"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


23 December 2016

Research v/s bickering - शोध बनाम कलह

राजनीति को लेकर सभी समुदायों में झिकझिक होती है. मेरे मेघ भगत समुदाय में भी होती है. पिछले दिनों एक सज्जन ने सोशल मीडिया पर मेघ समुदाय को किसी पार्टी का टिकट न मिलने की वजह डॉ. ध्यान सिंह के शोधग्रंथ को बताया. हँसी भी आई और हैरानगी भी हुई. बस एक विवाद पैदा किया जा रहा था. 

असल में उक्त शोधग्रंथ (थीसिस) मेघ भगत समुदाय के पिछले 200 वर्ष के इतिहास और मेघ जाति (जो कबीरपंथी के नाम से भी जानी जाती है) के उद्भव (मूल) की खोजबीन करता है

राजनीतिक दलों की नीति है कि वे टिकटों का आबंटन जाति के आधार पर करते हैं. उसकी वजह से किसी जाति या समुदाय को टिकट नहीं मिलता है तो उसका समाधान राजनीतिक स्तर पर होना चाहिए. यदि किसी राज्य में मेघवंश से निकली कई जातियाँ बसी हैं और राजनीतिक पार्टी सभी को एक ही जाति मान कर एक ही टिकट देती है तो दोष उसका दोष किसी शोधग्रंथ को कैसे कैसे दिया जा सकता है, ख़ास कर तब जब उस शोधग्रंथ में उन अलग-अलग जातियों को कहीं भी 'एक जाति' न बताया गया हो.

इस सच्चाई को खास तौर पर देखना ज़रूरी है कि उक्त शोधग्रंथ पर डॉक्टरेट की डिग्री सन् 2008 में दी गई थी. अब देखना यह चाहिए कि 2008 से पहले जालंधर के आसपास बसी मेघ भगत जाति के प्रति राजनीतिक दलों का रवैया क्या था? देखना यह भी चाहिए कि मेघ भगत जाति का क्या अपना कोई कद्दावर नेता है जो समुदाय की जातिगत स्थिति और उनकी विभिन्न लोकल समस्याओं को असरदार तरीके से ऊपर तक पहुँचा सके, समुदाय की राजनीतिक और सामाजिक लड़ाई लड़ सके? यदि पूरा समुदाय एक मज़बूत राजनीतिक वोट बैंक है तो कमज़ोरी कहाँ है? मेघ भगत समुदाय की असल समस्या है कि उसके पास बढ़िया क्वालिटी के सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं की कमी है. आज के समय में यह कमी मामूली नहीं है.  


06 December 2016

Sir Chhoturam and Dr. Ambedker - सर छोटूराम और डॉ. अंबेडकर

फेसबुक पर जो चिंतक मेरी मित्र सूची में हैं उनमें से श्री राकेश सांगवान को मैं बहुत महत्व देता हूँ. आज डॉ. अंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर उन्होंने यूनियनिस्ट मिशन के नज़रिए से सर छोटूराम और डॉ. अंबेडकर का एक मूल्यांकन किया है जो उनके 'यूनियनिस्ट मिशन' के नज़रिए को प्रतिपादित करता है और हिंदुत्व को छूता है. (एक बात मैं अपनी ओर से साफ करता चलता हूँ कि मैं हिंदुत्व को संघ का राजनीतिक एजेंडा समझता हूँ.) यह राकेश सांगवान का दूसरा आलेख है जिसे मैंने मेघनेट में शामिल किया है. राकेश सांगवान जी का पहला आलेख यहाँ है.    


"बाबा साहब ने 1935 में यह कह कर कि ‘हमें हिन्दू नहीं रहना चाहिए। मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ यह मेरे बस की बात नहीं थी लेकिन मैं हिन्दू रहते हुए नहीं मरूंगा, यह मेरे बस की बात है।’ धर्मान्तरण की घोषणा कर दी।

संघ जोकि हिंदुत्व का हिमायती है, हिंदुत्व ही जिनके लिए देश निर्माण है, आज वो संगठन भी बीसवीं सदी के उनके हिंदू धर्म के सबसे बड़े बाग़ी की जयंती मनाने को मजबूर है। मतलब साफ़ है उनके हिंदुत्व के अजेंडा पर अंबेडरवाद भारी है।

