे थे. दूर ऊँचे पहाड़ों में रहने के कारण उन्हें शिक्षा ग्रहण करनी भी कठिन थी. बाहर से कई लोग आते थे और वहाँ भोले-भाले लोगों से अपना मतलब निकालते थे. इस अछूतपने से काशी बनारस आदि से ब्राह्मण आया करते थे और छुआछूत के बल से अपना मतलब निकालते थे. मुझे एक ब्राह्मण की याद आती है जो काशी की तरफ से आया. ग़रीब आदमी था. वहाँ कोई काम नहीं चला. उसकी एक लड़की थी. लड़की की शादी होनी थी. उसके पास पैसा नहीं था. उसकी स्त्री लड़ती थी और कहती थी कि जाओ, कहीं से माँग कर लाओ ताकि लड़की की शादी हो जाए. वह घर से एक गड़वी (लोटा) और एक छड़ी लेकर निकला. जिधर जाता माँग कर खाता. धीरे-धीरे काफी समय के बाद जम्मू में पहुँचा. जम्मू शहर के साथ ही नीचे जम्मू तवी नामी नदी बहती है नदी के पार एक बाहू का किला है. इर्दगिर्द घने जंगल थे. उस जंगल में एक कुआँ भी था. एक दिन महाराजा प्रताप सिंह जो कि उस समय जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा थे, उस जंगल में शिकार खेल रहे थे. गरमी के दिन थे. महाराजा को प्यास लगी. पैदल ही चल रहे थे, साथ कोई नहीं था. वो उस कुएँ पर गये ताकि प्यास बुझा सकें. जब कुएँ पर पहुँचे तो क्या देखा कि एक आदमी वहाँ खड़ा था जिसके हाथ में एक गड़वी और छड़ी थी. गड़वी के साथ कुएँ से पानी निकालता था. महाराजा साहिब वहाँ जाकर खड़े हो गए और उससे कहा कि भाई पानी पिला दो, प्यास बहुत लगी है. उस सज्जन ने गड़वी के साथ पानी निकाला और कहा, लो पियो. महाराजा साहिब आगे बढ़े. गड़वी को पकड़ने लगे. उस आदमी ने महाराजा साहिब को कहा कि परे, परे, परे. गड़वी को हाथ न लगाओ, यह भिट जाएगी. दोनों हाथ करो, मैं पानी डाल देता हूँ और हाथों से पी लेना. महाराजा साहिब को प्यास ने बहुत सताया हुआ था. उन्होंने दोनों हाथों में पानी लेकर पी लिया, मगर उसने गड़वी नहीं दी. इसके बाद महाराजा साहिब अपने महलों की तरफ चले गए. महाराजा साहिब में सहनशीलता थी, उन्होंने इसलिए कुछ नहीं कहा कि यह तो गरीब नासमझदार है मगर उस ब्राह्मण की अवस्था यह थी कि उसने ब्राह्मणत्व गड़वी में समझा हुआ था. ग़रीबी थी, माँगने आया था. मगर पुराने संस्कारों के कारण अपने आपको ब्राह्मण जाति का समझता था और अपने ब्राह्मणपने की लकीर को कायम रखने के लिए और अपना काम निकालने के लिए छूआछूत का सहारा लेता था. उसके बस की बात नहीं थी.
वह भी जम्मू-शहर में पहुँचा और लोगों से पूछने लगा कि यहाँ के महाराजा कहाँ रहते हैं, किस समय उनका दरबार लगता है. किसी ने उसको समझा दिया कि मण्डी में उनके महल हैं, वहीं पर दरबार लगता है. तुम जाकर पहले अपना नाम लिखाओ, फिर बारी पर तुम्हें मिलने की आज्ञा दी जाएगी. उसने ऐसा ही किया. छः-सात दिन के बाद उसको बुलाया गया और दरबार में जाकर महाराजा साहिब को आशीर्वाद देने लगा और अपनी राम कहानी सुनाई कि मैं ग़रीब आदमी हूँ. लड़की जवान है, पैसा पास नहीं, स्त्री लड़ती है. इसलिए मैं इतनी दूर पैदल चल कर आया हूँ. आप कृपा करके मुझे कुछ दान दे दें क्योंकि मैं ब्राह्मण हूँ. उससे मैं अपनी लड़की की शादी करूँगा.
