"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


30 January 2011

There is lot in a name, dear brother - नाम में बहुत कुछ रखा है भाई साहब

समय बदल चुका है. मेघवंशी अब बच्चों के नाम नई परंपरा के अनुसार रखने लगे हैं. कभी-कभी बारू, थोड़ू, सोमी, वीरू जैसे बिगड़े हुए नाम मिलते हैं. जातिगत नाम लगाने की भी परंपरा है. मेघवाल, मेघवार, मेघ, आदि सुसंस्कृत नाम जोड़ने में कोई हर्ज़ नहीं.

बच्चों का एक ही नाम रखें. नाम को बिगाड़ें नहीं. गाँव का नाम सुंदर-अर्थपूर्ण हो तो जोड़ लें अन्यथा रहने दें. बुनकर, जुलाहा जैसे पुश्तैनी कार्य को अपनी पहचान के तौर पर साथ लिखा जाता है. मेघवंशियों को यह परंपरा तुरत छोड़ देनी चाहिए क्योंकि पुश्तैनी कार्य पीछे छूट रहे हैं. अपने नाम के साथ ऋषि गोत्र, सिंह आदि लगाएँ. दास आदि शब्दों को हर प्रकार से दूर रखें.

संक्षेप में सुंदर, अर्थपूर्ण और अच्छी बात मन पर बैठाने वाला नाम रखें. इससे बच्चे बड़े होकर बेहतर कार्य करेंगे.
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15 January 2011

What happened to Bhakta Prahlada - प्रह्लाद भक्त का क्या हुआ


भक्त का मूल अर्थ है जो अलग हो चुका है. किससे अलग हुआ यह संदर्भ के अनुसार है. हिरण्यकश्यपु (असुर या अनार्य) के पुत्र प्रह्लाद को भक्त के तौर पर बहुत महिमा मंडित किया गया है. भारतीय पौराणिक कथाओं (Indian Mythology) में प्रह्लाद को पौराणिक पात्र बना कर और भक्तिरस में भिगो कर परोसा गया है. ज़बरदस्ती अशिक्षित रखे गए वंचितों की थाली में भी इस कथा को रखा गया. सच्चाई की कई पर्तें अब तक खुल चुकी हैं. साहित्य और संदर्भों को जानने के बाद एक जिज्ञासा रह जाती है कि सिंधु घाटी सभ्यता पर आक्रमण करके आर्यों ने यहाँ के मूलनिवासियों या मेघवंशियों (aboriginals of Indus Valley Civilization) के साथ क्या किया? हिरण्यकश्यपु को मारने के बाद प्रह्लाद का क्या हुआ? पौराणिक कथाओं पर विश्वास कर लेना कभी भी बुद्धिमत्ता की बात नहीं रही. इन कथाओं के पीछे सच्चाई को छुपाने वाली एक चालाकी रहती है जिसके बारे में लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व महात्मा ज्योतिराव फुले और फुले से पूर्व कई अन्य महात्माओं ने समझा दिया था. परंतु वंचितों में अशिक्षा के कारण उसकी पूरी रोशनी अभी तक नहीं पहुँची. एक सत्यशोधक के तौर पर ज्योतिबा ने प्रह्लाद की कथा के बारे में जो लिखा उसका सारांश नीचे दिया गया है:-

