"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


29 October 2012

Let us play fire – आओ ‘ठायँ-ठायँ’ खेलें



कंचे, गिल्ली डंडे और हाकी में बचपन खो दिया. छि-छि. बचपन बेकार गया. कुछ नहीं खेला.

आपको नए खेल 'ठायँ-ठायँ' से परिचित कराना आवश्यक हो गया है. आजकल गली-मोहल्ले में कोई वारदात-खेल-तमाशा हो तो वहाँ से गोली चलने की आवाज़ (ख़बर) आती है. जिन घरों से शास्त्रीय संगीत की ध्वनियाँ अपेक्षित हैं वहाँ पिस्तौल का होना पाया जाता है. कहा गया है कि 'शस्त्र रहेंगे तो उपयोग में आएँगे ही. दूसरों के लिए न सही, आत्महत्या के काम आएँगे'. आत्महत्या अपराध है लेकिन यह ऐसा अपराध भी नहीं कि हथियारों के लिए लाइसेंस देना बंद कर दिया जाए. मरने-मारने वाले के विवेक (discretion) पर भी कुछ तो छोड़ना पड़ता है. 

फिर बारी आती है आतंकियों की जो हर कहीं ‘फायर-फायर’ खेलते नज़र आते हैं. बताया जाता है कि उनको हथियारों की सप्लाई के स्रोत देशी भी हैं और विदेशी भी. पुलिस उनके हथियार देख कर बिदकती है. उनका मामला देखना सरकार का काम है जो कभी ग़लत काम नहीं करती! कर ही नहीं सकती!! ऐसा लोगों का मानना है.

फायर आर्म्स के लाइसेंस दिए जाते हैं. फिर उनसे संबंधित फाइलों को दीमक चाट जाती है, चूहे खा जाते हैं या रिकार्ड रूम में आग लग जाती है. निरपराध हथियार क्या जाने कि वे किस-किस के हाथों से ग़ुज़र कर आए हैं. पूर्वी यूपी में आधुनिक बंदूकों का खुला सार्वजनिक प्रदर्शन आप में से कइयों ने देखा होगा. अब आम आदमी गुंडो-दबंगों से कैसे पूछे कि उनके हथियार लाइसेंसी हैं या नहीं. आम आदमी के पास जीने का लाइसेंस थोड़े न है.   

समाचारों से लगने लगा है कि अस्त्र-शस्त्र सब कहीं हैं. कहीं से भी ले लीजिए. ज़्यादा हो तो दोस्तों को दे दीजिए. फिर गली में आ जाइए, सनसनी भरा खेल खेलिए. 'ठायँ-ठायँ' कर के लाशें गिराएँ. जस्ट लाइक वीडियो गेम यू सी. सभी मिल कर खेलें ताकि किसी को शिकायत न हो.  😟

22 October 2012

Ravindranath Thakur belonged to Shudra caste – रवींद्रनाथ ठाकुर शूद्र जाति से थे


कुछ दिन पहले ही अपने एक ब्लॉग पर हरिचंद ठाकुर के मतुआ आंदोलन पर एक पोस्ट लिखी थी. हरिचंद ठाकुर की खोज करते हुए एक ऐसी जानकारी मिली जो मेरे लिए नई थी.

कई साल पहले पढ़ा था कि रवींद्रनाथ टैगोर को जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था. लेकिन वहाँ उन्हें पीरल्ली ब्राह्मण लिखा गया था. लगा कि यह ब्राह्मणों का आपसी झगड़ा रहा होगा. रवींद्रनाथ टैगोर (ठाकुर) के परिवार ने आदि धर्म या ब्रह्मो/ब्रह्म समाज की स्थापना की थी. पीरल्ली ठाकुरों के इस परिवार में विवाह करने के लिए वहाँ का ब्राह्मण समाज तैयार नहीं था. अंततः देवेंद्रनाथ को अपने पुत्र रवींद्रनाथ टैगोर का विवाह अपने एक कर्मचारी की बेटी से करना पड़ा.