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महाराजा साहिब उसकी शक्ल देखकर हँसे कि यह वही आदमी है जिसने मुझे पानी पिलाने के लिए अपनी गड़वी को हाथ नहीं लगाने दिया था. महाराजा साहिब ने उसको कहा कि भाई तुम्हें दान दे दिया जाएगा. मगर एक शर्त है. ब्राह्मण ने कहा, महाराज शर्त बताइए. महाराजा साहिब ने कहा कि मैं तेरी गड़वी में पानी अपना मुँह लगाकर पिऊँगा. इस पर वो ब्राह्मण निराश हो गया और कहने लगा कि महाराज, मेरा ब्राह्मणधर्म यह आज्ञा नहीं देता. राजा साहिब ने उसे माफ़ कर दिया और ब्राह्मण को कहा कि तुम यहाँ मन्दिर में पुजारी का काम किया करो.
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जब महाराजा हरि सिंह जोकि महाराजा प्रताप सिंह के बाद राजगद्दी पर काम करते थे जब उनके यहाँ इंग्लैंड में लड़का पैदा हुआ, उसे लेकर आए तो महाराजा हरि सिंह और उसकी महारानी रघुनाथ मंदिर में मात्था टेकने के लिए गए. वहाँ ब्राह्मण खड़ा था. महाराजा हरि सिंह ने उसे देखकर, हाथ जोड़ कर उसे सीताराम कहा तो उसने अपनी छड़ी उठाई. मारी तो नहीं मगर मारने की हरक़त दिखाई. उसको महारानी साहिबा नहीं जानती थीं. उसने हैरान होकर पूछा कि यह कौन है. महाराजा साहिब ने बताया कि यह बाबा सीताराम है. ब्राह्मण ने छड़ी फिर उठाई. महारानी बहुत हँसी.
उस ब्राह्मण की कथा से आपको विश्वास हो जाना चाहिए कि जिनमें काम करने की योग्यता नहीं रहती, वे ऐसी हरकतों या कामों का सहारा लेते हैं जिससे उनका जीवन निर्वाह हो सके. तो यह छूआछूत का असली कारण बता दिया गया है. यह उस वक्त शुरू हुई जिस वक्त बड़े वर्गों के लोग अपने कार्य करने योग्य न रहे, तो उन्होंने इस तरह के काम शुरू कर दिए. उनके लिए भी यह स्वाभविक था.
यह केवल ब्राह्मणों के साथ ही नहीं गुजरी. ब्राह्मण जाति के लोग अपने गुजारे के लिए वही काम कर सकते थे जो समय के मुताबिक उनके सहायक हो सके. इसी तरह दूसरी जातियाँ के साथ भी था. इन कामों से हिंदू जाति और मानव जाति का विभाजन हुआ.
मानव जाति के बँटने के और भी कई कारण हैं, जैसे देश, प्रदेश और सूबे, धर्म, पन्थ और सम्पद्राय और रीति-रिवाज़ और भाषा. इस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्रों की इतनी जातियाँ हैं जिनकी गिनती करनी कठिन है. जातिपाति का विस्तार शिखर तक पहुँच गया है. अभी और कितना विस्तार होगा अनुमान लगाना कठिन है. इसका मूल कारण अज्ञान है, इन्सानियत को भूल जाना है.
