"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


31 May 2018

Megh Civility - मेघ-सभ्यता

जब पहली बार पता चला कि डॉ. ध्यान सिंह ने जम्मू में स्थित हमारी देरियों पर अपने शोधग्रंथ में लिखा है तो बड़ी खुशी हुई थी. उसे पढ़ कर अच्छा लगा कि कुछ तो लिखा गया है. कुछ होना एक बात होती है और उस होने पर कुछ लिखा होना बिलकुल दूसरी बात. इसे दस्तावेज़ीकरण कहते हैं. मैंने उस पर एक प्रेज़ेंटेशन बनाई थी.

प्रेज़ेंटेशन बनाने से पहले मैंने ताराराम जी से पूछा था कि क्या मेघवालों में भी ऐसी देरियाँ होती हैं तो उन्होंने हाँ में जवाब दिया. उन्होंने बताया था कि उनके यहाँ देहुरियों को देवरे कहा जाता है. बिहार की एक अच्छी कवियित्री और ब्लॉगर अमृता तन्मय ने अपनी ऑब्ज़र्वेशन बताई थी कि ऐसे स्ट्रक्चर पूरे देश में पाए जाते हैं. बिलकुल यह बहुत महत्पूर्ण था. दक्षिण भारत की ओर यात्राओं के दौरान ऐसे स्ट्रक्चर मैंने भी कई जगह देखे हैं. ताराराम जी ने जो एक अलग बात बताई वो यह थी कि ऐसे स्ट्रक्चर वास्तव में भारत में पाई जाने वाली स्तूप परंपरा के ही हैं. पहली बार में स्तूप की जो छवि मन में बनती है उससे ताराराम जी की बात मेल खाती प्रतीत नहीं होती थी. लेकिन जैसे-जैसे जानकारी बढ़ी पता चला कि स्तूप का आकार तो चूल्हे के बराबर भी होता था. कुछ स्तूपों को तो बाद में शिवलिंग में परिवर्तित कर दिया गया और उन पर बने मंदिरों पर ब्राह्मणों का अधिकार था.

राजेंद्र प्रसाद सिंह जी ने बताया है कि (विशेषकर) बिहार और झारखंड क्षेत्र में ऐसे अनेक मनौती स्तूप खुदाई में मिले हैं. एक को तो पुरातत्व विभाग  ने शिवलिंग ही बता दिया है.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह से संपर्क में आने के बाद इस उलझन की कई गांठें खुलती चली गईं. वे लिखते हैं, “देउर मूलतः प्राकृत का देहुर है. देहुर का संस्कृत रूप देवगृह है. देउर कोठार का अर्थ है - देवगृहों का भंडार. कोठार का अर्थ भंडार है. देव मूल रूप से बुद्ध का सूचक है जो हमें देवानंपिय में प्राप्त होता है. देउर कोठार वाक़ई स्तूपों का भंडार है. यह बात खुदाई से पहले भी वहाँ की जनता जानती थी. तभी हमारे पूर्वजों ने उसका नाम देउर कोठार दिया है. इतिहासकारों ने माना है कि अनेक स्तूप मौर्यकालीन हैं.”

एक और बात ध्यान देने योग्य है कि ‘देउर’ शब्द में जे ‘ए+उ’ आता है उनकी स्वरसंधि से ‘व’ का निर्माण होता है इस लिए उससे ‘देवरा’ शब्द बना है इसमें संदेह नहीं होना चाहिए.

जहाँ तक देउर, देवरे, देहुरे आदि के बौध सभ्यता से जुड़े होने का सवाल है अपनी ओर से कुछ कह कर किसी को सुर्ख़ाब के पंख लगाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. उसका फैसला इतिहास के प्राकृतिक प्रवाह और इतिहासकारों पर छोड़ देना चाहिए. फिलहाल इतना कहना काफी है कि कई बार किसी जनसमूह का किसी विशेष प्राचीन सभ्यता से जुड़े होने का स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल पाता लेकिन भाषा-विज्ञान संकेत दे देता है कि हमारी भाषा और परंपराएँ किस सभ्यता से प्रभावित हुई हैं. 