मुद्राराक्षस जैसे स्थापित हिंदी साहित्यकार ने बहुत स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है कि रवींद्र नाथ टैगोर दलित जाति से थे. इसे नीचे उल्लिखित उनके आलेख टैगोर साहित्य में जाति के सवाल में देखा जा सकता है. हालाँकि आज के संदर्भ में पीरल्लियों को दलित (आज के SCs/STs) लिखना शायद श्रेणी की दृष्टि से ठीक न हो, तथापि, वे निश्चित ही शूद्र जाति (जिसमें OBCs  आती हैं) से संबंधित थे जिन पर निम्नजाति होने का कलंक (stigma) लगा है और ब्राह्मण इन्हें चांडाल कहा करते हैं. पीरल्ली लोग स्वयं को ब्राह्मणों (विशेषकर बैनर्जी) से निकली शाखा मानते हैं. मतुआ आंदोलन पर जानकारी लेते हुए पढ़ा है कि पिछली बार सत्ता में आने से पूर्व ममता बैनर्जी ने स्वयं को मतुआ धर्म का बताया था जो पीरल्लियों का चलाया हुआ आंदोलन था. यह भी देखने योग्य है कि कुछ निम्नजातियाँ जैसे मेघ, मेघवाल, मेघवार आदि स्वयं को ब्राह्मणों से निकली शाखा मानती रहीं हैं.

रवींद्रनाथ टैगोर साहित्य का नोबल पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय थे जिन्हें बहुत देर तक ब्राह्मण के तौर पर प्रचारित किया जाता रहा. रवींद्रनाथ के कुछ पुरखों ने जातिगत भेदभाव से तंग आकर पंद्रहवीं शताब्दी में इस्लाम अपना लिया था.

(कुछ स्पष्ट हो रहा है कि रवींद्रनाथ ठाकुर रचित जन-गण-मन के साथ बंकिमचंद्र चटर्जी लिखित वंदेमातरम् को नत्थी करने का कारण क्या रहा होगा.)

टैगोर के विषय में Wikipedia पर दिए ये दो आलेख पढ़े जा सकते हैं जो पर्याप्त रूप से स्पष्ट हैं. ये लिंक 20-10-2012 को देखे गए हैं.


Link-  टैगोर साहित्य में जाति के सवाल

(http://www.samaylive.com/article-analysis-in-hindi/103539/mudrarakshash-cast-system-ravindranath-taigor.html) 


निखिल चक्रवर्ती के लिखे एक बढ़िया आलेख का लिंक नीचे दिया गया है जिसके बारे में इतना ही कहना चाहूँगा कि यह एक ब्राह्मणिकल नज़रिए से लिखा गया है. बहुत से तथ्य दे दिए गए हैं लेकिन उनमें निहित जातिगत सच्चाई को स्पष्ट रूप से कह न पाने की मजबूरी-सी नज़र आती है. यह आलेख वास्तविकता के ऊपर मँडराता तो है लेकिन उस पर उतरता नहीं. Wikipedia में साफ़ जानकारी है कि रवींद्रनाथ टैगोर पीरल्ली जाति से थे. यह जाति stigmated थी. इस परिवार ने ऊँची जातियों की घृणा के डंक को सदियों सहन किया. टैगोर ने कहा है कि यदि दूसरा जन्म होता है तो वह बंगाली बन कर पैदा होना नहीं चाहेंगे. उनकी ऐसी कटुता का विश्लेषण करने की हिम्मत शायद कोई करे. यह आलेख कहता है कि टैगोर ने नमोशूद्रा जाति के एक सम्मेलन में भाग लिया था. पीरल्ली और नमोशूद्रा दोनों stigma युक्त जातियाँ हैं. टैगोर की जाति से संबंधित उस समय के इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम और तथ्यों को  बंगाली इतिहासकारों ने शायद शर्मिंदगी के कारण अपनी ही बग़ल में छिपाने की गंभीर कोशिश की है.





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13 October 2012

Tulsidas knew the art of loving his people - तुलसीदास अपने समुदाय से प्रेम करना जानते थे


(1)

कक्षाओं में तुलसीदास

कक्षाओं को पढ़ाते हुए डॉ. गोविंदनाथ राजगुरु कहा करते थे कि तुलसीदास कवि बहुत अच्छे हैं लेकिन थिंकर (चिंतक) के तौर पर बेकार हैं. थिंकर के तौर पर कबीर बेमिसाल हैं.