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जम्मू-कश्मीर
जम्मू और कश्मीर प्रान्त मानवता के विभाजन में और एक दूसरे से घृणा-द्वेष में किसी से कम नहीं रहा. यहाँ पर भी क्षत्रिय आकर भूमि के स्वामी बन गए. जम्मू-कश्मीर में अधिकतर पहाड़ी प्रदेश हैं. खेती के अतिरिक्त वहाँ भेड़ बकरियाँ पालने का काम कई वर्ग और जाति के लोग करते थे. जहाँ भेड़ पालने का काम होता है, वहाँ भेड़ों की ऊन के काम होने ज़रूरी होते हैं. उनके कपड़े बुनने वहाँ का व्यवसाय रहा है. इस प्रदेश में समय आने पर कश्मीर के अधिकतर लोग मुसलमान हो गए. धर्म तब्दील कर लिया, मगर काम नहीं किया. जम्मू की तरफ लोग हिन्दू धर्म में ही रहे और वे भी भेड़ बकरी पालने और गर्म कपड़े बुनने का काम करते रहे. कश्मीर में ज्यों-ज्यों उनकी सन्तान बढ़ती गई जो मुसलमान थे वे भी पहाड़ों से नीचे आए. अंग्रेजी राज्य में भी आ गए. पंजाब में गुरदासपुर, स्यालकोट, गुजरात, जेहलम और रावलपिंडी जिलों में आकर बसे मगर वो कपड़ा बुनने का काम उसी तरह करते रहे. वे लोग अपने आपको कश्मीरी कहते थे या कश्मीर जाति के बताते थे. उनमें बहुत से कश्मीरी कहा करते थे कि हम कश्मीर में ब्राह्मण जाति से मुसलमान बने और नीचे आकर कपड़ा बुनने का काम शुरू कर दिया. जम्मू प्रांत के पहाड़ों से जो लोग धीरे-धीरे नीचे आए उनमें एक मेघ जाति भी थी जो ऊँचे पहाड़ों से उतर कर आई. ये भी पंजाब में गुरदासपुर, स्यालकोट और कुछ गुजरात में बसे. ये भी अपने आप के बारे बताते थे कि हमारी जाति ब्राह्मणों से ही निकली. इनके गोत्र, ब्राह्मणों के गोत्रों से मिलते हैं, रीति-रिवाज़, कर्मक्रिया, तीर्थ-यात्रा या पूजा-पाठ ब्राह्मणों से मिलता है. इसमें ऐसे लोग भी थे जो ब्राह्मणों का काम करते थे. ब्याह-शादी, श्राद्ध तर्पण और क्रिया के सारे काम वो करते थे. पंजाब में उनको दुआगीर कहते थे और बाद में उनको पंडित जी कहा करते थे.
यह
जम्मू का पहाड़ी इलाका डुग्गर
कहलाता था.
उनकी
भाषा को भी डोगरी कहा जाता था.
डोगरी
भाषा की कोई लिपि नहीं थी.
वहाँ
के लोग डोगरी भाषा के कारण
डोगरे या डुग्गर के नहीं कहलाते
थे,
बल्कि
जनता के डोगरेपन की वजह से उस
भाषा का नाम भी डोगरी रखा गया.
ये
डोगरे सभी ब्राह्मण थे और अब
भी उनकी एक उपजाति है.
प्राचीन
काल में ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों
में रह कर ऋषि-मुनि
तप किया करते थे जो ब्राह्मण
जाति के थे.
धीरे-धीरे
वो वहाँ के वासी बन गए और अपने
आपको डोगरे कहने लगे.
अब
भी ब्राह्मणों की यह जाति
जम्मू-कश्मीर
और हिमाचल में है.
P-58
पहले पहल वहाँ सभी ब्राह्मण रहते थे. कोई समय था जब पहाड़ों में दूर-दूर बसने वाली जनता एक ही ख्याल की, जाति की, उपजाति की और वंशवर्ग की थी. उस समय कोई अदालतें नहीं थीं. जब कभी आपस में लड़ाई झगड़ा हो जाता था या कोई ऐसा काम करता जो कि समाज के नियम के विरुद्ध हो तो उस व्यक्ति को समाज के लोग आप ही दंड देते थे. कभी-कभी जब आवश्यकता पड़े, सामाजिक बहिष्कार कर देते थे. उस समय के बहिष्कार का नाम उस समय ‘हुक्का पानी छेकना’ था. जिसका हुक्का पानी छेका जाता था उसके साथ हुक्का पीना या और मेल-मिलाप, प्रेम लोग छोड़ देते थे. यह दण्ड देने का तरीका था. हमने अपने जीवन में भी देखा. हमारी मेघ जाति भी हुक्का-पानी छेक देती थी. उसके साथ खाना पीना, रिश्ता करना समाप्त कर देते थे. मेरे अपने गाँव में एक मेघ जाति का व्यक्ति था उसने ग़लती से गुस्से में आकर अपनी स्त्री को