यह तो होना ही था. जब से भाजपाई/ संघी सरकार बनी है तब से देश के दलितों और श्रमिक वर्ग के लिए आफ़त आई है. अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर जिस तरह का कहर इस सरकार के शासनकाल के दौरान बरपा है उसकी बात मीडिया कभी-कभार ही करता है. मीडिया और सरकार औद्योगिक घरानों के रंग में रंगी है. इतना काफ़ी है सारी कहानी कहने के लिए.
यह सब चल ही रहा था कि अचानक सुप्रीम ने एससी एसटी एक्ट में इस प्रकार का परिवर्तन कर डाला कि पीड़ित दलित शिकायत करने और आरोपी की FIR के लिए ऐसी व्यवस्था पर निर्भर हो गए जिनकी न्याय बुद्धि पर वे पहले से ही विश्वास नहीं करते. देश की एक चौथाई आबादी यानी SC-ST का सुप्रीम कोर्ट में कोई जज नहीं है. अब SC, ST एक्ट की सुनवाई कौन करेगा?
पिछले कई वर्षों के दौरान न्यायालयों में बैठे हुए न्यायमूर्तियों ने नौकरियों में अनुसूचित जातियों, जनजातियों और ओबीसी के प्रतिनिधित्व (जिसे आरक्षण के नाम से प्रचारित किया जाता है) के बारे में ऐसे निर्णय दिए कि उनका प्रतिनिधित्व लगभग समाप्त ही हो गया. संविधान अपने प्रावधानों के साथ बैठा सब कुछ ताकता रह गया. नई अर्थव्यवस्था ने सरकारी नौकरियाँ लगभग समाप्त कर दीं. बैकलॉग न भरने वाले नौकरशाह मौजमस्ती में थे और अपनी मंडली में वाहवाही बटोर रहे थे. निजी क्षेत्र में प्रतिनिधित्व का प्रावधान तो था ही नहीं. जाहिर था कि दलितों को बेरोज़गारी की चक्की में डाल कर सरकार उन्हें भूल गई.
यह फैक्टर अलग से काम कर रहा था कि भाजपा में बैठे हुए इन वर्गों के प्रतिनिधि - पासवान, उदित राज, अर्जुन मेघवाल और अठावले जैसे प्रतिनिधियों की आवाज़ तक कहीं सुनाई नहीं दे रही थी. दलितों से संबंधित मामलों में उनकी भूमिका लगभग निल नज़र आ रही थी. इस प्रकार से देखा जाए तो अनुसूचित जातियाँ, जनजातियाँ और अति पिछड़ा वर्ग नेतृत्वहीन महसूस कर रहे थे. इन्हीं परिस्थितियों में 02 अप्रैल के आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी जिसमें हर आंदोलनकारी अपने नेतृत्व को देख रहा था.
घटिया से घटिया प्रबंधन का भी एक मानवीय चेहरा होता है. सरकारों के बारे में भी यही सच है. लेकिन देखा गया कि आत्महत्या कर रहे किसानों के लिए कारगर कदम उठाने में सरकार असफल हुई. उनकी आत्महत्याओं का सिलसिला जारी है. नेताओं के मसालेदार और ‘ताली बजाओ’ वाले नाटकीय भाषण ज़रूर सुनाई दिए.
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फिर, जो हज़ारों वर्षों से नहीं हुआ था वह 2 अप्रैल 2018 को देशभर में हो गया. अनुसूचित जातियों, जनजातियों और बहुत पिछड़े वर्ग के यहां-वहां बिखरे हुए संगठनों ने सोशल मीडिया के माध्यम से आपसी संपर्क कायम किया और बहुत छोटे नोटिस पर भारत बंद की एक तारीख़ तय हो गई. सरकार जानती थी कि बंद होने जा रहा है और कि कोई जाना-माना नेता इसका नेतृत्व नहीं कर रहा. अब मीडिया कह रहा है कि सरकार ने इस बंद से निपटने के लिए पर्याप्त तैयारी नहीं की थी. बंद हुआ और पूरे उत्तर भारत में लोगों का प्रोटेस्ट बड़े पैमाने पर नजर आया. बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए. इसी दौरान ऐसे राजनीतिक और असामाजिक तत्त्वों को भी मौका मिल गया और उन्होंने आंदोलनकारियों में घुसकर हिंसा फैला दी. सोशल मीडिया ने हिंसा फैलाने वाले कुछ लोगों की पहचान की है. एक आदमी पिस्टल से प्रदर्शनकारियों पर फायर करता दिख रहा है और कुछ अन्य वहाँ बंदूकें ले कर खड़े थे.
बहरहाल, चैनलों ने इस आंदोलन पर ‘हिंसक आंदोलन’ का टैग लगा दिया. इस बात का वे उल्लेख नहीं कर रहे कि दलित आंदोलनों के इतिहास में अभी तक कभी हिंसा नहीं हुई थी. हिंसा में 8 लोग मरे जो बहुत दुख की बात है. ऐसा नहीं होना चाहिए था.
सरकार के पास विकल्प था एससी एसटी एक्ट के बारे में तुरंत एक अध्यादेश लाती लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. रिव्यू पिटीशन डाल दी गई. इसे टालमटोली रवैये की तरह देखा जा रहा है. पिटीशन की सुनवाई भी शायद वही बेंच करेगा जिसने एससी एसटी एक्ट में परिवर्तन कर डाले हैं. जब तक रिव्यू होकर कोई सकारात्मक फैसला नहीं ले लिया जाता तब तक जो घटनाएं घटेंगी, लोग पीड़ित होंगे उसकी जिम्मेदारी किस पर होगी, यह सवाल बनता है और पूछा जा रहा है.
धरने-प्रदर्शन दोपहर बाद तक चलते रहे. इस प्रदर्शन में अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अति पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम समुदाय के लोगों ने आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन किया. खासकर गोरखपुर और फूलपुर की चुनावी त्रासदी के बाद यह भाजपा के लिए भारी झटका रहा.
क्योंकि इस आंदोलन का कोई स्थापित नेतृत्व नहीं था इससे प्रत्येक पीड़ित को महसूस हुआ कि यह आंदोलन उसका अपना है. वह बहुजन है तो अब उन्हें बहुजन की तरह दिखना भी चाहिए. वे जहां भी इकट्ठे हों उन्हें बड़ी गिनती में इकट्ठे होना होगा. उनके एक नारे में ऐसा असर होगा कि उन्हें कुछ और करने की जरूरत नहीं होगी. वे जान गए हैं कि वे भारत बंद कर सकते हैं. उनके विचार शहरों के साथ-साथ कस्बों और ग्रामीण भारत तक पहुंच गए हैं. अब इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि चैनल दलित आंदोलन को हिंसक कहते हैं. वैसे भी लोगों का चैनलों पर से विश्वास उठ चुका है.
भारत में शहरीकरण तेजी से बढ़ा है इसीलिए शहरों में बैठे हुए SC, एसटी और OBC के लोग अब एक दूसरे को बेहतर तरीके से जानने और समझने लगे हैं. यह महत्वपूर्ण है. उन्हें यदि कोई शिकायत है तो वह सवर्णों से है.
बहुजनों का 2 अप्रैल 2018 का बंद सफल रहा. उनका संदेश सरकार तक पहुंचा है. यह अभी शुरुआत है.