"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


27 September 2017

From Mohanjodaro to Melukhkh - मोहनजोदड़ो से मेलुख्ख तक

कोई भी ज्ञान अंतिम नहीं होता. लगातार पढ़ने, लिखने और शोध करने से वह समृद्धि होता है.
जिसे कभी हम 'सिंधुघाटी सभ्यता' के नाम से पढ़ते थे उसे अब आर्कियोलॉजिस्ट 'हड़प्पा सभ्यता' कहना पसंद करते हैं. पहले जिसे हम स्कूल के दिनों में 'मोहनजोदड़ो' शहर के नाम से पढ़ते थे उसमें परिवर्तन हुआ है. शोधकर्ताओं ने बताया कि वह शब्द वास्तव में मोहनजोदड़ो न हो कर ‘मुअन जो दाड़ो’ है जिसका अर्थ होता है ‘मुर्दों का टीला’ या 'मरे हुओं का टीला'. ‘मुअन’ शब्द पंजाबी के ‘मोए’ और हिंदी के ‘मुए’ शब्द का लगभग समानार्थी है. इस शहर को यह नाम शायद इसलिए दिया गया कि वहां बहुत से लोग मर गए थे या मार डाले गए थे. लेकिन अब आगे खोज बता रही है कि 'मुअन जो दाड़ो' भी उसका असली नाम नहीं था. प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद सिंह (यह फेसबुक का लिंक है) ने बताया है कि उस शहर का नाम ‘मेलुख्ख’ था. यह शब्द मेसोपोटामियाई अभिलेखों और साहित्य से प्रकाश में आया है.
हमने कभी पढ़ा था कि सिंधुघाटी सभ्यता के क्षेत्र में खुदाई के दौरान मोहनजोदड़ो के निशान मिले हैं लेकिन अब नई खोज है कि सिंधु घाटी सभ्यता के क्षेत्र में जहां बौद्ध स्तूप मिला था उस स्तूप के नीचे की खुदाई में 'मुअन जो दाड़ो' शहर मिला और कि उसी शहर का असली नाम ‘मेलुख्ख’ था.
यह सब इसलिए नोट कर लिया है क्योंकि भारत के लगभग सभी मूलनिवासी लोग जब अतीत की यात्रा पर निकलते हैं तो वे सिंधुघाटी, हड़प्पा, मुअन जो दाड़ो तक ज़रूर पहुँचते हैं. अब वे मेलुख्ख शहर से भी ग़ुज़रेंगे.

इतिहास रुका हुआ पानी नहीं है. यह प्रवाहमान है. यायावरी है.

