"इतिहास - दृष्टि बदल चुकी है...इसलिए इतिहास भी बदल रहा है...दृश्य बदल रहे हैं ....स्वागत कीजिए ...जो नहीं दिख रहा था...वो दिखने लगा है...भारी उथल - पुथल है...मानों इतिहास में भूकंप आ गया हो...धूल के आवरण हट रहे हैं...स्वर्णिम इतिहास सामने आ रहा है...इतिहास की दबी - कुचली जनता अपना स्वर्णिम इतिहास पाकर गौरवान्वित है। इतिहास के इस नए नज़रिए को बधाई!" - डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह


22 December 2018

मेदे (Mede), मद्र (Madra), मेग (Meg), मेघ (Megh)


मेघ जाति, मेघ रेस या अपने मूल को जानने के इच्छुक मेघों को - मेदे (Mede), मद्र (Madra), मेग (Meg), मेघ (Megh) - ये शब्द हमेशा आकर्षित और कुछ परेशान करते रहे हैं. वे सोचते रहे हैं कि क्या ये शब्द वास्तव में एक ही रेस, जाति समूह, जाति की ओर इशारा करते हैं? यहाँ स्पष्ट करना बेहतर होगा कि Ethnology जिसे हिंदी में 'मानव जाति विज्ञान' कहा जाता है उसी के आधार पर कई जातियों को 'जाति' शब्द के तहत कवर कर लिया जाता है. लेकिन वह 'जाति समूह' को प्रकट करता है. यह इसलिए यहाँ प्रासंगिक है क्योंकि एथनेलॉजी को इस प्रकार से परिभाषित किया जाता है- ‘विभिन्न लोगों की विशेषताओं और उनके बीच के अंतर और संबंधों का अध्ययन.’ इस दृष्टि से यहाँ हिंदी के 'जाति' शब्द का अर्थ 'जाति समूह' या भारतीय संदर्भ में 'रेस' से भी लेना चाहिए जिसके भीतर कई-कई जातियाँ बना ली गई हैं.
मेदे, मेदी, मेग, मेघ आदि शब्दों के बारे में श्री आर. एल. गोत्रा, डॉक्टर ध्यान सिंह और श्री ताराराम जी से कई बार बातचीत हुई. यहां-वहां से जो पढ़ा-जाना उसमें एक ही स्रोत पर कोई आलेख नहीं मिला था जो इस पहेली का समाधान करता हो. सारा पढ़ने का तो कोई दावा भी नहीं है. हालांकि यह महसूस होता रहा कि इन शब्दों के मौलिक अर्थ और सभी अर्थ छटाएँ इतिहास की पुस्तकों में नहीं हैं और उन्हें शास्त्रीय साहित्य जैसे- रामायण, महाभारत, पौराणिक कहानियों आदि के साथ मिलान करके देखना होगा. इस बारे में कर्नल तिलकराज जी से महत्वपूर्ण संकेत मिले कि इसे भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी परखना पड़ेगा ताकि इन शब्दों की यात्राओं को भली प्रकार से जाना जा सके. यह इतना सरल भी नहीं है कि जहाँ कहीं किसी जाति या जाति समूह के नाम में ‘ या M’ देखा तो उस पर टूट पड़े. इस प्रवृत्ति पर अंकुश के साथ एक गंभीर शोध सहित प्रामाणिक संदर्भों की ज़रूरत होती है. इतिहासकार की नज़र का होना तो ज़रूरी है ही.
तारा राम जी ने अभी हाल ही में लिखे अपने एक शोध-पत्र (Research Paper) की पीडीएफ भेजी है. यह आलेख इस बात की गवाही दे रहा है कि ये सभी शब्द (मेदे, मद्र , मेग , मेघ) मेघ प्रजाति (रेस) की ओर इंगित कर रहे हैं जो भारत के अलग-अलग भू-भागों में बसी हुई है. यह रेस कई जातियों में बँटी हुई है और ये जातियाँ एक दूसरे को पहचानती भी नहीं हैं. वे एक दूसरे को ज़रूर ही पहचाने, यह जरूरी नहीं क्योंकि भौगोलिक कारण अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं. लेकिन ज्यों-ज्यों दुनिया सिमट रही है त्यों-त्यों आपसी पहचान बढ़ेगी, ऐसा लगता है. अस्तु, ताराराम जी ने जो अपना शोध-पत्र भेजा है उसमें विभिन्न इतिहासकारों और विद्वानों को संदर्भित किया है जो आलेख को विश्वसनीयता प्रदान करता है.
(इस आलेख में मेघों के राजनीतिक-सांस्कृतिक तंत्र पर चाणक्य (कौटिल्य) की टिप्पणी का उल्लेख है. इन दिनों इतिहास के जानकारों ने कौटिल्य यानि चाणक्य के ऐतिहासिक पात्र होने पर सवालिया निशान लगाए हैं. उसे ध्यान में रखते हुए यह कहना कठिन है कि चाणक्य की वो टिप्पणी कब की है).
ताराराम जी के आलेख का सार यहाँ है. मूल शोध-पत्र का पीडीएफ़ आप यहाँ इस लिंक मेद, मद्र, मेग, मेघ - पर पढ़ सकते हैं.


विकिपीडिया के ये दो आलेख भी देखने चाहिएँ-

Medes (इसे 06-09-2019 को देखा गया)

Medes (यह लिंक 16-09-2019 को देखा गया)

16 December 2018

Comprehending the history - इतिहास की बूझ


कुछ लोग अपने पिछले इतिहास से बहुत ख़ौफ़ खाते हैं. वे 'मेघ' शब्द से भी दूरी बनाते दिखते हैं. इस बीच 'आर्य-भक्त' शब्द 'भगत जी' का स्वरूप ले चुका है. यह बात सच है कि जब कोई उनके इतिहास की बात कहता है तो वे उसका विरोध करते दिख जाते हैं. लिखने वाले का एक नज़रिया होता है और दूसरा नज़रिया उसका विरोधी. यानि दृष्टि-संघर्ष (conflict).

वह भी एक तरह का विरोध होता है जब सुनना पड़ता है कि- ‘तुम इतिहास की बात करने वाले लोग तो अतीतवादी (pastist) हो’. यह आँशिक रूप से सही है. यद्यपि हमारा अधिकतर कार्य वर्तमान में होता है लेकिन अपना इतिहास जानने के इच्छुक लोग अतीत की एक खिड़की खुली रखते हैं. उस खिड़की से दिख रहे इतिहास के प्रति मेरे दिल में भी अनुराग है. क्यों न हो? वो एकदम धुँधला नहीं है. आखिर मुझे वहाँ से अपना अतीत दिखता है जो एक निरंतर गतिशील पथ की कथा कहता है जहाँ से मानवता सिर उठा कर चली आ रही है. वहीं होता है मानव-मूल्यों के साथ चलते रहने का बोध जो मानव सभ्यता की ओर इशारा करता हुआ कहता है ‘चलते रहो, बढ़ते रहो’. वही हमें वर्तमान तक ला कर बेहतर भविष्य की अपार संभावनाओं के खुले राजमार्ग पर ले आता है. इसी लिए अतीत को खंगालने वाले लोग ‘अतीतवादी (pastist)’ या ‘अतीतरागी (nostalgic)’ जैसे शब्दों से विचलित नहीं होते भले ही ये शब्द अतिकटुता के साथ परोसे गए हों.

इतिहास में दर्ज हमारी समझदारियों और मूर्खताओं के कई आयाम होते हैं. यदि हम उनको नहीं जानते और उनसे नहीं सीखते तो इतिहास हमें तब तक सबक सिखाता है जब तक हम सबक सीख न लें. जब हम बिना सीखे चलते हैं तो उसका असर समाज के व्यवहार में दिखता है यहाँ तक कि अपने ही लोगों को कहना पड़ता है कि वे आपस में एक-दूसरे को कोसना बंद करें. इतिहास ग़ज़ब का 'गुरु' है, गुरु जी !

इतिहास-बोध एक बेशकीमती औज़ार है जिसे समाज के सभी जनों की जेब में और समाज के संगठनों की अलमारियों में उपलब्ध होना चाहिए ताकि समस्त समाज उसके महत्व को जाने और जान कर लाभान्वित हो. अपने बारे में जानने, अपने से सीखने और ख़ुद से ही समझदारी विकसित करने को ‘इतिहास-बोध’ कह दिया जाता है. यही ‘इतिहास बोध’ व्यक्ति और समाज के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है. इससे समाज में जुड़ाव और सामूहिक निर्णय लेने की क्षमता पैदा होती है. जब यह क्षमता मज़बूत हो गई तब समझिए कि समाज का हर सदस्य अपनी जानकारी के आधार पर समाज के हित में कार्य करने लगेगा.

28 November 2018

The Legend of Porus - पोरस की गाथा - 2

मेघों के सतलुज के किनारे बसे होने और सतलुज के प्राचीन नाम Megarsus और Megandros के बारे में कर्नल कन्निंघम ने अपनी रिपोर्ट में महत्वपूर्ण बातें लिखी हैं कि :-

(1)  इस पहचान के अनुसार मेकी, या प्राचीन मेघ, सिकंदर के आक्रमण के समय ज़रूर सतलुज के किनारों पर बस चुके थे.
(2) दोनों नामों (Megarsus और Megandros) की आपस में तुलना करने पर, मेरे अनुसार संभव है कि मूल शब्द मेगान्ड्रोस (Megandros) हो जो संस्कृत के शब्द मेगाद्रु, या 'मेघों का दरिया', के समतुल्य होगा.

यहाँ कर्नल अलैक्ज़ांडर कन्निंघम ने सतलुज नदी का उल्लेख किया है जिसका पुराना नाम ‘मेगाद्रु’ यानि ‘मेघों की नदी’ था.

कई बार इतिहास पूरी बात नहीं बताता या इतिहासकार पूरी बात नहीं लिख पाता. वहाँ भाषाविज्ञान भी किसी बात को समझने में मदद करता है. एक अन्य जगह कर्नल कन्निंघम ने लिखा है कि पोरस (पुरु) के समय के मद्र और मेद ही 19वीं शताब्दी (जब यह रिपोर्ट लिखी गई थी) के मेघ हैं जो रियासी, जम्मू, अख़्नूर आदि क्षेत्रों में बसे हैं. इसे भाषाविज्ञान की मदद से हम समझ पाते हैं कि ‘मद्र’ शब्द का स्वरूप ‘मेगाद्रु’ शब्द से विकसित हुआ है. सवाल पूछा जा सकता है कि मेघ और मेद में जो ध्वनिभेद है उसका क्या? इसका कारण यह है कि मेघजन जब ख़ुद को मेघ कहते हैं तो ‘घ’ की ध्वनि पूरी तरह महाप्राण ध्वनि नहीं होती बल्कि वो ‘ग’ के अधिक नज़दीक पड़ती है. इससे ‘मेघ’ शब्द की वर्तनी (spelling) में अंतर हो गया. परिणामतः मेघ (Megh) शब्द की वर्तनी सुनने वालों के लिए मेग (Meg) बनी. श्री आर.एल. गोत्रा ने अपने लंबे आलेख ‘Meghs of India’ में बताया है कि वेदों में ‘मेघ’ और ‘मेद’ शब्द भी आपस में अदल-बदल कर लिखे गए हैं. इस प्रकार 'मेघ', 'मेग' और 'मेद' ये तीनों शब्द एक ही वंश (Race) की ओर इशारा करते हैं.