नृसिंह स्वभाव से लोभी, ढोंगी, विश्वासघाती, कपटी, घातक, निर्दय और क्रूर था. शरीर से सुदृढ़ और बलवान था. राज्य हथियाने के लिए उसने हिरण्यकश्यपु के वध की योजना बनाई. अविकसित बालमन प्रह्लाद के अध्यापक के तौर पर गुप्त रीति से एक द्विज को भेज दिया और उस पर अपने धर्म तत्त्वों का प्रभाव जमा दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि प्रह्लाद ने अपने कुल देवता हरहर की पूजा करना बंद कर दिया. हिरण्यकश्यपु ने उसके भटके हुए मन को कुलस्वामी की पूजा की ओर लाने के लिए प्रयास किए परंतु नृसिंह भीतर ही भीतर प्रह्लाद को उकसा रहा था. बालक को इतने झूठे भुलावे दिए गए कि उसके मन में पिता की हत्या करने का विचार आने लगा परंतु साहस नहीं हुआ. अवसर पाकर नृसिंह ने शेर का स्वाँग (मेकअप) करके कलाबत्तू वाली मँहगी साढ़ी पहन ली और हिरण्यकश्यपु के महल के खंभों के बीच छिप गया. शाम को राजपाट का कार्य निपटा कर हिरण्यकश्यपु जब थका-माँदा लौटा और एकाँत में आराम करने के लिए लेटा तब नृसिंह बघनखा लेकर अचानक उसे दबा कर बैठ गया और पेट फाड़ कर उसे मार डाला और स्वयं द्विजों सहित दिन-रात भागता ही चला गया और अपने प्रदेश में पहुँच गया. उधर क्षत्रियों को पता चला कि नृसिंह ने प्रह्लाद को मूर्ख बना कर ऐसा घिनौना कर्म किया है तो उन्होंने आर्यों को द्विज कहना छोड़ दिया और उन्हें विप्रिय कहने लगे. क्षत्रियों ने नृसिंह को नारसिंह जैसा निंदनीय नाम दिया. अंत में हिरण्यकश्यपु के कई पुत्रों ने कई बार प्रयत्न किए कि नारसिंह को बंदी बना कर उसे यथायोग्य दंड दिया जाए, परंतु नारसिंह ने तो हिरण्यकश्यपु का राज्य जीतने की आशा कतई छोड़ दी थी सो वह जैसे-तैसे बचता-बचाता रहा और बाद में आगे कोई उपद्रव किए बिना मृत्यु को प्राप्त हुआ.

विप्रों ने प्रह्लाद का राज्य हथियाने के लिए चोरी-छिपे कई प्रयत्न किए, किंतु सभी यत्न व्यर्थ हुए. आगे चल कर प्रह्लाद की आँखें खुल गईं और उसने विप्रों के छल-कपट को ताड़ लिया. इस प्रकार प्रह्लाद ने विप्रगणों का थोड़ा भी भरोसा नहीं किया. सबके साथ ऊपरी स्नेह जतलाकर अपने राज्य का उसने समुचित प्रबंध किया और अंत में मृत्यु को प्राप्त हुआ. उसका पोता (विरोचन का पुत्र) बली बहुत पराक्रमी निकला.

ग़ुलामी’, पृष्ठ 56-59, लेखक महात्मा ज्योतिराव फुले (यह पुस्तक महाराष्ट्र सरकार द्वारा भी प्रकाशित की गई थी.)

13 January 2011

Kabir is deep rooted - मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे....मैं तो हूँ विश्वास में

कबीर जुलाहा परिवार से थे. ऐसा उनकी वाणी में आता है-  ‘कहत कबीर कोरी. कोली-कोरी समाज कपड़ा बनाने का कार्य करता है. संभवतः वे कोरी परिवार में जन्मे थे जिसने इस्लाम अपनाया था. कुछ मेघवंशी स्वयं को कबीर के साथ जोड़ कर देखते हैं और कई कबीरपंथी कहलाना पसंद करते हैं.

ख़ैर. यह श्रद्धा और विश्वास का मामला है. लेकिन अकसर देखा है कि कबीर के जीवन और उससे जुड़े रहस्यों और चमत्कार की कहानियों को इतना महत्व दे दिया जाता है कि कबीर का वास्तविक कार्य पृष्ठभूमि में चला जाता है.

वे लहरतारा तालाब के किनारे मिले या गंगा के तट पर इस पर बहस होती है. उनके जन्मतिथि के निर्धारण पर चर्चा होती है. उनके गुरु कौन थे इस पर विवाद है. वे किसी विधवा ब्राह्मणी की संतान थे या नीरू के ही घर पैदा हुए इस पर दंगल हो सकता है. वे सीधे प्रकाश से उत्पन्न हुए और कमल के फूल पर अवतरित हुए ऐसा चित्रित किया जाता है. यह पूरा का पूरा कबीरपुराण बन जाता है जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं.