कह दिया, “बेबे (बूढ़ी महिला या माँ) तू चुप कर.” बिरादरी ने इसी एक छोटी सी बात पर उसका हुक्का पानी बंद कर दिया. उस समय मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था. मैंने बिरादरी को समझाया मगर वो मानते नहीं थे. मैंने कहा कि हिन्दू जाति में हुक्का पानी बंद करने के कारण गिरावट आ गई. लोग अपना धर्म छोड गए, क्योंकि उनसे घृणा की जाती थी. मैंने उस दम्पती का वैदिक रीति के साथ विवाह कर दिया और बिरादरी वाले खुश हो गए और उसका हुक्का पानी खोल दिया. इसी तरह और भी कई मिसालें हैं. हमारे गाँव के पास एक गाँव था. वहाँ के नम्बरदार का लड़का जब जवान हुआ, उसकी शादी रचाई गई. इनके घर में लड़की गाने के लिए आती थी. इन लड़कियों में एक मुसलमान लड़की मिरासी जाति की थी. उसका प्रेम नम्बरदार के लड़के के साथ हो गया और दोनों का विवाह हो गया. दूसरा विवाह बन्द कर दिया गया. हिन्दुओं ने उस नम्बरदार के लड़के का हुक्का पानी छेक दिया. उसने इस सामाजिक बहिष्कार का बदला लेने के लिए मुसलमान धर्म ग्रहण कर लिया और कई साल तक वह मुसलमान बना रहा. गाँव में वो आधी ज़मीन का मालिक था. वहाँ के रहने वाले हिन्दुओं ने सोचा कि कोई समय आएगा जब इस गाँव के अधिकतर रहने वाले मुसलमान होंगे. मेरे पिता जी भी वहाँ गए. दोनों को समझाया और वह नम्बरदार का लड़का मान गया और फिर हिन्दू हो गया. सारे गाँव वालों ने उसके साथ हुक्का पीना शुरू कर दिया. इसी हुक्का-पानी छेकने की बीमारी के कारण डुग्गर प्रदेश में ब्राह्मण लोग भी बंट गए. कई जातियाँ बन गईं. वही ब्राह्मण जब कश्मीर में जा बसे तो वहाँ भी यही बर्ताव किया. हुक्का-पानी बंद करने की परंपरा चलाई. लोग मुसलमान हो गए. जेहलम दरिया पर ब्राह्मणों के घाट पर वे लोग नहा नहीं सकते थे, पानी नहीं भर सकते थे. ब्राह्मणों का घाट ऊपर और बाकी जातियों का नीचे था. अब तो वहाँ पर उल्टा काम हो गया है. ब्राह्मणों का घाट नीचे और बाकी जातियों का घाट ऊपर हो गया है. तो यह इन्कलाब उस समय के रीति-रिवाज़ से हुआ है. उस समय यह रीति-रिवाज़ बुरा नहीं समझा जाता था. डुग्गर प्रदेश में ब्राह्मणों की नाना जातियाँ बन गईं जिनमें एक यह मेघ जाति भी थी. यह सब छुआछूत के कारण हुआ. उस समय छुआछूत अपनी भलाई के लिए करते थे. मगर उसका परिणाम बहुत भयानक निकला. डुग्गर देश के रहने वाले मेघ जाति के बहन-भाई भी कई जाति वालों से छुआछूत करते थे और अभी तक यह बुरी प्रथा चल रही है. मेरा ख्याल है कि अब मेघ जाति के भाई बहनों को समझ आ गई होगी कि ये जातियाँ, मेघ जाति समेत, कैसे बन गईं. कभी सभी ब्राह्मण थे. क्षत्रिय राजपूत लोग बाद में राजपूताना जिसे आजकल राजस्थान कहा जाता है, वहाँ से आए.
मेघ जाति की और भी कई उपजातियाँ हैं जो कि निम्नलिखित हैं:- साकोलिया, दमाथिया, चौहान, चित्रे, गिदड़, गंगोत्रा, पंजगोत्रा, गडगाला, घई, काले, लेखी, अमर, गोत्रा, लीखी, बिल्ले, बक्शी, डोगरा, लचुम्बा, भिड्डू, रूज़म, घराटिया, पंगोत्रा, संगवाल, रामोत्रा, साठी, सोहला, खडोत्रा, रत्न, कैले, भिंडर, बादल. इसमें भी डोगरे और बादल का नाम आता है.
उपजातियों से अनुमान लगाना कठिन है कि ये उपजातियाँ कैसे बनीं. कोई प्रांत के नाम पर कोई शहर और नगर के नाम पर, कोई किसी धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर, कोई व्यवसाय के कारण, कुछ नाम-रूप के कारण, कुछ किसी खास आदमी के कारण, कुछ साधु-महात्माओं के नाम पर. अभिप्राय यह है कि यह उपजातियाँ सब जातियों में बनती रहीं.