प्राचीन काल में मेघों की भौगोलिक स्थिति निर्विवादित रूप से सिंधुघाटी क्षेत्र में थी. झेलम और चिनाब के बीच के पौरव क्षेत्र के अलावा सतलुज और रावी के क्षेत्रों में उनकी बस्तियाँ थीं. वर्ण परंपरा के अनुसार मेघ क्षत्रिय थे ऐसा ‘मेघवंश - इतिहास और संस्कृति’ पुस्तक में सप्रमाण बताया गया है. हमारे पुरखे पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन महाराजा बली और पोरस की कथा बहुत प्रेमपूर्वक सुनाते थे. पोरस की कथा की कुछ निशानियाँ मेघों की जन-स्मृतियों में दर्ज है. स्वाभिमानी पोरस के साथ उनका अपनत्व का संबंध रहा.


महाराजा पोरस (पुरु) मद्र नरेश थे. नरेश शब्द पर ध्यान देने की ज़रूरत है. मद्र+नर+ईश (राजा). यानि मद्र लोगों का अग्रणी. इस बात को समझ लेना ज़रूरी है कि उस काल में किन्हीं नदियों और क्षेत्र में बसे लोगों के नाम पर उस नदी या क्षेत्र का नाम रखने की परंपरा थी जिसकी पुष्टि ऊपर कन्निंघम के दिए संदर्भ में हो जाती है. इस नज़रिए से पोरस के साकल/सागल (जिसे आज के सियालकोट क्षेत्र के समतुल्य माना गया है) की मेघ जाति के अग्र-पुरुष होने का ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है. पोरस निस्संदेह इतिहास पुरुष है लेकिन उसके जीवन से संबंधित बहुत-सी कड़ियाँ कथा-कहानियों के सहारे खड़ी हैं. ऐसी कथा-कहानियों का अपना रुतबा होता है और वे अपने पात्रों के रुतबे को प्रभावित करती हैं.

ऐतिहासिक संदर्भ स्पष्ट बता रहे हैं कि पोरस मेघ वंश परंपरा के हैं. कर्नल कन्निंघम ने आधुनिक मेघों को मद्रों / मेदों का ही वंशधर माना है.


The Legend of Porus - पोरस की गाथा - 1

एक अन्य रुचिकर लिंक (यह पोरस के संदर्भ में नहीं है)
History of the Indo-Greek Kingdoms (Retreived as on 04-01-2019)


27 November 2018

The Legend of Porus - पोरस की गाथा - 1

ताराराम जी अकसर बहुत रुचिकर ऐतिहासिक संदर्भ शेयर करते हैं. हाल ही में उन्होंने कर्नल कन्निंघम का एक रेफरेंस भेजा. याद आया कि कभी मैंने उसका हिंदी अनुवाद किया था. Age factor you know. 🙂

इससे पहले पढ़ चुका हूँ कि प्राचीन भारत के सिंधु क्षेत्र की कई जात-बिरादरियों ने पोरस को अपनी जात-बिरादरी का बताया है. उन बिरादरियों में पढ़े-लिखे लोग थे जिन्होंने इतिहास में अपने समाज की जगह बनाने के लिए कुछ संदर्भ लिए, आलेख लिखे और उन्हें आधार बना कर मनोवांछित साहित्य की रचना की है और उसे वे इतिहास कहते हैं ठीक उसी तरह जैसे हमारे यहाँ मिथकीय कहानियों को इतिहास बताने की परंपरा रही है. ग्रीक और भारतीय इतिहासकारों द्वारा लिखे गए पोरस के इतिहास में काफी पृष्ठ  खाली पड़े थे जिन पर कब्ज़ा जमाने की होड़-सी लगी है, विशेषकर कथा-कहानियों के ज़रिए. लेकिन संदर्भों की नाजानकारी और लेखन कौशल के अभाव में मेघ समाज ने अधिकारपूर्वक उन पृष्ठों पर कोई दावा नहीं ठोका. हलाँकि उनका एक दावा बनता है.

प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता अलैग्ज़ैंडर कन्निंघम ने मेघ जाति को मद्र (मेघाद्रु- ‘मेघों की नदी’- से व्युत्पन्न शब्द) / मेद (मेघ=मेध=मेद) जाति का ही बताया है. श्री आर.एल. गोत्रा ने अपने लंबे आलेख ‘Meghs of India’ में बताया है कि वेदों में मेघ और मेद शब्द आपस में अदल-बदल कर लिखे गए हैं. महाराजा पोरस मद्र नरेश थे. (इस बात को समझ लेना ज़रूरी है कि किन्हीं नदियों के किनारे या क्षेत्रों में बसे लोगों के नाम पर उस नदी या क्षेत्र का नाम रख दिया जाता था). इस नज़रिए से पोरस के मेघ जाति के अग्र-पुरुष (ancester) होने का ऐतिहासिक उल्लेख मिलता है. (ताराराम जी द्वारा उपलब्ध कराया गया संदर्भ- Cunningham Reports, Vol-2, A S I reports- 1862-63.64-65. Page-2, 11 to 13)

महाराजा पोरस मेघों के अग्रणीय पुरुष थे इस जानकारी को पुख़्ता करने वाली कुछ और कड़ियों की प्रतीक्षा है. संभव है राजा पोरस मेघवंश या उसके निकट भाई नागवंश के हों. कथाओं से भरी पोरस की गाथा आज भी कितनी तरल है उसके बारे में आप इस लिंक पर जा कर जान सकते हैं. इस विषय पर एक और पोस्ट शीघ्र आएगी. बाकी काम ताराराम जी का. 🙂



20 November 2018

The System of Gotra in Meghs - मेघों में गोत्र की व्यवस्था

सदियों की अनपढ़ता झेल चुकी जातियों की बौद्धिक कठिनाइयां जल्दी दूर नहीं होतीं. इसका एक उदाहरण हाल ही में इक्का-दुक्का सक्रिय सीनियर्स के मन में उभरा और व्यक्त हुआ यह विचार है कि मेघ समाज में जो गोत्र प्रथा है वह ऋषि गोत्र के बिना या तो अधूरी है या सिरे से गलत है. वे मानते हैं कि मेघ बिरादरी के गोत्र वास्तव में ऋषि गोत्र ही हैं या फिर मेघ भगतों का वास्तविक गोत्र केवल ‘भारद्वाज’ है. 

डॉ. ध्यान सिंह को जहां तक जानकारी मिली उन्होंने बिरादरी के बहुत सारे गोत्रों की एक सूची अपने शोधग्रंथ में शामिल की. हरेक गोत्र के अपने दायरे में आने वाले लड़के-लड़कियों की आपस में शादियाँ नहीं होतीं. यह कमोबेश जाटों की खाप प्रणाली जैसा है. डॉ. ध्यान सिंह द्वारा दी गई सूची में भारद्वाज, अत्री, कौशल या  कश्यप गोत्र शामिल नहीं किए हैं (हालाँकि ये ऋषि गोत्र मेघों में देखे गए हैं, शायद कुछ और भी हों). भारद्वाज गोत्र बहुतायत से देखा गया है. लेकिन इस इंप्रेशन से बचना भी बहुत ज़रूरी है कि सारे मेघ समाज का ऋषि गोत्र केवल ‘भरद्वाज’ या ‘भारद्वाज’ ही है. अन्य ऋषि गोत्र भी इस समाज में हैं.

क्या ऋषि गोत्र स्पिंडा रिलेशनशिप को कवर करने की क्षमता रखते हैं? यह एक ज़रूरी सवाल है.

कई जातियों में पाए जाने वाले ऋषियों और ऋषि गोत्रों में समानता है और यह समानता जाति छिपाने में सहायक हो सकती है. शायद इसी लिए ऋषि गोत्र के प्रति आकर्षण रहा है. हिंदू परंपराओं में हो सकता है कि किसी के 'नाम' की 'हिस्ट्री' इस प्रकार हो :- “नाम : हरे सिंह गोयल. गोत्र : भारद्वाज. वर्ण : क्षत्रिय. जाति : जाट”. उससे आगे जाटों के गोत्रों या खापों की कहानी और भी बड़ी मिलेगी. मेघों में भी यह प्रवृत्ति मिल सकती है.

जो सीनियर मेघ भगत आजकल ऋषि गोत्र पर विशेष ध्यान दे रहे हैं उनसे विनती है कि वे अपनी पसंद के ऋषियों से संबंधित वैदिक और पौराणिक कहानियों को विस्तार से पढ़ें और फिर अपना मन बनाएँ. वे मेघ ऋषि पर भी थोड़ी खोज-बीन कर लें यदि अन्यथा कोई परहेज़ न हो.

जहाँ तक डॉ. ध्यान सिंह के थीसिस में बताए गए गोत्रों की बात है तो यह समझ लेना ज़रूरी है कि उन्होंने वह उल्लेख जम्मू और अन्य जगह स्थित मेघों की देरियों के संदर्भ में किया है. सुना नहीं कि उन देरियों में ऋषियों-मुनियों की देरियां हों. मेघों में देरियों की परंपरा किस समय की है या किस सभ्यता से संबंधित है और ऋषि गोत्र की परंपरा कितनी पुरानी है, ये शोध के विषय हो सकते हैं. इस बारे में कुछ संदर्भ या संकेत कल्हण लिखित राजा मेघवाहन के आख्यान से मिल सकते हैं.

आज कई मेघों को यदि किसी कारण से अपना गोत्र याद नहीं तो वे मौखिक परंपरा में अधिक सुने गए ऋषि गोत्र का सहारा लेते हैं. शादी के उद्देश्य से वे पंडित-पुरोहित को ऋषि गोत्र बता देते हैं. यदि दोनों पार्टियों का ऋषि गोत्र एक ही निकल आए तो फिर जाति (गोत्र) पूछ ली जाती है. यानि भारद्वाज गोत्र के बाद बताना होता है कि वे लुचुंबे हैं या साकोलिया या ममुआलिया या मंगोच हैं, तभी मामला सुलटता है. शादी-ब्याह के मामले में मेघों की सभ्याचारक (cultural) परंपरा वही गोत्र प्रणाली है जो ऋषि गोत्र से मुक्त है.

यह आलेख भी ज़रूर देख लीजिए. → गोत्र प्रथा. दो लिंक और देख लीजिए पहला और दूसरा.