डॉ. वीरेंद्र मेंहदीरत्ता कहा करते थे कि तुलसी की हर बात को माफ़ किया जा सकता है लेकिन इस बात को नहीं- 'जाके प्रिय न राम वैदेही, सो छाँडिए कोटि बैरी सम जदपि परम सनेही'. सही है. स्नेही पर धर्म-आस्था का कोड़ा बरसाना अच्छी बात नहीं. तुलसी ने ही कहीं लिखा है- 'देखत ही हरषे नहीं, नैनन नाहिं स्नेह, तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह'. तो तुलसी का त्यागा हुआ परम स्नेही व्यक्ति जिसकी अपनी आस्था पर राम-वैदेही की छवि उकेरी हुई नहीं है, तुलसी के घर क्यों आएगा? यह बात और है कि राम-वैदेही के मंदिरों ने तुलसी के समाज को अच्छी आजीविका दी है.

डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा कहा करते थे, "तुलसीदास का यह कथन- 'ढोर, गँवार, शूद्र, पशु, नारी, ते सब ताड़न के अधिकारी'- यह वास्तव में रामचरित मानस में समुद्र के मुँह से कहलवाया गया है जो राम के मार्ग में बाधक था और उस समय विलेन था. जरूरी नहीं कि विलेन का कथ्य तुलसी का भी कथ्य हो." चलिए, आपकी बात भी मानते चलते हैं पंडित जी.

डॉ. पुरुषोत्तम शर्मा इसे कौमा-डैश का हेर-फेर मानते हुए कहते थे कि तुलसीदास का इससे तात्पर्य था- 'ढोर, गँवार-शूद्र, पशु-नारी, ते सब ताड़न के अधिकारी'. यानि अगर शूद्र गँवार हो या नारी पशु जैसी हो तो वे ताड़ना के अधिकारी हैं. बहुत खूब. इसके निहित संदर्भों की व्याख्या रुचिकर होगी क्योंकि तब शूद्र और नारी के लिए शिक्षा की मनाही थी. अतः उन्हें 'गँवार' और 'पशु' की श्रेणी में रखने का रिवाज़ रहा होगा.

कुछ बात तो है कि ब्राह्मण समाज तुलसीदास को सिर पर उठाए फिरता है और दूसरों को भी ऐसा करने की सलाह देता है. लेकिन यह तय है कि समय के साथ तुलसी साहित्य की व्याख्याएँ बदलती रहीं. संभव है कि तुलसी के साहित्य में हेर-फेर भी किया गया हो.

(2)

कक्षाओं से बाहर तुलसीदास

तुलसी के साहित्य से ऐसे कई उद्धरण हैं जिन्हें आज विभिन्न लेखक अलग दृष्टि से पहचानते हैं. एक सज्जन ने जातिवादी दृष्टि से तुलसी की इन पंक्तियों- 'पूजिए विप्र ज्ञान गुण हीना, शूद्र ना पूजिए ग्यान प्रवीना.'- की व्याख्या की और तुलसी पर जम कर बरसे और फिर इस पर ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति का ठप्पा लगा दिया. चलिए जी, ठीक है जी......

लेकिन मैं तुलसी के उक्त कथन को बहुत महत्व देता हूँ.

'पूजिए विप्र जदपि गुन हीना' (अर्थात् ब्राह्मण यदि गुणहीन भी है तो भी पूजनीय है). स्पष्ट है कि यहाँ विद्वान, ज्ञानी, दूसरों का भला करने वाले व्यक्ति की बात नहीं हो रही बल्कि ब्राह्मण समुदाय के किसी व्यक्ति की बात है जो सिर्फ़ अनाज का दुश्मन है.

अब मैं सोचता हूँ कि तुलसीदास ने क्या लिखा. वे ब्राह्मण थे और वे अपने समुदाय के गुणहीन व्यक्ति को भी पूजनीय कह रहे हैं तो इसमें उनकी उदार दृष्टि और प्रेम भावना झलकती है. इसमें ग़लत क्या है? वे अपने समुदाय की छवि को ऊँचा उठाते रहे और उनका समुदाय आज उन्हें उठाए-उठाए फिरता है.

अपने समुदाय के सदस्यों के कार्य, कला, ज्ञान और उत्पाद (product) की जानकारी लें और परस्पर चर्चा करें. फिर जहाँ भी अवसर आए उसकी यथोचित प्रशंसा करें. यह सब को अच्छा लगेगा. इस प्रकार एक-दूसरे का आवश्यक सामाजिक-आर्थिक सहयोग अपने आप होता रहता है.

तुलसीदास दुबे सामुदायिक उन्नति के इस सरलतम मार्ग को जानते थे. उनकी सभी बातें आप माने या न माने, केवल अपने समुदाय के प्रति आदर और प्रेम-भावना को घना करके हृदय तक उतार लें तो समुदाय के विकास का रास्ता अधिक प्रशस्त होगा. आपकी उन्नति और सफलता निश्चित है.