कबीर को यदि सम्मान देना हो तो उनके दिए ज्ञान पर ध्यान रखना चाहिए. यह देखना चाहिए कि उनका जीवन संघर्ष क्या था. उन्होंने कैसे विचारों को ग्रहण किया जिनके ज़रिए उन्होंने मानसिक ग़ुलामी पर जीत पाई और अपनी स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया. सामाजिक कुरीतियों कैसे प्रहार किया. कबीर की वाणी में ऐसी रचनाएँ बड़ी संख्या में जोड़ दी गई हैं जो कबीर के व्यक्तित्व से मेल नहीं खातीं. पुराने इतिहास और साहित्य में ऐसी गड़बड़ी बड़े स्तर पर की गई है. मंशा शायद कबीर को पौराणिक पात्र बना डालने की रही होगी. पुराणों की कथाएँ और परंपरागत धार्मिक प्रबंधन मानसिक ग़ुलामी को दृढ़ रखने के लिए है. इस बात को कबीर ने भली-भाँति समझा था.

कबीर को सामान्य मानव की भाँति देखा जाए तो वे होशियार ज्ञानी थे. वे अवतारवाद के खिलाफ काफी कुछ कह गए हैं. 



11 January 2011

संथालों ने आज़ादी के लिए दस हज़ार शहादतें दी थीं


The history of great Santhal (the aboriginal tribe of India) also finds its roots in Indus Valley Civilization. Their struggle and spirit to sacrifice for their freedom was punished jointly by  Britishers, Indian zamidars and moneylenders.  Their  yearn for independence is also mirrored in the story of Bhil-Meenas. However, their prolonged struggle has resulted in formation of Jharkhand. Like Bhils they are also Mulnivasis of India. Slowly the gap between backward castes and tribes is narrowing down. The process has to be hastened through education. It will help Indian society at large.

"There was a time that the Brahmins as late as Tilak, took pride in projecting themselves as conquers. But post-Tilak Brahmanic scholarship, after the exploration of Indus valley sites by 1921 to 1927, coinciding with the rise of RSS, is bent on proving that Aryans are the original residents of India and that there was no "Aryan Invasion". They try to prove that Aryans were a civilized people and were the builders and not the destroyers of Harrapan Civilization. What is the reason, that they wish to somehow prove this? To us, it appears that, since Mahatma Jotirao Phule criticized the "Arya Bhats" for the atrocious behaviours of these people towards "shudras and ati-shudras", in this "Land of Bali" - Bali Sthan -, and organized the masses against the Aryabhats, the latter felt that they will loose the supremacy, which they had achieved and very jealously guarded. So it became eminent for them, they prove that they are not aliens, they belong to the soil, and that Aryan Invasion is just a myth. Voluminous literature is being created by them and every method is being used to promote through the media, print as well as electronic, to put forward this view. Not withstanding all this, it was the Naagas who were the original residents of this land and Aryans were the invaders. That is the verdict of the history. Aryans proudly mention the cities burned by them in Saptsindhu, they also declare name of Rishi who championed to cross Vindhyas and pave the way for invasions in South India in later times, do they mention any name who went to west to invade? Afterall, people always migrate from barren land to "greener pastures", not vice versa. Why should Indians migrate to deserts and unfertile lands of middle east with inhospitable climate?"

The Wiki story of Santhals (retrieved on 11-01-2010) goes like this:-
“The insurrection of the Santals was mainly against the corrupt moneylenders, zamindars and their operatives. Before the advent of the British in India the Santhals resided peacefully in the hilly districts of Mayurbhanj Chhotanagpur, Palamau, Hazaribagh, Midnapur, Bankura and Birbhum. Their agrarian way of life was based on clearing the forest; they also engaged themselves in hunting for subsistence. But, as the agents of the new colonial rule claimed their rights on the lands of the Santals, they peacefully went to reside in the hills of Rajmahal. After a brief period of peace the British operatives with their native counterparts jointly started claiming their rights in this new land as well. The simple and honest Santals were cheated and turned into slaves by the zamindars and the money lenders who first appeared to them as business men and lured them into debt, first by goods lent to them on loans. However hard the Santals tried to repay these loans, they never ended. Through corrupt measures of the money lenders, the debts multiplied to an amount for which a generation of the santal family had to work as slaves. Furthermore, the Santali women who worked under labour contractors were disgraced and abused. This loss of the freedom that they once enjoyed turned them into rebels.