06 November 2018

Meghs and their ancestry - मेघ और उनकी वंश परंपरा

(आदरणीय प्रो. के.एल. सोत्रा जी को संबोधित एक पोस्ट)

आदरणीय गुरु जी,
   जहां तक मेघ ऋषि का सवाल है मैंने अपने दादाजी से और पिताजी से सुना हुआ है कि हम किसी मेघ ऋषि की संतानें हैं. अब इस बारे में अधिक कहने से पहले इस चीज़ को देखना ज़रूरी है कि जातियों के इतिहास में मेघ ऋषि के बारे में क्या कहा गया है. हमारे समुदाय के लिए मेघ ऋषि का नाम नया नहीं है. राजस्थान के मेघवाल मेघ ऋषि को अपना वंशकर्ता मानते हैं. गुजरात में भी मेघ ऋषि को मेघ रिख कहा जाता है और वह उनके लिए एक पूजनीय व्यक्तित्व है और संभवतः वंशकर्ता भी है. मेघ ऋषि को अपना आराध्य मानने वाले ओडिशा में भी हैं. मेघवारों का मेघ रिख बिहार की ओर से आता है और गुजरात में अपना राज्य स्थापित करता है. कौशांबी से ऐसे सिक्के मिले हैं जिन पर मेघ और मघ सरनेमधारी राजाओं के नाम अंकित हैं. मेरी मां के कुछ रिश्तेदार हैदराबाद सिंध (अब पाकिस्तान के सिंध प्रांत में) रहते थे. अन्य मेघ भी वहाँ रहते होंगे ऐसा अनुमान है. हिंदू परंपरा के मेघों के बारे में जोशुआ प्रोजेक्ट काफी कुछ कहता है. सिख परंपरा के मेघों के बारे में भी जोशुआ प्रोजेक्ट जो तस्वीर देता है वो रुचिकर है. हलाँकि इस प्रोजेक्ट के तहत दर्शाए गए आंकड़े बहुत पुराने प्रतीत होते हैं.

   मेघ भगतों में मेघ ऋषि की पूजा की कोई परंपरा मैंने नहीं देखी और न सुनी. जहां तक मेरी जानकारी है राजस्थान में भी मेघ ऋषि की पूजा परंपरा पुरानी नहीं है. पिछले एक-दो दशकों में ही जयपुर में श्री गोपाल डेनवाल और श्री आर.पी. सिंह के नेतृत्व में इसे शुरू होते देखा गया और पंजाब के अबोहर में भी इसकी शुरुआत देखी गई जिसमें श्री हरबंस मेघ की भूमिका प्रमुख दिखी. पूजा की वह परंपरा कितनी विस्तृत है मैं नहीं जानता. मैं आपके और सुभाष जी के साथ सहमत हूं कि मेघ और मेघवाल नाम से दोनों अलग-अलग जातियां हैं, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए लेकिन साथ ही इस तथ्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में किसी वंश के तहत कई जातियाँ बनाने की परंपरा है. उनमें से कई जातियों का वंशकर्ता पुरुष एक ही होता है जैसा कि लोक परंपरा में है. इस प्रकार से मेघ जातियों का मूल एक ही है. उदाहरण के लिए प्राचीन काल में हमारे यहां नागवंशी राजाओं का साम्राज्य रहा है लेकिन आज हम पाते हैं कि नागवंश से निकली हुई कई जातियां भारत भर में फैली हुई हैं. भौगोलिक दूरियों के कारण वे आपसी पहचान खो चुकी हैं. लेकिन वे हैं और उनके वंशकर्ता भी साझे हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार नवल वियोगी ने उन पर शोधकार्य किया है और विस्तार से उल्लेख किया है. मेरा मानना है कि हमें नागवंश और मेघवंश के तहत आने वाली जातियों के बारे में और अधिक अध्ययन करके अपनी जानकारी बढ़ानी चाहिए.  केवल विवाद खड़ा करने से कुछ नहीं होता. इन विषयों पर, विशेषकर व्हाट्सएप जैसी जगह पर हम जो समय और ऊर्जा बर्बाद करते हैं वो ठीक नहीं है. 

   एक मेघ दूसरे राज्य में जाकर यदि मेघवाल जाति के नाम का अपना जाति प्रमाण-पत्र बनवा लेता है तो उसे संदेह की दृष्टि से देखा जा सकता है. लेकिन यदि किसी राज्य में बहुत समय पहले से और समय-समय पर आकर 50-60 हजार मेघ बस जाते हैं लेकिन उस राज्य विशेष की अनुसूचित जातियों की सूची में मेघ जाति नहीं हैं तब भी उनका वह बड़ा समूह अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर (जाति के लिहाज से) राजनीतिक मुद्दा बन जाता है. उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर राजनीति तय करती है कि उन्हें कौन-सी श्रेणी में रखा जाए और उन्हें जाति के नज़रिए से कहाँ रखा जाए. ज़ाहिर है इस बारे में कुछ प्रक्रियाएँ भी होंगी. पंजाब में बसे मेघवालों की कितनी संख्या है और उन्हें राजनीतिक निर्णयों ने कहाँ रखा है, ऐसी जानकारियाँ नागरिक की पहुँच से बाहर नहीं हैं.

   मेघवंश की जातियों में गोत्रों की असमानता  होना कोई समस्या नहीं है. किसी वंशकर्ता का गोत्र कुछ देर चलता है फिर तीन-चार पीढ़ियों के बाद कई कारणों से गोत्रों के नाम बदल जाते हैं. एक गोत्र का गाँव बस जाए तो आगे चल कर गाँव के नाम पर ही एक अलग गोत्र चल पड़ता है. रोज़गार दाता के नाम से भी गोत्र चले हैं. गोत्रों के बारे में कुछ अधिक जानकारी आपको इस लिंक से मिल जाएगी  गोत्र प्रथा.

   जहाँ तक 'मेघ-धर्म' की बात है इसकी एक शुरुआत हमारे ही समुदाय के श्री गिरधारी लाल डोगरा (सेवानिवृत्त आयकर आयुक्त) ने 'मेघ मानवता धर्म' नाम से शुरू की थी. उनकी अवधारणा (कन्सेप्ट) बहुत बड़ी है और उसकी शुरुआत उन्होंने तत्संबंधी अंतर्राष्ट्रीय निर्धारक नियमों और शर्तों के हिसाब से की थी. उसके प्रचार के लिए उन्होंने अपनी एक संस्था का विस्तार भी किया है. उनसे भी पहले कई अन्य जातियों के बुद्धिजीवियों ने अपनी जाति को ही धर्म बताया. 'जाट धर्म' की बात जाट करते रहे हैं. मैं समझता हूँ कि इसके पीछे यह मानसिकता रही हो सकती है कि भारतीय समाज में व्यवसाय को भी धर्म कहा जाता रहा है. इस नज़रिए से या उसके प्रभावाधीन किसी ने 'मेघ धर्म' या 'जाट धर्म' कह दिया तो कोई हैरानगी की बात नहीं है. मेघों की अपनी कबीलाई और सभ्याचारक परंपराएँ तथा जीवन शैली है उन्हें भी धर्म कहने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है. वो उनका अपना लाइफ़ स्टाइल (जीवन शैली) है और सुप्रीम कोर्ट ने 'हिंदू' को धर्म न कह कर 'जीवन शैली' बता दिया है. इस पर विमर्ष आगे भी चलता रहेगा.

   रही बात हरबंस मेघ जी की तो सीधी सी बात है कि वे कोई फ़िनॉमिना नहीं है बल्कि मेघ फ़िनॉमिना का हिस्सा हैं. ऐतिहासिक दृष्टि से वे हमारे अपने ही वंश के हैं. हम एक ही वंशकर्ता के वंशधर हैं. वे हमारे अपने लोग हैं.
  

19 October 2018

Megh Dynasty - A Historical Dynasty - मेघ वंश - एक ऐतिहासिक राजवंश

सदियों से गरीबी की मार झेल रही जातियां अपना अतीत ढूंढने के लिए मजबूर हैं ताकि वे अपने आपको समझ सकें. इस बारे में एक बहुत ही अद्भुत फिनॉमिना है कि वे लोक-कथाओं के ज़रिए आपस में राजा-रानी और राजकुमार-राजकुमारी की कहानियां सुनाते हैं. सुनते हुए वे खुद की और अपने माता पिता की पहचान राजा-रानी या उनकी संतानों के रूप में करते हैं. यह प्रवृत्ति सारी इंसानी ज़ात में देखी जाती है. यदि किसी को मालूम हो जाए कि उसके पुरखे कभी, किसी समय, किसी इलाक़े के शासक थे तो उसे कैसा महसूस होगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है. उसे थोड़ी बहुत हैरानगी और खुशी भी होगी कि उसकी जमात में बहुत क्षमताएं रही हैं. लेकिन वो जानना चाहेगा कि किस कारण से उनकी क्षमताएँ संकुचित हो गईं. हालांकि पहले भी मैंने इस ब्लॉग पर कुछ पोस्ट लिखी हैं जो बताती हैं कि मेघवंशी जातियों के पुरखे कभी शासक रहे हैं. उन पोस्टों पर यद्यपि किसी ने कमेंट नहीं किया लेकिन टेलीफोन पर कई प्रतिक्रियाएं मिलीं. उनमें से एक मज़ेदार प्रतिक्रिया यह भी थी कि कुछ बच्चे उन पोस्टों को पढ़कर बिगड़ गए और फिजूलखर्ची पर उतर आए (यानि मेरी पोस्ट को दोषी करार दिया जा रहा था :)). मैं नहीं समझता यदि बच्चों का पालन-पोषण सही तरीके से हुआ है तो वे ऐसी किसी पोस्ट को पढ़कर बिगड़ ही जाएंगे. यह सब कुछ यदि मेरे ब्लॉग पर ना भी रहता तो भी, कहीं ना कहीं, किसी न किसी जिज्ञासु बच्चे के हाथ में आ जाता. बच्चों का रास्ता उनका परिवेश तय करता है. मेघ वंश के राजाओं के बारे में हाल ही में जो विस्तृत सामग्री मिली है वो जोधपुर के श्री ताराराम (जिन्होंने मेघवंश - इतिहास और संस्कृति नाम की पुस्तक लिखी है) के ज़रिए मिली है. उन्होंने इतिहास की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. साधना मेघवाल के शोध-पत्र की फोटो प्रतियां भेजी हैं जिन्हें आप नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं. यह शोध-पत्र 'राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस' (जो राजस्थान के इतिहासकारों का एक मंच है) के एक अधिवेशन में प्रस्तुत किया गया था. ध्यान रहे कि इस शोध-पत्र में दिए गए संदर्भ नामी-गिरामी इतिहासकारों की पुस्तकों से लिए गए हैं. लिंक नीचे हैं. डॉ. साधना मेघवाल को बहुत बहुत धन्यवाद.

12 October 2018

Social Work v/s Politics - सामाज सेवा बनाम सियासत

राजनीति दुनिया के चार बड़े धंधों में से एक है. राजनीतिज्ञ (politician) किसी विचारधारा पर चलता है लेकिन समझौते भी करता चलता है, वह विचारधारा से हट भी जाता है ताकि सत्ता में बना रहे. उसके वादे कोई गारंटी नहीं देते. उसके अस्तित्व की सार्थकता सत्ता में या सत्ता के पास रहने में है. वह मुद्दों की छीना-झपटी करता है और मुद्दों का उत्पादन करता है. वह कसम तो संविधान की खाता है लेकिन कार्य पार्टी के एजेंडा पर करता है, जैसे - युद्ध, दंगे, गाय, हिंदुत्व, धर्म आदि. उसका कार्यकर्ता (political worker, activist) उसके एनेक्सचर-सा होता है, स्थान दोयम दर्जे का और कुल मिला कर इस्तेमाल करके फेंक देने वाली चीज़. राजनीतिज्ञ की पहचान उसकी राजनीतिक समझ है और राजनीतिक कार्यकर्ता अपनी सामाजिक सक्रियता और सामाजिक कार्य से सम्मान पाता है. अपने नेता की गलती का परिणाम जनता के साथ-साथ कार्यकर्ता को भी भुगतना पड़ता है. जब कोई कार्यकर्ता ख़ुद राजनीतिज्ञ बन जाता है तो समाज को सीधे तौर पर नुकसान होता है. राजनीतिज्ञ और उसके कार्यकर्ताओं के मुकाबले सामाजिक कार्यकर्ता अधिक सम्मान का हक़दार है.