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06 October 2012

DICCI - नौकरियाँ माँगने वाले नहीं, नौकरियाँ देने वाले बने


आपने FICCI (Federation of Indian Chambers of Commerce and Industry) के बारे में पढ़ा और जाना होगा. यह भारत के उद्योगपतियों का एक मंच है जो परस्पर सहयोग की बुनियाद को मज़बूत बनाता है.

संभव है आप जानते हों, अन्यथा आज जान जाएँगे कि भारत के दलित उद्योगपतियों ने ऐसे ही एक मज़बूत मंच का गठन सन् 2005 में किया था जिसे DICCI (Dalit Indian Chamber of Commerce and Industry)  के नाम से जाना जाता है. इसका मिशन है- नौकरियाँ माँगने वाले नहीं, नौकरियाँ देने वाले बने (Be job givers, instead of job seekers)’. यह मंच अब काफी प्रगति कर चुका है और इसका अस्तित्व अब बंगलूरु, हैदराबाद और जयपुर में भी है.

नीचे दिए फोटो पर क्लिक करके आप DICCI के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं.

Towards greater unity – कारवाँ बनने लगा है



ऑल इंडिया मेघ सभा, चंडीगढ़ द्वारा प्रकाशित की जाने वाली पत्रिका मेघ चेतना का निरंतर प्रकाशन एक प्रशंसनीय कार्य है. इस प्रकार की सामुदायिक पत्रिकाओं से व्यावसायिक पत्रिकाओं जैसी आकर्षक और अदोष सामग्री की आशा नहीं की जाती लेकिन इस बात की अपेक्षा की जा सकती है वे समुदाय की गतिविधियों का निर्दोष आईना अवश्य बने.

कल ही इस पत्रिका के प्रधान संपादक श्री निर्मल चंदर भगत से इसका मई-जुलाई 2012 का अंक मिला. इस अंक में प्रकाशित संपादकीय इस पत्रिका की लंबी यात्रा का एक मील का पत्थर है.

देश भर में मेघ ऋषि को मानने वाली संतानें करोड़ों हैं लेकिन भौगोलिक, ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से वे सदियों से एक दूसरे को पहचानने में भूल करती आई हैं. कभी जाति के नाम पर, कभी भाषा और व्यवसाय के नाम पर वे बँटी हुई दिखती हैं. शिक्षा और नई जानकारियाँ प्राप्त होने के बाद अब उनकी नज़दीकियाँ और मेल-मिलाप बढ़ा है.
संपादकीय - इस चित्र पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है.
उक्त संपादकीय को मैं इसलिए महत्वपूर्ण मानता हूँ कि इस पत्रिका को पढ़ने वाले पंजाब के मेघ भगत अभी भी इस तथ्य को पचाने में कठिनाई महसूस करेंगे कि जम्मू-कश्मीर के मेघ, राजस्थान के मेघवाल, मेघबंसी, बलाई, बुनकर, मेहरा आदि और गुजरात के मेघवार मूलरूप से एक ही वंश के हैं जो मेघ ऋषि को अपना मूल मानते हैं. इनकी कई शाखाएँ भारत के अनेक भागों में बसी हैं और एक-दूसरे से अनजान हैं. इसी पत्रिका में संपादक के नाम डॉ. हरबंस लाल लीलड़ का एक पत्र छपा है जिसमें विभिन्न मेघवंशी समुदायों की एक महत्वपूर्ण बैठक का उल्लेख है जिसके बारे में आप यहाँ पढ़ सकते हैं. सामाजिक संगठनों की इस प्रकार की पहल कदमियों के अलावा राजनीतिक कोशिशें भी महत्वपूर्ण होती हैं. उसे ध्यान में रखते हुए कुछ मौकों पर श्री महेंद्र भगत जी (भगत चूनी लाल जी के सुपुत्र) से इस विषय पर चर्चा हुई है कि वे राजस्थान के मेघवाल सांसदों और विधान सभा सदस्यों से मिल कर राजनीतिक मंच साझा करने के लिए कदम उठाएँ और रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स को इस प्रक्रिया में शामिल करें. आशा है इसका कोई नतीजा शीघ्र निकलेगा.