कई साथी सवाल करते है कि तुम सर छोटूराम के संघर्ष को बड़ा मानते हो या डॉक्टर अम्बेडकर के संघर्ष को? मैं डॉक्टर अम्बेडकर के संघर्ष को सर छोटूराम के संघर्ष से कहीं बड़ा मानता हूँ। यह सही है कि सर छोटूराम ने मजलूम किसान-कमेरी कौमों के लिए संघर्ष किया, उन्हें आर्थिक आज़ादी दिलाई, उनका मानना था कि सामाजिक भेदभाव का सबसे बड़ा कारण ग़रीबी है। पर सर छोटूराम की लड़ाई मुख्यतः जिस किसान क़ौम के लिए थी उसके लिए सामाजिक ग़ुलामी ज़्यादा बड़ी समस्या नहीं थी क्योंकि उनके पास जोतने के लिए ख़ुद की ज़मीन थी जिस कारण वो अपने साथ हो रहे सामाजिक भेदभाव की ज़्यादा परवाह नहीं करते थे, पर दुश्मन जिस प्रकार से किसान पर आर्थिक मार मार रहा था जिस प्रकार धीरे-धीरे आर्थिक तौर पर ग़ुलाम बना रहा था उसे समझने में सर छोटूराम को देर नहीं लगी कि ये आर्थिक ग़ुलामी धीरे-धीरे किसान को सामाजिक ग़ुलाम बनाने की क़वायद है। सर छोटूराम की लड़ाई सिर्फ़ एक फ़्रंट पर थी पर डॉक्टर अम्बेडकर की लड़ाई तो तीन फ़्रंट पर थी। डॉक्टर अम्बेडकर जिस वर्ग की लड़ाई लड़ रहे थे उसका शोषण तो सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक हर स्तर पर हो रहा था। सर छोटूराम जिनकी लड़ाई लड़ रहे थे उनके हाथ में कम से कम लठ तो था पर डॉक्टर अम्बेडकर जिनकी लड़ाई लड़ रहे थे वो तो मुर्दे समान थे जिनके मुँह में कोई ज़ुबान नहीं थी। डॉक्टर अम्बेडकर ने मुर्दों में जान फूँकी, उन्हें आवाज़ दी और ये उस आवाज़ की ही गूँज है कि आज हिंदुत्ववादी संगठन भी डॉक्टर अम्बेडकर को याद करने को मजबूर है। पर डॉक्टर अम्बेडकर की लड़ाई अभी अधूरी है क्योंकि दुश्मन का बिछाया जाल बहुत गहरा है। अभी उस जाल को कटने में वक़्त लगेगा और यह जाल सिर्फ़ शिक्षा से ही कटेगा इसलिए डॉक्टर अम्बेडकर कहते थे कि शिक्षा शेरनी के दूध समान है, जो इसे पिएगा वही दहाड़ेगा।

आज डॉक्टर साहब के महापरिनिर्वाण दिवस पर यूनियनिस्ट मिशन सजदा करता है उनके संघर्ष को सैल्यूट करता है।

-यूनियनिस्ट राकेश सांगवान
#JaiYoddhey"

19 November 2016

Kabir's Struggle - कबीर का संघर्ष

ताराराम जी ने जोधपुर से ई. मार्सडेन की एक पुस्तक 'भारतवर्ष का इतिहास' नामक पुस्तक का लिंक भेजा है. यह पुस्तक 1919 में छपी थी. इसमें प्रकाशित कबीर का स्कैच उनकी एक अलग छवि पेश करता है. इस पुस्तक में कबीर की आयु 40 वर्ष की बताई गई है. इस स्कैच में कोई कंठी, माला, मोरपंख, मुकुट आदि धार्मिक प्रतीक नहीं हैं. एकदम सादा शख़्सियत गढ़ी गई है. इस पुस्तक के अनुसार कबीर का जीवन 40 वर्ष रहा.