03 October 2018

Dr. Ambedker and Sir Chhotu Ram - डॉ आंबेडकर और सर छोटूराम


किसी भी व्यक्ति को उसकी दो-एक बातों के संदर्भ में नहीं बल्कि उसके संपूर्ण कथन या वांग्मय से जानना चाहिए. युवावस्था में उसने चाहे जो भी अच्छा कहा हो उसकी उन बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए जो वह अपने क्षेत्र में परिपक्व होने के बाद कहता है. सर छोटूराम ने अपने जीवन में एक सामाजिक क्रांति ला दी थी जिससे वंचित समाज को लाभ हुआ. उनका जीवन लंबा रहा होता तो कम से कम उत्तर भारत में उनके कार्य का प्रभाव बहुत व्यापक रूप से पड़ा होता. प्रभाव तो आज भी है. ध्यान से देखें तो डॉ. आंबेडकर के कई कार्यों में सर छोटूराम की विचारधारा को भी शामिल देखा जा सकता है. इस विषय पर और अधिक अध्ययन की ज़रूरत है.


26 September 2018

Megh Sialkotia? No, you are wrong - मेघ सियालकोटिया? नहीं, आप ग़लत कह रहे हैं.

(कल मेघ समाज का नाम रोशन करने वाली आईएएस अधिकारी स्नेह लता कुमार से काफी लंबी बातचीत हुई. काफी देर से जानता हूं कि अपने मेघ समाज के बारे में उनकी सोच में एक नया नज़रिया है जिस पर ध्यान दिया जाना बहुत जरूरी है. यह पोस्ट उनसे हुई बातचीत के बाद लिखी गई है.)

Sneh Lata Kumar
स्वभाविक है कि जब अपने समाज के पुराने इतिहास के बारे में बातचीत हो तो उसमें समाज के पुराने इतिहास की बात ज़रूर होगी. लेकिन वो इतिहास लगभग गुम है. फिलहाल इस बात पर तो चर्चा होती ही है कि हम कहां से चले थे या हम कहां के हैं और यहाँ कब से हैं. ऐसे सवाल इस लिए मन में उठते हैं क्योंकि हमें तारीखों से भारी इतिहास पढ़ने की आदत पड़ी हुई है. हमें अपनी सभ्यता, सभ्याचार और परंपराओं का इतिहास नहीं पढ़ाया जाता. जो पढ़ाया जाता है वो ऐसी भाषा के साहित्य से प्रेरित है जिसका आम आदमी से कोई रिश्ता नहीं रहा. कहीं-कहीं तो वो इतिहास कही जाने वाली पौराणिक कहानियो और इतिहास का मिक्सचर-सा है और उसे धार्मिक जामा ओढ़ा दिया गया है ताकि सवाल न उठें. लेकिन सवाल तो उठते हैं.

पंजाब में बसे मेघों के लिए वह सवाल और भी अहम हो जाता है क्यों कि सियालककोट (पाकिस्तान) से आए हुए उन्हें अभी सत्तर बरस हुए हैं और वे अपने बुज़ुर्गों से देश के बंटवारे की दुख देने वाली बातें सुनते हैं. लेकिन उनकी उत्सुकता इस बात में भी रहती है कि उन्हें ऐसे हालात से कितनी बार गुज़रना पड़ा, उनके वंशकर्ता पुरखों की जड़े कहाँ थीं? धरती पर कहाँ उनके पाँव पड़े, कहाँ से उखड़े, कहाँ जमे आदि? यह सवाल इस नजरिए से ज़रूरी है क्योंकि हाल ही में किसी ने अनजाने मे या गलती से मेघ भगतों को रिफ़्यूजी (शरणार्थी) कहा था जो सिरे से गलत है. 


Dr. Dhian Singh, Ph.D.
भारत के अन्य कई समुदायों की तरह मेघ समुदाय के लोग भी समय-समय पर एक से दूसरी जगह गए हैं. मेघों के जम्मू से सियालकोट जाने की बात डॉक्टर ध्यान सिंह के शोधग्रंथ में उल्लिखित है. उन्होंने यह महत्वपूर्ण बात रिकार्ड की है कि मेघ समुदाय के बहुत से लोग रोजगार की तलाश में सियालकोट की ओर गए और वहाँ बस भी गए. वहाँ रोजगार के अधिक अवसर और नियमित आय के बेहतर साधन उपलब्ध थे. उनका वहाँ जाना एक मानवीय आवश्यकता थी और स्वभाविक भी. इक्का-दुक्का परिवारों ने अन्य कारणों से जम्मू रियासत से बाहर जा कर अंगरेज़ों द्वारा शासित सियालकोट के इलाके में पनाह ली. 

1947 में भारत-पाकिस्तान का विभाजन हुआ. पाकिस्तान एक इस्लामिक राष्ट्र बन गया. सामान्य मेघ (जिनका इस्लाम से केवल पड़ोसी का रिश्ता था) भारत में आ गए और कई शहरों, क़सबों और गाँवों में बसे. अपनी ज़मीनों आदि के बदले भारत में उन्हें कुछ क्लेम या ज़मीन मिल गई. शुरुआती संघर्ष के बाद उनका सामान्य जीवन शुरू हुआ. 

कुछ मेघों का मानना है कि उनका इतिहास भारत विभाजन के बाद पंजाब में आ बसने के बाद ही शुरू होता है या उसे उसके बाद शुरू हुआ माना जाना चाहिए. लेकिन इसका अर्थ यह होगा कि भारत विभाजन से पहले यह समुदाय कहीं था ही नहीं और अचानक पंजाब में उभर आया था. जैसा कि ऊपर कहा गया है मेघ रोज़गार की तलाश में जम्मू से सियालकोट गए थे. इस नज़रिए से नहीं कहा जा सकता कि इनका मूलस्थान सियालकोट था. आज भी इनकी अधिकतर जनसंख्या जम्मू में है. इतिहास के ज्ञात तथ्यों के अनुसार मेघों का मूलस्थान जम्मू-कश्मीर का क्षेत्र है जहाँ ये अधिक संख्या में बसे हैं. उसे डुग्गर का क्षेत्र कहा जाता है. बहुत से मेघ उसी क्षेत्र के नाम पर अपना सरनेम 'डोगरा' लिखते हैं. लॉर्ड कन्निंघम की मानें तो ‘त्रिगर्त’ शब्द के तहत डुग्गर क्षेत्र जालंधर तक फैला है. जालंधर में रहने वाले कुछ मेघ अपने नाम के साथ 'डोगरा' लगाते हैं. ‘सियालकोटी मेघ’ या ‘हम सियालकोट से आए थे’ जैसे शब्द अर्थहीन और तर्कहीन है. 

मेघ भगत जम्मू-कश्मीर के हैं और वही उनका तथ्यात्मक मूलस्थान है. क्षेत्र के आधार पर वे डोगरे तो हैं ही.