23 September 2017

Megh Matrimonial - मेघ मैट्रिमोनियल

जब से मेघ समाज में शिक्षा का लेवल बढ़ा है तब से शादियों के लिए रिश्ते ढूंढने में लोगों को कठिनाई महसूस होने लगी है.  यह कठिनाई तब से और बढ़ी है जब से सरकारी नौकरियां कम हो गई हैं.
इस समस्या को कम करने के लिए लोग अपने-अपने तरीके से जुगत करने की सोचते हैं. कई वर्ष पहले ‘मेघ चेतना’ पत्रिका ने मैट्रिमोनियल सेवा देने का कार्य शुरू किया था. इससे काफ़ी लोगों को लाभ हुआ. आगे चलकर कुछ उत्साही लोगों ने इंटरनेट पर ब्लॉग, फ़ेसबुक आदि के माध्यम से मैट्रिमोनियल सेवा दी. इससे भी लोगों को फ़ायदा हुआ. पिछले डेढ़ साल के दौरान WhatsApp पर मैट्रिमोनियल ग्रुपों को लेकर काफी खींचतान देखने में आई थी. कई लोग 'एडमिन-एडमिन' खेल में कूद पड़े. पूरे के पूरे ग्रुप हाइजैक हो गए या फिर किडनैप कर लिए गए. उनमें जो हुआ अच्छा-बुरा, खट्टा-मीठा उसमें मैं नहीं पड़ता. उसे सेवा करने का अति उत्साह मानता हूँ. एक अच्छा परिणाम यह सामने आया कि बाबू भगत गोपीचंद जी की दोह्ती (दुहिता) और दिल्ली में एडवोकेट सुनीता भगत ने एक भरी-पूरी वेबसाइट बनाई जो काफ़ी यूज़र फ्रेंडली है. एडवोकेट सुनीता भगत की वेबसाइट का लिंक ऊपर पेजेस में Megh Matrimonial नाम से लगा दिया है. यदि और भी ऐसी कोई यूज़र फ्रेंडली वेबसाइट मिली तो उसे भी लिंक किया जा सकता है.
रिश्ते न मिलने की कठिनाइयों के कई कारण हैं जिनमें से एक यह भी है कि सरकारी नीतियों के कारण रोज़गार पैदा होने की जो उम्मीदें हैं उनके पूरा होने में समय लग रहा है. आगे चल कर क्या होगा पता नहीं, लेकिन नौजवानों में बेचैनी और गुस्सा बढ़ा है. कई युवाओं की शादी इसलिए नहीं हो पा रही क्योंकि वे ऐसी प्राइवेट नौकरियों या कंट्रेक्ट बेसिस वाली नौकरियों में हैं जहाँ नाममात्र का मानदेय दिया जाता है. हमारे कुछ उद्यमियों ने व्यापार में कदम रखा है और सफल रहे हैं. भविष्य में प्राइवेट नौकरियों और अपने कारोबार की राह युवाओं को पकड़नी होगी.
पूरे भारतीय समाज में आर्थिक असुरक्षा का वातावरण बना है. रोज़गार की निरंतरता की कोई गारंटी नहीं. जीवनसाथी मिलने के बाद साथी और बच्चों का क्या होगा इसका ख़्याल पढ़े-लिखे समाज को आएगा ही. युवा तबका शादियों का विचार टालने लगा है. जब उनके हारमोंस सिर को चढ़ेंगे तो वे कहाँ-कहाँ तोड़-फोड़ मचाएँगे पता नहीं. यह माहौल भविष्य में हमारे सामाजिक मूल्यों को पूरी तरह बदल डालने की ताक़त रखता है. बेहतर है कि रिश्ते ढूँढते समय नए हालात को स्वीकार करते हुए आगे चलें. यह कठिनाई सब की है.

17 September 2017

Social boycott, A Social Evil - सामाजिक बहिष्कार, एक सामाजिक बुराई

कबीलाई संसार में सामाजिक बहिष्कार की सज़ा को सबसे बड़ी सज़ा माना जाता था. वैसे तो दुनिया के कुछ भागों में पत्थर मार-मार कर मार डालने या ऐसी ही अमानवीय सज़ाएं देने की प्रथा थी. लेकिन मानवाधिकारों को मान्यता मिलने के बाद से उन कबीलाई परंपराओं में काफ़ी सुधार आया है. हालाँकि सामाजिक बहिष्कार, हुक्का-पानी बंद करने जैसी प्रताड़ना देने का रिवाज़ खापों और शासकीय प्रणाली का हिस्सा कहलाने वाली पंचायतों में आज भी किसी न किसी रूप में खुले या चोरी-छिपे से जारी है. कई बार तो ये संस्थाएँ न्यायालयों का मज़ाक उड़ाती दिखती हैं. मीडिया और सोशल मीडिया में सक्रियता आने की वजह से अब ऐसी सज़ाएँ देने वाली संस्थाएँ कुछ शर्माने लगी हैं.
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ऐसी अमानवीय रीतियों के ख़िलाफ़ धार्मिक और दक्षिणपंथी राजनीतिक संस्थाओं ने कभी आंदोलन किया हो याद नहीं पड़ता. इन्हें परंपरा को ढोने वाली संस्थाओं के रूप में अधिक जाना जाता है. इनकी रुचि समाज सुधार में कम और अपने व्यवसाय को चलाए रखने में अधिक होती है. सामंतवाद इसी परंपरा का वाहक है और जनक भी. यह सामाजिक बहिष्कार जैसे मारक हथियार का प्रयोग अपने हित में करने के लिए सभी हथकंडे अपनाता है. सामाजिक बहिष्कार के शिकार अधिकतर ग़रीब, दलित और महिलाएँ होती हैं. वे अपनी रोज़ी-रोटी के लिए किसी पर निर्भर होते हैं. यदि वे अपने सामान्य से अधिकार के लिए मांग उठाते हैं तो सामाजिक बहिष्कार का सांप उनकी आँखों के सामने कर दिया जाता है. उसे डराया जाता है कि उसके अपने ही उसे ख़ुद से दूर कर देंगे. ग़रीब के ख़िलाफ़ ग़रीब, दलित के ख़िलाफ़ दलित और महिला के ख़िलाफ़ महिला को खड़ा होने के लिए मजबूर कर दिया जाता है. ऐसे में आर्थिक और सामाजिक रूप से ‘अपनों’ पर निर्भर व्यक्ति अपने आप अपने अंतर में मरने लगता है. सामंतों और उनके गुंडों के प्रभाव में जीने वाले लोग काफी मजबूर होते हैं.
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याद रहे कि जातिवाद सामाजिक बहिष्कार की देन है. यही कारण है कि सामंतवादी परंपराओं के कुप्रभावों से टक्कर लेने और सामाजिक बहिष्कार जैसी परंपराओं के विरुद्ध लड़ने में वामपंथियों ने ही कुछ कार्य किया है.
आज के वैज्ञानिक युग और लोकतंत्र में सामाजिक बहिष्कार जैसी अमानवीय प्रथाओं का विरोध सभ्य और शिक्षित समाज करना पड़ेगा. ख़तरा छोटा नहीं है. पिछले तीन साल के राजनीतिक माहौल ने जातिवाद और सामाजिक बहिष्कार के भय को बढ़ाया है. जाति और जातिवाद के इस्तेमाल को लेकर तो सभी सियासी पार्टियों और मीडिया ने अपने कपड़े उतार फेंके.
ध्यान रहे कि सामाजिक बहिष्कार और शुद्धिकरण एक कुचक्र है. छुआछूत, ग़रीबी, और भ्रष्टाचार इसके मुख्य उत्पाद (major product) हैं. इनका सिलसिला तब तक नहीं टूटता जब तक चालू व्यवस्था को पूरी तरह तहस-नहस करके नई व्यवस्था न बनाई जाए. इसके लिए बड़े सामूहिक प्रयास की ज़रूरत होती है.
सामाजिक बहिष्कार पर काबू पाने के लिए महाराष्ट्र की सरकार ने क़ानून बनाया है और छत्तीसगढ़ की सरकार इस दिशा में कदम उठाने जा रही है. क़ानून बनाना बहुत आसान है. उसे लागू करने वाली एजेंसियों का क्या कीजिएगा जिनके भीतर जातिवाद (सामाजिक बहिष्कार) भरा हुआ है? ख़ैर, पहले तो क़ानून बनाने का स्वागत करना चाहिए.
एक समाचार का लिंक.

