जब एडवोकेट हंसराज भगत और अन्य प्रबुद्ध जनों ने मेघ समुदाय को अनुसूचित जातियों में शामिल कराने के लिए महत्वपूर्ण प्रयत्न किए थे तब की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियां आज की परिस्थितियाँ इस मायने में अलग थीं कि उस समय ‘अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)’ की सूचियाँ बनाने की कोई बात नहीं हो रही थी.
जाति वर्गीकरण को लेकर मेघों के भीतर पहले से ही अलग-अलग विचार और तेवर थे. कुछ का मानना था कि मेघ सारस्वत ब्राह्मण हैं (शायद हों भी) या उनके रीति रिवाज ब्राह्मणों से मिलते जुलते हैं (शायद न भी हों) और उन्हें अनुसूचित जातियों में शामिल नहीं किया जा सकता (लेकिन कर लिया गया). इतने विचारों के पीछे पुख्ता सुबूत या प्रमाण ज़रूर रहे होंगे चाहे वे रिकार्ड न भी किए गए हों लेकिन यह तथ्य है कि मेघों का मुख्य व्यवसाय कपड़ा बुनना भी रहा है. आंध्र प्रदेश में ब्राह्मण कपड़ा बनाने का काम करते हैं. मेघ कब से जुलाहे का कार्य कर रहे हैं इसकी ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिली. सुबूत इस बात के भी मिलते हैं कि यह समाज कभी क्षत्रिय रहा है जिसके प्रमाण पौराणिक कहानियों और इतिहास दोनों में मिल जाते हैं.
आज की स्थिति यह है कि मेघ बहुत बड़ी संख्या में कबीरपंथी हैं. हथकरघा (खड्डियों) का व्यवसाय बर्बाद हो जाने के बाद वे कई अन्य व्यवसायों में गए और वहाँ उनकी सफलता की कहानियाँ उपलब्ध हैं. दूसरे, वे संभवतः सद्गुरु कबीर के समय से ही उससे और उसकी वाणी से जुड़े रहे हैं. अपने व्यवसाय की झलक उन्हें कबीर की वाणी में मिलती रही है जिसके ज़रिए कबीर का उच्चतम ज्ञान उनके जीवन को प्रभावित करता रहा है. वे पंजाब के सेंसस रिकॉर्ड में कबीरपंथी के तौर पर दर्ज भी हैं.
पिछले दिनों जब कबीर के साहित्य पर नई रिसर्च हुई तो उसमें यह महत्वपूर्ण बात उभरकर आई कि कबीर ने अपने काव्य में जिस बिंब विधान (imagery) का सहारा लिया है वे अधिकतर उन व्यवसायों से संबंधित हैं जो हमारे देश की ओबीसी सूची जातियों का था, जैसे- जुलाहे, धोबी, रंगरेज़, लोहार, कुम्हार, तेली, माली, दर्जी आदि.
यह सवाल अब इस (मेघ भगत, कबीरपंथी) समुदाय के लोगों के ज़ेहन में उठता है कि क्या मेघ ओबीसी के लिए क्वालीफाई करते हैं विशेषकर कबीरपंथी नाम के तहत? एक शादी के दौरान कुछ शिक्षित मेघजनों ने इस पर बातचीत की थी कि यदि अनुसूचित जातियों की सूचियाँ बनाते समय ओबीसी का वर्गीकरण उपलब्ध रहा होता तो हमारे तब के प्रतिनिधि पंजाब की मेघ जाति को उसी में शामिल करने की सिफ़ारिश करते. आगे जो लिखा है वह इन अनुभवी लोगों से हुई बातचीत का नतीजा है. ध्यान रहे कि यह विचार-विमर्श है, सुझाव नहीं. वैसे लिखी हुई हर चीज़ एक सुझाव देती है.
इन दिनों मेघों में एक मध्यमवर्ग उभरा है. वो खुद को अनुसूचित जाति का कहलाने से सकुचाता है लेकिन नौकरी या कोई अन्य लाभ पाने के लिए वो जाति प्रमाणपत्र का इस्तेमाल अवश्य करता है. रिश्ते ढूँढने के लिए वो अपनी जाति पहचान के साथ उपस्थित होता है. वो यह चाहता भी है कि किसी तरह ‘अनुसूचित जाति’ नामक पहचान से पीछा छूट जाए. इस वर्ग में सामाजिक और राजनीतिक जागृति आई है और उसकी चाह है कि उसका दायरा जाति से बाहर भी बने. उनके परिवारों में कई शादियाँ जाति से बाहर हुई हैं. इस मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या इनकी जाति की कुल जनसंख्या के एक प्रतिशत के आसपास हो सकती है (यह सर्वे रहित अनुमान है). लेकिन बाकियों का क्या?