सवाल तो उठता रहेगा कि कबीर की मौत कुदरती थी या नहीं. उसकी वजह भी है. कबीर ने यदि सिर्फ़ ईश्वर, परमेश्वर, राम, अल्लाह का नाम लेकर जीवन बिताया होता तो लोगों के लिए कबीर के जीवन का आख़िर क्या महत्व हो सकता था? किसी को उसके उस भक्ति भाव से क्या चिढ़ या दुश्मनी हो सकती थी? आम आदमी आमतौर पर उस व्यक्ति को अधिक याद रखते हैं जिसने उनके लिए कोई संघर्ष किया हो. वरना ईश्वर, अल्लाह करते-करते करोड़ों-अरबों लोग मर चुके हैं. इतिहास या कथा-कहानियाँ उनका नाम तक नहीं लेतीं. फिर कबीर को ही क्यों याद किया जाता है? कबीर क्यों इतिहास की किताबों में दर्ज है?

दरअस्ल यह समझने की ज़रूरत है कि कबीर ने ऐसा क्या किया या ऐसा क्या कहा जिसके लिए उनके समकालीन कुछ लोगों ने कबीर का विरोध किया, आख़िर वे उनके विरोधी क्यों थे और कबीर इतिहासकारों की नज़रों में कैसे आ गए. इतिहासकारों के अनुसार कबीर प्रचार करते थे कि धर्म से पहले इंसानियत है. यही बात थी जो धार्मिक या मज़हबी लोगों को रास नहीं आती थी. कबीर यह भी समझाते रहे कि जात-पात और कुछ नहीं सिर्फ़ मेहनत करने वालों को अलग-थलग करने का औज़ार है और उस औज़ार को तोड़ना ज़रूरी है. कबीर व्यक्ति की आज़ादी के हिमायती थे और विवेक उनका पैमाना था. उनका यह संघर्ष मामूली संघर्ष नहीं था. वे उन ख़तरों से खेल रहे थे जो धार्मिक और जातिवादी लोग उनके लिए के पैदा कर दिए थे.

भूलना नहीं चाहिए कि दादू दयाल, रविदास, मीरा बाई जैसे कई अन्य संतों की हत्याएँ करने की बातें बताई जाती रही हैं. जाति बंधन तोड़ कर संत रविदास के दर्शन करने गई मीरा को ज़हर दिए जाने की बात दुनिया जानती है. कबीर के साथ क्या हुआ यह अभी भी खोज का विषय है. 
  

उक्त पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध है. लिंक नीचे दिया है. पीडीएफ है इसलिए सारी पुस्तक खुलने में कुछ समय लगता है.
https://drive.google.com/open?id=0ByMLtxnRDG4mMmFQejltaTJmVUU  

01 November 2016

Shudra Languages - शूद्र भाषाएँ

कल मैं डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह का एक वीडियो देख रहा था जिसमें उन्होंने व्याख्या की थी किस प्रकार पंडितों ने हिंदी व्याकरण के नियम बना कर उसके विकास को रोका है, संस्कृत के नियमों को हिंदी पर थोपा है आदि. उनके दिए हुए तर्क मुझे सही जान पड़े. मुझे अपने करियर के दौरान हिंदी के कई रूपों से बावस्ता होना पड़ा है. इस लिए भी उनकी बातें सुन कर मैं थोड़ा आज़ाद महसूस कर रहा हूँ.

फिर एकदम मुझे अपने ब्लॉग की भाषा का ख़्याल आया जो 'सरकारी हिंदी' जैसी हो गई है. उसमें स्वरों और वर्णों की संधियाँ साथ-साथ चली हैं जो हिंदी की सेहत के लिए नुकसानदेह हैं. मेरी भाषा आम आदमी की भाषा से दूर हुई है. जिन लोगों के लिए मैं लिख रहा था उनके लिए तो मेरी भाषा और भी मुश्किल हो गई. अब थोड़ा तावे का टाइम है. धीरे-धीरे अपनी लिखी हुई पिछली सारी पोस्टें जाँच कर उनके टेढ़े शब्दों की बदली करता हूँ.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद के तीखे वीडियो का लिंक नीचे दे रहा हूँ. फोटो पर क्लिक कीजिए.
Dr. Rajendra Prasad Singh - डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह


22 October 2016

Life of Kabir - कबीर का जीवन

जिन लोगों की आस्था है कि कबीर कमल के फूल पर पैदा हुए थे और 120 साल जीवित रहे वे इस लेख को आगे न पढ़ें. वे पक्का जान लें कि उनकी आस्थाएँ ज़ख़्मी होने वाली हैं. न पढ़ने की चेतावनी दे दी है, आगे उनकी मर्ज़ी.