22 May 2018

From Tribal Life to Caste System - क़बीलाई जीवन से जाति व्यवस्था तक

दिनांक 04 मार्च 2018 को मेघ जागृति फाउँडेशन, गढ़ा, जालंधर द्वारा आयोजित एक समारोह में अपनी बात रखते हुए डॉ. ध्यान सिंह और प्रो. के.एल. सोत्रा इस बात पर एकमत थे कि मेघ मूल रूप से एक जनजाति थी जिसे शुद्धिकरण के ज़रिए हिंदू दायरे में लाया गया था. जैसा कि बताया जाता है कि मुग़लों ने सप्तसिंधु क्षेत्र के लोगों को हिंदू कहा था और उस अर्थ में मेघ पहले भी ‘हिंदू’ थे. लेकिन शुद्धिकरण के समय तक हिंदू शब्द अपना एक अलग राजनीतिक अर्थ पाने लगा था (यहाँ आरएसएस की विचारधारा इंगित है).

इस बीच यह जानना रुचिकर रहा कि भारत में जनजाति किसे कहते हैं. किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के निम्नलिखित आधार बताए गए हैं-
आदिम लक्षण, विशिष्‍ट संस्‍कृति, भौगोलिक पृथक्‍करण, समाज के एक बड़े भाग से संपर्क में संकोच, पिछडापन. (देखें यह लिंक . एक अन्य लिंक National Commission for STs से)

किसी खास क्षेत्र में उनका निवास होना भी एक शर्त है जिसे भौगोलिक पृथक्करण के तहत रखा गया है. जनजातीय लक्षणों में मेघों की देहुरियाँ और उनके द्वारा मृत पूर्वजों (वड-वडेरों) की पूजा और देरियों पर चौकी देना आदि का अध्ययन करना होगा. मेघ संस्कृति के तहत उनके सामाजिक रस्मो-रिवाज़, उनके अपने लोक-गीत (जो मेरे अनुमान के अनुसार नहीं के बराबर होंगे), उनकी बोलचाल की भाषा जो मूलतः इंडो-तिब्बतन भाषा समूह की है जो डोगरी और स्यालकोटी शैली में बोली जाती है, उसका अध्ययन ज़रूरी है. उसकी शब्द संपदा, उच्चारण और वाक्य विन्यास अपनी विशिष्ट पहचान रखता है. इस बात की भी पड़ताल करनी चाहिए कि मेघों की भाषा में साधारण पंजाबी के मुकाबले पाली-प्राकृत के शब्द कितनी मात्रा में हैं. यह तो निश्चित है कि पंजाबी के मुकाबले मेघों की भाषा में संस्कृत मूल के शब्द कम है. आर्यसमाज के संपर्क में आने के बाद मेघों की भाषा में संस्कृत के कुछ शब्द आए हो सकते हैं. वैसे भाषा के तौर पर पंजाबी काफी दूर तक संस्कृत और पर्शियन दोनों से प्रभावित हुई है लेकिन अनुमान है कि मेघों की जनसंख्या की लोकेशन के अनुसार उनकी पंजाबी का पर्शिनाइज़ेशन अधिक हुआ होगा. (इस पर भाषाविज्ञान की शोध पद्धति के अनुसार शोध ज़रूरी है).

‘भौगोलिक पृथक्करण’ के नज़रिए से मेघ भगत अधिकतर जम्मू के तराई क्षेत्र में ही रहे हैं. 18वीं और 19वीं शताब्दी में कुछ मेघ परिवार रोज़गार की तलाश में स्यालकोट की ओर गए और 1947 में भारत विभाजन के कारण वे ज़्यादातर जम्मू और पंजाब में लौटे. उन्होंने अपनी भौगोलिक सीमाओं को लाँघा तो था लेकिन वैसा कठिन परिस्थितियों की वजह से और रोज़गार की तलाश में किया गया था. कई मानव समूह ऐसी परिस्थितियों में अपने मूल स्थान से पलायन करते देखे गए हैं.

जम्मू में मेघ समाज आर्थिक पराधीनता की स्थिति में था. उनकी विशिष्ट आंतरिक परंपराएँ भी थीं. उनकी शादियाँ अपने समुदाय से बाहर नहीं होतीं थीं. इनके सामाजिक रीति-रिवाज़ों, उत्सवों, त्योहारों, भोज आदि में दूसरे समुदायों के लोग भाग नहीं लेते थे. उनकी आबादी की भौगोलिक स्थिति भी संभवतः इसका कारण रही होगी. सामाजिक अलगाव की वजह समय की ज़मीन में बहुत गहरी होती है. खोदते जाइए बहुत कुछ मिलेगा, वो भी जिसका आज कुछ ख़ास महत्व नहीं है.