प्रत्येक बड़े कार्य की एक छोटी शुरुआत आवश्यक होती है. वह शुरुआत हो चुकी हुई है. आशा है इस संपादकीय पर प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ आएँगी. उन्हें जानकारी के साथ खारिज करना होगा. मैं इस संपादकीय को एक बड़े कार्य की दिशा में सार्थक प्रयास की तरह देखता हूँ. 


इस ब्लॉग से अन्य लिंक

Political notes of 80 years old Virumal

जम्मू में कबीर प्रकाशोत्सव

हम कौन हैंकहाँ से आए थे....

 


Dalit Media-3 - दलित मीडिया-3 - Meghvansh Navyug मेघवंश नवयुग



1. 
फेस बुक के माध्यम से श्री कामता प्रसाद मौर्य ने सम्यक् भारत पत्रिका के बारे में जानकारी दी है. इसका एक अंक श्री प्रभु दयाल (सुश्री मायावती के पिता) के हाथों में है जिसे देख कर सुखद आश्चर्य हुआ. दलित मीडिया विकसित हो रहा है.
कामता प्रसाद मौर्य जी का बलॉग बन चुका है आशा है इस पर हमें जानकारी पूर्ण आलेख मिला करेंगे.


3. फेस बुक से श्री गुणेश राठौड़ ने जानकारी दी है कि बाड़मेर से एक पत्रिका 'मेघवंश नवयुगनामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ है जिसका पहला अंक फरवरी 2012 में आया है. इसके मुख्य संपादक डॉ. नारायण मेघवाल हैं और इसका प्रकाशन जनहितकारी सीमांत संस्थाबाड़मेर (राजस्थान) कर रही है.
अधिक जानकारी मिलने पर उसे यहाँ देना चाहूँगा.

All India Satguru Kabir Sabha – आल इंडिया सत्गुरु कबीर सभा - (1958)


कल 03-08-2012 को आर्य समाज मंदिरसैक्टर-16चंडीगढ़ में श्रीमती तारा देवी की रस्म क्रिया के बाद भगत प्रेम चंद जी ने एक स्मारिका (Souvenir/सुवेनेयर - 2012-13) मुझे दी. 

आल इंडिया सत्गुरु कबीर सभा (1958)मेन बाज़ारभार्गव नगरजालंधर का नाम सुना था लेकिन मेरी जानकारी में नहीं था कि सभा (AISKS) ने इस वर्ष ऐसी स्मारिका का प्रकाशन किया है. इस स्मारिका को देख कर सुखद आश्चर्य हुआ.

सुखद आश्चर्य इस लिए कि ये स्मारिकाएँ संस्था द्वारा संपन्न कार्यों का प्रकाशित दस्तावेज़ होता है. इसमें कार्यों की भूमिकाउनके महत्वसंबंधित विषयों पर आलेखकार्यकर्ताओं और संगठन की गतिविधियों के बारे में जानकारी आदि होते हैं जो धीरे-धीरे एक इतिहास का निर्माण करते हैं. इस स्मारिका में यह सब कुछ दिखा.

यह स्मारिका सत्गुरु कबीर के 614वें प्रकाशोत्सव (04-06-2012) के अवसर पर जारी की गई थी. इसका संपादन श्री विनोद बॉबी (Vinod Bobby) ने किया है और उप संपादक श्री गुलशन आज़ाद (Gulshan Azad) हैं.

इस स्मारिका में काफी जानकारियाँ हैं. लेकिन जो मुझे अपने नज़रिए से महत्वपूर्ण लगीं उनका उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ. इसका संपादकीय जालंधर में कबीर मंदिरों (Kabir Temples) के विकास की संक्षिप्त कथा कहता है और इसमें शामिल आलेख कबीर से संबंधित जानकारी देते है. राजिन्द्र भगत द्वारा श्री अमरनाथ (आरे वाले) पर लिखा आलेख सिद्ध करता है कि अपने समाज के अग्रणियों पर अच्छा लिख कर हम आने वाली संतानों के लिए आदर्श जीवनियों का साहित्य निर्माण कर सकते हैं. यह अच्छी भाषा में लिखा आलेख है. 'अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति पीठ - कबीर भवन' पर लिखा आलेख प्रभावित करता है.

स्मारिका में प्रकाशित विज्ञापन बताते हैं कि मेघ भगतों ने इसके प्रकाशन में खूब सहयोग दिया है. बहुत-बहुत बधाईक्योंकि यह करने योग्य कार्य है.