एक बार एक कुनबाई बातचीत में एक बुज़ुर्ग ने कहना शुरू किया कि कबीर अवतारी पुरुष थे. वे एक विधवा बाह्मनी के यहाँ पैदा हुए थे. आगे कुछ देर के बाद उन्होंने कहा कि कबीर आसमानी बिजली के साथ आए और कमल के फूल पर पैदा हुए. मुझ से रहा नहीं गया. मैंने वहाँ बैठी महिलाओं से पूछा, "आप यहाँ इतनी महिलाएँ बैठी हैं. आप में से किसी ने कमल के फूल पर बच्चा पैदा होते देखा है?" पहले तो वे बुज़ुर्ग का लिहाज़ करके चुप लगाती दिखीं लेकिन बाद में एक-एक कर बोल पड़ीं कि 'बच्चे तो औरतें ही पैदा करती हैं'. सीधी बात, नो बकवास! अब कबीर विधवा बाह्मनी या बाह्मन कन्या के यहाँ पैदा हुए इसके बारे में पहले भी बहुत कुछ कहा जा चुका है.

इसी तरह किसी ने कहा कि कबीर 120 साल जिए तो किसी ने कबीर की उम्र 130 साल बताई. लेकिन एक जाने-माने भाषाविज्ञानी और इतिहास कुरेदने वाले डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह ने यह नई जानकारी लाकर सामने रख दी:-

"आरकियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (न्यू सीरीज) नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज़, भाग 2, पृ. 224 पर अंकित है कि कबीर का रौजा (मकबरा, समाधि) 1450 . में बस्ती जिले के पूर्व में आमी नदी के दाहिने तट पर बिजली खां ने स्थापित किया था। रौजे की पुष्टि आईन--अकबरी भी करता है। अर्थात 1450 . से पहले कबीर की मृत्यु हो चुकी थी।

कबीर का जन्म 1398 . में हुआ था। अर्थात कबीर की मृत्यु तब हुई, जब वो 51-52 साल के थे। ऐसे में स्वभाविक प्रश्न उठता है कि क्या उनकी मृत्यु सामान्य नहीं थी, आकस्मिक थी?

कबीर की आकस्मिक मृत्यु का रहस्य खुलना चाहिए। ... और यह भी कि उनके बूढ़े चित्रों का चित्रकार कौन था? ... और यह भी कि उनके 120 वर्षों तक जीवित रहने की कल्पना पहली बार किसने की? ... और यह भी कि सिकंदर लोदी के अत्याचारों से कबीर को पहली बार किसने जोड़ा तथा क्यों जोड़ा? जबकि सिकंदर लोदी तो कबीर की मृत्यु के 38 वर्षों बाद गद्दी पर बैठा था।"

जब तिहासिक सबूत मिल गया है तो यह सवाल भी उठेगा कि कबीर के 120 वर्ष तक ज़िंदा रहने और मगहर में मरने की अफ़वाह किसने उड़ाई. मुमकिन है कि उसी ने उड़ाई हो जो कबीर के पास था, जो घटना का चश्मदीद था और जिसने कहानियाँ लिख मारीं कि कबीर 120 साल ज़िंदा रहने के बाद मर्ज़ी से मगहर में जा कर मरा. याद रहे कि ऐसी झूठी कहानियाँ क़ातिल भी बनाते हैं. आख़िरी संस्कार या सुपुर्द--ख़ाक होने से पहले ही लाश फूलों (अस्थियों) में बदल जाए ऐसा साइंस के सभी असूलों के ख़िलाफ़ है. यह प्रश्न तो उठेगा कि क्या कबीर की हत्या की गई थी और कि बाद में झूठी कहानियाँ फैला दी गईं? यह भी लिखा गया कि कबीर को कई बार, कई तरीके से मारने की कोशिश की गई लेकिन वे नहीं मरे.