राजनीति के व्यवसाय (प्रोफेशन, ऑक्युपेशन) से जुड़े लोगों के मन में आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र का मोह ज़रूर घर कर चुका होगा. ओबीसी में शामिल किए जाने की बात उठे तो उनके मन में एक लड़ाई मचेगी. हालाँकि वे कभी-कभार कल्पना तो करते होंगे कि राजनीतिक आरक्षण का कलंक उतर जाता तो क्या बेहतर हो सकता था? जो लोग औद्योगिक क्षेत्र में स्थापित हो गए हैं या अच्छी जॉब्ज़ आदि के कारण आर्थिक रूप से मज़बूत हो गए हैं उन्हें 'अनुसूचित जाति' शब्द से खीज होना स्वभाविक है. उन्हें जाति प्रमाणपत्र की शायद ही आगे ज़रूरत पड़े. उनके अपने मन में बहुत संवाद चलता होगा. ख़ैर ! यह तो रही एक प्रतिशत लोगों की बात. अब बाकी 99 प्रतिशत की बात होनी चाहिए.
आज की तारीख़ में उन 99 प्रतिशत से इस बारे में कोई सामूहिक बातचीत हो सकती है, ऐसा नहीं लगता. वे पर्याप्त रूप से जागरूक, शिक्षित और संगठित नहीं हैं. उनका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई मज़बूत बुद्धिजीवी वर्ग नहीं मिलता. लेकिन कई शहरों में उनके छोटे-छोटे सामाजिक संगठन हैं जिन्हें उनकी बात करनी चाहिए. सोचा जाना चाहिए कि क्या वो अति पिछड़े हुए मेघ आरक्षण का लाभ उठाने की हालत में हैं? ज़मीनी सच्चाई यह है कि उनका शिक्षा का स्तर बहुत कम है और दूसरी तरफ़ सरकारी नौकरियाँ लगभग ख़त्म हो चुकी हैं. जो बचा-खुचा आरक्षण है उसके प्रावधानों को अदालतों के फैसलों ने लगभग ख़त्म कर दिया है. सरकारें भी झकाणे (हत्थ चलाकी) का काम करती हैं. देने का नाटक करती हैं और फिर हाथ पीछे खींच लेती हैं. प्राइवेट सैक्टर में आरक्षण की बात फिलहाल दूर की कौड़ी है.
मान लीजिए कि इस आधार पर कि भारत के कई राज्यों में कपड़ा बुनने का काम करने वाले समुदाय ओबीसी में शामिल हैं इसलिए मेघों को ओबीसी में शामिल कर लिया जाता है तब क्या होगा? इधर पंजाब में अनुसूचित जातियों के लिए जो आरक्षण मिलता है उसे आगे कुछ विशेष जातियों में एक विशेष अनुपात में बाँट दिया गया है. यानि इस वजह से मेघ समुदाय के लिए उपलब्ध अवसर कम हो गए हैं. तब ओबीसी के तौर पर उनका क्या होगा? लगता तो यही है कि उनके लिए अवसर अधिक बनेंगे और कंपीटिशन भी बढ़ेगा. इतना यकीन के साथ कहा जा सकता है कि मेघ समाज के लोग कंपीटिशन की चुनौती लेने लगे हैं और वे दौड़ में आगे रहेंगे. ओबीसी को प्रोमोशन में आरक्षण नहीं मिलता. पिछले कई दशकों से कई हथकंडे अपना कर अनुसूचित जातियों के लिए प्रोमोशन के रास्ते बंद कर दिए गए हैं. प्रोमोशन में आरक्षण से संबंधित उच्चतम न्यायालय के आदेशों को लागू न होने देने के लिए सरकारी अमला सक्रिय रहता है. इस हालत में प्रोमोशन में आरक्षण न मिलने से कितनों को कितना नुकसान होगा आकलन तो नहीं हो सकता और फिर वर्तमान परिस्थितियों में यह अधिक महत्व की बात नहीं रह जाती. ओबीसी सूची में अंतरण हो जाने से रोज़गार के अवसर बढ़ सकते हैं इस पर अधिक ग़ौर करने की ज़रूरत है. आज की तारीख़ में यह 27 प्रतिशत है. हो सकता है आनेवाले समय में आबादी के अनुपात में यह 52-53 प्रतिशत हो जाए. जाति व्यवस्था में 'एक सीढ़ी ऊपर' की जिस स्थिति पर मेघों का सदियों पुराना और बहुप्रतीक्षित अधिकार है उसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए.
एक बिंदु और भी. हम अपनी मौजूदा हालत में अक़सर संतुष्ट हो चुके होते हैं. उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की आहट से हम आशंकित हो उठते हैं. लेकिन जहाँ हम हैं वहाँ तो हैं ही, बस उससे ज़रा बेहतर हो जाए तो वो ज़रूर बेहतर ही होगा.
ज़िंदा हो तो ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है |