Rebellion
On 30 June 1855, two great Santal rebel leaders, Sido Murmu and his brother Kanhu, mobilized ten thousand Santals and declared a rebellion against British colonists. The Santals initially gained some success but soon the British found out a new way to tackle these rebels. Instead, they forced them to come out of the forest. In a conclusive battle which followed, the British, equipped with modern firearms and war elephants, stationed themselves at the foot of the hill. When the battle began the British officer ordered his troops to fire without loading bullets. The Santals, who did not suspect this trap set by the British war strategy, charged with full potential. This step proved to be disastrous for them: as soon as they neared the foot of the hill, the British army attacked with full power and this time they were using bullets. Thereafter, attacking every village of the Santals, they made sure that the last drop of revolutionary spirit was annihilated. Although the revolution was brutally suppressed, it marked a great change in the colonial rule and policy. The day is still celebrated among the Santal community with great respect and spirit for the thousands of the Santal martyrs who sacrificed their lives along with their two celebrated leaders to win freedom from the rule of the Jamindars and the British operatives.”

This is the real song of Vande Mataram of freedom struggle of Santhals because this land belongs to them. They are aboriginals of this land. Their struggle is not yet over. Their land is still grabbed and the law is not in their favor.


महान संथाल कबीले (भारत के मूलनिवासी जनजाति) के इतिहास की जड़ें भी सिंधुघाटी सभ्यता में हैं. उनकी स्वतंत्रता के जज़्बे और संघर्ष को अंग्रेज़ों, भारतीय ज़मीदारों और साहूकारों ने मिल कर दंडित किया इनकी स्वतंत्रता की बेचैनी भील-मीणा की कहानी में भी प्रतिबिंबित है. तथापि इनके देर तक संघर्ष करने का परिणाम यह हुआ कि झाड़खंड राज्य की स्थापना हो पाई. भीलों की भाँति वे भी भारत के मूलनिवासी हैं. अब धीरे-धीरे पिछड़ी जातियों और जनजातियों के बीच की दूरी कम होने लगी है. इस प्रक्रिया को शिक्षा के माध्यम से गति देनी होगी. इससे कुल मिला कर भारतीय समाज को लाभ होगा.

विकिपीडिया (retrieved on 11-01-2010) पर दी गई संथालों की कहानी इस प्रकार है:-

संथालों का विद्रोह मुख्यतः भ्रष्ट साहूकारों, ज़मींदारों और उनके गुर्गों के विरुद्ध था. ब्रिटिश लोगों के आने से पहले ये संथाल मयूरभंज, छोटा नागपुर, पलामौ, हज़ारीबाग़, मिदनापुर, बाँकुरा और बीरभूम में शांतिपूर्वक रह रहे थे. उनका कृषिकार जीवन वनों के पास ज़मीन बना कर खेती करना था. जीवनयापन के लिए शिकार भी करते थे. लेकिन जैसे-जैसे औपनिवेशिक शासन के एजेंटों ने संथालों की ज़मीन पर दावे जताने शुरू किए तो वे शांतिपूर्वक राजमहल की पहाड़ियों में रहने चले गए. कुछ समय शांति के बाद ब्रिटिश गुर्गों ने और उनके स्थानीय समकक्षों ने नई ज़मीन पर भी दावा जताना शुरू कर दिया. सरल और इमानदार संथालों को धोखा दिया गया. पहले तो वे ज़मींदार और साहूकार व्यापारी बन कर पहुँचे और संथालों को कर्ज़ लेने के लिए प्रेरित किया, पहले-पहल उन्हें उधार दिया गया. आगे चल कर उन्हें ग़ुलाम बना लिया गया. संथाल उन कर्ज़ों को चुकाने की कितनी भी कोशिश करते, लेकिन कर्ज़ था कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेता था. साहूकारों के भ्रष्ट हथकंडों से ऋण की राशि इतनी बढ़ गई कि उसके लिए संथाल परिवारों की पूरी पीढ़ी को ग़ुलामों की तरह काम करना पड़ता था. इतना ही नहीं, संथाली महिलाएँ जो मज़दूरों के तौर पर ठेकेदारों के अधीन कार्य करती थीं उन्हें बदनामी और दुर्व्यवहार मिलता था. जिस स्वतंत्रता से वे कभी रहती थीं उस स्वतंत्रता का ऐसा हनन होने से  उनमें विद्रोह जाग पड़ा.