मैंने कबीर को लंबे अर्से तक पढ़ा है लेकिन अब मैं उसे भगत, ज्ञानी, रूहानी आदमी के रूप में नहीं देखता. मैं उस कबीर को जानता हूँ जो इस देश के मूलनिवासियों को ग़ुलामी से आज़ादी की ओर जाने के लि चेतवान बनाता है.

यदि आप फेसबुक पर हैं तो नीचे दिए लिंक पर आपको ज़्यादा जानकारी मिल जाएगी.

(17-11-2016)
इस बीच ताराराम जी ने जोधपुर से एक फोटो भेजी है जो ई. मार्सडेन की एक पुस्तक 'भारतवर्ष का इतिहास' में मिली है. यह पुस्तक 1919 में छपी थी. इस फोटो में दिया स्कैच कबीर की एक अलग छवि पेश करता है. इसमें कबीर की आयु 40 वर्ष की बताई गई है. इसमें कोई कंठी, माला, मोरपंख, मुकुट आदि धार्मिक प्रतीक नहीं हैं. एकदम सादा शख़्सियत गढ़ी गई है. इस पुस्तक के अनुसार कबीर का जीवन 40 वर्ष रहा. सवाल तो उठता रहेगा कि कबीर की मौत कुदरती थी या ग़ैर-कुदरती. उसकी वजह भी है. कबीर ने यदि केवल ईश्वर, परमेश्वर, राम, अल्लाह का नाम लेकर जीवन बिताया होता तो उसके जीवन का लोगों के लिए क्या महत्व था. किसी को उसके उस काम से क्या चिढ़ या दुशमनी हो सकती थी. लोग उसी को याद रखते हैं जिसने उनके लिए कोई संघर्ष किया हो. कबीर की जिस बात के लिए उनके समय के लोगों ने उनका विरोध किया उसे ही समझने की ज़रूरत है. वे हिंदू, मुसलमान दोनों को राह बताते थे कि इंसानियत पहले और धर्म बाद में आता है. यही बात थी जो धार्मिक या मज़हबी लोगों को रास नहीं आती थी. वे यह भी समझाते रहे कि जात-पात और कुछ नहीं सिर्फ़ गुलामी है और उससे आज़ादी ज़रूरी है. व्यक्ति की आज़ादी के वे हिमायती थे और विवेक उनका पैमाना था. उस समय उनका यह संघर्ष मामूली संघर्ष नहीं था. वे उन ख़तरों से खेल रहे थे जो धार्मि और जातिवादी लोग उनके लिए के पैदा कर रहे थे. भूलना नहीं चाहिए कि दादू दयाल जैसे कई अन्य संतों की निर्मम हत्याएँ की गई थीं. कबीर के साथ क्या हुआ यह अभी भी खोज का विषय है
  

28-06-2019
नीचे दिये गए चित्र पर कबीर के जीवन काल पर ध्यान दीजिए. यह फोटो रजत साइनर्जी ग्रुप ने अपने एक यूट्यूब वीडियो (https://www.youtube.com/watch?v=Fm0luNheZzg) के साथ किया है. वीडियो आज रिट्रीव किया गया था.

16 October 2016

My Megh, Your Megh - मेरा मेघ, तेरा मेघ

स्यालकोट से पंजाब में आकर बसे मेघ भगतों को बहुत शिकायत रही है कि अब तक लिखे उनके पुराने इतिहास में ऐसी कोई बात नहीं बताई गई जिस पर आज की पीढ़ी नाज़ कर सके. मैं इस इल्ज़ाम के निशाने पर हूँ. उनकी बात में बहस की एक त्यौरी है लेकिन उसकी लकीरें इसलिए गहरी नहीं हैं क्योंकि किसी समुदाय का इतिहास अचानक शुरू हो कर अचानक कहीं समाप्त नहीं होता. इस बात को यों समझेें कि आप अपना इतिहास नहीं जानते तो इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे लोग भी आपका इतिहास नहीं जानते. हमें अपने बारे में जो लिखा हुआ मिला है वह अधिकतर दूसरों का ही लिखा हुआ है जिसे मिटाना मुश्किल है. वो नहीं तो आप कुछ अपना लिखिए जो आपको ठीक-ठाक सा लगे.

