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"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह
25 February 2019
13 February 2019
An incomplete page - एक अधूरा पन्ना
आधुनिक इतिहासकारों में इस बात पर सहमति दिखाई देती
है कि पुराणों में कोसल सम्राटों के रूप में जिन मेघों (मघों) का उल्लेख किया गया
है वही कोशांबी में मिले शिलालेखों, सिक्कों और मुहरों पर
उत्कीर्ण मघ हैं. मघ शब्द को वे राजवंश की पदवी के रूप में देखते हैं जो उन राजाओं
के नाम के साथ जोड़ी जाती थी. ज़ाहिर है कभी इस वंश का बोलबाला रहा था जिसे
पौराणिकों ने अपनी रचनाओं से लगभग गुम कर दिया. पौराणिक उस काल में अपना साहित्य
रच रहे थे और उधर बाकियों की शिक्षा पर पाबंदी लगी हुई थी. लेकिन पौराणिक इतिहास
और धरती के नीचे दबे इतिहास की टकराहट में पुरातत्ववेत्ताओं की बात पहले भी भारी
थी और आज भी सशक्त है. इतिहासकारों के अनुसार मघ या मेघ राजाओं का शासनकाल पहली से तीसरी शताब्दी ईस्वी पड़ता है और उनका
शासन बंधोगढ़ से फतेहपुर तक था. उनके इस शासनकाल को ही पहले कभी अंधकारकाल या
डार्क एजिज़ के नाम से संक्षेप में समेट दिया जाता था. लेकिन वो अंधकार काल अब
प्रकाश में आ चुका है. लेकिन तीसरी शताब्दी के बाद का उनका समय अंधकारमय है. क्या
वो मघ या मेघ केवल बंधोगढ़ से फतेहपुर तक सीमित थे? ऐसा लगता नहीं.
कर्नल अलेग्ज़ांडरकन्निंघम ने बताया है कि मेघ सिकंदर के समय में सतलुज के
क्षेत्र में बसे हुए थे. कन्निंघम ने उन्हें मघ और मख के तौर पर भी उल्लेखित (mention)
किया है. इतना तो स्पष्ट है कि सिकंदर से पहले भी मेघों की स्थिति इस
क्षेत्र में रही होगी तो वो क्षेत्र कितना विस्तृत था इसका आकलन उन नामों से भी
किया जाना चाहिए जिन्हें मेघों के विभिन्न कबीलों और उनके विविध नामों से पहचाना
गया है. ऐसे कई नाम श्री आर.एल. गोत्रा ने अपने आलेख Meghs of
India में ‘Megh were Hadappan’ उप-शीर्षक के अंतर्गत
बताए हैं जैसे- भगत, जुलाहा, जुलाह, कबीरपंथी, मेद, मेध, मेधो, मेग, मेगल, मेगला, मेघ, मींह्ग, मेंग, मेन, मेंघवाल, मेघोवाल आदि. यह बहुत
महत्वपूर्ण है कि मेघ हड़प्पन (सिंधुघाटी) सभ्यता वाले क्षेत्र के निवासी थे.
इतिहासकारों ने इस क्षेत्र को बौध सभ्यता वाला क्षेत्र बताया है.
इतिहास की पुस्तकों में इस बात का ज़िक्र मिल जाता है
कि बुद्ध ने छठी शताब्दी ई.पू. में स्यालकोट में निवास किया था और यहाँ के लोगों
ने बौधमत अपनाया था. आगे चल कर इस क्षेत्र में पुष्यमित्र शुंग ने बौधों की
हत्याएँ कराईं और इस क्षेत्र पर अपना प्रभाव बनाया. उसके बाद मिनांडर ने पुष्यमित्र को हरा
कर इस क्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया और पूर्व में पाटलिपुत्र तक बढ़ गया.