P-59
अनुसूचित जातियाँ
अंग्रेजों के राज्य में जब पंजाब के ज़मींदारों का राज्य था, यूनियन गवर्नमैंट थी तो ज़मींदार जातियों की सूची बनी हुई थी. उसमें जो लोग ज़मीनों के मालिक थे उनको उस सूची में लिया गया, मगर ग़रीब वर्ग की जातियों और खत्री, महाजन और बनियों को उस सूची में नहीं रखा गया. मेघ जाति के लोगों ने वहाँ यत्न किया कि हम भी ज़मींदारों की सूची में सम्मिलित कर दिए जाएँ और ज़मीन खरीदने और बेचने का हक़ हमें भी मिल जाए. उस समय ज़मींदारों को नौकरियों में भी पहल दी जाती थी और यूनियन गवर्नमैंट ने इंजीनियरिंग कालिजों, मैडीकल कालेजों, ऐसे ही व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में दाखिले ज़मींदारों के लिए सुरक्षित रखे थे. हम जब कहीं दाखिल होना चाहते थे तो (नॉन-एग्रीकल्चरिस्ट) होने के नाते दाखिल होना कठिन था. उस समय मेघ जाति के जो नेता काम करते थे उनमें बाबू गोपीचन्द, भगत बुढ्ढामल, भगत छज्जू राम (रणबीरसिंह पुरा, जम्मू रियासत वाले) उन्होंने बहुत यत्न किया मगर ज़मींदारों की सूची में नहीं आ सके. हालाँकि बहुत लोग ज़मीन के मालिक थे और खेती का काम करते. फिर यूनियन गवर्नमैंट ने अनुसूचित जातियों की सूचियाँ 1931 में जारी कीं. उस समय सर फ़ज़ल हुसैन पंजाब के बड़े कारकुन थे. जनाब सिकन्दर हयात खाँ, चौधरी छोटूराम और श्री गोकुल चन्द नारंग सरकार में मन्त्री थे. जब अनुसूचित जातियों की सूची बनी तो उसमें भी मेघ जाति को नहीं लिया गया क्योंकि वे कहते थे कि ये अछूत नहीं हैं. अपने आपको आर्य कहते हैं, भगत कहते हैं, रहन-सहन उनका ब्राह्मणों से मिलता है. मगर इस दुनिया में गुजारा करने के लिए सबसे बड़ी चीज़ पैसा है और पैसा तब आता है जब अच्छी नौकरियाँ, अच्छे व्यापार-उद्योग हों या भूमिपति हो. तो हमारे नेताओं ने सोचा कि इन लोगों ने हमें काफी देर से नीचे दबाया हुआ है और हमारी जाति के लोगों का रहन-सहन सामूहिक तौर पर अभी इतना ऊँचा नहीं हुआ. कभी वक्त था कि ये हमें पिछड़े वर्ग के कहते थे, मगर अब जब वर्ग, जाति, सम्प्रदाय के आधार पर कुछ विशेष नौकरियों या काम और अन्य प्रकार के व्यवसाय करने का अवसर आया है तो अब हमें ऊँची जाति के कहते हैं और यह कहते हैं कि आप विशेष रियायतों, रिज़र्वेशन के हक़दार नहीं. वो मन्त्रियों से मिले. श्री सिकन्दर हयात, चौधरी छोटू राम और श्री गोकुल चन्द नारंग से मिले. उनका यह यत्न सफल हो गया और यह मेघ जाति अनुसूचित जातियों की सूची में आ गई.
1947 में जब पाकिस्तान बन गया तब पंजाब में अपनी गवर्नमैंट बन गई. श्री गोपीचन्द भार्गव मुख्यमन्त्री थे. उस समय अनुसूचित जातियों की सूची रिवाईज़ की गई तो उसमें मेघ जाति को इस सूची से निकाल दिया. उस समय श्री मिल्खीराम भगत सैक्रेटेरिएट में काम करते थे. उनको पता लगा. उन्होंने अपने नेता इकट्ठे किए और शिमला जाकर मिल-मिला कर अपना नाम अनुसूचित जातियों में लिखा दिया और तब से यह अनुसूचित जाति के हो गए हैं. सूची में आने के कारण हमारी आर्थिक हालत अच्छी हुई है. बहुत लोग सरकारी नौकरियों में लगे हैं और काम भी अच्छे-अच्छे करते हैं. वो कपड़ा बुनने का पेशा छोड़ दिया है. इसके लिए हम सरकार के आभारी हैं.