16 August 2018

The Trails of Part Payment - टूटी रकम के निशान

श्री राजकुमार भगत
वे कभी भी हमें पाँच हज़ार रुपए इकट्ठा नहीं देते थे. उस समय उस पाँच हज़ार की बहुत कीमत होती थी. वे कभी हमें पाँच हज़ार रुपए इकट्ठे नहीं देते थे तो हम चलते कैसे? यह पहली बात. दूसरी बात यह है कि हमारी बिरादरी में हमें गाइड करने वाला या जागरूक करने वाला कोई भी नहीं था. यदि किसी आदमी के सामने कोई लक्ष्य हो तो उसे प्राप्त करे. हमारे सामने तो कोई लक्ष्य ही नहीं था. अंधेरा ही अँधेरा था. कोई बताने वाला नहीं था कि बेटा तुम यह करो, तुम इधर चलो. सबसे पहले 1-2 लोगों को इस कार्य (सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट बनाने) का तजुर्बा था मैंने भी 1970 में दसवीं पास की थी. तब हमारे पास ना तो पढ़ने के लिए पैसा था और ना ही कोई कामकाज शुरू करने के लिए. दिन में कुछ काम करके जैसे-तैसे ईवनिंग कालेज में और प्राइवेट पढ़ता रहा और बीए किया. दूसरी दिक्कत थी कि हमारे यहाँ टांग खींचने वाले लोग भी थे. फिर हम सर्जिकल में ही आए. जहां तक मुझे याद है उस समय हमारी मेघ बिरादरी में तकरीबन 35 से 40 कारखाने थे. वहां पर सर्जिकल का सामान बनता था. उन लोगों में से कुछ का काफी नाम था उनमें से एक नाम श्री रामचंद साणा (A machine used for sharpenig and polishing ) वाला था. मेरे पिता श्री चूनीलाल साणा वाला, मेलाराम साणा वाला कर्मचंद साणा वाला, रतनलाल साणा वाला, बाबा साणा वाला जैसे बहुत बढ़िया लोग थे जिन्होंने साणा का कार्य किया. ये सभी अनपढ़ थे. मेरे पिताजी भी अनपढ़ थे. जितनी उनको समझ थी उसके अनुसार उन्होंने हमें पढ़ाया-लिखाया और हम यहाँ तक पहुँच सके. आगे चलकर हमारे कामकाज की लाइन इस तरह ख़त्म हुई कि हमारा अपना कोई कामकाज नहीं था लेकिन जिन लोगों का हम जॉब वर्क करते थे वे कभी भी हमें इकट्ठी पेमेंट नहीं करते थे जो कभी 5000 रुपए भी होती थी. वे उस रकम को तोड़ कर देते थे ताकि कहीं हम बड़ी रक़म मिलने पर बेहतर कामकाज शुरू न कर लें जिससे हमारी माली हालत ऊपर न उठ जाए. आज हालत यह है कि जिस जगह पर बस्तियों में सर्जिकल का काम किया जाता था वहां जो मजदूर काम करते थे उनका काम खत्म हो चुका है. जो 2-4 बड़ी फैक्ट्रियां थीं वो भी खत्म हो चुकी हैं. क्योंकि मालिक कभी भी हमें पूरी पेमेंट इसलिए नहीं करते थे कि कहीं हमारे पास इकट्ठी रक़म ना आ जाएं और हम कहीं अपना काम धंधा शुरू ना कर लें. पहली बात तो यह. दूसरी बात है कि जैसे ही हफ़्ता ख़त्म होने पर लेबर उनसे अपनी महीने की पगार ₹400 रुपए मांगते थे तो वो 300 देते थे. दूसरे जब उन्हें पगार देते थे तो वो कहते थे कि आ जाओ, वहां से जा कर के शराब पकड़ लाओ और वह 10-15 रुपए की शराब वहां से खरीद लेते थे. मालिक लोग भी पीते थे और मजदूरों को भी पिलाते थे. अगले दिन मजदूरों को पता ही नहीं होता था कि उन्होंने कमाया क्या और खाया क्या. कहने का मतलब यह है कि मालिकों ने उन मजदूरों की आँखें कभी खुलने ही नहीं दीं. यह हाल था. सर्जिकल और स्पोर्ट्स के काम में दूसरी बिरादरियों के यहाँ काम करने वाले हमारे 90 फीसदी लोगों को ऐसे-ऐसे नशों की लत लगा दी गई थी कि वे पैसा अपने घर दे ही नहीं सकते थे जिससे उनका परिवार पलता. घर मर्द और औरत दोनों से चलता है. औरत को आप पैसे नहीं देंगे तो घर कैसे चलेगा. अब भगतों के पास स्पोर्ट्स का काम ही नहीं है. सर्जिकल के काम को आप एक परसेंट गिन सकते हैं. बाकी उनकी हालत आप समझ सकते हैं. यह भी एक कारण था कि जालंधर में सर्जिकल की इतनी मार्कीट थी जो पाकिस्तान के स्यालकोट जैसी थी लेकिन अब हमारे उन कारखानों का नामोनिशान ख़त्म हो गया है. अब दो-चार पार्टियाँ हैं जो पाकिस्तान से इम्पोर्ट कर रही हैं. वही माल बेच रही हैं. यों समझ लीजिए के डेढ़ घर भगतों का है मतलब एक कुछ अधिक मँगवाता है और दूसरा कुछ कम. बाकी नॉन-भगत हैं, वो भी 5-7 ही हैं. वो भी कुछ खास नहीं हैं. पहले यहां कोई 90 पार्टियाँ थीं जो सप्लायर थीं. सप्लायर भी दसेक रह गए हैं. लाइन ही ख़त्म हो गई. स्पोर्टस के सामान का भी कुछ ऐसा ही हाल रहा. वहाँ भी भगत ही मज़दूर थे जो महाजनों के यहाँ काम करते थे. उन्होंने भी इनको कभी सीधे होने ही नहीं दिया. हमारी बाँह पकड़ने वाला कोई नहीं था. मुझे उस काम से बाहर हुए 25-26 साल हो चुके हैं. 1986 के आसपास मैंने वो लाइन छोड़ दी थी. क्योंकि उससे रोटी भी नहीं चलती थी. हर हफ्ते 5-6 (हज़ार) का माल दिल्ली में बेचने निकलते थे. उससे पूरी नहीं पड़ती थी. फिर मैंने वो लाइन छोड़ दी. लगभग 15 साल कमीशन एजेंट का काम किसी पार्टी के पास किया. वो पार्टी भगत नहीं थे. लेकिन उनके साथ अच्छे संबंध थे. पड़ोसी थे. प्रेम प्यार था. उन्हीं से उधार लेकर स्कूटर लाइन में चला गया. जहाँ मैंने 27-28 साल काम किया. तब तक मेरी उम्र भी 50 की हो गई थी. फिर सोचा कि कब तक गाड़ियों में धक्के खाएँगे. फिर कुछ प्रेरणा सी हुई और हालात ऐसे बनते चले गए कि अब मैं 1994 से लोकल जालंधर में ही कार्य कर रहा हूँ. लेकिन स्कूटरों के उस काम के तजुर्बे से ही सीख कर मैंने स्कूटर पार्ट्स का काम छोड़ दिया और पेंटिंग के काम की ओर चला गया. आजकल यही काम कर रहा हूँ और दाल-रोटी सोहणी चल रही है. यदि आप पूछें कि वो (पुरानी)लेबर अब क्या करती है? सर्जिकल और स्पोर्ट्स का काम खत्म हुए अब 35 साल के लगभग हो चुके हैं. एक जेनरेशन का गैप पड़ गया है. अब तक उनमें से कई मर चुके हैं. एकाध आदमी मैंने देखा है रेहड़ी लगाता है. जालंधर भार्गो कैंप में जो इन कामों में लगे चार-पाँच बड़े लोग थे उनमें से भी एक आध ही बचा है. बाकी खत्म हो गए. हमारे जो सियासतदाँ थे उन्होंने भी लोगों को रास्ता दिखाने के लिए कोई कोशिशें नहीं कीं. न उन्होंने कोई सेमिनार वगैरा कराए. जागरूकता लाने के लिए कोई भी कदम नहीं उठाया. नौजवानों में जागरूकता तो आज भी नहीं है. एक दौर आया था जब भार्गों कैंप के 10वीं पास हमारे बच्चे बैंकों में भर्ती हुए. काफी एलआईसी जैसी कंपनियों में भर्ती हुए. तब आवाज़ें लगा-लगा कर उन्हें बुलाया गया था. वो एक आँधी आई थी. अब वो अब खत्म हो चुकी है. तब भर्ती हुए लोगों में से अधिकतर रिटायर हो चुके हैं. अब हरेक आदमी तो अपने बच्चों को अमेरिका नहीं भेज सकता. जहाँ तक लोगों को गाइडेंस देने के लिए सेमिनार कराने का सवाल है भार्गों कैंप में एक लड़का आया था, राजकुमार. उसे पता नहीं प्रोफेसर कहते हैं. उसने अपनी आर्गेनाइज़ेशन भगत महासभा के ज़रिए दो-चार सेमिनार कराए और काम करने की कोशिश की थी. लेकिन ऐसे कामों के लिए बहुत पैसा चाहिए होता है. अगली जेनरेशन के लिए अलग तरह के मौके होंगे. उन्हें उत्साहित करने की ज़रूरत है. लेकिन बड़े पैमाने पर उसकी तैयारी करने के लिए दस साल का समय लग सकता है. जो लीडरी करना चाहता हो वो अपनी बिरादरी को आगे नहीं ले जा सकता. जो समाज के लिए कुछ करना चाहता है उसे पहले समाज सेवक होना होगा. ऐसे समाज सेवकों की बड़ी तादाद में ज़रूरत है जो हमारे लिए काम कर सकें. हमारे बच्चे अभी इस हालत में भी नहीं हैं कि वे जानकारियों के उन सोर्सिस तक पहुँच सकें जहाँ से उन्हें सही गाइडेंस मिल सकती है. यदि हम उन्हें 25 फीसदी बता दें तो बाकी 75 फीसदी वे ढूँढ लेेगे. लेकिन अभी तक हमने उन्हें 5 फीसदी भी नहीं बताया. जो परिवार पढ़ लिख गए हैं उन्होंने अपनी आने वाली पीढ़ियों का कुछ उद्धार कर लिया है. घर का अच्छा माहौल भी इसमें बहुत पार्ट प्ले करता है. लेबर क्लास के पास तो बच्चों के लिए टाइम ही नहीं बचता. वे अच्छा पढ़ाई का माहौल भी नहीं दे पाते. एक और बात को ठीक से समझ लेना ज़रूरी है कि हम किसी से कम नहीं हैं. मेरे व्यवसाय के कारण मेरी डीलिंग करोड़ोंपति लोगों से होती है. मध्यप्रदेश में, महाराष्ट्र में. वे सभी हमेशा भगत जी कह कर बुलाते हैं. वे भगत के साथ हमेशा जी लगा कर बोलते हैं. हमें अपने समाज का सम्मान करना सीखना चाहिए. उसकी प्रशंसा करना सीखना चाहिए. हमारे समाज के लोगों ने घर से बाहर निकल कर बहुत काम किया है और बड़े ओहदों पर जा कर बहुत नाम कमाया है. वे इंजीनियर और एमडी हुए हैं.
राजकुमार भगत, विर्क एनक्लेव, जालंधर

06 August 2018

Waiting for Mega Transformation - मेघ-परिवर्तन की प्रतीक्षा में

वैसे तो समाज जैसे-जैसे फैलता है वैसे-वैसे वो कई आधारों पर बँटता भी जाता है जैसे कि नाम, रूप, रंग, एरिया, धर्म-डेरे, राजनीतिक पार्टी वगैरा के आधार पर.

मेघ समाज भी इस फैलाव और बिखराव की प्रक्रिया से गुजरा है. मेघ, भगत और कबीरपंथी तीन नाम दिमाग़ को झल्लाने के लिए काफी हैं. एक समय था जब मेघों की इस बदलाव की प्रक्रिया के सारे स्विच आर्यसमाज के हाथों में थे जिसने इनकी मौजूदा बनावट में अहम रोल निभाया. फिर भी, यह देख कर हैरानी होती है कि मेघों की बहुत बड़ी, कहते हैं कि, लगभग 70% आबादी राधास्वामी मत में दाखिल हो गई. आर्यसमाज से अलग होकर उन्हें क्या मिला इस पर जितनी चाहे माथापच्ची की जा सकती है लेकिन इसे तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक विभिन्न धार्मिक पंथों के जात-पात विरोधी स्टैंड की भाषा को अच्छे से पढ़ नहीं लिया जाता. कुछ भवानात्मक पहलू भी हो सकते हैं उनका अध्ययन किया जाना चाहिए. बहरहाल राधास्वामी मत का 'नो-जातपात' का बैनर बहुत बड़ा था.

आर्यसमाज ने अपने धार्मिक-सामाजिक रूप-रंग के सहारे राजनीति में पैठ बनाई लेकिन सामाजिक आंदोलन के क्षेत्र में वह पिछड़ता रहा. यह बात मेघ समाज के संदर्भ में कही जा रही है. दूसरी ओर कबीरपंथ नामक सामाजिक आंदोलन इस समाज में पहुंचा और काफी तेजी से फैला. राधास्वामी मतावलंबियों की भी इसमें भूमिका रही क्योंकि राधास्वामी मत को संतमत की शाखा माना जाता है. 'मेघ भगत' नामकरण की वजह से मेघों को कबीरपंथ आंदोलन में संतमत की पहचान स्थापित नज़र आई. कबीर की छवि को अपनाने में न उन्हें दिक्कत हुई और न मशक्कत करनी पड़ी. वैसे भी शुरुआत से ही कबीर एक फैलता हुआ फिनॉमिना (असाधारण घटना) है. यही कारण है कि जालंधर के भार्गो कैंप में स्थित कबीर मुख्य मंदिर पर विभिन्न सियासी दलों की नज़र जमी रहती है. 

मेघों की सियासी समझ पहले के मुकाबले बहुत बढ़ी है लेकिन उसे परिपक्व कहा जा सकता है या नहीं मैं नहीं जानता. उन्होंने अपना कोई आज़ाद उम्मीदवार जिताने के लिए कभी कोशिश नहीं की जिससे इनके वोटों की शक्ति का परिचय मिलता जाता. पार्टियों वाली राजनीति के कई आयाम है. पहली बात यह कि उसके लिए बहुत-सा धन और अन्य संसाधन चाहिएँ. मेघों के पास जो है वो नाकाफी है. लेकिन जिन लोगों के पास कुछ संसाधन हैं उन्हें सियासी दल अपनी दावत में शामिल कर लेते हैं विशेषकर तब जब वे सियासी समझ ना रखते हों लेकिन दावत में कंट्रीब्यूट कर सकते हों. उसे पार्टी फंड कहते हैं. पार्टियों ने शिक्षित, राजनीति में प्रशिक्षित और तेज़-तर्रार मेघों पर कभी ध्यान दिया हो ऐसा दिखा नहीं.