इस सभा के संस्थापकों में आर्यसमाज के अनुयायी मेघ भी कबीर सभा की इस स्मारिका में दिखे जो मेघ समाज में हो रहे परिवर्तन का द्योतक है. आर्यसमाजी विचारधारा के कारण मेघ भगत समाज ने कबीर और डॉ. भीमराव अंबेडकर को बहुत देर से अपनाया. यह देख कर अच्छा लगा कि इस स्मारिका में विवादास्पद लेखक श्री एल. आर. बाली (L.R. Bali) ('भीम पत्रिका' के संपादक) का आलेख भी छापा गया है जिन्होंने अपना पूरा जीवन अंबेडकर मिशन को समर्पित कर दिया है. मुझे आशा है कि मेघ भगत देर-सबेर डॉ. अंबेडकर, जो स्वयं कबीरपंथी थे, को जाने-समझेंगे.

स्मारिका में सभा के कार्यकर्ताओं का टीम अन्ना के साथ दिखना राजनीतिक संकेत करता है और यह अच्छा है.

आशा है कि मेघ भगतों के अन्य संगठन भी ऐसी स्मारिकाएँ छापने के बारे में विचार करेंगे. 

 स्मारिका की पूरी पीडीएफ फाइल आप नीचे दिए इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं

Souvenir (p. 1-32)


Souvenir (p. 33-64)



The meaning of being a Bhagat - भगत होने का अर्थ



मेघ भगत समुदाय के लोगों में भक्तिभाव आने का क्या कारण है इसके बारे में भगत मुंशीराम जी ने अपनी पुस्तक मेघमाला के प्रकरण-2 (p-33) में लिखा है:-

....भगत बनने का संस्कार भी उन्होंने (मेघ भगतों ने) इसी (हिंदू) धर्म से ग्रहण किया. इस धर्म पर चलते-चलते आर्थिक दशा अच्छी न होने के कारण और अशिक्षित रहने के कारणइस जाति में गरीबीअधीनता और दासपने का आना स्वाभाविक है. जिस जाति के लोगों की आवश्यकताएँ सीमित हो जाती हैं वो जिस काम में भी लगें होवो किसी प्रकार का भी होआय-व्यय का कोई प्रश्न नहींवे जैसा वक़्त आ गया वैसा काट लेते हैं. ऐसी स्वाभाविक रहनी के लोग स्वाभाविक भगत हो जाते हैं. आप पूछेंगे कि आप यह क्या कह रहे हैं. भक्ति भाव तो बड़े-बड़े तप करने के बाद आता है. इसके लिए लोग घर-बारकामकाजधन-धान्यमान-प्रतिष्ठा छोड़ कर जंगलों और पहाड़ों की गुफाओं में जाकर कठिन साधन करते हैंतब जाकर भक्तिभाव आता है. मेघ जाति के लोगों ने कोई तप नहीं कियाकोई साधन नहीं किया तो कैसे भगत बन गए. यह प्रकृति का एक भेद है जिसको सर्वसाधारण चाहे किसी भी जाति का होकिसी भी धर्म को मानने वाला होनहीं जानताजब तक कि उसे प्रकृति का ज्ञान न हो जाए. मैंने अपने सत्गुरु हुजूर परमदयाल फकीरचन्द जी महाराज से जो कुछ समझा उसे बताने की कोशिश करूँगा. हर एक आदमी अगर ध्यान से अपने अन्दर देखे तो पता चलेगा कि हर समय कोई न कोई इच्छाआशा और वासना हर व्यक्ति के अन्दर उठती रहती है. उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए हम हरकत में आ जाते हैंकर्म करते हैं. इच्छा पूरी हो जाने के बाद जिस चीज़ की इच्छा कीउसका भोग करते हैं और भोग से आनन्दखुशी लेते हैं. फिर और इच्छा पैदा होती है कि इस प्रकार के भोग भोगते रहें. इसी तरह इच्छाकर्मफलभोग फिर इच्छाकर्मफल और भोग का चक्कर चलता रहता है. जब तक यह चक्कर है कोई भी व्यक्ति भगत नहीं बन सकता. भगत वो है जिसकी आवश्यकताएँ कम हो गई होंअधिक भोग-विलास की इच्छा न रही हो. चाहे ये आवश्यकताएँ और इच्छाएँ तप करने से अपने अधीन कर लो या उसकी जिन्दगी में दूसरे लोग उसको दबाए रखेंदलित और पतित बनाए रखें उसको आश्रित बनाए रखेंउसका कोई काम बड़े लोगों की सहायता के बगैर न हो सकता हो तो थोड़े मेंग़रीबी मेंपतितपने में अपना जीवन गुजारता है. उसकी इच्छाएँ और वासनाएँ बलपूर्वक दबा दी जाती हैं. जिसकी आवश्यकताएँ बहुत सीमित हो गई हों और उसके अनुसार वासनाओं का उठना भी कम हो गया वह बिना किसी तप-साधन और अभ्यास के भगत बन सकता है और भक्ति भावना को अपने चित्त पटल में जगह दे सकता है.

