"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


15 November 2017

It is enough - इतना काफ़ी है

चलिए थोड़े में बात करते हैं. आपके पास भी टाइम कम है और मेरे पास भी.
इंसान धरती पर चला धरती के इतिहास में यह पुरानी घटना नहीं. भाषा, धर्म, उधार लेने की शुरुआत, पूंजी बनाना और पूँजीवादी व्यवस्था तो एकदम नई बातें हैं. इंसान ने कृषिपालन किया या कृषि कार्य ने इंसान को पालतू बना दिया यह विषय सुनने में कठिन ज़रूर लगता है लेकिन भारत में किसानों की लग़ातार आत्महत्याओं ने इस विषय को बेहतर तरीके से समझा दिया है. अनाज पैदा करने और इकट्ठा करके रखने की आदत में इंसानी मुसीबतों की जड़ें देखी गई हैं. पूँजीवाद भी उस आदत को अपना पुरखा मानता है.
हम फैक्ट्रियों में बना भोजन खाने लगे हैं. ऑर्गेनिक खेती नया सेहतमंद नारा है और उसकी ओर लपकना हमारा नया शौक हालाँकि यह महँगा है. कृषि और फैक्टरी से आ रही खाने-पीने की चीज़ों में कैमिकल्ज़ का इस्तेमाल बढ़ा है. वो परिंदों, चरिंदों के साथ-साथ इंसानी शरीर की कैमिस्ट्री पर भारी है. चीनी और फैट्स ने शारीरिक मोटापा दिया. सूचना उद्योग यानि पुस्तकों, अख़बारों, पत्रिकाओं, पोर्नोग्राफ़ी, टीवी, इंटरनेट वग़ैरा ने हमें अच्छा-ख़ासा दिमाग़ी मोटापा गिफ़्ट किया है. जंक फूड यू नो, आप जानते हैं.
हमें बताया गया है कि चिकित्सा-विज्ञान मनुष्य के लिए अमरत्व के तारे तोड़ कर लाएगा. हर देश में युद्ध की तैयारी है. कृषि क्रांति और औद्योगिक क्रांति के साइड इफैक्ट्स एक धोखाधड़ी का अहसास कराते हैं.
प्रकृतिवाद गहरी शिकायत भरी नज़र से पूँजीवाद को घुड़कता है. पूँजीवाद उसे यह कह कर रिलैक्स हो लेता है कि जनसंख्या बढ़ने से जो बोझ पड़ता है उसे पृथ्वी झेल पाए उसका इकलौता उपाय मैं हूँ. मार्क्सवाद गुर्राता है, "मैं यहीं हूँ." पूँजीवाद मुस्करा देता है, "खड़ा रह. अपनी कीमत बता."
सरकारों के सरोकार अलग हैं. वे योजना भिड़ाती हैं कि क्या किया जाए. जनसंख्या पर लोग नियंत्रण नहीं रखते, नहीं रखना चाहते तो क्यों न उन्हें वहाँ छोड़ दिया जाए जहाँ वे सस्ते मज़दूरों की लाइन में हमेशा बने रहें, बाज़ार की उम्मीदी-नाउम्मीदी के खेल में वे ज़िंदगी भर भक्ति और प्रार्थनाएँ पेलते रहें. कुछ पैसा मिलता रहे, कुछ जाता रहे, उधारी-चुकौती चलती रहे. बाज़ार ख़ुश. बहुत हुआ तो हिंदू-मुसलमान-सिख-ईसाई, कांग्रेसी-भाजपाई की बारह गोटी की तरह वे बिछते रहें. धर्म और सियासत ख़ुश. ज़िदगी पार हो गई. आदमी ख़ुश. आबादी पर लोग कंट्रोल न करना चाहें न करें उसे प्रगति के साइड इफ़ैक्ट्स पर छोड़ दें.
आपको नहीं लगता कि दुनिया ठीक-ठाक चल रही है? मुझे तो लगता है. मैं ख़ुश हूँ.



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