P-60
समय एक जैसा नहीं रहता. अब भारत की केन्द्र सरकार और प्रांतों में विशेष अनुसूचित जातियों को विशेष आरक्षित स्थानों पर ही लगाया जाता है और बाकी पदों के लिए खास रियायत नहीं दी जाती. इसके लिए अब नेता काम कर रहे हैं.
वर्तमान दशा में हमारी सरकार को यह ध्यान में रखना होगा कि भारत में आगे ही मानव जाति बहुत बंट चुकी है. अब सवर्ण हिन्दुओं और अनुसूचित और जनजाति के हिन्दुओं में संघर्ष और आन्दोलन शुरू हो गए हैं और बंट जाने का खतरा है. कोई ऐसा उपाय निकाला जाए, जिससे मानव जाति का और विभाजन न हो. जितने धर्म, सम्प्रदाय, जातियाँ बढ़ेंगी देश में उतनी ही अशांति आएगी. इससे बचने के लिए देश के नेताओं को सावधान रहना होगा ताकि आपस में प्रेमभाव बना रहे. ऊँच-नीच का प्रश्न खत्म हो जाए. सबके जीवन स्तर ऊँचे हो जाएँ, सबको रोटी, कपड़ा, मकान सुविधा से मिल जाए. अगर ऐसा न हुआ तो देश के लिए खतरा बढ़ जाएगा.
पाँचवाँ प्रकरण
P-61
मालिक का शुक्र है कि हमारी जाति वालों को काफी हद तक पता लग गया है कि हम कौन हैं. शारीरिक या भौतिक रूप में हम उन सच्चे ब्राह्मणों की सन्तान हैं जो जम्मू प्रदेश के ऊँचे पहाड़ों में तप करते रहे.
प्राकृतिक मेघों या बादलों से संस्कार ग्रहण करने के कारण मेघ बन गए. हिन्दू या मेघ जाति में कुरीतियों के कारण मेघ नाम दूषित हो गया. इसके पश्चात् अपने गुण-कर्म-स्वभाव के कारण भगत कहलाए, फिर आर्य समाज के सम्पर्क में आ जाने से आर्य नाम रख लिया. वास्तव में ये तीनों नाम और हालतें एक थीं. अन्त में आर्थिक दशा ठीक न होने के कारण, ग़रीबी से बचने के लिए, अपने जीवन को सुखी और समृद्धिशाली बनाने के लिए स्वाभाविक ही सरकार के कानून के अनुसार अनुसूचित जातियों में आना पड़ा. इस तरह कई हालतों से गुज़र कर यह भी पता लग गया कि हम सब मनु की सन्तान हैं. यह सारा संसार ख्याल से ही बनता है और वास्तव में हम सब संसार के लोग मन के ख्याल की ही सन्तान हैं.
ऊपर लिखे कारणों से हमें अपने आपकी समझ तो लग गई. अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि जीवन कैसे गुजारा जाए? इन सब बातों का ज्ञान रखते हुए यह भी प्रश्न शेष रह जाता है कि हम रहें कैसे? रहनी दो प्रकार की है. एक स्वतन्त्र, एक परतन्त्र. जिस तरह हमारा भारत पहले परतन्त्र था, अंग्रेजों के अधीन था. उनके बंधन में हम सब भारतवासी थे और बड़े संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता मिल गई है, अपना राज्य है. जिस तरह देश की दो हालतें होती हैं एक स्वतन्त्र और एक परतन्त्र, इसी तरह व्यक्तिगत रूप में भी दो हालतें होती हैं एक स्वतन्त्र और एक परतन्त्र. इनको ही इन्सान और पशु कहते हैं. पशु वो है जो खूंटे के साथ बंधा हुआ है. किसी न किसी के बंधन में है. इन्सान आजाद होता है. किसी बंधन में नहीं रहता. यही दो तरीके जीवन गुजारने के हैं और वही प्रश्न अब हमारे सामने है कि हम अपना जीवन आजादी से गुजारें या गुलामी से. ध्यानपूर्वक पढ़ने की कोशिश की जाए.