मेघों के पिछड़ेपन का इतिहास भारत की अन्य जनजातियों के इतिहास से अलग नहीं है. सदियों से चले आ रहे सिस्टम की वजह से अशिक्षा, नियमित आय न होना और आर्थिक निर्भरता, तंग भौगोलिक घेरा और उस घेरे में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की दूसरों के द्वारा लूट, वन संसाधनों का नाश (मेघों के प्राकृतिक निवास वाले जंगलों के दो बार जलने या जलाए जाने की बात कही जाती है). अकाल और प्लेग जैसी आपदाओं ने भी समय-समय पर मेघों के समग्र जीवन को बुरी तरह बर्बाद किया जो उनके पिछड़ेपन की एक और बड़ी वजह रही.

फिलहाल ऊपर किसी बात के होते हुए भी आज मेघ समुदाय आर्यसमाज की सीमित-सी शुद्धिकरण की प्रक्रिया और आर्यसमाज के सामाजिक आंदोलन से ज़ुड़ कर जनजातीय स्थिति से निकला और मनुवादी जातीय परंपरा में शामिल हुआ है. मेघों के इतिहास का यह एक ख़ास मोड़ रहा. जहाँ तक नज़र देखती है जातीय व्यवस्था में आ कर मेघों को कुछ लाभ हुआ है. आगे चल कर जातियों का सिस्टम किस राह पर ले जाएगा वो देखने वाली बात होगी.         

03 May 2018

The Stupa of Sirsa - सिरसा का थेहड़ (स्तूप)

जब पिताजी की तब्दीली टोहाना से सिरसा हुई तो उस समय टोहाना में बीती अपनी किशोरावस्था की बहुत सारी चमकती और रोशनी में दमकती यादें लेकर मैं सिरसा गया था. पिता जी पीडब्ल्यूडी में सब-डिविज़नल इंजीनियर थे. उनके कार्यालय के साथ ही बना एक साफ़-सुथरा रिहाइशी आवास मिला. सामने बंसल थिएटर और पीछे गिरजाघर. सिरसा के एक अच्छे (आर.एस.डी.) हाई स्कूल में मेरा दाखिला हुआ. वहाँ के स्कूली जीवन में एक सहपाठी केवल कृष्ण नारंग के साथ विशेष मित्रता रही. काफी वर्षों बाद उन्होंने चंडीगढ़ में मुझे ढूंढ लिया था. जहाँ तक सिरसा में रिश्तेदारी का संबंध था तो वहाँ मेरी सबसे बड़ी बहन श्रीमती कांता के जेठ श्री संतराम जी थे जो वहाँ पोस्टमास्टर के पद पर थे. 

एक बार केवल कृष्ण सहित हम तीन मित्र बैठे थे. अचानक कार्यक्रम बना कि सिरसा के दूसरे किनारे पर घूम कर आया जाए. वहां गए तो वहां एक टीला-सा था. केवल कृष्ण ने बतलाया कि वह थेहड़ है. थेहड़ का मतलब मैंने टीला समझा. हम तीनों ने फैसला किया थेहड़ के ऊपर जाएँगे. हालांकि ऊपर जाने का कोई रास्ता नहीं था लेकिन चढ़ाई का एक आसान रास्ता जाँच कर हम जैसे-तैसे टीले पर चढ़ गए. ऊपर थोड़ी-सी सपाट जगह थी. वहाँ से नज़रें घुमा कर ‘फतेह’ किए टीले पर से शहर को देखा और फिर नीचे उतरना शुरू करने वाले थे कि दाएँ हाथ थोड़ा नीचे थेहड़ में एक दरार या कह लीजिए कि एक खोह बनी हुई थी जिसमें पत्थर की मूर्ति जैसा कुछ नजर आया. लेकिन वह ऊपर की सतह से 10-15 फीट नीचे रहा होगा, ऐसा कुछ याद है. मैंने दोनों साथियों से कहा कि वहां कोई मूर्ति नजर आ रही है. लेकिन वो कोई पहुँचने लायक जगह नहीं थी क्योंकि वहाँ ढलान सीधी थी जिसे देखते ही गिरने का डर लगता था.

ख़ैर! हम लोगों ने टीले से उतरना शुरू किया. ढलान पर हमारी चाल तेज़ होने को हो रही थी और सँभलना पड़ रहा था. केवल कृष्ण का हाथ मैंने थामा हुआ था. जब अधिकतर ढलान हम उतर चुके थे तो केवल ने तेज़ चलने का रिस्क ले लिया. वे नियंत्रण खो बैठे और आखिर वे गिर कर घिसटते हुए सपाट जमीन तक गए. उनके चेहरे पर भी कुछ खरोंचे आई थीं. वहां से संतराम जी का निवास नज़दीक था. वहाँ गए जहाँ संतराम जी ने एक पड़ोसी डॉक्टर से उनकी मरहम-पट्टी कराई. थेहड़ पर चढ़ने के एडवेंचर की यादें आज भी काफी गहरी हैं.