गरीब कौमों का पिछला इतिहास उनकी गरीबी में से ख़ुद झांकता है. भारतीय संविधान से मिले नुमाइंदगी के अधिकार (आरक्षण, reservation) से हुई उनकी आज की तरक्की में उनका बदलता हुआ मौजूदा इतिहास है और तरक्की करने की उनकी खुद की ताक़त जो उनके इतिहास का भविष्य हैं. इतिहास का कोई एक रंग-रूप नहीं होता.

चुनावी सियासत ने साफ कर दिया है कि जात-पात एक सच्चाई है जिसका इस्तेमाल करने से वे बाज़ नहीं आएँगे और कि वह समाज का एक टिकाऊ अंग है. जात-पात से अनजान बड़े होते हमारे मासूम बच्चे जब अचानक कहीं इस सच्चाई से रूबरू होते हैं तो उनको लगी चोट और उलझन का कोई अंत नहीं होता कि उनके साथ समाज का एक हिस्सा वैसा गंदा व्यवहार क्यों करता है? उनकी चोट का क्या इलाज है? इलाज यह है कि उन्हें पिछला इतिहास जानने दीजिए और उन्हें सिखाइए कि पहले ऐसा होता था लेकिन अब हमें वैसा रवैया मंज़ूर नहीं है. उन्हें ताकत दीजिए कि वे ऐसे हालातों का मुकाबला करें जो उनकी ख़ुद्दारी पर लगातार चोट करते हैं. दूसरे, उनके लिए ऐसे साहित्य की रचना करते रहें जिससे उनमें आत्मगौरव का सूरज उगता रहे. यह बहुत ज़रूरी है. लेकिन यह कार्य करेगा कौन? बाहर से आकर कोई उनके 'आत्मगौरवं' या 'स्वाभिमानं' की बात नहीं करेगा. यह कार्य आपको ख़ुद करना होगा. इसके लिए आपको जानकार और लगन वाले लोगों की ज़रूरत होगी. उन्हें ढूँढिए. मुझे तो उनसे ही अधिक उम्मीद है जो आपका माज़ी ढूँढ लाए हैं. उन्हें लिखने की आदत भी है और वे बेहतर जानते हैं कि करना क्या है. या फिर यह उम्मीद उनसे की जा सकती है जो ढ़े-लिखे और प्रशिक्षित हैं और जिनकी जेब में चार पैसे भी हैं.

मैं यहाँ उनके नाम नहीं लिखना चाहता जिनसे मैंने प्रार्थना की थी कि वे मेघ समाज की कामयाबियों की कहानियाँ लिखें या उनके इतिहास के चमकदार पन्नों को अलग करके उनका संग्रह तैयार करें. नहीं जानता यदि उनमें से किसी ने कुछ सामग्री तैयार की है. जिन्होंने कुछ लिखा और मेरी जानकारी में आया वह इस ब्लॉग का हिस्सा बन चुका है.

जिन्हें अपनी 'पुरानी कहानी' अच्छी नहीं लगती उनकी भी ज़िम्मेदारी बनती है कि कम-से-कम वे तो अपनी 'नई कहानी' लिखें. भावी पीढ़ियाँ हमारी कीमत इस बात से नहीं लगाएँगी कि हमने एक दूसरे को कितना भला-बुरा (नकारात्मक) कहा बल्कि इस बात से उन्हें मदद मिलेगी कि हमने अच्छा क्या किया.

("जो अपना इतिहास नहीं जानते वे अपना

 इतिहास बना भी नहीं सकते." - डॉ. अंबेडकर

15 October 2016

Megh Day, Punjab Megh Community - मेघ दिवस, पंजाब मेघ कम्युनिटी

पिछले दिनों श्री यशपाल मांडले जी की facebook वॉल पर उक्त फोटो देखा जिसमें बैनर पर लिखा था - ‘Megh Day, Punjab Megh Community’. यानि पंजाब मेघ कम्युनिटी नाम की संस्था ने 'मेघ दिवस' का आयोजन किया था. मेरी जिज्ञासा बढ़ी और मैंने उन्हें फोन करके पूछा कि उन्हें उन दिनों 'मेघ-दिवस' मनाने का आइडिया कैसे आया? उन्होंने बताया कि यह संस्था उन दिनों महसूस कर रही थी कि मेघ कौम को डॉ.आंबेडकर की विचारधारा से दूर रखा गया है. संस्था की सोच यह थी कि डॉ.अंबेडकर की कोशिशों से ही मेघ समुदाय अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल हो सका. इसलिए आभार प्रकट करने के लिए अंबेडकर के जन्मदिन 14 अप्रैल, 1984-85 का दिन चुना और उसी दिन को 'मेघ-दिवस' के रूप में मनाया गया. उक्त फोटो उसी का प्रमाण है.