P-62
भारत देश की आजादी आ जाने के बाद हमारे नेताओं ने इस देश के संविधान में धर्म निरपेक्षता के साथ रहने के लिए कहा है और विधान को भी धर्म निरपेक्ष बनाया है. कोई ऐसा धर्म भी होना चाहिए जिस पर चलने से हम इन नाना प्रकार के धर्मों से निकल जाएँ या बधन मुक्त हो जाएँ. वो धर्म मानव धर्म या इन्सान बनना है. इसमें सभी धर्म आ जाते हैं. अपने-अपने धर्म पर आचरण करें मगर इन्सानियत के नाते एक जगह इकट्ठे हो जाएँ. इसके लिए कबीर साहिब की एक वाणी है.
गुरु पशु, नरपशु, त्रियापशु, वेदपशु संसार।
मानुष ताहि जानिए जामें विवेक विचार ।
P-63-64
मानव बन कर न मुआ, मरा तो डांगर ढोर।
एक हूँ जीव ठौर न लगा, लगा तो हाथी घोड़ ।
P-65
इसका अर्थ यह है कि अगर मरने से पहले कोई इन्सान नहीं बनता तो वह पशु का पशु रहेगा.
P-66
1. रूहानियत से बढ़ कर इंसानियत है.
2. ईश्वर भक्ति से मानवता कैसे श्रेष्ठ है?
ईश्वर भक्ति मानव की एक मानसिक भावना है. जहाँ, जिस स्थान पर किसी का विश्वास है, उसके विश्वास के अनुसार मानव को आनन्द, हर्ष, प्रसन्नता मिलती है अथवा मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं.
P-67
3. जप और तप से बढ़ कर मानवता कैसे है?
इसलिए जपियों-तपियों को मानवता पहले आनी चाहिए. “अहिंसा परमोधर्मः” किसी की हानि करने का विचार न रखना ही मानवता है.
P-68 से 87
जीवन कैसे गुजारें
आप चाहे मेघ, भगत, आर्य या कुछ भी बन जाएँ मगर वास्तविक मेघ, भगत, आर्य के तात्पर्य को समझ कर मानवता के नियमों पर चल कर जीवन गुजारें. संसार में अनेक पंथ, धर्म सम्प्रदाय बने हुए हैं. अपने-अपने धर्म को बड़ा मानते हैं, उस पर चलते हैं. मगर जिसकी दृष्टि में ये सब एक हो जाते हैं, उसे इन्सान कहा गया है. वास्तव में हम सब एक हैं. अज्ञानवश एक से अनेक बन जाते हैं. हम सब किसी एक जगह से आए हुए हैं, उस जगह का कोई नाम नहीं. किसी ने उसको सर्वाधार, अकाल पुरुष, अनामी पुरुष या कूटस्थ कह दिया. जिसको अपने आधार की कुछ समझ आ गई वो मानव बन कर जीवन गुजारता है. आप भी सुखी और दूसरों को भी सुखमय बनाता है.सब का भला
1. तू है क्या ऐ मेघ भाई, दर असल इन्सान है।
इन्सान बनकर जग में जीना, यह ही तेरी शान है ।
2. तू मेघ माँ बाप जाया, मेघ जाति का हो गया।
ज़ात तेरी ब्रह्म है, तू मूरते भगवान है।
3. भाव भगति सहज पाया बना भगत।
भक्ति पंथ ही सच्चा पंथ महान है ।
4. आर्यों की संगत मिली, आर्य रखा नाम यह।
आर्य ही इस जगत में पाता मान सम्मान है ।
5. भूमि पावन देश की, तू सपूत भारतवर्ष का।
देश सेवक का ही जग में, अमर जीवन महान है ।
6. हिन्दू हो इस धर्म के मार्ग चलो।
निष्काम सारे काम हो, यही गीता का फ़रमान है।
7. उत्पन्न हुआ जो पहला मानव, सनातन धर्म उसका धर्म था
धर्म सनातन पर ही चलना, सब धर्मों की खान है ।
8. वेदमार्ग संसार में, बहुत विख्यात है।
शुभ संकल्प रखना, इस धर्म का विधान है
9. ईश्वर करे यह मेघ जाति फूले फले इस जगत में।
अरदास सच्चे दिल से है, सुनेगा जो करुणा निधान है ।
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