पिछले दो-तीन साल के दौरान 'थेहड़' शब्द का असली अर्थ पता चला. मेघों के इतिहास के जानकारों को पढ़ते हुए पता चला कि थेहड़ का संबंध बौध सभ्यता और बुद्धिज़्म  से है. इसका साधारण अर्थ स्तूप है. इसीलिए यह मन में कभी-कभी उभरता रहा. कल 02-05-2018 को प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी और इतिहास के जानकार डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह ने फेसबुक पर सुजाता (जिसने बुद्ध को खीर खिलाई थी) के स्तूप पर पोस्ट डाली तो मेरी स्मृतियाँ झनझना उठीं. थेहड़ की यादें काफी तेज़ी से मन पर उभर आईं. उस पोस्ट पर काफी जानकारी देने के बाद डॉ. सिंह ने लिखा था कि- “इतिहास में विहारों के जलाए जाने पर विमर्श होते रहे हैं, मगर स्तूपों को मिट्टी से ढँकवाए जाने का विमर्श शेष है.”

उनकी फेसबुक पोस्ट पर मैं सिरसा के थेहड़ का ज़िक्र करने के लिए जैसे मजबूर-सा हो गया. मैंने लिखा, “सन 1966 में मैं सिरसा में था. विद्यार्थी था. तब शहर के बाहर एक बड़ा-सा टीला था जिसे स्थानीय भाषा में 'थेहड़' कहा जाता है. पता नहीं आज वह किस हालत में है. उसमें एक जगह दरार में मैंने सफेद पत्थर की एक मूर्ति सी देखी थी. अधिक जानकारी नहीं है. वहां कुछ खुदाई हुई या नहीं मैं नहीं जानता.” वहीं श्री जसवीर सिंह नाम के एक युवा ने मुझ से उस स्थान का ब्यौरा माँगा. जो याद आया वो सब बता दिया. यह भी बता दिया कि बहुत अधिक जानकारी नहीं है फिर भी एक पुराने मित्र से पूछ कर कुछ बता सकता हूँ. फिर मैंने केवल कृष्ण नारंग से फोन पर बात की और जो जानकारी उनसे मिली वो इन शब्दों में वहीं पोस्ट कर दी, “धन्यवाद जसवीर सिंह जी. अभी-अभी मेरे बचपन के दोस्त केवल कृष्णा नारंग से मेरी बातचीत हुई है और उन्होंने बताया है कि उस मोहल्ले का नाम थेहड़ मोहल्ला ही है. वह क्षेत्र कुछ साल पहले ASI की नजर में आ गया था और डेढ़ महीना पहले वहां पर खुदाई का काम हुआ है. थेहड़ के पास 400-500 घरों की एक बस्ती बस गई थी जिसे वहां से हटाकर कहीं शिफ्ट किया गया है. और जैसा कि अक्सर होता है 15 साल पहले वहां किसी आदमी ने एक मूर्ति के पाए जाने की बात उड़ा दी थी जिसे (उस मूर्ति को) सारे शहर में घुमाया गया था. शायद मंदिर भी बना लिया गया हो.” थेहड़ वाली ज़मीन पर रह रहे लोगों ने आर्कियालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा खुदाई के खिलाफ कोर्ट केस किया हुआ है जिससे संबंधित एक लिंक नीचे दिया गया है. जसवीर सिंह जी ने गूगल मैप पर जा कर पुष्टि की कि अब वहाँ पीर बाबा थेहड़ मोहल्ला है और ये स्थान घग्गर नदी (जिसे कुछ विद्वान सरस्वती भी मानते है) से मात्र 10 किमी की दूरी पर ही है.
अमर उजाला में छपा चित्र 
केवल कृष्ण जी से पता चला कि बंसल थिएटर और हमारे निवास के बीच जो सड़क थी वहाँ फ्लाईओवर बन चुका है जबकि बंसल थिएटर की जगह अब एक मॉल बन गया है. जहाँ हम रहते थे वो बिल्डिंग लगभग वैसी ही है. उसके लॉन को बढ़िया बना दिया गया है. गिरजाघर वहीं है और वैसा ही है. उम्मीद है वहाँ के राडार जैसे मोर अभी वहीं होंगे.

थेहड़ भी तो वहीं है. उसका अतीत अब पहचान पा रहा होगा. बौध सभ्यता के कदमों के निशान ढूँढे जा रहे होंगे. श्रमण संस्कृति झाँक रही होगी.



लिंक-