“सामाजिक बहिष्कार मृत्युदंड से भी बड़ी सज़ा है.” - डॉ. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर.

01 September 2017

A reference from Dr. Naval Viyogi - डॉ. नवल वियोगी से एक संदर्भ

श्री एन.सी. भगत ने कई वर्ष तक ऑल इंडिया मेघ सभा की पत्रिका ‘मेघ चेतना’’ का कार्यभार देखा है और पत्रिका को चलाए रखा है. उनसे डॉक्टर नवल वियोगी की पुस्तक ‘Nagas - The Ancient Rulers of India’ के बारे में बातचीत हो रही थी. उस उस पुस्तक में मेघों के बारे में जिक्र है और यह उस काल से संबंधित है जिसे पहले ‘अंधकारकाल’ के नाम से इतिहास में पढ़ाया जाता था. सौभाग्य से भगत जी के पास यह पुस्तक उपलब्ध थी. उन्होंने वह पुस्तक मुझे दी. इस पुस्तक में दो जगह मेघों का उल्लेख है. पुस्तक के उन दोनों पृष्ठों की फोटो नीचे दी गई है. इसमें क्या लिखा है पढ़ लीजिए. यह उन लोगों के लिए अधिक लाभकारी होगा जो मानते हैं कि मेघों का अतीत बहुत पुराना नहीं है और कि वे जम्मू और स्यालकोट से होते हुए भारत विभाजन के बाद जालंधर, अमृतसर आदि जगहों पर आ बसे थे. इससे अधिक टिप्पणी की आवश्यकता नहीं.
श्री एन.सी. भगत ने बताया कि डॉ. नवल वियोगी अपनी एक अन्य (संभवतः मेघ समुदाय पर अधिक प्रकाश डालने वाली) पुस्तक का लोकार्पण मेघ समुदाय के एक जन-प्रतिनिधि से कराना चाहते थे. लेकिन वो हो न सका. शायद डॉ. नवल वियोगी उक्त विषय पर एक व्याख्यान देने के भी इच्छुक थे. लगभग दो वर्ष पहले डॉ. नवल का देहावसान हो गया था.