भगत मुंशीराम जी ने जिस भगत की व्याख्या की है उसकी पृष्ठभूमि के बारे में वे बहुत साफ तौर पर लिख रहे हैं कि इस धर्म पर चलते-चलते आर्थिक दशा अच्छी न होने के कारण और अशिक्षित रहने के कारणइस जाति में गरीबीअधीनता और दासपने का आना स्वाभाविक है’. आगे की बात भी वे बहुत सावधानीपूर्वक लेकिन स्पष्टता के साथ कह रहे हैं कि- उसकी इच्छाएँ और वासनाएँ बलपूर्वक दबा दी जाती हैं. 

मैं उक्त व्याख्या से यही समझ पाया हूँ कि भगत उसे कहा जाता है जो अशिक्षा का शिकार हो, ग़रीब हो, अभाव में हो, धार्मिक विचारों का सहारा लेकर गुज़ारा करता हो और ईश्वर का धन्यवाद करता हो.

क्या लाला गंगाराम ने इसी अर्थ में मेघों को भगत कहा था? 

शायद हाँ.

Megh Bhagats of J&K struggle for survival


(1)

Megh Bhagat - मेघ भगत

Their habitats उनके घर

Their capital उनकी पूँजी


Their way to development उनका विकास मार्ग

Their roofs उनकी छतें

They compete with heavy weight cloth industry
भारी कपड़ा उद्योग के साथ प्रतियोगिता


Below you can see a community Hall being constructed for them. Hiranagar B D O block is constructing this community Hall at village Ladyal Hiranagar, S C Mohalla for the past about 12 years.


A house of Bhagats in the heart of Samba city




(2)

Their displacement due to terrorism

घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए सरकार ने सरकारी भवनों के दरवाज़े खोल दिए थे लेकिन आतंकवाद के कारण कई क्षेत्रों से विस्थापित मेघों की ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं. इनकी कहानी एक गुमनामी की कहानी है. गरीबी में रह रहे इस समुदाय के लोग कारे बेगार कानून की पीड़ा भुगत चुके हैं और कश्मीरियों और जम्मू के डोगरों की संपन्नता के पीछे इनका खून-पसीना साफ़ चमकता है. 

There are many more Megh Bhagats from Kishatwar now living in Kathua District who had to leave their homes and land. Now they have no land to cultivate, no permanent work or employment. They have settled in village Bhalua Budhi, Barnoti, Nagri and near Sakta Chack. There are about 30 families. Just look at their conditions.




(Contributed by Sh. Tara Chand Bhagat of Udhampur via Face Book)

Bhagat Buddamal - भगत बुड्डामल



Bhagat Budda Mal Ji
सन् 1947 में पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए और जालंधर में बसे मेघ भगत समाज में लगभग सभी लोग एक नाम से भली-भाँति परिचित हैं- भगत बुड्डामल. भार्गव कैंप, जालंधर में उनके नाम से एक ग्राऊँड बना है जिसे भगत बुड्डामल ग्राऊँड कहते हैं.

विडंबना है कि आज मेघ भगत समाज में बहुत कम लोग इस सामाजिक कार्यकर्ता के बारे में विस्तार से जानते हैं जिसने अपने समुदाय के लिए जीवन भर अथक परिश्रम किया ताकि यह समुदाय भविष्य में भली प्रकार से ससम्मान जीवन व्यतीत कर सके.
उनका जन्म और पालन-पोषण स्यालकोट, पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था. वे मेघ जाति के एक सामान्य परिवार में जन्मे थे. बहुत शिक्षित नहीं थे. लेकिन छोटी आयु में ही वे समाज सेवा के कार्य में प्रवृत्त हो गए थे. भारत में आने के बाद तो वे आजीवन समाज सेवा में रहे. मैंने स्वयं उन्हें अमृतसर, जालंधर और चंड़ीगढ़ में समाज सेवा में सक्रिय देखा है.
  