संभव है तब मेघ समुदाय के कई दूसरे लोगों में भी डॉ. अंबेडकर और उनकी विचारधारा के प्रति रुझान और अहसानमंद होने का भाव रहा हो क्योंकि एडवोकेट हंसराज भगत ने डॉ. अंबेडकर के साथ मिल कर मेघों को अनुसूचित जातियों में शामिल कराने का प्रबंध किया था. डॉ. अंबेडकर के प्रति अहसान जताने की 'पंजाब मेघ कम्युनिटी' की यह कोशिश एक ऐसी पहलकदमी थी जो उन दिनों आर्यसमाजी विचारधारा वाले मेघों में एक खलबली ज़रूर पैदा करती. वजह का अंदाज़ा आराम लगाया जा सकता है. मांडले जी कहते हैं कि उनकी संस्था ने दो-तीन बार जो कार्यक्रमों किए उनका आर्यसमाजियों ने जम कर विरोध किया गया. फिर ऐसे कार्यक्रम करने की कोशिशें छोड़ दी गईं.


मांडले जी बताते हैं कि उन दिनों 'पंजाब मेघ कम्युनिटी' के प्रधान श्री चूनी लाल थे जो टेलिफोन विभाग से थे. आजकल इसके प्रधान श्री जी.के. भगत हैं जो दिल्ली में हैं. संस्था के कार्यक्रमों में चौ. चांद राम, मीरा कुमार जैसे नेता भी शामिल चुके थे. 1986 में संस्था ने राजनीतिक सक्रियता दिखाई और सियासी हलकों में अपनी माँगें उठाईं जिसे लोगों का समर्थन मिला. रणनीति के तौर पर संस्था ने अंबेडकर को राजनीतिक मार्गदर्शक और कबीर को धार्मिक गुरु के रूप में अपनाया और अपने कार्यक्रमों में दोनों के चित्र प्रयोग किए. आगे चल कर सामुदायिक कोशिशों से कबीर मंदिरों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई जिसे मेघों के कबीर की ओर झुकने और उन्हें अपनाने की प्रवृत्ति के तौर पर देखा जा सकता है. 'पंजाब मेघ कम्युनिटी' संस्था को फिर से सक्रिय करने की कोशिशें की कोशिशें की जाएँगी ऐसा मांडले जी ने बताया है.


स समय संस्था के सामने अपनी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तरक्की का लक्ष्य था लेकिन आर्यसमाज से जुड़े होने का कोई सियासी लाभ मेघ समाज को नहीं मिल पा रहा था. यह बड़ी वजह मालूम देती है कि मेघों और उनकी संस्थाओं ने कबीर को अपनाया. दस-दस घोड़ों के साथ निकलने वाली आर्यसमाजी शोभा-यात्रा अपनी चमक खोने लगी और कबीर की शोभा-यात्राओं का बोल-बाला होता गया. इस बीच मेघ समुदाय को कुछ राजनीतिक पहचान मिली है लेकिन एक पुख़्ता पहचान की अभी भी दरकार है.


ज़रूरत इस बात की है कि मेघ समुदाय में काम कर रही अन्य छोटी-बड़ी सामाजिक संस्थाओं की सामूहिक कोशिशें ज़मीन र दिखें. ऐसा तभी होगा जब वे सभी एक साथ मंच पर आएँगे और ख़ुद में सामूहिक फैसले लेने की काबलियत पैदा करेंगे.

(''हम इस बात पर सहमत हैं कि हम असहमत हैं. हम इस

 बात पर भी सहमत हैं कि हम फिर मिल कर बैठेंगे.'')