स्वतंत्रता का लड़ाई
30 जून 1855 को दो स्वतंत्रता के दीवाने नेताओं, सिडो मुर्मू और उसके भाई कान्हु ने दस हज़ार संथालों को एकत्रित किया और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध बिग़ुल फूँक दिया. संथालों को शुरू में कुछ सफलता मिली लेकिन शीघ्र ही अँग्रेज़ों ने इन स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालों के विरुद्ध एक रणनीति बना ली. उन्हें जंगल से बाहर निकलने के लिए मजबूर किया. उसके बाद होने वाले निर्णायक युद्ध में अँग्रेज़ों के पास नई बंदूकें और युद्धक हाथी थे और उन्होंने पहाड़ी के नीचे डेरा डाल दिया. जब युद्ध शुरू हुआ तो अँग्रेज़ अधिकारी ने अपनी सेना को बिना गोली के फायर करने के लिए कहा. संथाल अँग्रेज़ों की चाल को समझ नहीं पाए और उन्होंने पूरी शक्ति के साथ आक्रमण कर दिया. ऐसा करना उनके लिए घातक सिद्ध हुआ क्योंकि जैसे ही वे पहाड़ी से नीचे उतर कर कुछ पास आए ब्रिटिश फौज ने पूरी शक्ति से आक्रमण किया और इस बार वे गोलियाँ चला रहे थे.  इसके बाद ब्रिटिश फौज ने संथालों के प्रत्येक गाँव पर हमला किया. उनकी कोशिश थी कि स्वतंत्रता की भावना की आखिरी बूँद तक का उन्मूलन कर दिया जाए. यद्यपि इस क्रांति को पाश्विक तरीके से कुचल दिया गया लेकिन इसने साम्राज्यवादी शासन और नीति में बदलाव को रेखांकित कर दिया. संथाल समुदाय में यह दिन आज भी उन शहीदों की याद में मनाया जाता है जिन्होंने ज़मीदारों और उनके गुर्गों से आज़ादी पाने के लिए अपने नेतृत्व के साथ प्राण न्यौछावर कर दिए थे.

संथालों का यह स्वतंत्रता संघर्ष ही वास्तविक वंदे मातरम् गीत है क्योंकि यह धरती उनकी है. वे यहाँ के मूलनिवासी हैं. उनका संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ है. उनकी ज़मीनें आज भी छीनी जा रही हैं और कानून उनकी मदद नहीं करता.

06 January 2011

Bonded Labour, Forced Labor - Caste based slavery - बंधुआ मज़दूरी, जबरन मज़दूरी - जाति आधारित ग़ुलामी

दासता के समकालीन रूपों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत ने मानवाधिकार परिषद को 2009 की रिपोर्ट में इन कड़ियों का उल्लेख करते हुए कहा किअंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा किए गए अनुसंधान से बेगार और एशियाई देशों में दीर्घकाल से चले आ रहे भेदभाव के पैटर्न में एक साफ़ रिश्ता दिखता है. भारत में, कृषि, ईंट बनाने, खनन और अन्य क्षेत्रों में बंधुआ मजदूरी के पीड़ितों की भारी संख्या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से है (A/HRC/12/21).


अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने जबरन मज़दूरी को ऐसी सेवा या किए गए कार्य के रूप में परिभाषित किया है जो अनैच्छिक रूप से किया गया हो और धमकी या दंड के तहत किया गया हो. बंधुआ मज़दूरी आमतौर पर आर्थिक आवश्यकता और अन्य बाहरी कारणों जैसे गरीबी, सामाजिक बहिष्कार और मानवाधिकारों के हनन का परिणाम है. बंधुआ मजदूरी विभिन्न परंपराओं और ज़बरदस्ती से प्रबलित होती है और इसे परिवार के अन्य सदस्यों पर भी लागू किया जा सकता है, उदाहरण के लिए बच्चों और विवाहजनित परिवार के सदस्यों पर. अक्सर, मजदूरों को उनके अपने काम के मूल्य और उन पर चढ़े ऋण की स्थिति के बारे में पता नहीं होता है यह कई कारणों में मुख्य कारण है जिसकी वजह से वे जीवनभर के लिए बंधुआ बन जाते हैं. ऐसी परिस्थितियों में बंधुआ होने को मजबूर श्रम (Forced Labor) के रूप में चिह्नित किया जा सकता है.

01 January 2011

Koli, Kori, Kol - Aboriginal tribes of India


(यह आलेख kolisamaj.org (http://www.kolisamaj.org/myhistory/historyofkolis.html) पर दिए एक आलेख के हवाले से है. उस डोमेन के मालिक ने अपना डोमेन नेम बिक्री पर लगा दिया है. इसलिए उक्त लिंक पर वह आलेख अब नहीं दिख रहा है. इंटरनेट पर लिंक गुम होते रहते हैं.)


An unknown friend Mr. Pritam Bhagat from Pathankot told me over mobile that mother of Buddha was a Koli (Kori). It interested me. Internet helped me in going to an article regarding Koli community. The article began with a very familiar sentence ‘हम कौन हैं? मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे?’ (‘Who am I? Who were my forefathers? Where did they come from? How did they live?). I am giving below excerpts of the article. Full article is very fair account of history of Koris. It is interesting to note that Koris trace their history to the past where all present day downtrodden reach. This again bursts the myth that there was an amicable agreement between Asuras (aboriginals of Harappan Civilization and Indus Valley Civilization) and Suras who came from Central Asia via Iran.

There are mythical stories indicating that Asuras were made slaves by Aryans. These slave races are still struggling for annihilation of caste system. They live in abject poverty. Their latest names are ‘Scheduled Castes’, ‘Scheduled Tribes, and ‘Other Backward Castes’. They are yet to learn what ‘Human Rights’ are. The fact is that aboriginals of India were enslaved and they have been subjected to inhuman treatment through centuries. Most of them still live in villages and they are coerced to live in wretched and inhuman conditions. The facts are now known to the outer world despite efforts by some to prove it contrary to the facts.

(Meanwhile, Dorothy, a blogger, through her comment informed that Kol tribe of eastern India also traces its roots in Indus Valley Civilization. I could trace a link- 'The Indian Encyclopedia' given under 'Other Links’ at the end of this article which sufficiently describes the point. It also proves that division of aboriginals of India into castes and tribes is also artificial. )

'Kolis, Koris and Kols are aboriginals (Mulnivasi, मूलनिवासी) of India like all other SCs, STs and OBCs. Their past is same. They had been given different name and profession through religious sanctions (i.e. Manusmriti) and termed as different community so that they remain away from other sister communities. Despite this nation being democratic republic, these people are so illiterate and under so much pressure that they cannot think of their social and political unity.  

Broadly, Kolis and Koris are traditional weavers (like Meghwal, Bunkar, Megh, Bhagat, Julaha, etc.) (Kols, originally an African tribe, may have been forced to similar or other such activities. The word Koli seems to be derived from Kol itself.) and that precisely gives the entire picture of their present economic condition. All these people suffer from malnutrition and hunger.  They work for paltry wages and also work as forced labor. Anyhow, keep on reading the excerpts of the article and know about trustworthy and lovable Koli/Kori (कोली/कोरी) people.