उनकी दिनचर्या ही थी कि वे सहायता माँगने आए किसी भी आगंतुक के साथ हो लेते और उसकी भरपूर मदद करते. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे अन्य मेघ भगतों की भाँति भार्गव कैंप, जालंधर में बस गए. यहाँ रहते हुए उन्होंने भगत गोपीचंद के साथ मिल कर बहुत कार्य अपने समाज के लिए किया. वे कई बार जालंधर म्युनिसिपल कार्पोरेशन के सदस्य चुने गए. वे अकेले या अपने साथी सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ पंजाब की राजधानी चंडीगढ़ में आते रहे और यहाँ भगत मिल्खीराम (पीसीएस), श्री केसरनाथ जी, सत्यव्रत शास्त्री जी आदि के साथ मिल कर उन्होंने बहुत से लोगों के नौकरियों आदि से संबंधित कार्य कराए जिससे समुदाय के लोगों को लाभ पहुँचा.
इनकी धर्मपत्नी का नाम भगवंती था. इनके अपनी कोई संतान नहीं थी अतः अपने भाई की संतान को गोद लेकर पाला. दमकता हुआ गोरा चेहरा. लंबा कुर्ता, तुर्रे वाली अफ़ग़ानी पगड़ी और पठानी सलवार पहनने वाले बुड्डामल जी का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक और प्रभावपूर्ण था. वे धीरे-धीरे प्रेमपूर्वक और ठहरी हुई बात करते थे.

उनके कार्य और समाज सेवा के मद्देनज़र सरकार ने उनकी स्मृति में भार्गव कैंप में श्री बुड्डामल पार्क बना दिया और उनके कार्य के महत्व को मान्यता दी.
पार्क बनने के साथ उनका नाम अमर तो हो गया लेकिन उनके बारे में अभी बहुत-सी जानकारियाँ जुटाई जानी बाकी हैं. अभी हाल ही में भगत चूनी लाल भगत के नागरिक अभिनंदन समारोह में श्री बुड्डामल जी को याद किया गया था.

अब बेहतर हो कि हमारे सामाजिक संगठन अपने पूर्ववर्ती सामाजिक कार्यकर्ताओं के बारे में जानकारी जुटाएँ और समय-समय पर उनके संबंध में उपलब्ध सामग्री को भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने का उपक्रम करें आखिर वे हमारे लिए कल्याणकारी सोच रखने वाले प्रेरणा स्रोत हैं.
मेरे विचार से भगत बुड्डामल पार्क में उनकी मूर्ति लगाई जानी चाहिए ताकि आने वाले समय में हम सभी उनके कार्य से प्रेरणा ले सकें. यहाँ के वाटर टैंक पर 'बुड्डामल पार्क' लिखा जा सकता है ताकि पार्क का नाम दूर से पढ़ा जा सके.



विशेष टिप्पणी :-

 
कुछ समय पूर्व भगत बुड्डामल ग्राऊँड में शनि सहित कई देवी-देवताओं का मंदिर बना दिया गया हैयह सोचने की बात है कि किसी मेघ भगत के नाम से पंजाब में अपनी प्रकार की यह एकमात्र ग्राऊंड है. माना कि यह सरकारी जगह है लेकिन इसका उपयोग पार्क की तरह ही होना चाहिए. काश शनि मंदिर को कहीं और शिफ्ट किया जा सकता.
सोचने की बात है कि आपको 'आर्य समाज स्कूलसुनने में अच्छा लगता है कि 'मेघ हाई स्कूल'. विचार करें कि 'भगत बुड़्डामल ग्राऊँडसुनने में अच्छा लगता है या 'शनि मंदिर ग्राऊँड'. यदि मेघ भगत समुदाय या उसके किसी सदस्य के नाम पर कोई स्थल या शिक्षण संस्थान बने तो उससे समुदाय की छवि बेहतर बनती है.



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विशेष आभार
भगत बुड्डामल जी के फोटो और उनकी पेंटिंग की फोटो देने के लिए भगत बुड्डामल जी के परिवार का तथा पार्क के चित्र भेजने के लिए युवा ब्लॉगर श्री मोहित भगत का बहुत आभार. उनकी सहायता के बिना मेरे लिए यह कार्य संभव नहीं था.