10 February 2019
There is a lot in the name - नाम में बहुत कुछ रखा है
सोचने लगो तो कई बार हमारे अपने नाम भी बहुत उलझन में डालने वाले होते हैं, मसलन मेरे दादा जी का नाम. मेरे दादा जी का नाम था श्री महंगाराम. बचपन से मैं इसे महंगाई से जोड़कर देखता रहा और खुद से पूछता रहा कि क्या कोई अपना या किसी का नाम 'महंगाई' पर रख सकता है. अक्ल नहीं मानती थी.
राजस्थान से एक पत्रिका आती है- हक़दार. उसमें एक नाम पढ़ कर मेरा माथा ठनका. उसमें एक आदमी का नाम लिखा था- महींगराम. तब अचानक मेघों के लिए प्रयुक्त कुछ नाम मन में कौंधे जैसे- मेद, मेध, मेधो, मेग, मेगल, मेगला, मेघ, मींह्ग, मेंग, मेन आदि. इन सभी नामों ने मेरे मन में अर्थ की एक नई नज़र पैदा कर दी कि महंगाराम शब्द में बात महंगाई की नहीं होगी बल्कि अपने कबीले या जाति का नाम रहा होगा जिसे नाम की तरह प्रयोग किया गया था. मींह्ग और मेंग शब्दों का उच्चारण महंगा या मेंहगा के उच्चारण के बहुत नज़दीक था. हक़दार में प्रकाशित नाम के स्पैलिंग थे - महींगराम. अब बात साफ़ नज़र आने लगी है कि महंगाराम शब्द का महँगाई से कोई लेना-देना नहीं था बल्कि यह मींह्ग, मेंग जैसे जातिनाम से विकसित शब्द है.
अब रह गया 'राम' शब्द. इस शब्द की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद है. कुछ विद्वान इसे ‘आराम’ से निकला हुआ शब्द बताते हैं और कोई रम् धातु से निकला हुआ कहते हैं. इसे फारसी भाषा का भी कहा जाता है और संस्कृत का भी. इस स्थिति में देखना चाहिए कि भारत भर में पूर्ववैदिक काल से ही गांवों के जो नाम चले आ रहे हैं उनमें से किसी भी गांव का नाम संस्कृत वाला नहीं है. इसी से लगता है चिरकाल से प्रयुक्त हो रहा यह शब्द किसी अर्थ विशेष का वहन ज़रूर करता होगा. आराम के अर्थ में इसका अर्थ सुख,चैन, बाग, बगीचा आदि कुछ भी हो सकता है लेकिन स्वर संधि के रूप में प्रयुक्त शब्द ‘संघाराम’ विशेष ध्यान खींचता है जिसका संबंध बौद्ध कालीन स्तूपों (पैगोडा) से था जहाँ भिक्कु और श्रमण विश्राम करते थे. हमारे यहाँ प्रयोग में आए हुए शब्द गंडाराम, थोड़ूराम, महंगाराम आदि किसी परंपरा का तो वहन कर ही रहे हैं. ये संस्कृत मूल के शब्द तो हरगिज़ नहीं है. संभव है प्राकृत या पाली भाषा में इनका कोई समाधान मिल जाए.
वैसे इस बात का कोई निश्चित और मनभावन अर्थ निकल ही आए ज़रूरी नहीं. नाम हमारी सभ्यता और संस्कृति का वहन करते हैं यह निश्चित है.
03-07-2019
इस बीच डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की एक फेसबुक पोस्ट मिली जिसने आराम शब्द को बहुत स्पष्टता के साथ खोल कर रख दिया. उसे नीचे एंबेड कर दिया है.
03-07-2019
इस बीच डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की एक फेसबुक पोस्ट मिली जिसने आराम शब्द को बहुत स्पष्टता के साथ खोल कर रख दिया. उसे नीचे एंबेड कर दिया है.
एक पोस्ट कौशल कुमार पाठक की भी है जिसे एंबेड कर रहा हूँ.
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