Koli- Story Of India’s Historic People - The Kolis

Ashoka The Great was
from Kori Tribe
अशोक महान कोरी कबीले से थे
“A time comes when each one of us asks, ‘Who am I? Who were my forefathers? Where did they come from? How did they live? What were their triumphs and tribulations?’ These and a number of others are some of the fundamental questions that we must find answers to, to get to learn about our roots.
In studying the aboriginal tribes of India, scholars have consulted our most ancient records and documents - the Vedas, the Puranas, the epics in different languages, many archaeological records and notes, and various other publications.
Students of history and anthropology have found numerous instances recorded in all prehistoric and established history of India, of a glowing past of this ancient tribe of India and more is being uncovered as research continues.
This article is based mainly on three publications written in Gujarati. 'An ancient Tribe of Bharat - The History of Koli Tribe' a book edited by Shree Bachoobhai Pitamber Kambed and published by Shree Talpoda Koli Community of Bhavnagar (First Edition 1961 and Second Edition 1981), an article by Shree Ramjibhai Santola published in Bombay Samachar in 1979 and a lengthy paper prepared by Dr. Arjun Patel in 1989 for presentation at the International Koli Samaj Conference in 1989.
The most ancient King Mandhata, a supreme and universal ruler whose reputation spread far and wide throughout India and whose stories of valor and yajna were described in the stone carvings of Mohanjo Daro, belonged to this tribe.
The most ancient and revered sage Valmiki, the author of Ramayana belonged to this tribe.
Koli Valmiki Ramayana 
कोली वाल्मीकि रामायण
Even today Ramayana is referred to as Koli Valmiki Ramayan in Maharashtra State. Teachings from Ramayan form the basis of Indian culture.
The great king Chandra Gupta Mourya, and his line of descendant kings belonged to the Koli tribe.
Lord Budhha's mother and his wife belonged to the Koli tribe.
Sant Kabir, a weaver by trade, ended several of his ‘bhajans’ as ‘kahet kabir kori’ was a self-confessed Koli. Bhaktaraj Bhadurdas and Bhaktaraj Valram from Saurastra, Girnari Sant Velnathji from Junagadh, Bhaktaraj Jobanpagi, Sant Sri Koya Bhagat, Sant Dhudhalinath, Madan Bhagat, Sany Kanji Swami of 17th and 18th Century all belonged to the Koli tribe.
Their life and reputation were described in books of their life and in articles published in Mumbai Samachar, Nutan Gujarat, Parmarth etc.
In the State of Maharashtra, Sivaji's Commander-in-Chief and several of his Generals belonged to this tribe. ‘A History of the Marathas’ note with pride the bravery of Sivaji’s army consisting mainly of Mavalis and Kolis. His General, Tanaji Rao Malusare, who was always referred to by Sivaji as ‘My Lion’ was a koli. When Tanaji fell fighting for and winning the ‘Kodana Fort’, Sivaji renamed the fort as ‘Sinhghadhh’ in his memory.
In the 1857 uprising a number of Koli women fighters played an important role in trying to save the life of the ‘Rani of Jhansi’. Among them was a very close colleague of the queen named Jhalkari. The Koli Samaj, thus, has given India and the world, great sons and daughters whose teachings are of universal import and of relevance to modern day living.

Mandhata Temple of Onkareshwar  
ओंकारेश्वर का मानधाता मंदिर
Legend of our Ancient King Mandhata
Shree Ram is said to born as 25th generation after Mandhata. Ishvaku was another great King of the ‘Sun Dynasty Koli Kings’ and so Mandhata and Shree Ram were said to be of Ishvaku Sun Dynasty. This Dynasty later got divided into nine major sub groups, all claiming their roots to the Kshtria Caste. They are: Malla, Janak, Videhi, Koliye, Morya, Lichchhvi, Janatri, Vajji, and Shakya.’
Archaeological findings, when pieced together, show Mandhata as belonging to Ishvaku – Sun Dynasty and his descendants were known as ‘Sun Dynasty Koli Kings’. They were known to be brave, illustrious and just rulers. Buddhist texts have numerous references proving this beyond doubt. The descendants of Mandhata played a vital role and our ancient Vedas, epics and other relics mention their important contributions in the art of war and state administration. They are referred to in our ancient Sanskrit books as Kulya, Kuliye, Koli Serp, Kolik, Kaul etc.