हमारे समाज के पढे-लिखे लोग भी राजनीति और समाज सेवा में लगे हैं लेकिन उनके पास संसाधनों की कमी है. बेहतर होता कि समाज के धन्नासेठ उनकी ग्रूमिंग का प्रबंध करते. कभी लगता है कि ऐसा कुछ कार्य शुरू तो हुआ है. मेघों की सियासत की सबसे बड़ी सीमा यह है कि उनके पास संख्या बल नहीं है कम-से-कम राजनीतिक पार्टियाँ ऐसा ही मानती हैं. पंजाब में वे कुछ लाख हैं. इस स्थिति को देखते हुए यह जागृति बहुत पहले आ जानी चाहिए थी कि उनके नेता अन्य समुदायों के साथ कारगर राजनीतिक संबंध बनाते. सामाजिक संबंधों की शुरुआत तो हो ही चुकी है.

इस बात को समझ लेना चाहिए कि जब तक हम दो-चार राजनीतिक विचार बटोरते हैं तब तक पॉलिटिकल पार्टियां बहुत-सी नई जानकारियाँ और आँकड़े इकट्ठा कर चुकी होती हैं. इसलिए इस बात की सख़्त ज़रूरत है कि अपने माज़ी (अतीत) से सीखिए. इतिहास ख़ुद को तब तक दोहराता रहता है जब तक आप सीख लेकर अपना वर्तमान और भविष्य बेहतर ना बना लें. लेकिन समय को देखते हुए सीखने की गति तेज़ होनी चाहिए. 


27 July 2018

Menander (Milind) - मिनांडर (मिलिंद)

श्री रतनलाल गोत्रा जी समय-समय पर संकेत देते रहे हैं कि मेघों का प्राचीन इतिहास मुख्यतः अन्य देशों के इतिहास में कहीं छुपा हुआ हो सकता है. भारत के इतिहास से तो वो लगभग गुम है. गोत्रा जी का भेजा हुआ नया लिंक इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से है. यह रुचिकर है.

लॉर्ड कनिंघम द्वारा दिए गए संकेतों के आधार पर गोत्रा जी ने यह जानने की कोशिश की कि क्या मेघ मेडिटेरेनियन क्षेत्र से संबंधित हैं. यह विषय लंबा है और इस पर पहले भी कुछ न कुछ लिखा जा चुका है. लॉर्ड कनिंघम की लिखतों से यह संकेत भी मिलता है कि मेघ मध्य एशिया से सप्तसिंधु क्षेत्र और चीन के रास्ते उत्तर पूर्वी भारतीय क्षेत्र से कभी दाखिल हुए थे. यह भी रिकॉर्ड मिलता है कि मध्य एशिया में मेघ शब्द का अर्थ ट्राइब या कबीला होता है. इस बात की जांच बहुत जरूरी है कि उत्तर पूर्वी राज्यों से आए मेघों और मेडिटेरेनियन क्षेत्र से आए मेघों का क्या कोई खून का रिश्ता था, क्या इसके बारे में DNA की रिपोर्ट कुछ कहती है?

इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के मिनांडर (मिलिंद) पर दिए संदर्भ को देखने पर मेरी पहली प्रतिक्रिया यह थी कि बौध राजा बृहद्रथ की हत्या करने वाले पुष्यमित्र शुंग को युद्ध में हराने वाले राजा मिलिंद के बारे में हमें इतिहास में क्यों नहीं पढ़ाया गया? मिलिंद यूनानी था और मेडिटेरेनियन क्षेत्र का शासक था. माना जाता है कि उसने बौध धम्म ग्रहण कर लिया था. जब पुष्यमित्र शुंग ने बौधों की हत्याएँ कराना शुरू किया तब मिलिंद ने पुष्यमित्र शुंग पर चढाई कर दी और युद्ध में उसे हरा दिया. कहा जाता है कि उसने स्यालकोट सहित कुछ क्षेत्र उससे छुड़वा लिए थे. सिकंदर के मुकाबले मिलिंद ने अधिक कबीलों पर जीत हासिल की थी. ब्रिटेनिका का उक्त आलेख बताता है कि अपोलोडोटस और मिलिंद का प्रभाव गुजरात तक था. यूनानियों ने अयोध्या और पाटलीपुत्र तक जीत हासिल की थी (यहाँ सिकंदर नहीं पहुँच पाया था). बौध साहित्य में मिलिंद की सैन्यशक्ति, ऊर्जा और बुद्धिमत्ता की बहुत तारीफ़ की गई है. मिलिंद और सर्वास्तीवदन बुद्धिस्ट नागसेना के बीच हुए संवाद को Milind Panho के नाम से सुरक्षित रखा गया है. 

श्री आर.एल. गोत्रा के द्वारा जोड़ी गई कड़ियों को अब फिर से देखें तो यूनान और मेडिटेरेनियन क्षेत्र से हो कर आए सिकंदर और उसके वारिसों ने मध्य एशिया से वाया ईरान आए लोगों का पक्ष नहीं लिया बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के बौधों का पक्ष लिया. सप्तसिंधु का क्षेत्र उस समय बौध सभ्यता और श्रमण संस्कृति के प्रभाव में था. यहाँ मुझे रांझाराम की याद हो आती है. क्या मेघों का यूनानी सेना के साथ कोई संबंध था?

है कोई जंगली घोड़ा, जो अतीत में जा कर इसका पता लगा कर आए और ज़ोर से हिनहिना कर बताए कि हाँ मैं सच्चाई जानता हूँ.

11 July 2018

Straight line of Atheism - नास्तिकता की सरल रेखा

एक पत्रकार जेल के कैदियों का इन्टरव्यू लेने जेल में पहुंचा और एक ‘नास्तिक’ नाम वाले कैदी से पूछा - "तुम्हारा नाम नास्तिक कैसे पड़ा?"
उसने बताया कि मैं पहाड़ी इलाके में एक बार यात्रियों को ले कर जा रहा था कि अचानक ब्रेक लगभग खराब हो गया. अपनी जिन्दगी का पूरा तजुर्बा लगा कर मैंनें बड़ी मुश्किल से खाई के मुंह के पास बस रोक ली.
मैने पीछे मुड़ कर देखा तो सारे यात्री प्रार्थना कर रहे थे, “आज तो ईश्वर ने हमें बचा लिया."
मैं बोला - "अरे भाई मैंने बचाया है". यह सुनकर सब यात्री मुझ पर चिल्लाने लगे, "अबे तू नास्तिक है."
मैने कहा - "ठीक है सालों, अब ईश्वर ही तुम्हें बचाएगा.” और सावधानी से बची खुची ब्रेक छोड़ते हुए मैं बस से कूद गया. बस सीधी खाई में और मैं जेल में. तब से जेलर ने मेरा नाम नास्तिक रख दिया है. (प्रकाश गोविंद की एक पोस्ट पर आधारित)

आप जो सोच रहे हैं कि आस्तिक का अर्थ ईश्वर में विश्वास करना और नास्तिक का अर्थ ईश्वर में विश्वास नहीं करना है तो आप भ्रम में हैं.
हिंदू दर्शन में जो वेदों पर विश्वास करे, वह आस्तिक है और जो वेदों पर विश्वास नहीं करे, वह नास्तिक है.
मीमांसा और साख्य दर्शन ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, मगर वे वेदों में करते हैं. इसीलिए उन्हें आस्तिक दर्शन माना गया है.
वेदों में विश्वास का मतलब क्या? वही वर्ण-व्यवस्था में विश्वास. इसीलिए जो वर्ण-व्यवस्था में विश्वास करे, वह आस्तिक है और जो वर्ण-व्यवस्था में विश्वास नहीं करे, वह नास्तिक है.
इस अर्थ में भी धम्म और धर्म एक-दूसरे के उलट हैं. (डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह)


जो लोग वेदों में और जातिवाद की मां वर्ण-व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते थे वे कभी हिंदुओं से मुसलमान हो गए थे. आज भी उन लोगों को मुसलमान कह दिया जाता है जो वेदों में और जातिवाद की मां वर्ण-व्यवस्था में अविश्वास ज़ाहिर करते हैं. फिर, जो वर्ण व्यवस्था और जातिवाद या उसका समर्थन करने वालों के साथ खड़ा नहीं दिखता उसे भी मुसलमान कह दिया जाता है. (राकेश सांगवान की एक पोस्ट पर मेरी टिप्पणी)

25 June 2018

Sir Chhoturam and Meghs - सर छोटूराम और मेघ


यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार
सर छोटूराम के नेतृत्व में यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार के चलते ही मेघों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में जगह मिली थी. सन् 1931 की जनगणना के बाद सन् 1937 के चुनावों के लिए अनुसूचित जातियों का पहला सूचीकरण करने की कवायद शुरू हुई. एडवोकेट हंसराज भगत ने 1937 में ही स्टेट असेंबली चुनावों में यूनियनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में इलैक्शन लड़ा था हालाँकि वे चुनाव हार गए थे. 1945 में भगत हंसराज को आदधर्मी समुदाय और यूनियनिस्ट पार्टी का समर्थन मिला और वे यूनियनिस्ट पार्टी की ओर से नामांकित हो कर विधान परिषद के सदस्य बने और अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व किया. 
पंजाब के हिंदू, मुसलमानों, दलितों और सिखों के हितों का ध्यान रखने के लिए गठित दस सदस्यीय 'पंजाब स्टेट फ्रैंचाइज़ कमेटी' में एडवोकेट हंसराज और जनाब के. बी. दीन मोहम्मद को सदस्य नियुक्त किया गया. हिंदुओं में सर छोटूराम और पंडित नायक चंद भी इसमें सदस्य थे. समिति के नौ सदस्यों (हिंदू और एक सिख प्रतिनिधि) ने रिपोर्ट दी कि यह कहना मुमकिन नहीं था कि उस समय के अविभाजित पजाब में कोई ऐसे दलित समुदाय थे जिनके धर्म को लेकर उनके सिविल अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो. लेकिन उन्होंने यह भी जोड़ा कि गाँवों में ऐसे वर्ग थे जिनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति निश्चित रूप से बहुत खराब थी. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि हालाँकि मुस्लिमों में कोई दलित नही हैं फिर भी हिंदुओं और सिखों में दलित थे और कि उस समय के अविभाजित पंजाब में उनकी कुल जनसंख्या 1,30,709 थी.
कुल मिला कर उस समिति के बहुमत ने इंकार कर दिया था कि पंजाब में दलितों या अछूतों का कोई अस्तित्व था. लेकिन एडवोकेट हंसराज ने अपना एक अलग असहमति (dissenting) नोट दिया जिसमें कहा गया था कि समिति ने दलित समुदायों की जो सूची दी थी वो सूची इस वजह से अपूर्ण थी क्योंकि मेघों सहित कई समुदाय उस सूची से बाहर रखे गए थे. यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार ने उनके उस असहमति नोट को महत्व दिया गया और पंजाब के दलित समुदायों को अनुसूचित जातियों में शामिल कर लिया गया. डॉ. अंबेडकर से समर्थन प्राप्त हंसराज जी के प्रयासों से मेघों को अनुसूचित जातियों में रखा गया. यदि आर्य हिंदू सफल हो जाते तो आज़ादी के बाद मेघों को नौकरियों में आरक्षण का वो फायदा नहीं मिलता जिसकी वजह से वे कुछ तरक्की कर पाए हैं.
इस बीच फेसबुक पर एक कम्युनिटी Jats (इस लिंक को पूरा पढ़ना लाभकारी होगा. यह लिंक 25 जून 2018 को रिट्रीव किया गया था.) पर एक नोट मिला जिसमें श्री आर.एस. तोमर की पुस्तक “किसानबंधु, चौधरी सर छोटूराम” के हवाले से डॉ. अंबेडकर और सर छोटूराम के समकालीन प्रसिद्ध विद्वान श्री सोहनलाल शास्त्री (विद्यावाचस्पति, बी.ए., रिसर्च आफिसर, राजभाषा (विधायी) आयोग, विधि मंत्रालय भारत सरकार) को उद्धृत करते हुए बताया गया है कि - ज़िला मुल्तान में आर्य नगर नामक गाँव की सारी भूमि सन 1923-1924 मे मेघ उद्धार सभा स्यालकोट ने सरकार से सस्ते दामों में खरीद कर के मेघ जाति के हरिजनों को उसका मुजारा बना कर आबाद किया. कई बरसों का सरकारी लगान और मुरब्बों की किश्तें अदा न करने के कारण सरकार ने उस गाँव की सारी ज़मीन जब्त कर ली थी और फैसला कर दिया था कि इस भूमि की कीमत वसूल की जाये. सरकार ने मेघ उद्धार सभा (जिसके कर्ता-धर्ता हिन्दू साहूकार व वकील थे) के पदाधिकारियों को नोटिस थमा दिये कि वह बकाया रकम अदा करें. किन्तु मेघ उद्धार सभा ने ऐसा नहीं किया. यूनियनिस्ट सरकार के समय में चौधरी साहब ने हरिजन काश्तकारों को ज़मीन बांटने का फैसला कर दिया और मेघ उद्धार सभा का दखल समाप्त करके यह इस सारे गाँव के मुरब्बे मेघ जाति के हरिजनो में बाँट दिये. जो मेघ काश्तकार जिस-जिस मुरब्बे को काश्त करते चले जा रहे थे वही उसके मालिक बना दिये गए और लगान का बकाया आदि उनसे सस्ती किश्तों में वसूल किया. आपने (सर छोटूराम ने) अपने एक प्राइवेट पार्लियामेंट सेक्रेटरी को आदेश दिया कि जिस-जिस मुरब्बे पर मेघ (हरिजन) काश्तकार चला आ रहा है, वह मुरब्बा उस के नाम पर अंकित कर दिया जाये. (यह जानकारी रिकार्ड करने के लिए श्री सोहनलाल शास्त्री और श्री आर.एस. तोमर को धन्यवाद देना तो बनता है).
हालाँकि उस समय की कई घटनाओं का परत-दर-परत रिकार्ड नहीं मिलता फिर भी जो कुछ मिलता है उससे स्पष्ट है कि एडवोकेट हंसराज भगत ने आर्य नगर की ज़मीन को लेकर मेघों की जो लड़ाई शुरू की थी उसमें सर छोटूराम की सरकार ने आगे चल कर सकारात्मक कार्रवाई की और आर्यनगर की ज़मीनें मेघों के नाम कर दी गईं. इसी संदर्भ में डॉ. ध्यान सिंह ने बताया है कि केवल उन्हीं मेघों की ज़मीनें उनके नाम की गई थीं जिन्होंने भूमि की कीमत अदा की थी और इसके लिए उन्हें एक से अधिक अवसर दिए गए थे. दूसरे, ऐसा प्रतीत होता है कि सोहनलाल शास्त्री ने 'मुरब्बे' (ज़मीन का एक क्षेत्र) शब्द का प्रयोग अतिश्योक्ति अलंकार की तरह किया है.

(इस आलेख को यूनियनिस्ट मिशन के सदस्यों के बीच प्रचारित करने के लिए जाट नेता राकेश सांगवान जी का आभार. राकेश सांगवान जी प्रसिद्ध जुझारू जाट नेता कैप्टेन हवा सिंह सांगवान जी के सुपुत्र हैं.)

31 May 2018

Megh Civility - मेघ-सभ्यता

जब पहली बार पता चला कि डॉ. ध्यान सिंह ने जम्मू में स्थित हमारी देरियों पर अपने शोधग्रंथ में लिखा है तो बड़ी खुशी हुई थी. उसे पढ़ कर अच्छा लगा कि कुछ तो लिखा गया है. कुछ होना एक बात होती है और उस होने पर कुछ लिखा होना बिलकुल दूसरी बात. इसे दस्तावेज़ीकरण कहते हैं. मैंने उस पर एक प्रेज़ेंटेशन बनाई थी.

प्रेज़ेंटेशन बनाने से पहले मैंने ताराराम जी से पूछा था कि क्या मेघवालों में भी ऐसी देरियाँ होती हैं तो उन्होंने हाँ में जवाब दिया. उन्होंने बताया था कि उनके यहाँ देहुरियों को देवरे कहा जाता है. बिहार की एक अच्छी कवियित्री और ब्लॉगर अमृता तन्मय ने अपनी ऑब्ज़र्वेशन बताई थी कि ऐसे स्ट्रक्चर पूरे देश में पाए जाते हैं. बिलकुल यह बहुत महत्पूर्ण था. दक्षिण भारत की ओर यात्राओं के दौरान ऐसे स्ट्रक्चर मैंने भी कई जगह देखे हैं. ताराराम जी ने जो एक अलग बात बताई वो यह थी कि ऐसे स्ट्रक्चर वास्तव में भारत में पाई जाने वाली स्तूप परंपरा के ही हैं. पहली बार में स्तूप की जो छवि मन में बनती है उससे ताराराम जी की बात मेल खाती प्रतीत नहीं होती थी. लेकिन जैसे-जैसे जानकारी बढ़ी पता चला कि स्तूप का आकार तो चूल्हे के बराबर भी होता था. कुछ स्तूपों को तो बाद में शिवलिंग में परिवर्तित कर दिया गया और उन पर बने मंदिरों पर ब्राह्मणों का अधिकार था.

राजेंद्र प्रसाद सिंह जी ने बताया है कि (विशेषकर) बिहार और झारखंड क्षेत्र में ऐसे अनेक मनौती स्तूप खुदाई में मिले हैं. एक को तो पुरातत्व विभाग  ने शिवलिंग ही बता दिया है.

डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह से संपर्क में आने के बाद इस उलझन की कई गांठें खुलती चली गईं. वे लिखते हैं, “देउर मूलतः प्राकृत का देहुर है. देहुर का संस्कृत रूप देवगृह है. देउर कोठार का अर्थ है - देवगृहों का भंडार. कोठार का अर्थ भंडार है. देव मूल रूप से बुद्ध का सूचक है जो हमें देवानंपिय में प्राप्त होता है. देउर कोठार वाक़ई स्तूपों का भंडार है. यह बात खुदाई से पहले भी वहाँ की जनता जानती थी. तभी हमारे पूर्वजों ने उसका नाम देउर कोठार दिया है. इतिहासकारों ने माना है कि अनेक स्तूप मौर्यकालीन हैं.”

एक और बात ध्यान देने योग्य है कि ‘देउर’ शब्द में जे ‘ए+उ’ आता है उनकी स्वरसंधि से ‘व’ का निर्माण होता है इस लिए उससे ‘देवरा’ शब्द बना है इसमें संदेह नहीं होना चाहिए.

जहाँ तक देउर, देवरे, देहुरे आदि के बौध सभ्यता से जुड़े होने का सवाल है अपनी ओर से कुछ कह कर किसी को सुर्ख़ाब के पंख लगाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. उसका फैसला इतिहास के प्राकृतिक प्रवाह और इतिहासकारों पर छोड़ देना चाहिए. फिलहाल इतना कहना काफी है कि कई बार किसी जनसमूह का किसी विशेष प्राचीन सभ्यता से जुड़े होने का स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल पाता लेकिन भाषा-विज्ञान संकेत दे देता है कि हमारी भाषा और परंपराएँ किस सभ्यता से प्रभावित हुई हैं. 

22 May 2018

From Tribal Life to Caste System - क़बीलाई जीवन से जाति व्यवस्था तक

दिनांक 04 मार्च 2018 को मेघ जागृति फाउँडेशन, गढ़ा, जालंधर द्वारा आयोजित एक समारोह में अपनी बात रखते हुए डॉ. ध्यान सिंह और प्रो. के.एल. सोत्रा इस बात पर एकमत थे कि मेघ मूल रूप से एक जनजाति थी जिसे शुद्धिकरण के ज़रिए हिंदू दायरे में लाया गया था. जैसा कि बताया जाता है कि मुग़लों ने सप्तसिंधु क्षेत्र के लोगों को हिंदू कहा था और उस अर्थ में मेघ पहले भी ‘हिंदू’ थे. लेकिन शुद्धिकरण के समय तक हिंदू शब्द अपना एक अलग राजनीतिक अर्थ पाने लगा था (यहाँ आरएसएस की विचारधारा इंगित है).

इस बीच यह जानना रुचिकर रहा कि भारत में जनजाति किसे कहते हैं. किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के निम्नलिखित आधार बताए गए हैं-
आदिम लक्षण, विशिष्‍ट संस्‍कृति, भौगोलिक पृथक्‍करण, समाज के एक बड़े भाग से संपर्क में संकोच, पिछडापन. (देखें यह लिंक . एक अन्य लिंक National Commission for STs से)

किसी खास क्षेत्र में उनका निवास होना भी एक शर्त है जिसे भौगोलिक पृथक्करण के तहत रखा गया है. जनजातीय लक्षणों में मेघों की देहुरियाँ और उनके द्वारा मृत पूर्वजों (वड-वडेरों) की पूजा और देरियों पर चौकी देना आदि का अध्ययन करना होगा. मेघ संस्कृति के तहत उनके सामाजिक रस्मो-रिवाज़, उनके अपने लोक-गीत (जो मेरे अनुमान के अनुसार नहीं के बराबर होंगे), उनकी बोलचाल की भाषा जो मूलतः इंडो-तिब्बतन भाषा समूह की है जो डोगरी और स्यालकोटी शैली में बोली जाती है, उसका अध्ययन ज़रूरी है. उसकी शब्द संपदा, उच्चारण और वाक्य विन्यास अपनी विशिष्ट पहचान रखता है. इस बात की भी पड़ताल करनी चाहिए कि मेघों की भाषा में साधारण पंजाबी के मुकाबले पाली-प्राकृत के शब्द कितनी मात्रा में हैं. यह तो निश्चित है कि पंजाबी के मुकाबले मेघों की भाषा में संस्कृत मूल के शब्द कम है. आर्यसमाज के संपर्क में आने के बाद मेघों की भाषा में संस्कृत के कुछ शब्द आए हो सकते हैं. वैसे भाषा के तौर पर पंजाबी काफी दूर तक संस्कृत और पर्शियन दोनों से प्रभावित हुई है लेकिन अनुमान है कि मेघों की जनसंख्या की लोकेशन के अनुसार उनकी पंजाबी का पर्शिनाइज़ेशन अधिक हुआ होगा. (इस पर भाषाविज्ञान की शोध पद्धति के अनुसार शोध ज़रूरी है).