Early history – After Buddha



Lord Buddha   ईश बुद्ध
It was during the year 566 BC, when the Hindu religion became cruel and thoroughly degraded that Prince Gautam, later known to the world as Buddha (the enlightened one) was born in a little Kingdom by the river Rohini in a Himalayan valley in northwest India. Lord Buddha's mother, Maha Maya was a Koli princess.
The teachings of Lord Buddha were seen as a threat to vested interests of the upper-caste Hindus. Soon, the teachings of Buddha was completely banished from India.
It appears that Koli Kingdoms with their relationship and affinity to Buddha suffered most from this persecution. Although the vast majority never embraced Buddhist teachings, they been cold shouldered by others and suffered neglect from the rulers.

2000 Years After Lord Buddha
The upheaval must have proved too much for the Koli kingdoms. It appears that because of prolonged deprivations in the highly complex Hindu society, a once powerful tribe, hardworking, skilled, loyal, self-sufficient but easily provoked into war, lost its central position. A tribe that founded and built Bombay - named after the name of their Goddess, Mumba Devi, finds it hard even to this day to get into positions of political or academic influence. For centuries now, other tribes have looked down upon them and the resulting psychological effects were devastating for this entire community of Kshtrias.

The Present
In present day India, Kolis are found from Kashmir to Kanya Kumari and are known by slightly different names according to the languages of the regions. The following are some of the major groups: Koli Kshtria, Koli Raja, Koli Rajput, Koli Suryavanshi, Nagarkoli, Gondakoli, Koli Mahadev, Koli Patel, Koli Thakor, Bavraya, Tharkarda, Pathanvadia, Mein Koli, Koyeri, Mandhata Patel etc.



Koli Fishermen of Maharashtra
महाराष्ट्र के कोली मछुआरे
As an original tribe of India preferring to live in open agricultural landscape and coastal regions as clansman, the present day Kolis are a product of much intermarriage. It has been estimated that there are over 1040 subgroups all lumped together as Koli in the population census. Vast majority have very little in common except that they are Hindus, that the upper class Hindus have always accepted that a Koli’s touch does not defile and Koli chiefs of pure blood are difficult to distinguished from the Kshtria Rajputs among whom there are regular intermarriage.

Kolis of Gujarat
Writers Anthovan and Dr. Wilson believe that the original settlers in Gujarat were Kolis and Adivasi Bhils. Ravbahadur Hathibhai Desai confirms this to be so at the time of ruler Vanraj some 600 years ago. The very diverse ethnic groups represented now in the Gujarati population is said to be Vedic or Dravidian. These include the Nagar Brahman, Bhatia, Bhadela, Koli, Rabari, Mina, Bhangi,  Dubla, Naikda, and Macchi-Kharwa tribes. Parsis, originally from Persia, represent a much later influx. The rest of the population is the Adivasi Bhil tribe.

Bhils of Gujrat
गुजरात के भील


Dandi March    डाँडी मार्च
When on 9th January 1920, Bapu returned to India from South Africa a number of people who were with him there returned also. Bapu had personal knowledge of the character of our people. So when the time came to decide the destination of the 1930 Salt March it was no accident that he chose Dandi, from among a number of choices and pressures from other interested parties. He was convinced of the courage and the depth of understanding of our people in completing a project successfully. And so it proved.

In Conclusion
We cannot wholly blame the upper castes for our present conditions. History records with unceasing regularity the downfall of once powerful people who may have completely disappeared or reduced to pittance. In a world where survival of the fittest is the norm a people has to make great effort and sacrifice to unite under a wise leadership and start writing history again.
We have thousands of graduates and professionals, highly qualified doctors, dentists, lawyers, and skilled technocrats, living in their adopted countries and in India. They all seem to be using their skills to make money and in a race to acquire material goods and other minor pleasures. Material comforts are necessary but our priority must also be to guard our religion, culture and tradition.
The cream of our present generation must see themselves as the torch-bearers of our Samaj and make every effort to communicate, unite and become a formidable force to reclaim our past glory. This is now our challenge.”

For full article please click here- http://www.kolisamaj.org/myhistory/historyofkolis.html


(Note : So far as history is concerned what I feel is that we tend to link it with mythology whereas our endeavor should be to rely upon a history based on scientific research.)