‘भौगोलिक पृथक्करण’ के नज़रिए से मेघ भगत अधिकतर जम्मू के तराई क्षेत्र में ही रहे हैं. 18वीं और 19वीं शताब्दी में कुछ मेघ परिवार रोज़गार की तलाश में स्यालकोट की ओर गए और 1947 में भारत विभाजन के कारण वे ज़्यादातर जम्मू और पंजाब में लौटे. उन्होंने अपनी भौगोलिक सीमाओं को लाँघा तो था लेकिन वैसा कठिन परिस्थितियों की वजह से और रोज़गार की तलाश में किया गया था. कई मानव समूह ऐसी परिस्थितियों में अपने मूल स्थान से पलायन करते देखे गए हैं.

जम्मू में मेघ समाज आर्थिक पराधीनता की स्थिति में था. उनकी विशिष्ट आंतरिक परंपराएँ भी थीं. उनकी शादियाँ अपने समुदाय से बाहर नहीं होतीं थीं. इनके सामाजिक रीति-रिवाज़ों, उत्सवों, त्योहारों, भोज आदि में दूसरे समुदायों के लोग भाग नहीं लेते थे. उनकी आबादी की भौगोलिक स्थिति भी संभवतः इसका कारण रही होगी. सामाजिक अलगाव की वजह समय की ज़मीन में बहुत गहरी होती है. खोदते जाइए बहुत कुछ मिलेगा, वो भी जिसका आज कुछ ख़ास महत्व नहीं है.

मेघों के पिछड़ेपन का इतिहास भारत की अन्य जनजातियों के इतिहास से अलग नहीं है. सदियों से चले आ रहे सिस्टम की वजह से अशिक्षा, नियमित आय न होना और आर्थिक निर्भरता, तंग भौगोलिक घेरा और उस घेरे में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की दूसरों के द्वारा लूट, वन संसाधनों का नाश (मेघों के प्राकृतिक निवास वाले जंगलों के दो बार जलने या जलाए जाने की बात कही जाती है). अकाल और प्लेग जैसी आपदाओं ने भी समय-समय पर मेघों के समग्र जीवन को बुरी तरह बर्बाद किया जो उनके पिछड़ेपन की एक और बड़ी वजह रही.

फिलहाल ऊपर किसी बात के होते हुए भी आज मेघ समुदाय आर्यसमाज की सीमित-सी शुद्धिकरण की प्रक्रिया और आर्यसमाज के सामाजिक आंदोलन से ज़ुड़ कर जनजातीय स्थिति से निकला और मनुवादी जातीय परंपरा में शामिल हुआ है. मेघों के इतिहास का यह एक ख़ास मोड़ रहा. जहाँ तक नज़र देखती है जातीय व्यवस्था में आ कर मेघों को कुछ लाभ हुआ है. आगे चल कर जातियों का सिस्टम किस राह पर ले जाएगा वो देखने वाली बात होगी.         

03 May 2018

The Stupa of Sirsa - सिरसा का थेहड़ (स्तूप)

जब पिताजी की तब्दीली टोहाना से सिरसा हुई तो उस समय टोहाना में बीती अपनी किशोरावस्था की बहुत सारी चमकती और रोशनी में दमकती यादें लेकर मैं सिरसा गया था. पिता जी पीडब्ल्यूडी में सब-डिविज़नल इंजीनियर थे. उनके कार्यालय के साथ ही बना एक साफ़-सुथरा रिहाइशी आवास मिला. सामने बंसल थिएटर और पीछे गिरजाघर. सिरसा के एक अच्छे (आर.एस.डी.) हाई स्कूल में मेरा दाखिला हुआ. वहाँ के स्कूली जीवन में एक सहपाठी केवल कृष्ण नारंग के साथ विशेष मित्रता रही. काफी वर्षों बाद उन्होंने चंडीगढ़ में मुझे ढूंढ लिया था. जहाँ तक सिरसा में रिश्तेदारी का संबंध था तो वहाँ मेरी सबसे बड़ी बहन श्रीमती कांता के जेठ श्री संतराम जी थे जो वहाँ पोस्टमास्टर के पद पर थे. 

एक बार केवल कृष्ण सहित हम तीन मित्र बैठे थे. अचानक कार्यक्रम बना कि सिरसा के दूसरे किनारे पर घूम कर आया जाए. वहां गए तो वहां एक टीला-सा था. केवल कृष्ण ने बतलाया कि वह थेहड़ है. थेहड़ का मतलब मैंने टीला समझा. हम तीनों ने फैसला किया थेहड़ के ऊपर जाएँगे. हालांकि ऊपर जाने का कोई रास्ता नहीं था लेकिन चढ़ाई का एक आसान रास्ता जाँच कर हम जैसे-तैसे टीले पर चढ़ गए. ऊपर थोड़ी-सी सपाट जगह थी. वहाँ से नज़रें घुमा कर ‘फतेह’ किए टीले पर से शहर को देखा और फिर नीचे उतरना शुरू करने वाले थे कि दाएँ हाथ थोड़ा नीचे थेहड़ में एक दरार या कह लीजिए कि एक खोह बनी हुई थी जिसमें पत्थर की मूर्ति जैसा कुछ नजर आया. लेकिन वह ऊपर की सतह से 10-15 फीट नीचे रहा होगा, ऐसा कुछ याद है. मैंने दोनों साथियों से कहा कि वहां कोई मूर्ति नजर आ रही है. लेकिन वो कोई पहुँचने लायक जगह नहीं थी क्योंकि वहाँ ढलान सीधी थी जिसे देखते ही गिरने का डर लगता था.

ख़ैर! हम लोगों ने टीले से उतरना शुरू किया. ढलान पर हमारी चाल तेज़ होने को हो रही थी और सँभलना पड़ रहा था. केवल कृष्ण का हाथ मैंने थामा हुआ था. जब अधिकतर ढलान हम उतर चुके थे तो केवल ने तेज़ चलने का रिस्क ले लिया. वे नियंत्रण खो बैठे और आखिर वे गिर कर घिसटते हुए सपाट जमीन तक गए. उनके चेहरे पर भी कुछ खरोंचे आई थीं. वहां से संतराम जी का निवास नज़दीक था. वहाँ गए जहाँ संतराम जी ने एक पड़ोसी डॉक्टर से उनकी मरहम-पट्टी कराई. थेहड़ पर चढ़ने के एडवेंचर की यादें आज भी काफी गहरी हैं.

पिछले दो-तीन साल के दौरान 'थेहड़' शब्द का असली अर्थ पता चला. मेघों के इतिहास के जानकारों को पढ़ते हुए पता चला कि थेहड़ का संबंध बौध सभ्यता और बुद्धिज़्म  से है. इसका साधारण अर्थ स्तूप है. इसीलिए यह मन में कभी-कभी उभरता रहा. कल 02-05-2018 को प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी और इतिहास के जानकार डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह ने फेसबुक पर सुजाता (जिसने बुद्ध को खीर खिलाई थी) के स्तूप पर पोस्ट डाली तो मेरी स्मृतियाँ झनझना उठीं. थेहड़ की यादें काफी तेज़ी से मन पर उभर आईं. उस पोस्ट पर काफी जानकारी देने के बाद डॉ. सिंह ने लिखा था कि- “इतिहास में विहारों के जलाए जाने पर विमर्श होते रहे हैं, मगर स्तूपों को मिट्टी से ढँकवाए जाने का विमर्श शेष है.”

उनकी फेसबुक पोस्ट पर मैं सिरसा के थेहड़ का ज़िक्र करने के लिए जैसे मजबूर-सा हो गया. मैंने लिखा, “सन 1966 में मैं सिरसा में था. विद्यार्थी था. तब शहर के बाहर एक बड़ा-सा टीला था जिसे स्थानीय भाषा में 'थेहड़' कहा जाता है. पता नहीं आज वह किस हालत में है. उसमें एक जगह दरार में मैंने सफेद पत्थर की एक मूर्ति सी देखी थी. अधिक जानकारी नहीं है. वहां कुछ खुदाई हुई या नहीं मैं नहीं जानता.” वहीं श्री जसवीर सिंह नाम के एक युवा ने मुझ से उस स्थान का ब्यौरा माँगा. जो याद आया वो सब बता दिया. यह भी बता दिया कि बहुत अधिक जानकारी नहीं है फिर भी एक पुराने मित्र से पूछ कर कुछ बता सकता हूँ. फिर मैंने केवल कृष्ण नारंग से फोन पर बात की और जो जानकारी उनसे मिली वो इन शब्दों में वहीं पोस्ट कर दी, “धन्यवाद जसवीर सिंह जी. अभी-अभी मेरे बचपन के दोस्त केवल कृष्णा नारंग से मेरी बातचीत हुई है और उन्होंने बताया है कि उस मोहल्ले का नाम थेहड़ मोहल्ला ही है. वह क्षेत्र कुछ साल पहले ASI की नजर में आ गया था और डेढ़ महीना पहले वहां पर खुदाई का काम हुआ है. थेहड़ के पास 400-500 घरों की एक बस्ती बस गई थी जिसे वहां से हटाकर कहीं शिफ्ट किया गया है. और जैसा कि अक्सर होता है 15 साल पहले वहां किसी आदमी ने एक मूर्ति के पाए जाने की बात उड़ा दी थी जिसे (उस मूर्ति को) सारे शहर में घुमाया गया था. शायद मंदिर भी बना लिया गया हो.” थेहड़ वाली ज़मीन पर रह रहे लोगों ने आर्कियालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा खुदाई के खिलाफ कोर्ट केस किया हुआ है जिससे संबंधित एक लिंक नीचे दिया गया है. जसवीर सिंह जी ने गूगल मैप पर जा कर पुष्टि की कि अब वहाँ पीर बाबा थेहड़ मोहल्ला है और ये स्थान घग्गर नदी (जिसे कुछ विद्वान सरस्वती भी मानते है) से मात्र 10 किमी की दूरी पर ही है.
अमर उजाला में छपा चित्र 
केवल कृष्ण जी से पता चला कि बंसल थिएटर और हमारे निवास के बीच जो सड़क थी वहाँ फ्लाईओवर बन चुका है जबकि बंसल थिएटर की जगह अब एक मॉल बन गया है. जहाँ हम रहते थे वो बिल्डिंग लगभग वैसी ही है. उसके लॉन को बढ़िया बना दिया गया है. गिरजाघर वहीं है और वैसा ही है. उम्मीद है वहाँ के राडार जैसे मोर अभी वहीं होंगे.

थेहड़ भी तो वहीं है. उसका अतीत अब पहचान पा रहा होगा. बौध सभ्यता के कदमों के निशान ढूँढे जा रहे होंगे. श्रमण संस्कृति झाँक रही होगी.



लिंक-